लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक | Bal Gangadhar Tilak

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक

          लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने कहा था— “ स्वतन्त्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर ही रहूँगा। ” तिलक का यह कथन ‘ स्वतन्त्रता मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है ‘ सत्य था किन्तु ‘ मैं इसे लेकर ही रहूँगा ‘ उनके जीवन काल में सत्य नहीं हो सका। भारत को स्वतन्त्रता अवश्य मिली, किन्तु तिलक का जीवन समाप्त होने के करीब 27 वर्ष बाद। तिलक परतन्त्रता में जन्मे और परतन्त्रता में ही स्वर्ग सिधार गये। वे अपने अंत समय तक भारत को विदेशी शासन की दासता से मुक्त कराने हेतु संघर्षशील रहे। फिर अपना यह कार्य अधूरा ही छोड़ कर चले गये।

तिलक का सारा जीवन संघर्ष तथा आन्दोलन में ही बीता। वे भारतीय स्वातन्त्र्याकाश के एक तेजस्वी नक्षत्र थे। वे भारत में राजनीतिक असंतोष के जन्मदाता, देश के पुण्य पुरुष, महान् राजनीतिज्ञ, गर्मनेता, तत्त्वज्ञानी, पत्रकार, लेखक, वेद – पुराण आदि प्राचीन वाङ्मय के अध्येता तथा गणित, ज्योतिष के विद्वान थे। इस प्रकार वे उच्च शिक्षा शास्त्री थे। उनकी दृढ़ता का महामंत्र देश – विदेश में विद्युत की तीव्र गति की भाँति गूँजा और दलितों एवं पीड़ितों के लिए अमर संदेश बन गया।

भारतीय स्वतन्त्रता के इतिहास में उनका अद्वितीय स्थान है। देश की राजनीति को उग्र रूप देने, उसे जनसाधारण तक पहुँचाने और इसके लिए जीवन अर्पण करने वाले कार्यकर्त्ता तैयार करने उनका महत्त्वपूर्ण हाथ रहा है। भारतीय जनता उनके त्यागमय जीवन, निर्भीकता, परोपकार की भावना, अपने निजी स्वार्थ से अधिक देशप्रेम आदि के कारण ही, उन्हें लोकमान्य का दर्जा देती थी।

तिलक ने भारत को विदेशी शासन की बेड़ियों में जकड़े रखने वाले शासकों के कूटनीति चक्र की असलियत को पहचान कर भारतवासियों को पूर्ण रूप से सचेत कर दिया था। बाद में भारतवासी उनके उन मंत्रों को अपनाकर ही अंत में राजनीतिक स्वतन्त्रता का अपना सपना पूरा कर पाए। तिलक कहा करते थे “ जब तक स्वराज्य प्राप्त नहीं होगा, भारत समृद्ध नहीं हो सकता। हमारे अस्तित्व के लिए पूर्ण स्वराज्य अनिवार्य है। “

✍️ लोकमान्य तिलक का जीवन परिचय

       तिलक का जन्म सन् 1857 के अंग्रेजी राज्य के विरुद्ध विद्रोह से करीब एक वर्ष पूर्व भारत के पश्चिमी समुद्र तट पर छत्रपति शिवाजी की पुण्यभूमि, महाराष्ट्र के कोंकण प्रदेश के रत्नगिरी नामक स्थान पर आषाढ़ कृष्णा 6 सोमवार शाके 1778 तदनुसार 23 जुलाई, सन् 1856 को सनातनी परिवार में हुआ था। उनका मूल नाम केशव था किन्तु घर पर सभी उन्हें बाल यानि बच्चा कहकर पुकारा करते थे। यही नाम प्रचलित हुआ और वे बाल गंगाधर तिलक कहलाए।

जिस साधारण से घर में तिलक का जन्म हुआ, वह आज एक राष्ट्रीय स्मारक के रूप में सुरक्षित है। तिलक के पिता का नाम गंगाधर राव था। गंगाधर अपने कस्बे में अध्यापक थे, बाद में आगे चल कर वे थाना और पूना जिले के सरकारी स्कूलों के सहायक इंस्पेक्टर बन गए थे। वे संस्कृत के विशेष ज्ञाता थे।

✍️ लोकमान्य तिलक की शिक्षा एवं प्रारंभिक जीवन

      तिलक की आरम्भिक पढ़ाई गंगाधर राव के सहयोग से संस्कृत, गणित और व्याकरण जैसे विषयों में घर पर ही हुई। इसके बाद की सारी पढ़ाई पूना में हुई। जब तिलक की आयु मात्र 15 वर्ष थी, तब उस समय की बाल विवाह प्रथा के अनुसार पास के एक गाँव के परिवार की कन्या तापी के साथ उनका विवाह हो गया। इसके कुछ ही माह बाद 1872 में उनके पिता का स्वर्गवास हो गया।

जब तिलक दस वर्ष के थे, तब उनकी माता का निधन हो गया था। 16 वर्ष की अल्प आयु में तिलक मातृ एवं पितृ विहीन हो गए। तब उनके लालन – पालन का भार उनके चाचा गोविन्दराव ने सम्भाला।

1872 में यानी पिताजी के स्वर्गवास के कुछ ही दिन बाद तिलक ने मैट्रिक की परीक्षा दी और वे पास हो गए। फिर उन्होंने पूना के डंकन कॉलेज में दाखिला लेकर 1877 में बी.ए. प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया किन्तु वे एम.ए. की परीक्षा में दो बार प्रयास करने पर भी सफल नहीं हो सके। उन्होंने वकालत पढ़ना आरम्भ किया। सन् 1879 ई . में वे एल.एल. बी . में प्रथम श्रेणी में पास हो गए।

✍️ लोकमान्य तिलक का प्रारंभिक राजनीतिक जीवन

       तिलक नौकरी करने के विरुद्ध थे। उन्होंने सार्वजनिक कार्य करने का संकल्प कर लिया। उन्होंने अपने जीवन को नि : स्वार्थ देश की सेवा में लगा देने का दृढ़ निश्चय किया। गोपाल गणेश आगरकर तिलक के सहपाठी थे। वे भी तिलक की भाँति नौकरी के विरुद्ध थे, एवं समाज सेवा का कार्य ही करना चाहते थे। तिलक की उनसे विशेष मित्रता थी। उन्हीं दिनों उन्हें ज्ञात हुआ कि विष्णु शास्त्री चपलूणकर सरकारी नौकरी से इस्तीफा देकर एक स्कूल खोलने की योजना बना रहे। स्कूल खोलने का उनका उद्देश्य नई पीढ़ी में सामाजिक जागृति उत्पन्न करना था। तिलक और आगरकर ने उनसे भेंट की।

तीनों ने मिल कर निश्चय किया कि ‘ न्यू इंगलिश स्कूल नामक संस्था की स्थापना की जाय। उनका निश्चय 1 जनवरी, 1880 को पूर्ण हुआ, जब ‘ न्यू इंगलिश स्कूल ‘ का उद्घाटन हो गया। स्कूल ने तरक्की की। उसे महादेव बल्लाल, नामजोशी, वामन शिवराम आप्टे जैसे उच्चतर शिक्षा प्राप्त शिक्षाशास्त्रियों का भी सहयोग मिला एवं आगे भी अनेक तेजस्वी तथा योग्य महानुभावों का साथ मिलता रहा। स्कूल कुछ ही दिनों में काफी लोकप्रिय हो गया और दिन दूरी रात चौगुनी तरक्की करता चला गया।

✍️ लोकमान्य तिलक के प्रकाशन

       तिलक व उनके साथी सार्वजनिक सेवा के लिए नए क्षेत्र की तलाश करने लगे। उन्होंने महसूस किया कि देश को पुनर्जीवित करने का समाचार पत्रों से अधिक उत्तम साधन और कोई नहीं हो सकता। इस निश्चय के साथ सन् 1881 में एक साथ दो पत्रिकाएँ ‘ मराठा ‘ अंग्रेजी में एवं ‘ केसरी ‘ मराठी में निकाली। आगरकर ने ‘ केसरी ‘ को एवं ‘ मराठा ‘ को तिलक ने सम्भाला। तिलक उसके सम्पादक बन गए। वे ‘ केसरी ‘ में केवल कानून और धार्मिक विषयों पर लेख लिखते थे। उस समय कोल्हापुर के नाबालिग महाराज राव बहादुर माधवराव को गोद लेने वाली माता उन्हें विक्षिप्त घोषित कर राजगद्दी से वंचित करने का षड्यन्त्र रच रही थी और इसमें कोल्हापुर के दीवान एम . बी . बर्वे ने रानी और महाराज के अंग्रेज अभिभावकों की काफी सहायता की थी। इस षड्यन्त्र का भंडाफोड़ करने के लिए तिलक ने काफी आलोचनात्मक सामग्री व पत्र – व्यवहार ‘ केसरी ‘ और ‘ मराठा ‘ में प्रकाशित किया था। बर्वे पर आरोप सिद्ध नहीं हो सके। अतः उन्होंने तिलक पर मानहानि का मुकद्दमा दायर कर दिया। मित्रों के दबाव से तिलक ने माफी माँगी। फिर भी उन्हें और आगरकर को 17 जुलाई, 1882 को चार माह की सादा जेल की सजा हुई।

जब तिलक और आगरकर 12-10-1882 को जेल से छूटे, तब सैकड़ों व्यक्तियों ने उनका स्वागत किया। इस सजा से उन्हें प्रसिद्धि मिली एवं जनता की सहानुभूति भी प्राप्त हुई। विष्णु शास्त्री चिपलूणकर का निधन 17 मार्च, 1882 को ही हो गया था। उनके निधन एवं तिलक तथा आगरकर के कारावास का ‘ न्यू इंग्लिश स्कूल ‘ पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ा बल्कि वह तो तरक्की ही करता गया। ‘ मराठा ‘ और ‘ केसरी ‘ भी मजे से चल रहे थे। उनकी प्रसिद्धि और बढ़ गई थी।

24 अक्टूबर, 1884 को डेकन ऐजुकेशन सोसाइटी की सभा हुई जिसमें प्रस्ताव रखा गया कि — ‘ न्यू इंग्लिश स्कूल के स्थान पर कॉलेज खोला जाय। ‘ प्रस्ताव स्वीकृत हो गया एवं बम्बई के गवर्नर सर जेम्स फर्ग्यूसन के नाम पर 2 जनवरी, 1885 को ‘ फर्ग्यूसन कॉलेज ‘ की स्थापना पूना के गदरेवाड़ा में हो गई। फर्ग्यूसन कॉलेज में तिलक गणित और संस्कृत पढ़ाने लगे, आगरकर इतिहास और तर्कशास्त्र | फिर आगे चल कर तिलक और सोसाइटी के कार्यकर्ताओं के मध्य नीति और कार्य प्रणाली के सम्बन्ध में मतभेद हो जाने के कारण तिलक ने सोसाइटी और कॉलेज से 14 अक्टूबर, 1890 को त्याग – पत्र दे दिया, जो पाँच माह बाद प्रभावी हुआ। अब तिलक को ‘ केसरी ‘ और ‘ मराठा ‘ की ओर अधिक ध्यान देने का अवसर प्राप्त हो गया। किन्तु कुछ ही दिन बाद आगरकर के साथ मतभेद हो जाने के कारण तिलक ने दोनों पत्रिकाओं का भार स्वयं उठाने का निश्चय कर लिया। उन्होंने 1887 में अपने आपको ‘ केसरी ‘ का सम्पादक प्रकाशक घोषित कर दिया। सन् 1891 में पूर्ण रूप से निर्णय हो गया कि दोनों पत्रिकाओं का स्वामित्व तिलक के पास रहेगा। उस समय दोनों पत्रिकाओं पर 7000 रु. का कर्जा था। इसके चुकाने का जिम्मा भी तिलक पर आ गया।

आर्थिक स्थिति कमजोर हो जाने के कारण तिलक ने मित्रों की सहायता से लातूर में एक रूई की जिनिंग फैक्ट्री खोल ली और साथ ही कानून की कक्षाएँ लेना भी आरम्भ कर दिया। इसमें उन्होंने तरक्की की। उन्हें नरसिंह चिंतामणि केलकर जैसे योग्य सहकारी मिले। उनका विषय हिन्दू धर्मशास्त्र तथा हिन्दू कानून था। तिलक ने तो जन्म ही जन – कल्याण के लिए लिया था। उनके जीवन का लक्ष्य देश की सोई आत्मा को जगाना था। वे भारत भूमि को विदेशी शासन से मुक्त कर स्वाधिकार के स्वच्छ वातावरण को कायम करना चाहते थे।

यद्यपि इसी उद्देश्य को लेकर और भी कई आवाजें बड़े जोर – शोर से उठ रही थीं। तिलक इस विषय में ‘ केसरी ‘ और ‘ मराठा ‘ में धड़ल्ले से लिखने लगे। वे सरकार की निरंकुशता का निर्भयता से भंडाफोड़ करते हुए, जनता के मानस को स्वतन्त्रता के भावी संग्राम के लिए तैयार करने में लगे रहे। परिणाम यह हुआ कि तिलक तत्कालीन सरकार की निगाहों में खटकने लगे।

जनता का विशेष ध्यान तिलक की ओर सन् 1889 में क्राफोर्ड काण्ड के कारण आकर्षित हुआ। अंग्रेज अधिकारी क्राफोर्ड अपने अधिकारियों द्वारा घूस लिया करता था। उस पर मुकद्दमा चला। वह दोषी होते हुए भी बरी हो गया, किन्तु निर्दोष अधिकारियों को सजा मिली। तिलक ने इसके विरोध में ‘ केसरी ‘ में लिखा, सभाएँ कीं और मामला संसद में उठाया। फलस्वरूप मुकद्दमे हटा लिए गये। इसके कारण जनता में तिलक का यश और भी फैल गया।

✍️ लोकमान्य तिलक की प्रमुख देन

      सन 1893 और 1894 में महाराष्ट्र में गणेशोत्सव व शिवाजी जन्मोत्सव के सार्वजनिक त्यौहार तिलक की ही देन हैं। यह प्रथा उन्होंने ही आरम्भ की थी। सन् 1895 में तिलक बम्बई प्रांतीय धारा सभा के सदस्य निर्वाचित हुए। इसी समय महाराष्ट्र पर प्लेग और अकाल के बादल छा गये।

तिलक ने ‘ केसरी ‘ में उग्र लेख लिखना आरम्भ कर दिया ताकि जनता में जागृति हो। उन्होंने प्लेग का अस्पताल भी खुलवा दिया। इस कार्य से वे सरकार की निगाहों में चुभने लगे। उसने सोचा कि तिलक जनता को विद्रोह के लिए उकसा रहे हैं। इसी बीच ( 22 जून, 1897 ) पूना के प्लेग अधिकारी मि. रैंड और लेफ्टिनेन्ट आयर्स्ट पर दामोदर चाफेकर ने गोली चला दी। उन्हें फाँसी हो गई। 27 जून को तिलक को गिरफ्तार कर लिया गया। उनके ऊपर लगाये गये राजद्रोह का आधार ‘ केसरी ‘ में प्रकाशित शिवाजी सम्बन्धी एक लेख और कविता थी। उन्हें 14 सितम्बर को 18 मास के सश्रम कारावास की सजा दी गई। बाद में कुछ विशिष्ट व्यक्तियों ने उन्हें छोड़ देने के लिए विलायत में सरकार के पास प्रार्थना पत्र भेजा। फलस्वरूप तिलक 12 मास बाद 6 सितम्बर, 1898 को रात को 9 बजे जेल से रिहा हो गए।

✍️ लोकमान्य तिलक की क्रांतिकारी गतिविधियां

      सरकार को राजद्रोह सम्बन्धी कानून की भाषा में संशोधन करना पड़ा और हिन्दुस्तान की जनता में तिलक के प्रति आदर की भावना बढ़ी। अब तिलक सर्वमान्य नेता बन चुके थे। काँग्रेस में भी उनका प्रभाव व सम्मान था। वे उसके खास नेताओं में से एक थे। काँग्रेस की नीति नर्म थी, जबकि तिलक क्रांतिकारी विचारक थे। वे जनता में अंग्रेज़ी राज के विरुद्ध जागृति और असंतोष पैदा करना चाहते थे।

सन् 1898 में लखनऊ में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस का 15 वाँ अधिवेशन हुआ। उसके अध्यक्ष सरकारी सेवानिवृत्त अधिकारी रमेशचन्द्र दत्त थे। अधिवेशन में तिलक ने बम्बई के गवर्नर लॉर्ड सैंड्हर्स्ट के बहिष्कार का प्रस्ताव रखा, किन्तु प्रस्ताव स्वीकृत नहीं हुआ। अध्यक्ष महोदय ने कहा कि, “ यदि यह प्रस्ताव रखा जाएगा तो वे अध्यक्ष पद छोड़ देंगे। ” यह था उस समय की राजनीति का स्वरूप।

सन् 1905 में जब जार्ज नैथेनियल कर्जन ने बंगाल को विभाजित करने का प्रयत्न किया तो समस्त देश में तूफान खड़ा हो गया। इस आन्दोलन में भाग लेने वाले अधिकतर गरम दल के लोग थे। तिलक ने बंगाल से बाहर उत्तर और दक्षिण भाग में इस आन्दोलन का नेतृत्व किया।

दिसम्बर सन् 1906 की कलकत्ता की राष्ट्रीय सभा में लोकमान्य ने स्वदेशी के प्रस्ताव को विदेशी का सम्पूर्ण बहिष्कार के प्रस्ताव से और भी मजबूत बनाया। इस विषय में दादाभाई नौरोजी का भाषण बड़ा उग्र रहा। तिलक का प्रस्ताव पास हो गया। अब तिलक का पक्ष ‘ उग्रदल ‘ अथवा ‘ गरम दल ‘ कहलाने लगा। यह गरम दल बाद में अत्यन्त उग्र हो उठा। तिलक गरम दल के अग्रणी नेता थे। उनके सहयोगी थे लाला लाजपतराय, विपिन चंद्रपाल और अरविंद घोष।

सन् 1906 में तिलक ने बम्बई स्वदेशी सहकारी भण्डार की स्थापना में सहयोग दिया एवं महाराष्ट्र विद्या प्रसारक मण्डली की स्थापना में भी सहयोग दिया। यह उनकी एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि रही।

सन् 1907 में सूरत काँग्रेस अधिवेशन में आंतरिक संघर्ष ने उग्र रूप धारण कर लिया। किन्तु तिलक ने कलकत्ता काँग्रेस के चार सूत्री कार्यक्रम ( स्वदेशी, बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा तथा स्वराज्य ) पर बल देकर देश में राजनीतिक असन्तोष और नवचेतना उत्पन्न करना आरम्भ कर दिया। उग्र दल काँग्रेस से अलग हो गया।

तिलक ने बंगाल की स्वतन्त्रता की प्राप्ति हेतु जूझने वाले युवकों पर होने वाले अत्याचारों के विरुद्ध ‘ केसरी ‘ में आवाज उठाई। इससे सरकार के प्रति जनता के मन में घृणा और द्वेष फैलने लगा।

तिलक ने केसरी में “ देश का दुर्भाग्य ” शीर्षक से एक लेख लिखा था। जिससे उन पर राजद्रोह का मामला चलाया गया। उन्हें 24 जून, 1908 को गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर मुकद्दमा चला। बम्बई उच्च न्यायालय के न्यायाधीश श्री डाबर द्वारा 22 जुलाई, 1908 को रात दस बजे तिलक को छ: वर्ष का काला पानी और एक हजार रुपये जुर्माने की सजा दी गई। इस सजा से सारे देश में क्रोध की लहर दौड़ गई। जनता ने खूब विरोध किया। विरोध में पूरे बम्बई में छः दिन की हड़ताल 23 जुलाई से आरम्भ हुई। कलकारखाने, शिक्षण संस्थाएँ, दुकानें आदि सभी इन दिनों बन्द रहे।

विरोध सभाओं एवं जुलूसों की पुलिस से बार – बार मुठभेड़ हुई। पूरे बम्बई शहर में तिलक के चित्र लग गए। यह एक अद्भुत विरोध – प्रदर्शन था। तब काले पानी का दण्ड बदल कर साधारण कैद कर दिया गया। तिलक को कुछ दिन अहमदाबाद की जेल में रखा गया। फिर बर्मा की मांडले जेल में भेज दिया गया। तिलक ने जैसे – जैसे करके छः वर्ष बिताये। वे 8 जून, 1914 को जेल से रिहा हुए। इस बीच नवम्बर, 1910 से मार्च, 1911 की अवधि में उन्होंने लगभग 500 पुस्तकों का गहन अध्ययन करने के बाद अपना सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘ गीता रहस्य ‘ लिखा जो 1915 में प्रकाशित हुआ। 7 जून, 1912 को तिलक की पत्नी का देहान्त हो गया। तिलक 8 जून, 1914 को मांडले से रंगून के लिए रवाना हुए और 16 जून की अर्द्धरात्रि को पूना अपने घर पहुँच गए। तिलक के जेल से लौटने पर जनता ने उनका जोरदार स्वागत किया। सार्वजनिक सभाएँ करके उनका अभिनन्दन किया गया।

तिलक ने भाषण में जेल यात्रा के अनुभव सुनाये। उन्होंने सरकारी अधिकारियों पर जो तानाकशी की उससे वे तिलमिला उठे। उनके जेल जाने के कारण उनके मान – सम्मान की वृद्धि ही हुई थी। तिलक फिर अपने कार्य में जुट गये। तब तक हमारे राजनीतिक आँगन में जन – साधारण का स्वर काफी ऊँचा उठ चुका था। अधिकारियों के दबाव और परिवर्तित स्थिति में नई कार्यनीति को दृष्टिगत रखते हुए तिलक ने भारत में ब्रिटिश शासन के प्रति अपनी निष्ठा प्रकट की और क्रान्तिकारी आतंकवादी कार्यवाही की निन्दा की। बहिष्कार की कार्यनीति छोड़कर उन्होंने जन – आन्दोलन को व्यापक और मजबूत बनाने में पूरा जोर लगा दिया। 

✍️ लोकमान्य तिलक का होमरूल आंदोलन

         तिलक और उनके साथियों ने 23 अप्रैल, 1916 को श्रीमती एनी बेसेंट के साथ मिलकर बेलगांव में होमरूल ( स्वशासन ) आन्दोलन की स्थापना की। इसका उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत सारे वैधानिक तरीकों से स्वशासन प्राप्त करना और इस दिशा में जनमत तैयार करना था। उन्होंने देशव्यापी दौरा करके इसका प्रचार किया।

23 जुलाई, 1916 को तिलक के ईष्ट मित्रों ने उनका 60 वाँ जन्म दिन मनाया। इस अवसर पर तिलक को एक लाख रुपये की थैली भेंट की गई, जिसे उन्होंने राष्ट्र कार्य के लिए दे दिया। इस उत्सव के बाद जब तिलक घर लौट रहे थे, तब होमरूल लीग के प्रचारार्थ उन्होंने जो भाषण अहमदनगर और बेलगांव में दिए थे, उनके आधार पर उन पर, राजद्रोह का मुकद्दमा लगा कर पूना के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के नोटिस के तहत गिरफ्तार कर लिये गये।

तिलक की ओर से बैरिस्टर मोहम्मद अली जिन्ना ने वकालत की। न्यायमूर्ति ल्लूभाई शाह और बेचलर ने उन्हें 24 अगस्त, 1916 को रिहा कर दिया। उन्होंने पुन : काँग्रेस में प्रवेश किया। सन् 1916 की शीत ऋतु के दौरान अखिल भारतीय होमरूल लीग का केन्द्रीय कार्यालय मद्रास में स्थापित हो गया।

तिलक की विचारधाराओं और कार्यशैली में परिवर्तन तथा काँग्रेस के अन्दर कार्यकर्ताओं द्वारा एकता की माँग के परिणमास्वरूप तिलक और उदारवादियों के बीच समझौता हो गया। सन् 1912 में काँग्रेस के संविधान में उग्रवादियों के प्रवेश पर लगाई गई पाबन्दी हटा ली गई। तिलकं और उनके साथियों ने दिसम्बर, 1916 के लखनऊ काँग्रेस अधिवेशन में भाग लिया। अधिवेशन में होमरूल लीग को काँग्रेस ने सहयोगी संस्था के रूप में मान्यता प्रदान कर दी। इसके साथ ही तिलक ने प्रथम महायुद्ध से उत्पन्न युद्ध जन्य परिस्थितियों से लाभ उठाने के लिए लखनऊ काँग्रेस अधिवेशन में हिन्दू – मुस्लिम एकता का प्रस्ताव भी पास करा लिया जो ‘ लीग – काँग्रेस का लखनऊ पैक्ट ‘ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

जब प्रथम महायुद्ध ( 1914-1918 ) में सरकार की मदद करने का प्रश्न उठा तो नरम दल के सभी काँग्रेसी नेता इस पक्ष में थे जबकि तिलक इस पक्ष में नहीं थे। उन्होंने कहा कि “यदि अंग्रेज कुछ ठोस अधिकार देने का वादा करें तो युद्ध में भारत मदद दे सकता है, अन्यथा नहीं।” इस बात पर महात्मा गाँधी का उनसे मतभेद हो गया।

युद्ध के बाद भारतीय जनता की आहुति के बदले पंजाब में भीषण हत्याकांड और मार्शल लॉ का पुरस्कार भारतीयों को मिला। तब तिलक की बात का अर्थ लोगों की समझ में आया। उन्हीं दिनों सर बैलेंटाइन चिरोल ने अपनी पुस्तक ‘ अरनेस्ट इन इण्डिया ‘ में तिलक को राजद्रोही कहा था। तिलक ने इंग्लैण्ड जाकर उन पर मानहानि का मुकद्दमा दायर कर दिया, किन्तु वे हार गए।

तिलक ने लखनऊ काँग्रेस में जो एकता स्थापित की थी और राष्ट्रीय नवजागरण का जो महान् कार्य किया था, इससे सरकार चिन्तित हो उठी। 1 फरवरी, 1917 को पंजाब सरकार ने  डिफेंस ऑफ इण्डिया एक्ट के अन्तर्गत एक आदेश द्वारा पंजाब में उनके प्रवेश पर रोक लगा दी।

10 जून, 1918 को बम्बई के गवर्नर लॉर्ड विलिगंडन ने तिलक को बम्बई में बुलाए गए युद्ध सम्मेलन में आमन्त्रित किया, किन्तु जब अपने उद्घाटन भाषण में गवर्नर ने होम लीग की आलोचना की और उनके भाषण में दो बार बाधा डाली तो इसके विरोधस्वरूप तिलक व अन्य कुछ नेता सम्मेलन का त्याग कर चले गए।

जुलाई, 1918 में भारत मंत्री मांटेग्यू और वाइसराय जेम्स फोर्ड ने भारत में  संवैधानिक सुधारों सम्बन्धी एक रिपोर्ट प्रकाशित की जो ‘ माण्ट फोर्ड रिपोर्ट ‘ के नाम से प्रसिद्ध हुई। इस रिपोर्ट में औपनिवेशि दर्जे की कोई चर्चा नहीं थी, केन्द्र सरकार को पहले की भाँति निरंकुश और गैर – जिम्मेदार रहने दिया गया था। रिपोर्ट के सभी प्रस्ताव निराशा पैदा करने वाले और असंतोषजनक थे।

तिलक ने इसके विषय में कहा था— “ माण्ट – फोर्ड रिपोर्ट एक सुन्दर, अत्यन्त चातुर्यपूर्ण और कूटनीतिक दस्तावेज है। ”

सन् 1919 में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस का अधिवेशन अमृतसर में हुआ। इसमें महात्मा गाँधी, मोतीलाल नेहरू, मदनमोहन मालवीय, देशबन्धु चितरंजनदास आदि के साथ तिलक ने भाग लिया, किन्तु उन्होंनेअपने को प्रति सहकारितावादी घोषित कर असहयोग पर चली चर्चा में भाग नहीं लिया। उन्होंने कहा— ” स्वतन्त्रता माँगने से नहीं मिलती, उसे छीना जाता है। ‘

तिलक ने नए सुधारों का लाभ उठाने की दृष्टि से कांग्रेस डेमोक्रेटिक पार्टी की स्थापना करके 1920 में निर्वाचकों में भाग लेने की योजना बनाई। इसके कुछ ही दिन बाद तिलक अस्वस्थ हो गए।

जुलाई, 1920 को मोटर से हवाखोरी करने जाते समय ठंड लगने से उन्हें ज्वर हो गया। 26 जुलाई तक ज्वर ने गंभीर रूप धारण कर लिया तथा 29 जुलाई को वे हृत्शल एंजिना पेक्टोरिस के दौरे से पीड़ित हो गए। उन्हें मूर्छा आने लगी। उनकी हालत धीरे – धीरे बिगड़ती गई और 31 जुलाई, 1920 की रात को 12.40 बजे ( अर्थात् 1 अगस्त, 1920 ) तिलक का देहावसान हो गया।

तिलक भारत को स्वतन्त्र देखने के लिए बहुत कुछ करना चाहते थे, किन्तु उनके जीवनकाल का असमय ही अंत हो जाने के कारण वे अपने मन की इच्छाएँ मन में ही लेकर चले गए।

तिलक के महाप्रयाण के बाद उनकी प्रशंसा में कुछ नेताओं ने जो उद्गार व्यक्त किए, वे निम्न प्रकार हैं : –

महात्मा गाँधी – “ भारत का प्रेम लोकमान्य तिलक के जीवन का श्वासोच्छ्वास था। उनका धैर्य कभी कम न हुआ और निराशा उनको छू तक नहीं गई। उनके अलौकिक गुणों को धारण करना ही उनका स्मारक है। ”

मदनमोहन मालवीय – “ उन्होंने देश के लिए असीम विपदाएँ झेलीं, क्योंकि भारत का प्रेम ही उनके हृदय की प्रधान भावना थी। मरते दम तक ‘ स्वराज्य ‘ ही उनका ध्येय रहा। ”

लाला लाजपतराय— “ तिलक की मृत्यु के कारण भारत का प्रथम श्रेणी का देशभक्त और अर्वाचीन हिन्दुस्तान का एक स्फूर्तिदाता चल बसा। “


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