झाँसी की महारानी लक्ष्मी बाई | Maharani Laxmi Bai

महारानी लक्ष्मी बाई

 ✍️ महारानी लक्ष्मी बाई का जीवन परिचय

         महारानी लक्ष्मी बाई का जन्म काशी में कार्तिक कृष्णा 14 सम्वत् 1892 तदनुसार 16 नवम्बर, 1835 में हुआ था। उनकी माता का नाम भागीरथी बाई था एवं पिता का नाम मोरोपन्त बलवन्त राव ताम्बे था। वे ब्राह्मण थे एवं सतारा जिले के रहने वाले थे। मोरोपन्त ताम्बे बनारस के रियासतकार चिमणा अप्पा के मुसाहिब थे। आरम्भ में लक्ष्मीबाई का नाम मनूबाई रखा गया था। एक दिन अचानक चिमणा अप्पा का स्वर्गवास हो गया। तब अप्पा के एक सम्बन्धी बाजी राव पेशवा, जो बिठूर की रियासत के प्रमुख थे, ने अप्पा के आश्रितों को अपने पास बुला लिया।

जब लक्ष्मीबाई पांच वर्ष की थी, तभी उनके माता – पिता का स्वर्गवास हो गया। बाजीराव लक्ष्मीबाई को बहुत प्यार करते थे। उन्होंने उसका नाम ‘ छबीली ‘ रख छोड़ा था। 20 लक्ष्मीबाई बचपन से ही बड़ी चतुर थीं। उन्होंने बाजीराव के एक मात्र पुत्र नाना साहब धूंधूपंत के साथ घुड़सवारी करना, अस्त्र – शस्त्र चलाना, सैन्य संचालन एवं व्यायाम आदि सीख लिया था। वे नाना साहब को अपना भाई मान कर प्रति वर्ष रक्षा बन्धन के दिन उनके राखी बाँधती थी।

✍️ महारानी लक्ष्मी बाई का विवाह

        सन् 1842 में झाँसी के राजा गंगाधर राव के साथ उनका विवाह हो गया। गंगाधर राव की पहली पत्नी का स्वर्गवास हो गया था। लक्ष्मीबाई के रूप एवं गुणों की चर्चा सुन कर ही, उन्होंने उनके साथ विवाह करने का निश्चय किया था एवं उन्होंने उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा था। गंगाधर राव के पूर्व – पत्नी से कोई सन्तान नहीं थी।

लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया, किन्तु वह तीन मास का होकर चल बसा। इस घटना से गंगाधर राव के हृदय को भारी सदमा पहुँचा। उन्होंने चारपाई पकड़ ली। उन्होंने अपना अन्तिम समय निकट जानकर आनन्दराव ( जिनका नाम बाद में दामोदर राव रखा गया था। ) नामक एक बालक को गोद ले लिया, किन्तु तत्कालीन विदेशी शासकों ने उसे गंगाधर राव का उत्तराधिकारी मानने से इन्कार कर दिया। इसके कुछ ही दिन बाद गंगाधर राव का निधन हो गया। तब लक्ष्मीबाई ने राज्य की शासन व्यवस्था का भार अपने ऊपर ले लिया।

✍️महारानी लक्ष्मी बाई की शासन व्यवस्था

       महाराजा गंगाधर राव की मृत्यु के बाद बुन्देलखण्ड के एसिस्टेन्ट पोलिटिकल ऑफिसर मेजर एलिस ने झाँसी पर कब्जा करने की सोची। एक दिन अकस्मात् लक्ष्मीबाई को गवर्नर जनरल का एक आज्ञा – पत्र प्राप्त हुआ जिसमें लिखा था कि झाँसी ब्रिटिश राज्य में मिला लिया गया है। इस बात का लक्ष्मीबाई को अत्यन्त दुःख हुआ। अब उनके लिए झाँसी में रहना असम्भव हो गया। अतः वे किला छोड़ कर शहर चली गईं।

अब ब्रिटिश सरकार ने झाँसी की प्रजा पर घोर अत्याचार करना प्रारम्भ किया। इससे प्रजा में भारी अशान्ति फैल गई। ब्रिटिश सरकार ने झाँसी राज्य की सामग्री नष्ट कर दी। झाँसी राज्य का भी अन्त कर दिया गया। देश में दुःख के ओर मंडराने लगे। युद्ध बादल चारों फलस्वरूप

✍️ महारानी लक्ष्मी बाई का विद्रोह 

       सन् 1857 में देश में विद्रोह की चिनगारी भड़की। अंग्रेजी राज्य का विस्तार होने लगा। विद्रोह का एक मुख्य कारण था — अंग्रेजों की देशी रियासतों को अंग्रेजी शासित राज्यों में मिलाने की प्रवृत्ति। कई देशी रियासतों को उक्त राज्य में मिला लिया गया। इस पर भी जनता व अधिकारियों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता था।

अवध की बेगमों के साथ भी दुर्व्यवहार हुए एवं दिल्ली के नवाब के साथ भी अत्याचार हुए। कई नवाबों की रियासतें बलपूर्वक छीन ली गईं। इससे उनके दिल में भी ब्रिटिश सरकार के प्रति रोष उत्पन्न हो गया। यही कारण था कि सन् 1857 में विद्रोह हुआ।

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने भी राव साहब पेशवा, बांदा के नवाब और तात्या टोपे के साथ इस विद्रोह में भाग लिया। भयंकर युद्ध हुआ जिसमें सैकड़ों विद्रोही मारे गए और झाँसी का राज्य लक्ष्मीबाई के हाथों में आ गया। इसके कुछ दिन बाद ही ब्रिटिश सरकार ने दूसरा आक्रमण किया।

लक्ष्मीबाई ने फौजें व गोला – बारूद आदि ( युद्ध का सामान ) काफी मात्रा में एकत्र किया। वे सिर पर पगड़ी बाँधकर और मर्दाने वस्त्र धारण करके तथा कमर में तलवार लटका कर घोड़े पर बैठकर रणक्षेत्र में कूद पड़ीं। उन्होंने इस युद्ध में अभूतपूर्व वीरता दिखाई और अंग्रेजों को बुरी तरह हराया। जब अंग्रेजी सेना युद्ध का दमन कर रही थी, तब एक अन्य अंग्रेजी सेना सर ह्यूरोज के सेनापतित्व में झाँसी पर कब्जा करने पहुँची। महारानी लक्ष्मीबाई की ओर से भयंकर गोलाबारी हुई जिसकी मार दुश्मन सहन नहीं कर सके।

अगले दिन अंग्रेजों की ओर से जबर्दस्त गोलाबारी हुई। झाँसी के किले के रक्षक एवं लगातार गोलीबारी करने वाले सिपाही मरने लगे। इससे महारानी के सैनिकों में निराशा फैलनी लगी, किन्तु महारानी ने उन्हें उत्साहित किया। सिपाहियों ने दुगने जोश के साथ विद्रोहियों का दमन किया। लक्ष्मीबाई स्वयं भी बड़ी वीरता के साथ लड़ीं। उनकी तलवार की मार से सैकड़ों व्यक्ति गाजर – मूली की तरह कट – कट कर गिरने लगे। नगर में अंग्रेजी सेना का अधिकार जम चुका था। वे लोग प्रजा पर अत्याचार करने लगे और नगरवासियों को लूटने लगे। सैकड़ों व्यक्तियों को घर – बाहर कर दिया गया एवं उनका माल असबाब छीन लिया गया।

महारानी शत्रुओं से बच कर 10-12 सैनिकों के साथ कालपी की ओर भागी। महारानी के किला छोड़ देने के कारण शत्रुओं का किले पर अधिकार हो गया। किले पर अधिकार होते ही विद्रोहियों ने नगरवासियों को मारना व उनके घरों में आग लगाना आरम्भ किया। इस प्रकार बेचारे निरपराध नगरवासियों पर जबर्दस्त अत्याचार हुए। महारानी लक्ष्मीबाई के किले से निकलते ही सैनिकों ने उनका पीछा करना आरम्भ किया। महारानी के साथ उनका मुकाबला हुआ, किन्तु वे सभी हार कर भाग गए। महारानी कालपी पहुँचीं।

कुछ ही दिन बाद ब्रिटिश सरकार ने कालपी पर भी अधिकार कर लिया। कानपुर के नाना साहब के भाई राव साहब अपनी सेना सहित यहाँ आ गए। तात्या टोपे भी अपनी सेना को लेकर आ गये। लक्ष्मीबाई को युद्ध के लिए अब काफी सहायता मिल गई थी। अत : डट कर विद्रोहियों का सामना किया गया, किन्तु अंग्रेजी सेना की अपेक्षा महारानी की सेना की संख्या कम थी, अत : अंग्रेजी सेना की ही विजय हुई। युद्ध में हार होते देख लक्ष्मीबाई व नाना साहब ने बच निकलने में ही अपना भला समझा। झाँसी व कालपी दुश्मनों के हाथों में चले गए। उन पर वापस अपना अधिकार न होते देख लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर पर अधिकार जमा लेना ही उचित समझा। रानी के आक्रमण से ग्वालियर की सेना के पैर उखड़ने लगे और ग्वालियर पर लक्ष्मीबाई का अधिकार हो गया।

अंग्रेजी सेना को जब इस बात का पता चला, तो वह तुरन्त ग्वालियर की ओर चल पड़ी। ग्वालियर पर युद्ध के बादल मंडराते देख कर रानी ने युद्ध की तैयारी की। मर्दाने वस्त्र धारण तलवार हाथ में लेकर युद्ध के लिए तैयार हो गई। फिर वे घोड़े पर बैठ कर रणचण्डी बन कर रणक्षेत्र में कूद पड़ीं। तोपों की भयंकर मार से शत्रु पीछे हटने लगे। रानी का उत्साह बढ़ा उन्होंने अपने सिपाहियों को भी उत्साहित किया। सैनिक युद्ध करते हुए बराबर आगे बढ़ते रहे। अंग्रेजी सेना उन पर चारों ओर से टूट पड़ी, किन्तु रानी ने सैनिकों का उत्साह बढ़ाया। इसी समय अंग्रेजी सेना ने तोपों व गोला बारूद पर अधिकार कर लिया। अब रानी के पास अपनी रक्षा के लिए तलवार ही शेष रह गई। उन पर भयंकर रूप से आक्रमण होने लगे, किन्तु उन्होंने साहस व धैर्य को तिलांजिल नहीं दी। भयंकर युद्ध करते हुए रानी ने अपना आश्चर्यजनक पराक्रम दिखाया। वे शत्रुओं के घेरे के बीच से बाहर हो गईं और घोड़े को तेजी से दौड़ाती हुई आगे बढ़ीं। उनके साथ उनके कुछ घुड़सवार सैनिक भी थे। शत्रुओं ने तुरन्त उनका पीछा किया। दुर्भाग्यवश उनके रास्ते में एक नाला पड़ा, जिसे वे किसी भी दशा में पार न कर सकीं। शत्रु वहाँ तक आ पहुँचे और मार – काट आरम्भ हो गई। उसी बीच रानी की पीठ में एक गोली आ लगी। इस पर भी वे पूरे उत्साह के साथ लड़ती रहीं। कुछ ही देर बाद उनकी गर्दन पर तलवार का एक भयंकर वार हुआ। उन्होंने इस ओर ध्यान दिए बिना वार करने वाले सैनिक के सिर को तलवार के एक ही वार में धड़ से जुदा कर दिया। अब महारानी ने अपना अन्त समय निकट जान कर अपने एक सैनिक रामचन्द्रराव को आदेश दिया कि वह उन्हें पास की बाबा गंगादास की झोंपड़ी में ले जाय। झोंपड़ी में पहुँचने के कुछ ही देर बाद इस स्वातन्त्र्य मूर्ति महारानी लक्ष्मीबाई के जीवन की ज्योति बुझ गई। उस समय महारानी की उम्र मात्र 23 वर्ष थी।

✍️महारानी लक्ष्मी बाई का जीवन कौशल

        महारानी लक्ष्मी बाई बड़ी सहृदय, कर्त्तव्यपरायण एवं दयालु थीं। उनकी ख्याति का एक मात्र कारण अंग्रेजों के साथ उनकी वीरतापूर्वक लड़ाई ही है। महारानी केवल योद्धा ही नहीं थी, बल्कि एक कुशल शासिका भी थीं। उनके रणकौशल से प्रभावित होकर उनके दुश्मनों ने भी उनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की थी।

सर ह्यूरोज ने इस विषय में कहा था – “ शत्रु दल की ओर का सबसे उत्तम व्यक्ति यदि कोई था, तो वे झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई थीं। ”

सर एडविन अर्नोल्ड ने कहा – “ जिस स्त्री के विषय में यह मालूम हुआ था, कि वह राज – काज नहीं चला सकेगी, वही स्त्री प्रचण्ड सेना का नेतृत्व करने में पूर्ण समर्थ सिद्ध हुई। ”

धन्य है वह वीरांगना जिसने देश की आजादी के लिए चण्डी का रूप धारण कर दुश्मनों पर टूट पड़ने में अपनी अद्भुत वीरता का प्रदर्शन किया एवं स्वाधीनता संग्राम में अपने जीवन की आहुति देकर भारतीय नारी का मस्तक गर्व से ऊँचा किया। 


⇒ हमारे महत्वपूर्ण विचार पढनेके लिए निचे दी गई लिंक पर click करें –

★ हमारा राजस्थान के महत्वपूर्ण अन्य लेख :-


 GK Quiz के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें।

Share this Content ~

Leave a Comment