भूगोल में द्वैतवाद | क्रमबद्ध एवं प्रादेशिक भूगोल में व्याप्त द्वैतवाद

भूगोल में द्वैतवाद 

(क्रमबद्ध एवं प्रादेशिक भूगोल में व्याप्त द्वैतवाद )

    प्राचीन ग्रीक युग से आज तक भूगोल के विभिन्न पक्षों का अध्ययन व अनुसंधान किया जाता रहा है। ग्रीक युग में गणितीय भूगोल तथा रोमन युग में विभिन्न प्रदेशों के भूगोल का अध्ययन स्ट्रेबो ने किया। नवीन प्रवृत्तियों के समावेश तथा अनेक चुनौतियों के उपरान्त भी द्वैतवाद कई दशकों से भूगोल में स्वीकार्य एवं प्रचलित रहा है। सर्वप्रथम यूनानी विद्वानों ने द्वैतवाद की नींव डाली जब हैकेटियस ने भौतिक भूगोल पर तथा हैरोडोटस तथा स्ट्रेबो ने मानवीय पक्ष पर अधिक बल दिया। 

   द्वैतवाद का वास्तविक विकास सत्रहवीं शताब्दी में आरम्भ हुआ जब वारेनियस (1622-1650) ने अपनी पुस्तक ‘सामान्य भूगोल’ में सर्वप्रथम भौतिक एवं मानव भूगोल के मध्य अन्तर स्पष्ट किया।

     18वीं शताब्दी के आरम्भ में इमैनुअल काण्ट ने जर्मनी में भौतिक भूगोल के अध्ययन के लिए एक विशिष्ट पद्धति प्रस्तावित की। हम्बोल्ट ने भी भौतिक भूगोल पर बल दिया। द्वैतवाद का अर्थ है विषय का दो मुख्य शाखाओं में बँट जाना। यह आवश्यक नहीं कि ये दोनों शाखाएँ परस्पर विरोधी हों, ये एक-दूसरे की पूरक भी हो सकती हैं। समाजवादी का प्रारम्भ उस समय हुआ जब हम्बोल्ट ने प्राकृतिक भूगोल या भौतिक भूगोल के अध्ययन पर विशेष बल दिया और रिटर व रेटजेल ने मानव भूगोल को ही मुख्य भौगोलिक अध्ययन बताने का प्रयास किया। कार्ल रिटर ने प्रादेशिक अध्ययन पर बल दिया जबकि हम्बोल्ट का क्रमबद्ध भूगोल की ओर झुकाव था। फ्रांसीसी भूगोलवेत्ता रेकलस ने क्रमबद्ध भौतिक भूगोल पर बल दिया, जिसे उन्होंने ला-टेरे नाम दिया। 1848 में सोमरविले ने भौतिक भूगोल पर प्रथम पुस्तक प्रकाशित की। किन्तु बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में फ्रांसीसी भूगोलवेत्ताओं विडाल डी ला ब्लाश, बुश तथा डीमांजियाँ ने मानव भूगोल के विषय क्षेत्र को विकसित करने को कार्य किया। उन्नीसवीं शताब्दी से वर्तमान युग तक भूगोल में अत्यधिक विकास हुआ जिसके परिणामस्वरूप इस विषय की अनेक विशेषताएँ बन गई ।

✍️ द्वैतवाद की प्रवृत्ति

(i) भौतिक भूगोल तथा मानव भूगोल

(ii) प्रादेशिक तथा व्यवस्थित भूगोल

(iii) निश्चयवाद बनाम संभववाद

(iv) सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक भूगोल

(v) मात्रात्मक एवं गुणात्मक भूगोल

     भौतिक भूगोल तथा मानव भूगोल का अन्तर सम्भवतः ग्रीक भौगोलिक काल से ही आरम्भ हुआ था लेकिन वास्तविक विभाजन वारेनियस की पुस्तक ‘ज्याग्राफिया जनरेलिस’ के उपरान्त हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी तथा इससे पूर्व भूगोल के अध्ययन का तात्पर्य भौतिक भूगोल से लिया जाता था, इसका आशय यह नहीं कि मानवीय पक्षों की अवहेलना होती थी। वास्तविक रूप में भौतिक भूगोल में ही मानव भूगोल के अध्ययन को सम्मिलित किया जाता है। 20वीं शताब्दी के आरम्भ में फ्रांसीसी भूगोलवेत्ताओं ने मानवीय पक्ष पर बल दिया।

(१) भौतिक भूगोल बनाम मानव भूगोल

      जहाँ तक भौतिक भूगोल बनाम मानव भूगोल के द्वैतवाद का सम्बन्ध है, सम्भवतः यूनानी विद्वान प्रथम थे जिन्होंने भूगोल विषय का इस प्रकार का विभाजन प्रारम्भ किया था। हिकेटियस भौतिक भूगोल को अधिक महत्त्व देता था जबकि हेरोडोटस और स्ट्रेबो मानव पक्ष पर अधिक बल देते थे। भौतिक भूगोल बनाम मानव भूगोल का यह द्वैतवाद आज भी विषय की विशेषता बनी हुई है। कुछ लेखकों ने भूगोल की भूमिका के लिए इसे वास्तविक औचित्य माना है जबकि अन्य के अनुसार तर्क द्वारा विषय के भौतिक और मानव भूगोल के विभाजन को इस आधार पर विभाजित किया है कि दोनों की क्रिया पद्धति अलग होनी चाहिए। जलवायु विज्ञान, समुद्र विज्ञान, मौसम विज्ञान, जल विज्ञान, भूगर्भ विज्ञान और भू-आकारों सहित भौतिक तथ्यों के अध्ययन में यह सम्भव है कि प्राकृतिक विज्ञानों की पद्धतियों का उपयोग किया जाये और वैज्ञानिक यथार्थता के वृहत् मापदण्ड के साथ निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। प्राकृतिक विज्ञानों की पद्धतियाँ हालांकि उनको सामाजिक और सांस्कृतिक तथ्यों के अध्ययन के लिए ठीक प्रकार से मार्गदर्शन नहीं कर पाती हैं। मानव समूहों के सम्बन्ध में हमारे सामान्यीकरण समय और स्थान में सीमित रहते हैं और निश्चयता की अपेक्षा सम्भावनाओं के कथनों से अधिक सम्बन्धित होते हैं।

      वारेनियस जिनकी पुस्तक ‘सामान्य भूगोल’ एम्सटर्डम में 1650 में प्रकाशित हुई थी, वह विद्वानों में प्रथम जिसने मानव भूगोल और भौतिक भूगोल की विशेषताओं में अन्तर का सुझाव दिया था। अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में इमेनुअल काण्ट ने कोनिग्सबर्ग विश्वविद्यालय (जर्मनी) में भौतिक भूगोल पर व्याख्यान दिये। उसने पृथ्वी के परिभ्रमण के परिणामस्वरूप पवनों की दिशाओं में विचलन का अध्ययन किया था।

     हम्बोल्ट जिसे महान बहुश्रुतों में अन्तिम माना जाता है, प्राथमिक दृष्टि से उसकी भौतिक भूगोल में रुचि रही थी। दूसरी ओर कार्ल रिटर जो बर्लिन विश्वविद्यालय में भूगोल विषय का प्राध्यापक था, का मानव भूगोल की ओर झुकाव रहा था। हम्बोल्ट और रिटर का विश्वास था कि भौतिक भूगोल में शोध का चरम लक्ष्य प्रकृति की एकता को स्पष्ट करना है।

    रेकलस ने क्रमबद्ध भूगोल जिसे उसने ‘लॉ टेरे’ नाम दिया था, पर बल दिया था। रेकलस के पश्चात् डार्विन ने संघर्ष और जीवितता की संकल्पना अभिग्रहीत करते हुए विश्व के भौतिक पक्ष को महत्त्व दिया था। इन परिस्थितियों में मारे सोमन विले ने 1848 में ‘भौतिक भूगोल’ प्रकाशित की। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम भाग में भूगोलवेत्ताओं ने अपना सम्बन्ध भौतिक भूगोल से अधिकाधिक रखा। उन्होंने भू-आकृति विज्ञान (भू-आकृतियों का अध्ययन) विषय की स्थापना की जो बाद में भौतिक भूगोल का महत्त्वपूर्ण तथ्य बना। भू-आकृति विज्ञान शब्द का उपयोग सर्वप्रथम प्रसिद्ध जर्मन भू-गर्भशास्त्री अलबर्ट फेंक ने किया था। विस्तृत कार्य क्षेत्र करने के पश्चात् उसने भू-आकृति विकास के सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया था कि किस प्रकार आकारों का व्यवस्थित अध्ययन क्षेत्रीय (प्रादेशिक) अध्ययन की दृष्टि से किया जा सकता है। उसने भूगोल के व्यवस्थित अध्ययन के लिए उच्चावच के अध्ययन के लिए उच्चावच मानचित्रों के महत्त्व पर बल दिया। बाद में कोपन, डेविस, मोनि, मिल, जेफरसन और टुकश्येव ने भू-आकृतियों पर अधिक बल दिया। इसी काल में डेविस ने सामान्य अपरदन चक्र का विचार प्रस्तुत किया। 

     रेटजेल और सेम्पुल ने जलवायु को भूगोल का महत्त्वपूर्ण अंग माना। इन सभी अध्ययनों में मानव जो परितंत्र Ecosystem का भौतिक पर्यावरण को मानव जीवन पद्धति को निर्धारित करता है, को अधिक महत्त्व दिया। सेम्पुल ने यह व्यक्त किया था कि मनुष्य “पृथ्वी धरातल की उपज है।” हण्टिंगटन ने सभ्यता की प्रगति और उनके स्थानों में बदलाव का कारण जलवायु और मौसम की अवस्थाओं को माना था। थामस हेनरी हक्सले ने अपनी पुस्तक ‘भू-आकृति विज्ञान’ प्रकाशित की। भू-आकृति विज्ञान शब्द का अधिक अर्थ प्रकृति के वर्णन के रूप में इसका वर्णन किया जाना होता है। 

     सन् 1877 के पश्चात् भू-आकृति विज्ञान का नया नाम भौतिक भूगोल हो गया। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दिन दशकों में भौतिक भूगोल विद्यालयों में अत्यधिक लोकप्रिय रहा। सोवियत वैज्ञानिकों ने भी भूगोल को विज्ञान की एक शाखा मामा जिसमें भू-आकृति विज्ञान, मृदा विज्ञान, जल विज्ञान और मौसम विज्ञान का अध्ययन किया जाता है। भौतिक भूगोल पर अधिक महत्त्व को इस तथ्य से जोड़ा जा सकता है कि विकास की प्रारम्भिक अवस्था में भूगोल उन अध्यापकों द्वारा पढ़ाया जाता रहा जिनकी पृष्ठभूमि भू-गर्भ शास्त्र की रही थी। भौतिक भूगोल के समर्थकों ने घोषित किया था कि यहाँ केवल एक क्षेत्र है जिसमें भूगोलवेत्ताओं को योगदान करना चाहिए। वूलरिज और ईस्ट के विचार में “यह स्वीकार करना निरर्थक है कि मानव अथवा सामाजिक भूगोल को स्वरूपीय वर्ग और व्यापक सिद्धान्तों और प्रक्रियाओं की सीमा में देखा जा सकता है जैसा कि भौतिक भूगोल को देखा जा सकता है। इस पर हीनता का दोषारोपण नहीं होता बल्कि यह स्वीकार करना पड़ता है कि यह असीमितता से अधिक जटिल विलक्षण, अधिक लचीला और विविध है।”

    भौतिक भूगोल का समर्थक हम्बोल्ट भी था। वह स्वयं वनस्पतिशास्त्री था। इसलिए उसके अध्ययनों पर प्राकृतिक विज्ञानों का प्रभाव पड़ना अवश्यम्भावी था। उसने अपनी यात्राओं में प्राकृतिक भूगोल और संसाधनों का अध्ययन किया। उसने जवलायु, वनस्पति, मिट्टी, भू उच्चावच आदि भौतिक भूगोल के तथ्यों को भूगोल की आधार रेखा बनाया साथ ही उसने यह भी बताया कि भौगोलिक वातावरण का मनुष्य पर सम्बन्ध ज्ञात करना भी भूगोल का कार्यक्षेत्र है। इस प्रकार हम्बोल्ट ने भौतिक भूगोल व मानव भूगोल नामक दो प्रकार के भूगोल का पृथक् कार्यक्षेत्र बताया था। परन्तु वह प्रकृति की एकता में विश्वास रखता था। उसने भूगोल के प्राकृतिक और मानवीय पहलुओं में विविधता के साथ-साथ एकरूपता को भी देखा।

        वास्तव में भौतिक और मानव भूगोल के बीच अन्तर को अधिक स्पष्ट करने वाला कार्ल रिटर था जिसने अपनी पुस्तक ‘अर्डकुण्डे’ में पृथ्वी सम्बन्धी प्राकृतिक ज्ञान और मानव सम्बन्धी मानव भूगोल की रूपरेखाओं को स्पष्टतः पृथक् कर दिया। उसने प्राकृतिक भूगोल में जलवायु, वनस्पति, मिट्टी, पशु-जीवन, भू-उच्चावच आदि के अध्ययनों को महत्त्वपूर्ण बताया। साथ ही उसमें मानव-केन्द्रित भूगोल के अध्ययन की भी प्रधानता थी। यद्यपि उसने भूगोल को इन दो प्रमुख शाखाओं में बाँट दिया था तथापि उसका यह अभिप्राय नहीं था कि इनका अध्ययन पृथक्-पृथक् किया जाए। वह पृथ्वी पर प्राकृतिक और मानवीय तत्त्वों के अन्तर्सम्बन्धों से भली-भाँति परिचित था और उसने भूगोल में पूर्णरूपेण विचारधारा को ही सर्वोपरि माना। इससे स्पष्ट है कि भौतिक और मानव भूगोल का पृथक्करण कृत्रिम है। भौतिक तत्त्व और मानवीय तत्त्व एक-दूसरे पर प्रभावशाली होते हैं, उन्हें पृथक्-पृथक् कर अध्ययन नहीं किया जा सकता। रिले ने हाल ही में क्रियात्मक पद्धति की कठिनाई पर अपना मत व्यक्त करते हुए लिखा कि भौतिक भूगोल और सामाजिक भूगोल को काम में लाये जाने की कठिनाई को स्पष्ट किया है। इस विचार को स्वीकार करते हुए रिग्ले ने स्पष्ट किया कि भूगोल में स्पष्टीकरण व्याख्या के लिए मूलतः दो भिन्न ढाँचे पाये जाते हैं। भौतिक भूगोल में नियमों की व्याख्या का कोई महत्त्व नहीं है। वेबर विन्च की सामाजिक विज्ञान के बारे में भौगोलिक विचारधारा स्वीकृत नहीं की जानी चाहिए, तथापि इस प्रकार के विचारों को अस्वीकृत किये जाने के लिए ठोस कारण हैं।

     इस प्रकार यह दृढ़तापूर्वक कहा जा सकता है कि मानव और भौतिक भूगोल दोनों में ही नियमों को स्थापित किया जा सकता है। कुछ लेखक सामान्य रूप से इस विचार से सहमत नहीं होते हैं और यह दृढ़तापूर्वक कहते हैं कि विषय की बहुचर प्रकृति के कारण नियम स्थापित नहीं किये जा सकते हैं, क्योंकि घटनाओं की संख्या जिनके बारे में किसी को सामान्यीकरण करना पड़ता है, बहुत छोटी होती है और क्योंकि असाधारण परिस्थिति में प्रसंग के दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। भौतिक भूगोल बनाम मानव भूगोल की द्वैधता को ठीक प्रकार से नहीं समझा जा सकता है जब तक कि मानव भूगोल के इतिहास पर प्रकाश न डाला जाये। कार्ल रिटर और रेटजेल प्रथम विद्वान थे जिन्होंने मानव को भू-आकृतियों के परिवर्तनकर्ता के रूप में माना था। फैबे ने इस तथ्य पर बल दिया था कि मानव अस्तित्व भू-आकृति का एक तत्त्व है – एक तत्त्व जिसकी क्रिया इसमें सम्मिलित होती है, पर्यावरण का एक परिवर्तनकारी अभिकर्ता है जो उसका मानवीकरण करता है। उसने यह भी तर्क दिया कि वही भौतिक कारक हमेशा वही प्रभाव नहीं देते हैं। भूगोल में फैबे के अनुसार ‘हम मानव के कार्यों, मानव के परिकलन, मानव की क्रियायें, मानव जाति का सतत उतार और उमड़ना, मानव न तो मृदा है और न जलवायु है, वह हमेशा आगे रहता है।” यह विडाल डी लॉ ब्लाश था जिसने मानव भूगोल के सम्प्रदाय की स्थापना की थी। उसने किसी प्रदेश के भौतिक पर्यावरण के तत्वों को अपेक्षतः सांस्कृतिक भूदृश्य को प्रमुख निर्णायक के रूप में कम महत्त्व दिया था, भौतिक भूगोल और नियतिवादी तर्कों की कमजोरी के बारे में ब्लाश की स्पष्ट अन्तर्दृष्टि थी। उसने सामाजिक वातावरण के स्थान पर प्राकृतिक प्रवृत्ति में व्यवस्थापन तथा एक-दूसरे पर अधिकार मानने की निरर्थकता का अनुभव किया था। विडाल-डी-लॉ-ब्लाश के अनुसार प्राकृतिक और सांस्कृतिक तथ्यों के बीच सीमा रेखा खींचना अविवेक होगा, उन्हें संयुक्त अथवा अविभाज्य मानना चाहिए। मानव अधिवास के एक क्षेत्र में मानव के कारण प्रकृति महत्त्वपूर्ण ढंग से परिवर्तित होती है और यह परिवर्तन सर्वाधिक वहाँ होते हैं जहाँ समाज की भौतिक संस्कृति का स्तर अधिक ऊँचा होता है। जीन ब्रून्स ने मानव भूगोल के विचारात्मक ढाँचे के लिए स्वयं को तैयार किया था। उसने क्रियाशीलता और अन्तःसम्बन्ध क्रियाओं के सिद्धान्तों का विकास किया। बाद में अल्बर्ट डीमांजियाँ, वाइडल-डी-ला-ब्लाश का कट्टर अनुयायी बना।

      अमरीका में मार्क जैफरसन ने ‘केन्द्रीय स्थान’, प्रमुख नगर और रेलों का सभ्यता प्रचार जैसे विचारों को मानव और नगरीय भूगोल के क्षेत्र में स्थापित किया। सोवियत संघ में डी.एन. अनुचिन ने आर्थिक नियतिवाद के सिद्धान्त का अनुसरण किया।

       मानव भूगोल के अनुयायियों का मूल दर्शन, मानव व प्रकृति का आपसी सम्बन्ध है जिसमें दोनों ही एक-दूसरे पर निर्भर हैं। सभी भौगोलिक अध्ययनों का लक्ष्य पृथ्वी के धरातल और उसके भौतिक और सामाजिक दोनों ही स्थानिक भिन्नता की सत्ता जो अपने आप में अपूर्व होती है तथा साथ ही साथ परस्पर अन्तःक्रिया प्रणाली में घटक के रूप में तथ्यों के विकास को समझना होता है। इस प्रकार समझ को बढ़ाने के लिए जो क्रियापद्धति अपनाई जाती है वह एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में भिन्न होती है और तत्वतः अभिकल्पित अन्त:वस्तु जिनका अध्ययन किया जाना है और उसमें सम्मिलित उद्देश्यों की आवश्यकताओं के लिए उपयुक्त हो। भूगोल की विभिन्न शाखाओं में काम में ली जाने वाली पद्धतियों में अन्तर इतने अधिक होते हैं कि विषय की एकता स्थापित कर पाना अपेक्षतः सन्देहास्पद होता है। उदाहरण के लिए प्राकृतिक वनस्पति और उपज की खेती के अध्ययन के बीच अन्तरों की अपेक्षा जलवायु और भू-स्वरूपों के अध्ययन की पद्धति के बीच अन्तर कई दृष्टि से अधिकतम होते हैं।

      उपर्युक्त अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि भौतिक भूगोल बनाम मानव भूगोल की द्वैधता कृत्रिम और अतार्किक है। यह द्वैधता विषय के ऐतिहासिक विकास का परिणाम है। संक्षेप में भूगोल दो वर्गों में विभाजित नहीं है जैसे कि भौतिक और मानव भूगोल वरन् सांतत्यक के दो सिरे हैं। हार्टशोर्न का यह तर्क है कि यदि हम भूगोल को भौतिक और मानव तथ्यों में विभाजित करें तो हम शेष कार्य को अतार्किक बना देंगे। इस प्रकार हम भौतिक घटकों का मानव पर और मानव की क्रियाओं का भूमि पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन करते हैं कि शारीरिक कारकों का। इस प्रकार भौतिक और मानव भूगोल में विभाजन भूगोल का आंशिक अध्ययन है। वास्तव में सभी भूगोलवेत्ता यह स्वीकार करते हैं कि हम मानव के चयन और क्रियाओं की संभवतः प्राकृतिक पर्यावरण के सम्बन्ध में सन्दर्भ में व्याख्या नहीं करते हैं। भूगोल के महत्त्व के लिए भौतिक और मानव तथ्यों के बीच की दरार दूर होनी चाहिए।

(२) क्रमबद्ध एवं प्रादेशिक भूगोल में द्वैतवाद

     भूगोल में भूतल पर पाये जाने वाले विभिन्न परिवेशों तथा मनुष्य के मध्य अन्तर्क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है। इस अध्ययन के लिए भूगोलवेत्ता विभिन्न विधि तन्त्रों एवं उपकरणों का प्रयोग करते हैं। प्रकृति एवं मानव के क्रिया-कलापों की विवेचना परस्पर अन्तर्सम्बन्धित होने के उपरान्त भी अनेक अर्थों में भिन्न रूप में होती है। भूगोल में यह विद्यमान यह प्रकरणात्मक विभाजन एक प्रकार से भौगोलिक विषय वस्तु के अध्ययन के उपागम हैं। जिन्हें भौगोलिक अध्ययन की रीतियाँ या विधियाँ भी कह सकते हैं, ये केवल अध्ययन की सुविधा के लिए पृथक् रूप में पहचानी जाती हैं।

    शास्त्रीय क्रमबद्ध एवं प्रादेशिक भूगोल के मध्य यह द्वैतवाद नवीन न होकर प्राचीनकाल से चला आ रहा है। प्रारम्भिक युग के यूनानी एवं रोमन भूगोलवेत्ता भी इसमें विश्वास रखते थे। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जब प्राकृतिक भूगोल तथा मानव भूगोल का विभाजन हुआ तभी आगे चलकर भूगोलवेत्ता इस बात पर एकमत हुए कि भूगोल में तत्वों एवं क्षेत्रों का अध्ययन समान रूप से होना चाहिए। भौगोलिक अध्ययन एवं शोध के विकास के चलते जैसे-जैसे प्रदेशांची नये सिद्धान्त सामने आये वैसे ही पारम्परिक सन्तुलित विचारधारा प्रभावहीन होने लगी। इस नवीन विचारधारा में तत्वों (स्थिति, जलवायु, वनस्पति आदि) तथा क्षेत्रों (हिमालय प्रदेश, प्रेयरी प्रदेश, थार का रेगिस्थान आदि) के अध्ययन को समान रूप से महत्त्व प्रदान किया गया।

     वारेनियस के अनुसार व्याख्या– प्रादेशिक और व्यवस्थित भूगोल (क्रमबद्ध भूगोल) में आधारभूत अन्तर बताने वला प्रथम भूगोलशास्त्री वारेनियस था। उसने कहा कि भूगोल की एक शाखा क्रमबद्ध भूगोल है। इसके प्राकृतिक भौतिक नियमों का अध्ययन किया जाना चाहिए जो क्रमबद्ध से सम्बन्धित है। इसमें सम्पूर्ण विश्व को एक इकाई मानकर प्राकृतिक वातावरण का व्यवस्थित (क्रमबद्ध) अध्ययन होना चाहिए। भूगोल की दूसरी शाखा को उसने विशिष्ट (प्रादेशिक) भूगोल बताया, जिसमें मुख्य-मुख्य क्षेत्रों एवं प्रदेशों का अध्ययन होना चाहिए। इन विशिष्ट क्षेत्रों के अध्ययन से हमें सामान्य भूगोल के नियमों की सार्थकता देखनी चाहिए।

        हम्बोल्ट के अनुसार व्याख्या – बाद में हम्बोल्ट ने सामान्य भूगोल को व्यवस्थित भूगोल और विशिष्ट भूगोल को प्रादेशिक भूगोल बताया। हम्बोल्ट ने भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में प्राकृतिक नियमों का अध्ययन किया था। उसने वनस्पति, चट्टानी संरचना, ज्वालामुखी, पर्वतीय आकृति, पठार, समुद्री जलधार आदि का भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में अध्ययन कर व्यवस्थित भूगोल सम्बन्धी कुछ नियम बनाये। अतः उसकी यह धारणा रही कि क्षेत्रीय अध्ययनों की तुलना करने पर ही सामान्य प्राकृतिक नियमों को बनाया जा सकता है। इसलिए क्षेत्रीय अध्ययन व्यवस्थित भूगोल में सहायक होते हैं। परन्तु हम्बोल्ट की यह धारणा नहीं थी कि ये दोनों पृथक् भूगोल हैं। वह तो केवल क्षेत्रीय अध्ययनों की विधि से सामान्यीकरण करना चाहता था। उसका पूर्णरूपेण भौगोलिक अध्ययनों में विश्वास था। उसने अपनी पुस्तक ‘कॉसमॉस’ की भूमिका में स्पष्ट रूप से विज्ञान में सामान्यीकरण के महत्त्व पर बल दिया था। 

        रिटर के अनुसार व्याख्या – “सभी भौतिक विज्ञानों का मुख्य उद्देश्य यह है— अनेकता में एकता की पहचान करना—बाह्य दर्शन के आवरण के नीचे प्रकृति के सार को समझना – इस परिचयात्मक अध्याय का उद्देश्य यह बताना है कि किस प्रकार भौतिक विज्ञान को एक उन्नत लक्ष्य जिसके द्वारा सभी तत्त्वों और ऊर्जा का एक इकाई के रूप में दिग्दर्शन कराया जा सकता है।”

       हम्बोल्ट का ही समकालीन कार्ल रिटर एक उद्देश्यवादी था जिसने प्राकृतिक तथ्यों की सम्पूर्णता को अंशों में निहित योजना में समझने पर बल दिया था। यद्यपि यह पूर्णतः निश्चित था कि वहाँ नियम हैं जिनकी स्थापना में उसे शीघ्रता नहीं थी। उसने भूगोल को विवेकी सिद्धान्तों अथवा पूर्वतः सिद्धान्त के निगमन आधारित की अपेक्षा आनुभाविक विज्ञान माना था। उसने इस तथ्य पर भी बल दिया था कि क्षेत्रीय तथ्यों की विशेष व्यवस्था में एक सम्बद्धता पाई जाती है। क्षेत्रीय तथ्य इस प्रकार परस्पर सम्बन्धित रहते हैं कि उन क्षेत्रों को एक विशिष्ट इकाई के रूप में विशेषता प्रदान करते हैं। संक्षेप में रिटर के अनुसार भूगोल का सम्बन्ध पृथ्वी पर पाये जाने वाले तथ्यों से है जो एक साथ एक क्षेत्र में पाये जाते हैं। उसने क्षेत्रों का अध्ययन सम्पूर्ण रूप से किया अर्थात् उनका अध्ययन सम्पूर्णता में किया गया। उसने यह अनुभव किया कि को केवल विशेष तथ्यों के बारे में तथ्यों की अधिकता के वर्णन से ऊपर उठना चाहिए। रिटर के अनुसार भूगोल का उद्देश्य होना चाहिए “मात्र वर्णन किये जाने से दूर रहना चाहिये, वर्णित वस्तुओं के नियमों का वर्णन किया जाना चाहिए, तथ्यों और आंकड़ों के केवल गणना तक ही नहीं वरन् स्थान से स्थान का सम्बन्ध और उन नियमों को जो पृथ्वी के धरातल पर स्थानीय और सामान्य तथ्यों को एक साथ बाँधे रखते हैं।”

       रेटजेल के अनुसार व्याख्या-यूरोप और अमरीका में हम्बोल्ट, रिटर और रिचथोफेन के पश्चात् रेटजेल का अधिकार रहा। रेटजेल से पूर्व क्रमबद्ध भूगोल की आधारशिला हम्बोल्ट ने और प्रादेशिक भूगोल की स्थापना रिटर ने की थी। रेटजेल ने निगमनिक उपागम द्वारा विभिन्न जातियों और राष्ट्रों की जीवन-पद्धति की तुलना की थी। उसने अपने मानवशास्त्रीय अध्ययन में विवेक परिकल्पना और नियमों से आरम्भ कर उसको विशिष्ट क्षेत्रों पर लागू किया। यह वस्तुओं के अन्योन्याश्रय की अपेक्षा उत्पत्ति की अवधारणा से अधिक चिन्तित था। उसने डार्विन की अवधारणा को मानव समाज पर भी लागू किया। सादृश्यता अवधारणा को मानव समाज पर भी लागू किया। सादृश्यता यह संकेत करता है कि मानव समूह अपने उत्तरजीविता के लिए किसी विशेष पर्यावरण में संघर्ष करता है जिस प्रकार पौधे और अन्य जीव करते हैं। रेटजेल के पश्चात् प्रमुख जर्मन विद्वान अल्फ्रेड हेटनर ने भूगोल को एक स्थलीय अथवा सामान्य विज्ञान के स्थान पर विशिष्ट भावमूलक अथवा प्रादेशिक अध्ययन माना। उसके विचार से भूगोल का विशिष्ट विषय पृथ्वी के विभिन्न क्षेत्रों जो एक-दूसरे से भिन्नता रखते हैं, का विज्ञान है। उसने मनुष्य को किसी क्षेत्र की प्रकृति का अंग माना। उसकी पद्धति फिर भी आगमनिक उपागम की थी, भौतिक पर्यावरण के तत्त्वों को अधिक भारित किया गया।

      आगमनात्मक उपागम और आनुभाविक शोध का पुनरुद्धार फ्रांस में हुआ। विडाल-डी-ला-ब्लाश ने रेटजेल के निगमनात्मक उपागम को अस्वीकार कर दिया और सामान्य प्रकृति के निष्कर्ष निकालने के लिए उसने विशेष अध्ययन क्षेत्र का सहारा लिया। वास्तविक व्यवहार में उसने इस प्रयास में प्रादेशिक भूगोल को ही बढ़ावा दिया, जिसने विशेष और अपूर्व अन्तर्निहित विशेषता जो भौगोलिक खोज का इच्छित लक्ष्य है, समझने में सहायता की।

👉 क्रमबद्ध भूगोल

       क्रमबद्ध या व्यवस्थित भूगोल में भूतल के भौतिक तथा मानवीय तथ्यों के लक्षणों, प्रक्रियाओं तथा विशेषताओं को विभिन्न प्रकरणों में विभक्त करके अध्ययन किया जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि भूगोल के तत्त्वों को प्रकरणों में विभाजित करके अलग-अलग अध्ययन किया जाता है। उदाहरण के लिए सर्वप्रथम सम्पूर्ण पृथ्वी का अध्ययन किया जाये तो उसे विभिन्न मण्डली – वायुमण्डल, जलमण्डल, स्थलमण्डल एवं जैवमण्डल आदि में विभकत करके पृथक रूप में अध्ययन किया जायेगा। फिर यदि पृथ्वी के इन मण्डलों के उपविषयों का विश्लेषण करना है तो इन्हें पुनः विभाजित करना पड़ेगा। जैसे – वायुमण्डल को विभिन्न परतों में विभक्त करके तथा तापमान, वायुदाब, वर्षा, पवनों आदि का तथा स्थलमण्डल के विभिन्न धरातलीय स्वरूपों पर्वत, पठार एवं मैदानों तथा जलमण्डल में सागरों की तलीय आकृति व जलीय विस्तार, जलीय गतियों (लहरें, धारायें तथा ज्वार-भाटा) व जलीय चक्र का अध्ययन किया जायेगा। इसी प्रकार यदि जीवमण्डल का क्रमबद्ध अध्ययन करना है तो इसके घटकों (जैविक तथा अजैविक) का पृथक् रूप में विश्लेषण करना होगा। क्रमबद्ध विधि से मानव भूगोल का भी अध्ययन किया जा सकता है। इसके अन्तर्गत यदि जनसंख्या का अध्ययन करना है तो इसकी वृद्धि दर, घनत्व, वितरण, लिंगानुपात, साक्षरता, ग्रामीण, नगरीय जनसंख्या आदि का प्रकरणात्मक अध्ययन किया जायेगा। इसी प्रकार कृषि भूगोल में गेहूँ, चावल, गन्ना आदि फसलों का तथा आर्थिक भूगोल में खनिजों, उद्योग तथा परिवहन का प्रकरणबद्ध अध्ययन किया जाता है। स्पष्ट है, भौतिक एवं मानवीय तथ्यों को प्रकरणों में बाँटकर भौगोलिक अध्ययन करने के कारण इसे प्रकरणबद्ध उपागम भी कहते

👉 प्रादेशिक भूगोल

      प्रादेशिक भूगोल में पृथ्वी तल को समान लक्षणों वाले प्रदेशों में विभक्त कर लिया जाता है। इन सभी समांगी क्षेत्रों में भौगोलिक विशेषताओं की समानता पायी जाती है तथा ये इन भौगोलिक दशाओं की दृष्टि से परस्पर एक-दूसरे से भिन्नता रखते हैं। इस प्रकार प्रादेशिक भूगोल में प्रत्येक समांगी प्रदेश का भौगोलिक तत्त्वों को क्रमबद्ध करके अध्ययन किया जाता है। स्पष्ट है, पृथ्वी पर छाटे गये क्षेत्रों का अध्ययन ही प्रादेशिक भूगोल है। उदाहरण के लिए भारत में हिमालय क्षेत्र एक भौगोलिक प्रदेश है, जिसमें भौगोलिक दशाओं की समांगता है तथा अपने समीपवर्ती या अन्य भौगोलिक प्रदेश (जैसे थार का रेगिस्तान या दक्कन का पठार) से इस दृष्टि से भिन्नता रखते हैं, जिस आधार पर ये एक-दूसरे से भिन्न हैं, इनमें भिन्नता लाने वाले भौगोलिक कारकों में भू-रचना, जल प्रवाह, जलवायु, मृदायें, प्राकृतिक वनस्पति, प्राणीजगत् जनसंख्या, कृषि प्रतिरूप, निर्माण उद्योग, व्यापार, परिवहन आदि प्रमुख हैं। प्रादेशिक अध्ययन में क्रमबद्ध करके पढ़ा जाता है।

        प्रादेशिक भूगोल से भिन्न प्रादेशिक उपागम या विधि में किसी चयनित समरूप प्रदेश की आन्तरिक भौगोलिक दशायें समान होती हैं। उदाहरण के लिए कृषि प्रदेश में सर्वत्र एक-सी समरूपता होती है। इसी प्रकार प्रादेशिक विधि से छाँटे गये प्रदेश वनस्पति प्रदेश, चावल प्रदेश, पशुपालन प्रदेश हो सकते हैं लेकिन प्रादेशिक भूगोल के किसी प्रदेश यथा राजनीतिक प्रदेश में प्राकृतिक प्रदेश, जलवायु प्रदेश, मृदा प्रदेश, कृषि प्रदेश आदि सभी हो सकते हैं। प्रादेशिक अध्ययन में किसी भी प्रदेश को उपप्रदेशों तथा लघु प्रदेशों में विभक्त कर लिया जाता है, जिससे उस प्रदेश का विस्तृत अध्ययन करने में सरलता रहे।

      प्रादेशिक तथा व्यवस्थित (क्रमबद्ध) भूगोल में आधारभूत अन्तर बताने वाला प्रथम भूगोलवेत्ता वारेनियस था। उन्होंने भूगोल की एक शाखा सामान्य भूगोल बतायी जिसमें पृथ्वी का सामान्य अध्ययन होता है। ये सामान्य भूगोल (क्रमबद्ध) सामान्य नियमों, सिद्धान्तों तथा जनक संकल्पनाओं के निर्माण से सम्बन्धित है। अतः उनके अनुसार सामान्य भूगोल का अनुप्रयोग किसी क्षेत्र या देश के लिए होता है, जिसे विशेष भूगोल कहते हैं। विशिष्ट भूगोल में विशिष्ट क्षेत्रों व प्रदेशों का अध्ययन होता है। इस प्रकार सामान्य बनाम विशिष्ट भूगोल या क्रमबद्ध बनाम प्रादेशिक भूगोल का अभ्युदय हुआ। इस प्रकार वारेनियस ने क्रमिक रूप से वर्णित सामान्यीकृत अध्ययन को क्रमबद्ध भूगोल तथा विशेष भूगोल को ‘प्रादेशिक भूगोल’ कहा है।

        काण्ट तथा हम्बोल्ट ने सामान्य भूगोल को क्रमबद्ध भूगोल तथा विशिष्ट भूगोल को प्रादेशिक भूगोल कहा तथा अपने पन्थ ‘Kosmos’ में क्रमबद्ध भूगोल पर बल देते हुए बताया कि पृथ्वी पर भौतिकी कारकों में भिन्नता में एकता मिलती है। उन्होंने बताया कि क्षेत्रीय अध्ययनों की तुलना करने पर ही सामान्य प्राकृतिक नियमों को बनाया जा सकता है। इसलिए क्षेत्रीय अध्ययन क्रमबद्ध भूगोल में सहायक होते हैं। हम्बोल्ट कभी भी दोनों को पृथक नहीं मानता था, वह तो केवल क्षेत्रीय अध्ययनों की विधि से सामान्यीकरण करना चाहता था। अतः वह पूर्णरूपेण भौगोलिक अध्ययनों में विश्वास रखता था।

      रेटजेल ने प्रादेशिक अध्ययन में निगमनात्मक विधि अपनाई है। हैटनर ने भूगोल को परिभाषित करते हुए सामान्य भूगोल की जगह कल्याणकारी भूगोल बताया, फ्रांस में ब्लाश ने प्रादेशिक अध्ययन पर बल दिया। उसने प्रादेशिक अध्ययन के लिए एक विशिष्ट इकाई को चुना जिसे पेज (Page) कहा है। ब्लाश के अनुसार मानव और प्रकृति अविभाज्य है और मानव का प्रकृति पर प्रभाव तथा प्रकृति का मानव पर प्रभाव का विभेदीकरण किया जाना सम्भव नहीं है। दोनों ही प्रभाव एक हो जाते हैं। सदियों से मानव और प्रकृति के बीच जिस क्षेत्र पर इस प्रकार का गहन सम्बन्ध विकसित हो रहा हो वे एक प्रदेश का निर्माण करते हैं। इस प्रकार के क्षेत्र जो अपूर्ण होते हैं उनका अध्ययन भूगोलवेत्ता का कार्य होता है।


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