आचरण भूगोल या व्यवहारवादी भूगोल की व्याख्या

आचरण भूगोल या व्यवहारवादी भूगोल की व्याख्या

      भूगोल में मनुष्य के सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक क्रिया-कलापों के अध्ययन का विशेष महत्व होता है। इस दृष्टि से भूगोल सामाजिक विज्ञानों में अपना विशिष्ट स्थान बनाने में सफल रहा है, लेकिन इसके विधि तन्त्र तथा लक्ष्यों को लेकर उभरे असन्तोष के परिणामस्वरूप 1960 के दशक में भूगोल के विषय में क्रांतिकारी परिवर्तन आये तथा आचारपरक दृष्टिकोण को महत्त्व दिया जाने लगा। आचारपरक दृष्टिकोण के आधार पर भौगोलिक समस्याओं के अध्ययन तथा व्याख्या में सुविधा मिलती है। इस क्रान्ति ने मानव तथा वातावरण प्रणाली को समझने में नवीन तथा विस्तृत दृष्टि प्रदान की है। इसमें मानवीय बोध व्यवहार, वातावरण सम्बन्धी निर्णय, क्षेत्रीय अन्तर्सम्बन्ध आदि पर बल दिया जाता है। मानवीय क्रियाकलाप उसके वातावरण के साथ व्यवहार या आचरण पर निर्भर करता है। यह व्यवहार भिन्न-भिन्न होता है तथा समान परिस्थितियों में भी भिन्न हो सकता है।

✍️ आचरण भूगोल का विकास 

      आचरण भूगोल का विकास 1950 से 1960 के दशक में माना जाता है। इस समय जे.के. राइट तथा विलियम किर्क, टी. हैगरस्ट्रेण्ड, किलबर्ट व्हाइट आदि भूगोलवेत्ताओं ने इसकी नींव रखी। राइट ने मानव एवं प्रकृति के कार्यात्मक व्यवहार को स्पष्ट करने का आधार व्यवहारवादी विधि को माना। वर्तमान में यह माना जाने लगा है कि हमारे सभी निर्णय वस्तुनिष्ठ वास्तविकता पर आधारित न होकर उसकी वास्तविकता के बारे में हमारे व्यक्तिगत मानसिक विचारों तथा उनके बारे में हमारे अनुभव पर निर्भर होते हैं। इसी अनुभव को प्रतिबोधन भी कहा गया है। आज किसी भी परिघटना के प्रति मानवीय समझ व उसके बारे में मानसिक प्रतिबिम्ब न करके मानवीय व्यवहार के स्थानिक पक्ष के महत्त्वपूर्ण मानने लगे हैं। जिसके अन्तर्गत यह पता लगाया जा रहा है कि विभिन्न बदलती परिस्थितियों में व्यक्ति विशेष तथा व्यक्ति समूह कैसा व्यवहार करते हैं। अतः आज भौगोलिक चिन्तन में सामाजिक मनोविज्ञान का महत्त्व बढ़ गया है। इसी चिन्तन ने आचरणवादी भूगोल को जन्म दिया है। इस सम्बन्ध में प्रो. आर.डी. दीक्षित ने लिखा है कि आचरणवाद का मुख्य उद्देश्य मानव और प्राकृतिक वातावरण के अन्तर-सम्बन्धों की व्याख्या में पूर्ववर्ती कार्य-कारण संकल्पना पर केन्द्रित यांत्रिक परिदृष्टि के बदले मानव प्रतिबोधन की प्रक्रिया पर केन्द्रित एक नई अध्ययन पद्धति का विकास करना था। इस नई पद्धति की केन्द्रीय मान्यता थी कि मनुष्य संवेदनशील तथा विवेकपूर्ण प्राणी है।

        भूगोल में आचरण या व्यवहारवादी चिन्तन को कार्ल सावर, जे.के. राइट, जी.एफ. व्हाइट और विलियन किर्क ने विकसित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। इनमें व्यावहारिक विचारधारा को विस्तृत रूप में जूलियन वोल्पार्ट ने प्रचारित किया। जब सन् 1964 में Annals of Association of American Geographers में ‘The Decision Process in a Spatial Contact’ नामक शीर्षक से उनका लेख प्रकाशित हुआ था। इसी शीर्षक से सम्बन्धित विचारों पर वोल्पार्ट महादेय ने विस्कान्सिन विश्वविद्यालय में अपना शोध कार्य किया था। यह ऐसा समय था जब भौगोलिक विचारों पर मात्रात्मक क्रांति का प्रभाव था तथा मानव समाज पर गणितीय विधियाँ प्रभाव नहीं डाल पा रही थीं। ऐसे में इस विचार को अधिक महत्त्व मिला।

      वोल्पाट का आचरणवादी भूगोल सम्बन्धी यह चिन्तन स्वीडन के ग्रामीण परिवेश में भूमि उपयोग के क्षेत्रीय सर्वेक्षण पर आधारित था जिसके अनुसार वहाँ के किसान तत्कालीन कृषि उत्पादन से संतुष्ट थे। वोल्पार्ट के अनुसार, यह उत्पादन अपेक्षा से लगभग चालीस प्रतिशत कम था जिसका मूल कारण उनके अनुसार किसानों की महत्त्वाकांक्षा का सीमित होना था जिसके कारण वे उत्पादन बढ़ाने के कोई प्रयास नहीं कर रहे थे। विलियम किर्क ने स्पष्ट किया कि किसी विशिष्ट सूचना के प्रति स्थान एवं समय के अनुसार बदलती हुई प्रतिक्रिया उभरकर आती है, अर्थात् एक ही भौगोलिक परिवेश में रहने वाले विभिन्न सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक परम्पराओं वाले व्यक्तियों का आचरण भी विभिन्न होता है। इस आधार पर किर्क ने दो प्रकार के परिवेश बताये हैं

(1) इन्द्रियग्राह्यय पर्यावरण – यह इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किया गया तथ्यपरक पर्यावरण होता है। 

(2) आचरणात्मक पर्यावरण– यह मानवीय अनुभवों तथा सजगता पर आधारित है।

     ट्रॉस्टन हैगरस्ट्रेण्ड ने प्रव्रजन एवं नवाचार के विसरण की संकल्पना दी जो मानवीय व्यवहार, आचरण एवं निर्णयन तथा सूचना शक्ति व व्यक्तिगत सम्पर्क क्षेत्रों पर निर्भर है। व्हाइट ने समाजशास्त्रीय एवं मनोवैज्ञानिक विचारों से प्रभावित होकर बताया कि प्राकृतिक आपदाओं के प्रति मानवीय व्यवहार विभिन्न प्रकार का होता है।

✍️ आचरण भूगोल के विकास में योगदान

     1960 के दशक के उपरान्त आचरण भूगोल के विकास में शिकागो स्कूल के लोवेन्थल, बर्टन, कीट्स, वुल्पार्ट तथा डेविड हफ आदि विद्वानों ने प्रमुख योगदान दिया। इन्होंने निर्णय लेने की प्रक्रिया, लक्ष्य तथा अभिप्रेरणा का विशेष अध्ययन किया। वुल्पार्ट ने निर्णय लेने की प्रक्रिया पर तथा डेविड हफ ने नगरों की आन्तरिक स्थिति में उपभोक्ताओं के आचरण पर शोध किया। इस प्रकार वुल्पार्ट पेड एवं किर्क आदि ने विशेष प्रयासों से सन् 1960 के दशक में भूगोल में व्यवहारवादी चिन्तन को स्वतंत्र स्वरूप मिला। इस विचार के बाद ही अमेरिकन भूगोलवेत्ता संघ ने 1968 में आचरणवादी भूगोल पर विशेष चर्चा प्रारम्भ की जिससे प्राप्त शोधपत्रों को काकन व गोलेज के संपादन में प्रकाशित कराया गया।

✍️ आचरण भूगोल में मानव एवं प्रकृति के संबंध

     पीटर गोल्ड ने सन् 1970 के दशक में आचरणवादी भूगोल में मानव एवं प्रकृति के परस्पर सम्बन्धों के अध्ययन में सम्मिलित परिदृष्टि निम्नलिखित थी।

(1) वस्तुनिष्ठ पर्यावरण एवं आचरणात्मक पर्यावरण

       आचरणात्मक भूगोलवेत्ताओं की मान्यता थी कि पर्यावरणीय ज्ञान जिस पर मानवीय प्रतिबोधन तथा उस पर्यावरण का वास्तविक यथार्थ अलग-अलग होते हैं अर्थात् पर्यावरण की क्षेत्रीय वस्तुस्थिति के दो भिन्न पक्ष होते हैं—एक वस्तुनिष्ठ या वस्तुपरक पर्यावरण तथा दूसरा आचरणात्मक पर्यावरण। वस्तुनिष्ठ पर्यावरण वास्तविकता का विश्व होता है जिसे स्पष्ट साधनों या संवेदकों से देखा या मापा जा सकता है जबकि आचरणात्मक पर्यावरण एक मानव मस्तिष्क का विश्व है जिसे केवल अप्रत्यक्ष साधनों द्वारा ही पढ़ा जा सकता है। आचरणात्मक भूगोल की व्याख्या इसी तथ्य पर केन्द्रित है। आचरणात्मक पर्यावरण द्वारा यह समझा जाता है कि व्यक्तियों द्वारा वास्तविक कैसे समझी जाती है, इसमें लोग कोई भी चयन ज्ञान के आधार पर करते हैं। 

(2) व्यक्ति विशेष को महत्त्व 

       दूसरा आचरणवादी दृष्टिकोण यह कि मनुष्य अपने वातावरण से प्रभावित होता है तथा निरन्तर उसमें संशोधन करता रहता है। इस प्रकार इस पक्ष में व्यक्ति समूह की अपेक्षा व्यक्ति विशेष को ही अधिक महत्त्व दिया जाता है।

(3) मानव व पर्यावरण के मध्य परस्पर अन्योन्य सम्बन्धों का अभिग्रहण

       भूगोल में आचरणवादी पद्धति ने मानव और पर्यावरण के मध्य परस्पर अन्योन्य क्रिया सम्बन्धों को अभिग्रहित किया जिसके द्वारा मनुष्य पर्यावरण को आकार देता है तथा इसके बाद वह स्वयं भी पर्यावरणीय दशाओं से आधारित होता है। 

(4) अन्तर- अनुशासिक पद्धति

          व्यवहारवादी भौगोलिक चिन्तन का चौथा महत्त्वपूर्ण लक्षण उसकी अन्तर- अनुशासनिक प्रवृत्ति है। व्यवहारवादी भूगोलवेत्ता मनोवैज्ञानिक, दार्शनिकों, इतिहासकारों, समाजशास्त्रियों, मानवशास्त्रियों आदि के विचारों, चिन्तनफलक तथा सिद्धान्तों से सहायता लेते हैं।

      सन् 1970 के दशक के उपरान्त विभिन्न सिद्धान्तों तथा व्यावहारिक अनुभवों को पुनर्मूल्यांकन द्वारा परखा गया। आयोबा विश्वविद्यालय के रस्लिन ने क्रिस्टॉलर के केन्द्र स्थल सिद्धान्त का पुनर्मूल्यांकन किया तथा एक बहुआयामी मापन प्रविधि विकसित की। प्रसिद्ध भूगोलवेत्ता एलन ग्रेड ने आबद्ध (सीमित) विवेकशीलता पर आधारित अवस्थिति सिद्धान्त प्रस्तुत किया। आर.ई. मर्फी ने वातावरणीय बोध का अध्ययन किया तथा पर्यावरण के प्रति मानवीय दृष्टिकोण के क्षेत्रीय प्रतिरूप को स्पष्ट करने के सन्दर्भ में विचार दिये। मर्फी के इन विचारों से आचरण भूगोल के विकास में क्रान्तिकारी परिवर्तन आये। पीटरगोल्ड ने स्थानिक शोध तकनीकी का विकास किया तथा मानसिक मानचित्र बनाकर यह समझाया कि इस संकल्पना द्वारा उन सभी माध्यमों का अध्ययन होता है, जिनसे व्यक्ति एवं स्थानों की स्थिति के बारे में मानव मस्तिष्क में प्रतिबिम्ब चित्र के निर्माण में सहभागी संरचना के स्वरूप तथा उसकी निर्णयन की स्थिति को समझाने में सुविधा रही है। वर्तमान समय में आचरण भूगोल का दायरा बढ़ रहा है, जिसके तहत मनोरंजन अध्ययन, स्थानिक निर्माण में व्यक्ति विशेष की भूमिका (गोल्ड पी) आदि के बारे में विस्तृत अध्ययन किया जा रहा है।

      मानसिक मानचित्रों पर शोध सन् 1960 के दशक से ही प्रारम्भ हो गई थी, जब व्यवहारवादी में मस्तिष्क के भूगोल का महत्त्व बढ़ा तथा इसके बाद ही मानसिक मानचित्रों का अध्ययन लोकप्रिय हुआ। इस दिशा में सर्वप्रथम प्रयास पीटर गोल्ड का रहा है। इस लेख में गोल्ड महोदय ने स्पष्ट किया था कि स्थानीयकरण सम्बन्धी निर्णय निर्णयकर्त्ता के मस्तिष्क में सम्बन्धित वस्तुस्थिति के प्रबोधित स्वरूप पर निर्भर करता है जो वस्तुनिष्ठ पर्यावरण से भिन्न होता है। इसलिए निर्णय प्रक्रिया को अच्छी तरह समझने के लिए हमें निर्णयकर्त्ता के मानसिक मानचित्र का अध्ययन कर लेना चाहिए। इस विचार को और अधिक मान्यता गोल्ड एवं व्हाइट की सन् 1974 में प्रकाशित पुस्तक ‘Mental Maps’ के बाद मिली।


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