गोपाल कृष्ण गोखले
विषय-सूची
✍️ गोपाल कृष्ण गोखले का जीवन परिचय
गोपाल कृष्ण गोखले भारत के स्वाधीनता संग्राम में जिन विभूतियों का प्रमुख सहयोग रहा है, उनमें श्री गोपाल कृष्ण गोखले का नाम अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है। आने वाली पीढ़ियों को उनके विषय में जानकारी देना वांछनीय समझ कर ही, यहाँ उनके विषय में कुछ लिखा जा रहा है। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की 1857 की महान् क्रान्ति के नौ वर्ष बाद गोपाल कृष्ण का जन्म हुआ था। वह युग एक ऐसा युग था, जिसने उनका निर्माण किया एवं जिसका अपने जीवनकाल स्वयं उन्होंने भी किसी हद तक निर्माण किया।
गोखले का जन्म 9 मई, 1866 को भूतपूर्व बम्बई प्रेसीडेंसी के रत्नागिरि जिले के कोतलुक नामक गाँव के मध्यमवर्गीय तिपावन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। गोखले का परिवार मुख्य रूप से उसी जिले के बेलणैश्वर नामक ग्राम में रहता था। उनके पिता का नाम कृष्ण राव गोखले था। कृष्णराव धार्मिक प्रवृत्ति के निष्ठावान व्यक्ति थे। उनके छ : बच्चे थे, जिनमें दो लड़के थे। बड़ा पुत्र था गोविन्द व छोटा पुत्र था गोपाल।
✍️ गोपाल कृष्ण गोखले की शिक्षा
गोपाल आरम्भ से ही प्रतिभासम्पन्न एवं परिश्रमी थे। उनमें दयालुता, सत्यवादिता और धार्मिक भावना का विशेष पुट था। उन्होंने आरम्भिक पढ़ाई घर पर एवं बाद में स्कूल में की। 1874-75 में गोपाल अपने भाई गोविन्द के साथ कोल्हापुर विद्याध्ययन हेतु गए। सन् 1880 में बाल्यावस्था में ही उनका विवाह हो गया। उस समय बाल – विवाह की प्रथा थी। वक्त के अनुसार गोखले इस कुप्रथा के शिकार हो गए। सन् 1881 में 15 वर्ष की आयु में गोपाल ने मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली। आगे की पढ़ाई हेतु उन्होंने शीघ्र ही एंट्रेंस की परीक्षा भी पास कर ली।
जनवरी 1882 में गोपाल कॉलेज की पढ़ाई हेतु कोल्हापुर के राजाराम कॉलेज में दाखिल हुए। बी.ए. के प्रथम वर्ष का अध्ययन उन्होंने कोल्हापुर में रह कर ही किया। अन्तिम वर्ष की परीक्षा हेतु उन्हें बम्बई के एलफिंस्टन कॉलेज में जाना पड़ा। वहां से सन् 1884 में उन्होंने बी.ए. द्वितीय श्रेणी में पास किया। फिर उन्होंने पुणे के दक्कन कॉलेज में कानून की पढ़ाई हेतु प्रवेश लिया, किन्तु आर्थिक कठिनाई के कारण उन्हें बीच में ही पढ़ाई छोड़ कर पूना के ‘ न्यू इंगलिश स्कूल ‘ में अध्यापक का कार्य करना पड़ा।
✍️ गोपाल कृष्ण गोखले की प्रारंभिक शुरुआत
सन् 1885 में गोखले ने कोल्हापुर की सभा में भाषण दिया। इस सभा की अध्यक्षता कोल्हापुर के रेजीडेंट विलियम ली वार्नर ने की थी। भाषण का विषय था— “ अंग्रेजी शासन के अधीन भारत ”। समस्त जनता एवं वार्नर ने गोपाल के भाषण की खूब प्रशंसा की। 1886-87 में गोखले फर्ग्यूसन कॉलेज पूना में इतिहास एवं अर्थशास्त्र के प्रवक्ता हो गए। बाद में प्रगति करते – करते इसी कॉलेज में प्राचार्य ( प्रिंसिपल ) हुए।
1886 में गोखले दक्कन एजूकेशन सोसायटी के आजीवन सदस्य बने। वे बम्बई विश्वविद्यालय सीनेट के कई वर्ष तक सदस्य रहे और उन्होंने उक्त सीनेट के कार्यों में खूब रुचि ली। गोखले ने ” जनरल वार इन यूरोप ” शीर्षक से एक लेखमाला लिखी, जिसकी खूब प्रशंसा हुई।
सन् 1888 में गोखले की महादेव गोविन्द रानाडे से पहली बार मुलाकात हुई। महादेव गोविन्द रानाडे काँग्रेस के संस्थापकों में से एक थे। उन्हीं की प्रेरणा से गोपाल लोकमान्य तिलक के साथ 1889 में काँग्रेस में सम्मिलित हुए। लोकमान्य तिलक गरम दल से सम्बन्धित थे। तिलक की भाँति गोखले कभी गरम दलीय नहीं हो सके। वे अपने विचारों में तेजस्वी थे और तेजस्विता तथा निर्भीकता से ही वे उन्हें व्यक्त भी करते थे। इसीलिए नमक पर बोलते उन्होंने अपने तथ्यों एवं आंकड़ों द्वारा सरकारी नीति की भर्त्सना की।
✍️ गोपाल कृष्ण गोखले का राजनीतिक जीवन
गोखले ने अपने राजनैतिक जीवन का आरम्भ रानाडे की ” सार्वजनिक सभा ” से किया था। संयत, शिष्ट और मधुर व्यक्तित्व एवं भाषा गोखले को श्री रानाडे से मिली थी। उन्होंने भारत सेवक समाज की योजना में कार्य प्रणाली में सादगी, निर्धनता, आज्ञाकारिता आदि व्रतों को विशेष स्थान दिया। देशवासियों के हृदय में देशप्रेम व दीन – दुखियों की सेवा करने का भाव जागृत करना ही उनका प्रमुख ध्येय रहा था।
1890 में गोखले बम्बई प्रान्त की धारा सभा के सदस्य चुने गए। अपने भाषण में उन्होंने किसानों के हित के लिए सहयोगी ऋण संस्थाएँ बोलने का प्रस्ताव रखा जो स्वीकार कर लिया गया। इन संस्थाओं ने खुलने पर बहुत अच्छा कार्य किया। संस्थाओं से कृषकों को पर्याप्त लाभ मिला।
गोखले की प्रथम महत्त्वपूर्ण सफलता वेल्बी आयोग से सम्बन्धित है। भारतीय अर्थनीति की जाँच के लिए 1896 में ” वेल्बी कमीशन ” बैठाया गया था जिसमें अनेक प्रमुख व्यक्ति गवाही के लिए बुलाए गए। चूँकि, रानाडे और गणेश वासुदेव जोशी नहीं जा सकते थे, अतः गोखले को आयोग के समक्ष दिए जाने वाले साक्ष्य का नेतृत्व करने और अपने आपको एक अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ तथा देशभक्त सिद्ध करने का अवसर देकर आयोग ने भारत के इतिहास में अपने लिए एक निश्चित स्थान बना लिया। आयोग के समक्ष साक्षी देने के लिए गोपाल कृष्ण गोखले, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, दीन शा एदलजी वाचा, जी . सुब्रह्मण्यम अय्यर आदि भारतीयों को इंग्लैण्ड बुलाया गया। उन्होंने वहाँ अपनी योग्यता और सूझ – बूझ का अच्छा परिचय दिया, जिसका फल यह हुआ कि वे राजनैतिक और आर्थिक क्षेत्र में अखिल भारतीय स्तर के व्यक्ति बन गए।
राजकीय एवं सार्वजनिक कार्यों के सिलसिले में गोखले को सात बार इंग्लैण्ड की यात्रा करनी पड़ी। अपनी प्रथम इंग्लैण्ड यात्रा के समय वे लगभग 5 माह तक ( मार्च से जुलाई 1897 के अन्त तक ) भारत से बाहर रहे। दीन शा एदलजी वाचा ने, जो वेल्बी आयोग के सम्बन्ध में गोपाल कृष्ण के साथ रहे थे, इंग्लैण्ड में उनके अनुभवों का बड़ा सजीव चित्र प्रस्तुत किया था।
गोपाल कृष्ण ने 1899 में बम्बई विधान परिषद् के चुनावों में भाग लिया। वे सदस्य चुन लिये गए। इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने तीन महत्त्वपूर्ण समस्याओं में विशेष रुचि दिखाई— अकाल संहिता, भूमि अंतरण विधेयक और नगर पालिकाओं की कार्य व्यवस्था। सन् 1902 में 30 / – की पेंशन लेकर गोखले ने फर्ग्यूसन कॉलेज से अवकाश ग्रहण कर लिया। वे उसी वर्ष इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल ( सर्वोच्च विधान परिषद् ) के सदस्य चुने गए। इसके बाद एक – एक करके तीन अवसरों पर वे इसी प्रकार सर्वसम्मत्ति से परिषद् के सदस्य चुने गए। सदस्यों को उस समय केवल बहस करने का ही अधिकार था। इन सीमाओं के बावजूद गोखले अत्यन्त निर्भीकता से सारी वैधानिक मर्यादाओं का पालन करते हुए “अपनी तथा अपने देश की बात खुलकर शासकों के सामने रखते थे। वे अपने सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन एवं विचारों में पूर्णत: आदर्शवादी तथा मर्यादावादी होते हुए भी स्पष्ट थे। जिन राजनैतिक प्रसंगों पर गोखले ने विचार प्रस्तुत किए थे, वे थे — सरकारी गोपनीय बातें अधिनियम, राजद्रोहात्मक सभाएँ अधिनियम और प्रेस विधेयक।
सन् 1903 में श्री ए.टी. अरुन्देल ने 1889 के सरकारी गोपनीय बातें अधिनियम में एक संशोधन पेश किया था किन्तु गोखले ने उसका खण्डन किया। वह उन्हें उचित प्रतीत नहीं हुआ। 1889 का अधिनियम भारत में पास नहीं हुआ था। वह इंग्लैण्ड में पास हुआ था और भारत पर लागू कर दिया गया था।
सन् 1904 में गोखले सी.आई.ई. ( कमाण्डर ऑफ दी आर्डर ऑफ इण्डियन एम्पायर ) की उपाधि से विभूषित किये गये। सन् 1905 में जब बनारस में राष्ट्रीय काँग्रेस का अधिवेशन हुआ तब गोखले को सभापति चुना गया। हालाँकि काँग्रेस के उग्रवादी दल ने इसका विरोध किया था, किन्तु गोखले विरोध के बावजूद अधिवेशन के सभापति चुन ही लिए गए।
अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने राजनीति शास्त्री के रूप में बहिष्कार का समर्थन यह कह कर किया था कि यदि सहयोग के सारे मार्ग अवरुद्ध हो जाएँ और देश की लोक – चेतना इसके अनुकूल हो तो बहिष्कार का प्रयोग सर्वथा उचित है।
✍️ सर्वेन्ट्स ऑफ इण्डिया सोसाइटी की स्थापना
वर्ष 1905 में 12 जून को पूना में सर्वेन्ट्स ऑफ इण्डिया सोसाइटी ( भारत सेवक समाज ) की स्थापना हुई। सोसाइटी की स्थापना में गोखले का स्थान उच्चत्तम रहा। यह गोखले की भारत को विशिष्ट देन है। इस संस्था की स्थापना उनके इस विश्वास के परिणामस्वरूप हुई कि देश को ऐस निःस्वार्थ तथा योग्य कार्यकर्त्ता वर्ग की आवश्यकता है, जो देश – सेवा के लिए अपना जीवन समर्पित कर सके। इस प्रकार गोखले ने इसकी स्थापना जनता की सेवा के लिए की थी। इसमें सदस्य नाम मात्र के वेतन पर आजीवन देश सेवा का व्रत लेते थे।
सर्वेन्ट्स ऑफ इण्डिया सोसाइटी की स्थापना का जन – साधारण ने सामान्यतः और प्रसिद्ध व्यक्तियों ने विशेष रूप से बड़ा स्वागत किया। इसी वर्ष गोखले वेल्बी कमीशन के सदस्य के रूप में और फिर 1906 में में स्वेच्छा से इंग्लैण्ड गए, ताकि ब्रिटिश जनमत व सांसदों को भारत की सुधार आवश्यकता समझा सकें। कुल मिलाकर वे सात बार इसी सिलसिले में इंग्लैण्ड गए।
नवम्बर सन् 1907 में सरकार ने युवा समिति की वह रिपोर्ट पेश की जिसमें ऐसी सभाओं पर रोक लगाने की व्यवस्था की गई थी, जिनसे राजद्रोह की भावना फैलने या लोगों की सुख – शान्ति में बाधा उत्पन्न होने की सम्भावना हो। गोखले ने उस विधेयक का विरोध किया। उन्होंने कहा कि उक्त रोग का इलाज मेल – मिलाप है, दमन नहीं। किन्तु सरकार ने यह स्वीकार नहीं किया।
✍️ गोपाल कृष्ण गोखले की क्रांतिकारी गतिविधियां
1908 में गोपालकृष्ण को चौथी बार बम्बई प्रेसीडेंसी ऐसोसिएशन की ओर से सुधार लागू किए जाने से पूर्व लॉर्ड मार्ले ( ब्रिटिश सरकार में भारतीय मामलों के मन्त्री ) से बातचीत करने इंग्लैण्ड जाना पड़ा। गोखले ने अपनी ओर से मार्ले को समझाने का पूरा प्रयास किया। प्रसिद्ध मार्ले – मिन्टो सुधार में अकेले गोखले का बहुत बड़ा हाथ था। उस समय की राजनीतिक चेतना को देखते हुए गोखले की ‘ स्वराज्य ‘ की कल्पना ‘ डोमीनियन ‘ स्थित की थी।
अंग्रेजों के प्रति इतनी सहानुभूति रखने वाले गोखले को भी लॉर्ड कर्जन की प्रतिभाशाली नीतियों ने क्षुब्ध कर दिया था। 1910 के क्रिसमस में गोखले काँग्रेस के उस अधिवेशन में भाग लेने के लिए इलाहाबाद गए, जिसकी अध्यक्षता विलियम वेडर बर्न ने की थी।
दक्षिण अफ्रीका के ऐतिहासिक संघर्ष में सन् 1911 एक महत्त्वपूर्ण वर्ष था। गाँधीजी गोखले को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे। वे गोखले से प्रार्थना कर रहे थे, कि वे दक्षिण अफ्रीका जाकर भारतीयों की विपत्तियाँ – यातनाएँ अपनी आँखों से देखें। उस समय गोखले इंग्लैण्ड में थे। उन्होंने गाँधीजी का निमन्त्रण स्वीकार कर लिया। वे सन् 1912 में दक्षिण अफ्रीका गए। वहाँ तीन सप्ताह तक रह कर उन्होंने भारतीयों की समस्याओं के समाधान का प्रयास किया। वे जहाँ भी जाते, गाँधीजी उनके साथ रहते। दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के साथ रंगभेद के कारण जो दुर्व्यवहार किया जाता था, उसे दूर कराने हेतु सत्याग्रह संग्राम में भी उन्होंने विशेष योगदान दिया।
✍️ गोपाल कृष्ण गोखले का अंतिम समय
1914 में गोखले बीमार हो गए। उनका मर्ज धीरे – धीरे बढ़ कर गम्भीर रूप लेता गया। उस समय वे लन्दन में थे। वे इंग्लैण्ड से प्रस्थान करके 20 नवम्बर, 1914 को भारत लौट आए। उनकी यह इंग्लैण्ड यात्रा सातवीं व अन्तिम थी। उनका स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ चुका था। शुक्रवार, 19 फरवरी, 1915 को उनका स्वर्गवास हो गया।
गोखले के देहान्त के बाद लोकमान्य तिलक ने ‘ केसरी ‘ अखबार में 23 फरवरी, 1915 को प्रकाशित एक लेख में कहा था- ” गोखले में अनेक गुण थे। उनमें से प्रधान गुण यह था कि बहुत ही छोटी उम्र में उन्होंने नि:स्वार्थ निष्ठापूर्वक अपने – आपको देश – सेवा के लिए पूर्णतः समर्पित कर दिया। प्रत्येक व्यक्ति की परख उन लक्ष्यों के आधार पर ही होती है, जिनसे वह प्रेरित व स्पन्दित होता है। “
गोखले स्वभाव से ही मृदु थे, अतः उनकी प्रवृत्ति यही थी कि, नरम तरीकों से ही काम निकाल लिया जाय। मुस्लिम नेता मोहम्मद अली जिन्ना के शब्दों में— “ गोखले सरकार के कामों और देश के प्रशासन के निर्भीक आलोचक और विरोधी थे। परन्तु अपने सभी कथनों और कार्यों में वे तर्क और सच्चे संयताचार का पल्ला बराबर पकड़े रहे। इस प्रकार वे सरकार के सहायक रहे और जनता के लक्ष्य – साधन के लिए शक्ति के स्रोत भी बन सके। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से मिलने वाली अनेक महानतम शिक्षाओं में से एक यह है कि उनका जीवन इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि अकेला व्यक्ति कितना अधिक काम करके दिखा सकता है, अपने देश तथा देशवासियों के भाग्य निर्माण में कितना अधिक और सारभूत योगदान कर सकता है और जिसके जीवन से लाखों लोगों को सच्ची प्रेरणा और नेतृत्व की उपलब्धि हो सकती है। “
मोतीलाल नेहरू ने कहा था – “ गोखले को देशभक्ति से आप्लावित एक ऐसी भव्य आत्मा प्राप्त थी, जिसने और सभी भावों को पराभूत कर लिया था। जन्मजात नेता होकर भी उन्होंने अपनी मातृभूमि के विनम्रतम सेवक से अधिक बनने की आकांक्षा कभी नहीं की और उस स्वदेश सेवा में उन्होंने जिस निष्ठा से काम किया, वह अब इतिहास की वस्तु बन चुकी है। उन्होंने अपना जीवन उसी आदर्श के प्रति समर्पित किया, जो उन्होंने अपने तथा अपने देशवासियों के सामने रखा।”
निर्विवाद है कि गोपाल कृष्ण गोखले आधुनिक भारत के महान् निर्माताओं में से एक थे। वे अपने सिद्धान्तों पर जीवनपर्यन्त अटल रहे। उनका अपना कथन ही उनके जीवन दर्शन का सार है सार्वजनिक जीवन का आध्यात्मीकरण अनिवार्य है। हृदय स्वदेशानुराग से इतना ओतप्रोत हो जाना चाहिए कि उसकी तुलना में सभी कुछ तुच्छ जान पड़ने लगे।
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