1857 ई० की क्रांति

राजस्थान में 1857 ई० के स्वतंत्रता आन्दोलन के बारे में जानने से पूर्व उसकी पृष्ठभूमि का सर्वेक्षण किया जाना आवश्यक है। राजस्थान के देशी राज्यों ने कम्पनी के साथ संधियाँ (1818 ई०) करके मराठों द्वारा उत्पन्न अराजकता से मुक्ति प्राप्त कर ली तथा राज्य की बाह्य एवं आन्तरिक सुरक्षा के लिए निश्चित हो गए, क्योंकि कंपनी ने इसका भार अपने ऊपर ले लिया। परन्तु कंपनी ने देशी राजाओं की सर्वोच्चता पर चोट कर उनकी स्थिति कंपनी के सामन्तों एवं जागीरदारों जैसी हो गई। कंपनी की नीतियों से सामंतों के पद, मर्यादा व अधिकारों को भी आघात लगा। कंपनी की नीतियों से राजा, सामंत, किसान, व्यापारी, शिल्पी तथा श्रमिक सभी वर्ग पीड़ित हुए। कंपनी के साथ की गई संधियों के कई दुष्परिणाम सामने आए, जिन्होंने 1857 ई० की क्रांति की पृष्ठ भूमि बनाई।

विषय-सूची

1857 ई० की क्रांति के प्रमुख कारण

(1) देशी राज्यों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप –

    अंग्रेजों ने 1818 ई० की संधियाँ करते समय स्पष्ट समझौता किया था कि वह राज्यों के आन्तरिक मामलों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेंगे। लेकिन अंग्रेजों ने राज्यों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप किया। 1819 ई० में उन्होंने जयपुर के मामले में हस्तक्षेप किया। 1821 ई० में अंग्रेजों ने मांगरोल युद्ध में कोटा महाराव के विरुद्ध दीवान जालिम सिंह की सहायता की, जो अंग्रेजों का समर्थक था। 1823 ई० में मेवाड़ में कैप्टन कौब ने समस्त शासन प्रबंध अपने हाथ में ले लिया और महाराणा को खर्च के लिए एक हजार दैनिक नियत कर दिया। 1839 ई० में जोधपुर महाराजा पर दबाव डालकर जोधपुर के किले पर अधिकार कर लिया। 1842-43 ई० में अंग्रेजों ने जोधपुर में नाथों की जागीरों को छीनकर उनको जेल में डाल दिया। इस प्रकार अंग्रेजों ने राज्यों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप कर उनकी स्वायत्तता समाप्त कर दी।

(2) आपसी विवादों में मध्यस्थता –

      1818 ई० की संधियों में यह नियत किया गया कि राज्यों के आपसी विवादों का निपटारा कंपनी सरकार ही करेगी। यदि किसी शासक ने इसका उल्लंघन किया तो उसके विरुद्ध सख्त कदम उठाये गये।

(3) उत्तराधिकार विवाद में हस्तक्षेप

       अंग्रेजों ने शांति बनाये रखने के बहाने उत्तराधिकार के मामलों में खुलकर हस्तक्षेप किया। 1815 ई० में अलवर महाराजा बख्तावर सिंह की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने हस्तक्षेप कर राजसिंहासन बने सिंह को तथा प्रशासन बलवंत सिंह को दिलवा दिया, यही नहीं 1826 ई० में अलवर राज्य के आन्तरिक मामलें में हस्तक्षेप कर बलवंत सिंह व बने सिंह के मध्य अलवर राज्य के दो हिस्से करवा दिये। भरतपुर के उत्तराधिकार के प्रश्न पर 1826 ई० में अंग्रेजों ने लोहागढ़ दुर्ग को घेर लिया। भरतपुर के राजा रणवीर सिंह के कोई पुत्र न होने के कारण सामंतों के समर्थन से दुर्जनशाल गद्दी पर बैठा किन्तु अंग्रेजों ने अपने स्वार्थों के कारण बलवंत सिंह को गद्दी पर बैठा दिया जबकि वैद्य उत्तराधिकारी दुर्जनशाल को बंदी बना लिया गया। 1835 ई० में जयपुर के राजा रामसिंह की अल्पवयस्कता के काल में पालिटिकल एजेंट के निर्देशन में सरदारों की समिति गठित की गई। 1844 ई० में बांसवाड़ा में महारावल लक्ष्मण सिंह की नाबालिगी के दौरान प्रशासन पर अंग्रेजी नियंत्रण बना रहा। जिस राज्य में उत्तराधिकारी अल्पवयस्क होते वहाँ ए० जी० जी० रेजीडेण्ट की अध्यक्षता में अपने समर्थकों की कौंसिल गठित कर प्रशासन पर नियंत्रण स्थापित कर लेते थे। जिससे उनके प्रति असंतोष बढ़ता जा रहा था।

नोट – 1832 ई० में गवर्नर जनरल विलियम बैटिंग द्वारा अजमेर में एजेंट टू गवर्नर जनरल (ए०जी०जी) की नियुक्ति की गई। मि० लॉकेट प्रथम ए०जी०जी० थे। 1857 ई० की क्रांति के समय ए०जी०जी० सर जार्ज पैट्रिक लारेंस थे। समस्त राजस्थान के राज्य इसके अधीन थे। इसे 13 तोपों की सलामी दी जाती थी। इसका दर्जा जयपुर तथा जोधपुर के शासकों से भी ऊपर था। एजीजी के अधीन विभिन्न राज्यों के पोलिटिकल एजेंट होते थे। पोलिटिकल एजेन्ट तथा राज्यों के बीच एजेन्सी वकील होती थी।

(4) राज्यों की कमजोर वित्तीय स्थिति

     संधियों के द्वारा अंग्रेजों ने प्रारंभ से ही खिराज की प्रथा लागू कर आर्थिक शोषण की नीति अपना ली थी। यदि खिराज का भुगतान समय पर नहीं होता तो कंपनी उन पर चक्रवृद्धि ब्याज लगाकर वसूल करती थी। राजाओं को अपने खर्च पर कम्पनी के लिए सेना रखनी पड़ती थी। यदि राजा उस सैनिक खर्च को वहन करने में असमर्थता दिखाता तो उसके राज्य का कुछ भाग कंपनी अपने अधीन कर लेती थी। अंग्रेजों ने जयपुर नरेश को शेखावाटी में राजामाता के समर्थक सामंतों को कुचलने के लिए सैनिक सहायता दी व सैनिक खर्च के रूप में सांभर झील को अपने अधीन (1835 ई०) कर लिया। जोधपुर में शांति व्यवस्था स्थापित करने के नाम पर 1835 ई० में जोधपुर लीजियन का गठन कर उसके खर्च के लिए एक लाख पन्द्रह हजार रूपये वार्षिक जोधपुर राज्य से वसूला जाने लगा। 1841 ई० में मेवाड़ भील कोर की स्थापना मेवाड़ राज्य के खर्च पर की गई। 1822 ई० में मेरवाड़ा बटालियन, 1834 ई० में शेखावाटी बिग्रेड की स्थापना कर इसका खर्चा संबंधित राज्यों से वूसला जाने लगा, जबकि इन सैनिक टुकड़ियों पर नियंत्रण एवं निर्देशन अंग्रेजों का था। इसी प्रकार 1825-30 ई० के दौरान भीलों के विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजों ने सैनिक सहायता दी तथा सैनिक खर्च महाराणा के नाम पर ऋण के रूप में लिख दिया।

(5) देशी राजाओं का शिथिल प्रशासन

      1818 ई० की संधियों के बाद प्रशासनिक मामलों में रेजीडेण्ट का दखल अधिकाधिक बढ़ने लगा। राजा अब रेजीडेण्ट की इच्छानुसार शासन का संचालन करने वाले रबर की मुहर मात्र बनकर रह गये। अंग्रेजों ने प्रशासन में अपने समर्थक व्यक्ति नियुक्त कर दिये। बाँसवाड़ा का शासन मुंशी शहामत अली खाँ (1944-56 ई०) के हाथों में था। अलवर का प्रशासन अहमदबख्श खाँ (1815-26 ई०) के नियंत्रण में था तो जयपुर राज्य में 1835 ई० में अंग्रेज समर्थक जेठाराम सर्वेसर्वा बन गया। इस प्रकार प्रशासन की शिथिलता का दुष्परिणाम जन सामान्य को भुगतना पड़ा। सामंत और राज्य कर्मचारी जनता को विभिन्न प्रकार से पीड़ित करने लगे, जिसकी परिणति कृषक आन्दोलनों के रूप में हुई।

(6) जनसाधारण के हितों पर आघात

      अंग्रेजों ने अधिकाधिक खराज लेने का प्रयास किया। अकाल पड़ने या किसी भी कारण से उपज कम होने पर भी किसानों को निर्धारित भूमिकर नगद राशि में देना पड़ता था, जिससे किसान साहूकारों के चंगुल में और अधिक फँसते गए। अब किसानों को भूमि से बेदखल किया जाने लगा, जबकि अंग्रेजों के आगमन से पूर्व किसानों को भूमि से बेदखल नहीं किया जाता था। किसानों पर चराई कर, सिंचाई कर आदि लगा दिये। रेलवे के विकास ने लोगों की समृद्धि के स्थान पर उन्हें निर्धन बनाने में ज्यादा योगदान दिया। दस्तकार व हस्ताशिल्पियों द्वारा निर्मित वस्तएँ ब्रिटेन की वस्तुओं से महंगी न होने के कारण और अब उन्हें शासक वर्ग का संरक्षण न मिलने से उनका जीवन निर्वाह कठिन हो गया, जिससे उन्होंने अपना परम्परागत व्यवसाय छोड़ दिया और श्रमिक बन गए।

           इस प्रकार राजपूत राज्यों को अंग्रेजों के साथ (1818 ई०) की गई संधियाँ आकर्षक लगी, मगर इनके परिणामस्वरूप शासक शक्तिहीन हो गए, सामन्तों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया तथा किसानों एवं जनसाधारण की दशा दयनीय हो गई। इन संधियों का ही दुष्परिणाम था कि 1857 की क्रांति के दौरान जनसाधारण एवं सामन्त वर्ग ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोहियों को सहायता दी व उनका स्वागत किया तथा बाद में भी राज्यों को किसान एवं जनसाधारण के आन्दोलनों का सामना करना पड़ा। राजा और प्रजा के मध्य जो सम्मानजनक सम्बन्ध थे, वे समाप्त होकर शोषक व शोषित में बदल गए।

क्रांति का सूत्रपात एवं विस्तार

        1857 ई. के विप्लव के समय राजस्थान का प्रशासन उत्तर पश्चिमी प्रान्त के लैफ्टिनेन्ट गवर्नर कॉल्विन के नियंत्रण में था, जिसका मुख्यालय आगरा था। शांति व्यवस्था का कार्य एजेन्ट टू द गवर्नर जनरल के अधीन था, जो गवर्नर जनरल के प्रति उत्तरदायी था। इस समय राजस्थान का ए.जी.जी. जॉर्ज पैट्रिक लारेन्स था। इसका कार्यालय अजमेर में था। एजेन्ट टू द गवर्नर जनरल के अधीन कई पॉलिटिकल एजेन्ट थे जो राज्यों में नियुक्त थे। उनके द्वारा वह राज्यों के प्रशासन पर नियंत्रण रखता था। 1857 ई. में कैप्टन शावर्स उदयपुर में, विलियम ईडन जयपुर में, माक मेसन जोधपुर में, मेजर बर्टन कोटा में तथा मेजर निक्सन भरतपुर में पॉलिटिकल एजेन्ट नियुक्त थे।

     1857 ई० की क्रांति प्रारम्भ होने के समय राजपूताना में नसीराबाद, नीमच, देवली, ब्यावर, एरिनपुरा एवं खेरवाड़ा में सैनिक छावनियाँ थी। इन 6 छावनियों में पाँच हजार सैनिक थे किन्तु सभी सैनिक भारतीय थे। मेरठ में हुए विद्रोह (10 मई, 1857) की सूचना राजस्थान के ए०जी०जी० (एजेन्ट टू गवर्नर जनरल) जार्ज पैट्रिक लॉरेन्स को 19 मई, 1857 को प्राप्त हई। सूचना मिलते ही उसने सभी शासकों को निर्देश दिये कि वे अपने अपने राज्य में शांति बनाए रखें तथा अपने राज्यों में विद्रोहियों को न घुसने दें। यह भी हिदायत दी कि यदि विद्रोहियों ने प्रवेश कर लिया हो तो उन्हें तत्काल बंदी बना लिया जावे। ए०जी०जी० के सामने उस समय अजमेर की सुरक्षा की समस्या सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण थी, क्योंकि अजमेर शहर में भारी मात्रा में गोला बारूद एवं सरकारी खजाना था। यदि यह सब विद्रोहियों के हाथ में पड़ जाता तो उनकी स्थिति अत्यन्त सुदृढ़ हो जाती। अजमेर स्थित भारतीय सैनिकों की दो कम्पनियाँ हाल ही में मेरठ से आयी थी और ए०जी०जी० ने सोचा कि सम्भव है यह इन्फेन्ट्री (15वीं बंगाल नेटिव इन्फेन्ट्री) मेरठ से विद्रोह की भावना लेकर आयी हो, अतः इस इन्फेन्ट्री को नसीराबाद भेज दिया तथा ब्यावर से दो मेर रेजीमेन्ट बुला ली गई। तत्पश्चात उसने डीसा (गुजरात) से एक यूरोपीय सेना भेजने को लिखा।

        राजस्थान स्थित छावनियों में सबसे शक्तिशाली छावनी नसीराबाद की थी, जिसमें बंगाल नैटिव इन्फेन्ट्री के सैनिक थे। देवली में कोटा कन्टिन्जेन्ट, ब्यावर में मेरवाड़ा बटालियन, ऐरनपुरा में जोधपुर लीजियन, खैरवाड़ा में मेवाड़ भील कोर तथा अजमेर में बंगाल नेटिव इन्फेन्ट्री तैनात थी। स्वतंत्रता संग्राम के शुरू होने के समय राजस्थान में अंग्रेज सैनिक अधिक नहीं थे तथा अंग्रेज अधिकारी अपनी सुरक्षा के लिए भी भारतीय सैनिकों पर निर्भर थे।

राजस्थान में क्रांति की शुरुआत नसीराबाद से हुई, जिसके निम्न कारण थे-

(1) ए०जी०जी० ने 15वीं बंगाल इन्फेन्ट्री जो अजमेर में थी, उसे अविश्वास के कारण नसीराबाद में भेज दिया था। इस अविश्वास के चलते उनमें असंतोष पनपा।

(2) मेरठ में हुए विद्रोह की सूचना के पश्चात् अंग्रेज सैन्य अधिकारियों ने नसीराबाद स्थित सैनिक छावनी की रक्षार्थ फर्स्ट बम्बई लांसर्स के उन सैनिकों से, जो वफादार समझे जाते थे, गश्त लगवाना प्रारम्भ किया। तोपों को तैयार रखा गया। अतः नसीराबाद में जो 15वीं बंगाल नेटिव इन्फेन्ट्री थी, उसके सैनिकों ने सोचा कि अंग्रेजों ने यह कार्यवाही भी भारतीय सैनिकों को कुचलने के लिए की है तथा गोला बारूद से भरी तोपें उनके विरुद्ध प्रयोग करने के लिए तैयार की गई है। अतः उनमें विद्रोह की भावना जागृत हुई।

(3) बंगाल और दिल्ली से छ‌द्मभेषधारी साधुओं ने चर्बी वाले कारतूसों के विरुद्ध प्रचार कर विद्रोह का संदेश प्रसारित किया, जिससे अफवाहों का बाजार गर्म हो गया। वस्तुतः 1857 के विद्रोह का तात्कालिक कारण चर्बी वाले कारतूसों को लेकर था। एनफील्ड राइफलों में प्रयोग में लिए जाने वाले कारतूस की टोपी (केप) को दाँतो से हटाना पड़ता था। इन कारतूसों को चिकना करने के लिए गाय तथा सूअर की चर्बी काम में लाई जाती थी। इसका पता चलते ही हिन्दू मुसलमान सभी सैनिकों में विद्रोह की भावना बलवती हो गई। सैनिकों ने यह समझा कि अंग्रेज उन्हें धर्म भ्रष्ट करना चाहते हैं। यही कारण था कि क्रांति का प्रारम्भ नियत तिथि से पहले हो गया।

नसीराबाद में क्रांति-

        राजस्थान में क्रांति का प्रारम्भ 28 मई, 1857 को नसीराबाद छावनी के 15वीं बंगाल नेटिव इन्फेन्ट्री के सैनिकों द्वारा हुआ। नसीराबाद छावनी के सैनिकों में 28 मई, 1857 को विद्रोह कर छावनी को लूट लिया तथा अंग्रेज अधिकारियों के बंगलों पर आक्रमण किये। मेजर स्पोटिस वुड एवं न्यूबरी की हत्या के बाद शेष अंग्रेजों ने नसीराबाद छोड़ दिया। छावनी को लूटने के बाद विद्रोही सैनिकों ने दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। इन सैनिकों ने 18 जून, 1857 को दिल्ली पहुँचकर अंग्रेज पलटन को पराजित किया, जो दिल्ली का घेरा डाले हुए थी। लेफ्टिनेंट हीथकोट तथा लेफ्टिनेंट वाल्टर ने इन्हें रोकने का प्रयास किया परन्तु सफलता नहीं मिली।

नीमच में क्रांति –

      नसीराबाद की क्रांति की सूचना नीमच पहुँचने पर 3 जून, 1857 को नीमच छावनी के भारतीय सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। उन्होंने शास्त्रागार को आग लगा दी तथा अंग्रेज अधिकारियों के बंगलों पर हमला कर एक अंग्रेज सार्जेन्ट की पत्नी तथा बच्चों का वध कर दिया। अंग्रेज अधिकारी परिवारों को डूंगला गाँव (चित्तौड़गढ़) के एक किसान ने शरण देकर क्रांतिकारी सैनिकों से रक्षा की। बाद में मेवाड़ महाराणा ने इन्हें निकालकर जगमंदिर महल में रखा था। जिसकी जिम्मेदारी गोकुलचन्द्र मेहता नामक व्यक्ति को दी। नीमच छावनी के सैनिक चित्तौड़, हम्मीरगढ़ तथा बनेड़ा में अंग्रेज बंगलों को लूटते हुए शाहपुरा पहुँचे। यहाँ के सामन्त ने इनको रसद की आपूर्ति की। यहाँ से ये सैनिक निम्बाहेड़ा पहुँचे, जहाँ जनता ने इनका स्वागत किया। इन सैनिकों ने इनका साथ दिया। छावनी को लूटकर ये क्रांतिकारी टोंक पहुँचे, जहाँ जनता ने नवाब के आदेशों की परवाह न करते हुए इनका स्वागत किया। टोंक से आरा होते हुये ये सैनिक दिल्ली पहुँच गये। पालिटिकल एजेंट कैप्टन शावर्स ने कोटा, बूँदी तथा मेवाड़ की सेनाओं की सहायता से नीमच पर पुनः अधिकार कर लिया।

आउवा में क्रांति –

      1835 ई० में अंग्रेजों ने जोधपुर की सेना के सवारों पर अकुशल होने का आरोप लगाकर जोधपुर लीजियन का गठन किया। इसका केन्द्र एरिनपुरा रखा गया। 21 अगस्त, 1857 को जोधपुर लीजियन के सैनिकों ने विद्रोह कर आबू में अंग्रेज सैनिकों पर हमला कर दिया। यहाँ से ये एरिनपुरा आ गये, जहाँ इन्होंने छावनी को लूट लिया तथा जोधपुर लीजियन के शेष सैनिकों को अपनी ओर मिलाकर ‘चलो दिल्ली, मारो फिरंगी’, के नारे लगाते हुए दिल्ली की ओर चल पड़े।

       एरिनपुरा के विद्रोही सैनिकों की भेंट खैरवा नामक स्थान पर आउवा ठाकुर कुशालसिंह से हुई। कुशालसिंह, जो अंग्रेजों एवं जोधपुर महाराजा से नाराज था, इन सैनिकों का नेतृत्व करना स्वीकार कर लिया। ठाकुर कुशालसिंह के आह्वान पर आसोप, गूलर व खेजड़ली के सामन्त अपनी सेना के साथ आउवा पहुँच गये। वहाँ मेवाड़ के सलूम्बर, रूपनगर तथा लसाणी के सामंतों ने अपनी सेनाएँ भेजकर सहायता प्रदान की। राजपूताना के ए.जी.जी. लारेन्स को जब आउवा में विद्रोही सैनिकों के जमाव की सूचना मिली तो उसने जोधपुर के महाराजा तख्तसिंह को इन्हें कुचलने के लिए लिखा। महाराजा ने किलेदार ओनाड़सिंह और फौजदार राजमहल लोढ़ा के नेतृत्व में एक सेना आउवा भेजी। ठाकुर कुशालसिंह की सेना ने जोधपुर की राजकीय सेना को 8 सितम्बर, 1857 को बिथोड़ा नामक स्थान पर पराजित किया। जोधपुर की सेना की पराजय की खबर पाकर ए०जी०जी० जॉर्ज लारेन्स II स्वयं एक सेना लेकर आउवा पहुँचा। मगर 18 सितम्बर, 1857 ई. को वह चेलावास या काला गोरा के युद्ध में विद्रोहियों से परास्त हुआ। इस संघर्ष के दौरान जोधपुर का पोलिटिकल एजेन्ट मोक मेसन क्रान्तिकारियों के हाथों मारा गया। उसका सिर आउवा के किले के द्वार पर लटका दिया गया। अक्टूबर, 1857 में जोधपुर लीजियन के क्रांतिकारी सैनिक दिल्ली की ओर कूच कर गये। ब्रिगेडियर होम्स के अधीन एक सेना ने 29 जनवरी, 1858 को आठवा पर आक्रमण कर दिया। विजय की उम्मीद न रहने पर कुशालसिंह ने किला सलूंबर में शरण ली। उसके बाद ठाकुर पृथ्वीसिंह ने विद्रोहियों का नेतृत्व किया। अन्त में, आउवा के किलेदार को रिश्वत देकर अंग्रेजों ने अपनी और मिला लिया और किले पर अधिकार कर लिया। अंग्रेजों ने यहाँ अमानवीय अत्याचार किए एवं आउवा की महाकाली की मूर्ति (सुगाली माता) को अजमेर ले गये। सुगाली माता 1857-58 ई की क्रांति की देवी थी। आउवा के ठाकुर कुशाल सिंह ने सलूबर (उदयपुर) कोठारिया के रावत जोधासिंह के घर शरण ली। नीमच में कुशाल सिंह ने आत्मसमर्पण कर दिया। इसकी जांच हेतु मेजर टेचर आयोग गठित किया गया जिसने 10 नवम्बर, 1860 की कुशाल सिंह को निर्दोश साबित कर रिहा कर दिया। ठाकुर कुशालसिंह चंपावत की 1864 ई० में उदयपुर में मृत्यु हो गई।

कोटा में क्रांति –

       कोटा में राजकीय सेना तथा आम जनता ने अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष किया। 14 अक्टूबर, 1857 को कोटा के पोलिटिकल एजेन्ट मेजर बर्टन ने कोटा महाराव रामसिंह द्वितीय से भेंट कर अंग्रेज विरोधी अधिकारियों को दण्डित करने का सुझाव दिया। मगर महाराव ने अधिकारियों के अपने नियंत्रण में न होने की बात कहते हुए बर्टन के सुझाव का मानने से इन्कार कर दिया। 15 अक्टूबर, 1857 को कोटा की सेना ने रेजीडेन्सी को घेरकर मेजर बर्टन और उसके पुत्रों तथा एक डॉक्टर की हत्या कर दी। मेजर बर्टन का सिर कोटा शहर में घुमाया गया तथा महाराव का महल घेर लिया गया। विद्रोही सेना का नेतृत्व रिसालदार मेहराबखाँ और लाला हरदयाल कर रहे थे। विद्रोही सेना को कोटा के अधिकांश अधिकारियों व किलेदारों का भी सहयोग व समर्थन प्राप्त हो गया। विद्रोहियों ने राज्य के भण्डारों, राजकीय बंगलों, दुकानों, शस्त्रागारों, कोषागार एवं कोतवाली पर अधिकार कर लिया। कोटा महाराव की स्थिति असहाय हो गयी। वह एक प्रकार से महल का कैदी हो गया। लाला जयदयाल और मेहराबखाँ ने समस्त प्रशासन अपने हाथ में ले लिया और जिला अधिकारियों को राजस्व वसूली के आदेश दिये गये। मेहराबखाँ और जयदयाल ने महाराव को एक परवाने पर हस्ताक्षर करने के लिए विवश किया, जिसमें मेजर बर्टन व उसके पुत्रों की हत्या महाराव के आदेश से करने एवं लाला जयदयाल को मुख्य प्रशासनिक अधिकारी नियुक्त करने की बातों का उल्लेख था। लगभग छह महीने तक विद्रोहियों का प्रशासन पर नियंत्रण रहा। कोटा के जनसामान्य में भी अंग्रेजों के विरुद्ध तीव्र आक्रोश था। उन्होंने विद्रोहियों को अपना समर्थन व सहयोग दिया। जनवरी, 1858 में करौली से सैनिक सहायता मिलने पर महाराव के सैनिकों ने क्रांतिकारियें को गढ़ से खदेड़ दिया। किन्तु कोटा शहर को क्रांतिकारियों से मुक्त कराना अभी शेष था। 22 मार्च, 1858 ई० को जनरल राबर्टस् के नेतृत्व में एक सेना ने कोटा शहर को विद्रोहियों से मुक्त करवाया। क्रांति के दमन के पश्चात कोटा के प्रमुख नेता जयदयाल तथा मेहराब खाँ को एजेन्सी के निकट नीम के पेड़ पर सरे आम फांसी दे दी गई। क्रांति से सम्बन्धित अन्य नेताओं को भी मौत के घाट उतार दिया अथवा जेल में डाल दिया। अंग्रेजों द्वारा गठित जांच आयोग ने मेजर बर्टन तथा उसके पुत्रों की हत्या के सम्बन्ध में महाराव रामसिंह द्वितीय को निरपराध किन्तु उत्तरादायी घोषित किया। इसके दण्डस्वरूप उसकी तोपों की सलामी 15 तोपों से घटाकर 11 तोपें कर दी गई।

टोंक में क्रांति –

     टोंक का नवाब वजीरुद्दौला अंग्रेज समर्थक था। लेकिन टॉक की जनता एवं सेना की सहानुभूति क्रांतिकारियों के साथ थी। सेना का एक बड़ा भाग विद्रोहियों से मिल गया तथा इन सैनिकों ने नीमच के सैनिकों साथ नवाब के किले को घेर लिया। सैनिकों ने नवाब से अपना वेतन वसूल किया और नीमच की सेना के साथ दिल्ली चले गए। नवाब के मामा मीर आलाम खाँ ने विद्राहियों का साथ दिया। 1858 ई० के प्रारम्भ में तांत्या टोपे के टोंक पहुँचने पर जनता ने तांत्या को सहयोग दिया एवं टोंक का जागीरदार नासिर मुहम्मद खाँ ने भी तांत्या का साथ दिया, जबकि नवाब ने अपने आपको किले में बंद कर लिया बाद में जयपुर के पॉलिटिकल एजेन्ट ईडन ने उसको मुक्त करवाया।

धौलपुर में क्रांति –

      धौलपुर महाराजा भगवन्त सिंह अंग्रेजों का पक्षधर था। अक्टूबर, 1857. में ग्वालियर तथा इंदौर के क्रांतिकारी सैनिकों ने धौलपुर में प्रवेश किया। धौलपुर राज्य की सेना तथा अधिकारी क्रांतिकारियों से मिल गये। विद्रोहियों ने दो महीने तक राज्य पर अपना अधिकार बनाये रखा। दिसम्बर, 1857 में पटियाला की सेना ने धौलपुर से क्रांतिकारियों को भगा दिया। धौलपुर में क्रांति करने वाली सेना और क्रांति का दमन करनी वाली सेना दोनों ही बाहरी थी।

भरतपुर में क्रांति –

     1857 में भरतपुर पर पोलिटिकल एजेन्ट मेजर मारीसन का शासन था। क्योंकि भरतपुर के महाराजा जसवंत सिंह नाबालिग थे। अतः भरतपुर की सेना विद्रोहियों को दबाने के लिए भेजी गयी। परन्तु भरतपुर की मेव व गुर्जर जनता ने क्रांतिकारियों का साथ दिया। फलस्वरूप अंग्रेज अधिकारियों ने भरतपुर छोड़ दिया। मगर भरतपुर से विद्रोहियों के चले जाने पर वहाँ तनाव का वातावरण बना रहा।

करौली में क्रांति –

        करौली के शासक महाराव मदनपाल ने अंग्रेज अधिकारियों का साथ दिया। महाराव ने अपनी सेना अंग्रेजों को सौंप दी तथा कोटा महाराव की सहायता के लिए भी अपनी सेना भेजी। उसने अपनी जनता से विद्रोह में भाग न लेने व विद्रोहियों का साथ न देने की अपील की। ए.जी.जी. ने करौली के शासक को सबसे अधिक कृपापात्र माना और उसकी तोपों की सलामी की संख्या 17 कर दी।

अलवर में क्रांति –

     अलवर भी क्रांतिकारी भावनाओं से अछूता नहीं था। अलवर शासक बन्नेसिंह एवं उसकी मृत्यु के बाद शासक बना शिवदानसिंह दोनों ही अंग्रेज समर्थक और विप्लव के विरोधी थे। अलवर के दीवान फैजुल्ला खाँ की सहानुभूति क्रांतिकारियों के साथ थी। महाराज बन्नेसिंह ने अंग्रेजों की सहायतार्थ आगरा सेना भेजी। अलवर राज्य की गुर्जर जनता की सहानुभूति भी क्रांतिकारियों के साथ थी।

बीकानेर में क्रांति-

      बीकानेर महाराज सरदारसिंह राजस्थान का अकेला ऐसा शासक था जो सेना लेकर विद्रोहियों को दबाने के लिए राज्य से बाहर भी गया। महाराज ने पंजाब में विद्रोह को दबाने में अंग्रेजों का सहयोग किया। महाराजा ने अंग्रेजों को शरण तथा सुरक्षा भी प्रदान की। अंग्रेज विरोधी भावनाओं पर महाराजा ने कड़ा रुख अपनाकर उन पर नियंत्रण रखा। बीकानेर महाराजा की सेवा से प्रसन्न होकर अंग्रेज सरकार ने बीकानेर को टी.बी. परगने के 41 गाँव की दिये।

मेवाड़ में क्रांति –

    मेवाड़ महाराणा स्वरूपसिंह ने अपनी सेना विद्रोहियों को दबाने के लिए अंग्रेजों की सहायतार्थ भेजी। उधर महाराणा के सम्बन्ध न तो अपने सरदारों से अच्छे थे और न कम्पनी सरकार से। महाराणा अपने सामंतों को क प्रभावहीन करना चाहता था। इस समय महाराणा और कम्पनी सरकार दोनों बर को ही एक दूसरे की आवश्यकता थी। मेरठ विद्रोह की सूचना आने पर नेमेवाड़ में भी विद्रोही गतिविधियों पर अंकुश लगाने के लिए आवश्यक कदम एक उठाये गये। नीमच के क्रांतिकारी नीमच छावनी में आग लगाने के बाद मार्ग के सैनिक खजानों को लूटते हुए शाहपुरा पहुँचे। शाहपुरा मेवाड़ का ही ठिकाना था। शाहपुरा के शासक ने क्रांतिकारियों को सहयोग प्रदान किया। मेवाड़ की सेना क्रांतिकारियों का पीछा करते हुए शाहपुरा पहुँची तथा स्वयं कप्तान भी शाहपुरा आ गया परन्तु शाहपुरा के शासक ने किले के दरवाजे । नहीं खोले। महाराणा ने अनेक अंग्रेजों को शरण तथा सुरक्षा भी प्रदान की। यद्यपि राज्य की जनता में अंग्रेजों के विरुद्ध रोष विद्यमान था। जनता ने । विद्रोह के दौरान रेजीडेण्ट को गालियाँ निकालकर अपने गुस्से का इजहार किया। मेवाड़ के सलूम्बर व कोठारिया के सामन्तों ने क्रांतिकारियों का सहयोग दिया।इन सामन्तों ने ठाकुर कुशालसिंह व तांत्या टोपे की सहायता की।

बाँसवाड़ा में क्रांति –

      बाँसवाड़ा का शासक महारावल लक्ष्मण सिंह भी विद्रोह के दौरान अंग्रेजों का सहयोगी बना रहा। 11 दिसम्बर, 1857 को तांत्या टोपे ने बाँसवाड़ा पर अधिकार कर लिया। महारावल राजधानी छोड़कर भाग गया।  राज्य के सरदारों ने विद्रोहियों का साथ दिया।

जयपुर में क्रांति –

     जयपुर राज्य का राजा सवाई राम सिंह अंग्रेज समर्थक थे। जयपुर राज्य ने आगरा तथा अजमेर के बीच संचार तथा सम्पर्क सुरक्षित रखकर अंग्रेजों की सहायता की। इस समय जयपुर में षडयंत्र के प्रयास किये गए षड्यंत्र में सम्ममानित नवाब लियायत खाँ, सादुल्ला खाँ तथा उस्मान खाँ को बंदी बना लिया गया। महाराजा रामसिंह ने पोलिटिकल एजेन्ट तथा अन्य यूरोपियनों को राजमहल तथा नाहरगढ़ में रखकर सुरक्षा प्रदान की।

डूंगरपुर, जैसलमेर, सिरोही और बूँदी के शासकों ने भी विद्रोह के दौरान अंग्रेजों की सहायता की।

निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि राजपूताने में नसीराबाद, आउवा, कोटा, एरिनपुरा तथा देवली सैनिक विद्रोह एवं क्रांति के प्रमुख केन्द्र थे। इनमें भी कोटा सर्वाधिक प्रभावित स्थान रहा। कोटा की क्रांति की यह भी उल्लेखनीय बात रही कि इसमें राज्याधिकारी भी क्रांतिकारियों के साथ थे तथा उन्हें जनता का प्रबल समर्थन था। वे चाहते थे कोटा का महाराव अंग्रेजों के विरुद्ध हो जाये तो वे महाराव का नेतृत्व स्वीकार कर लेंगे किन्तु महाराव इस बात पर सहमत नहीं हुए। आउवा का ठाकुर कुशालसिंह को मारवाड़ के साथ मेवाड़ के कुछ सामंतों एवं जनसाधारण का समर्थन एवं सहयोग प्राप्त होना असाधारण बात थी। एरिनपुरा छावनी के पूर्बिया सैनिकों ने भी उसके अंग्रेज विरोधी संघर्ष में साथ दिया था। जोधपुर लीजियन के क्रांतिकारी सैनिकों ने आउवा के ठाकुर के नेतृत्व में लेफ्टिनेंट हेथकोट को हराया था। आउवा के विद्रोह को ब्रिटिश सर्वोच्चता के विरुद्ध जन संग्राम के रूप में देखने पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होना चाहिये। जयपुर, भरतपुर, टोंक में जनसाधारण ने अपने शासकों की नीति के विरुद्ध विद्रोहियों का साथ दिया। धौलपुर में क्रांतिकारियों ने राज्य प्रशासन अपने हाथों में ले लिया था।

1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राजस्थान की जनता एवं जागीरदारों ने विद्रोहियों को सहयोग एवं समर्थन दिया। तांत्या टोपे को भी राजस्थान की जनता एवं कई सामन्तों ने सहायता प्रदान की। कोटा, टोंक, बाँसवाड़ा और भरतपुर राज्यों पर कुछ समय तक विद्रोहियों का अधिकार रहा, जिसे जन समर्थन प्राप्त था। राजस्थान की जनता ने अंग्रेजों के विरुद्ध घृणा का खुला प्रदर्शन किया। उदयपुर में कप्तान शावर्स को बुरा भला कहा गया, जबकि जोधपुर में कप्तान सदरलैण्ड के स्मारक पर पत्थर बरसाये। फिर भी विद्रोहियों में किसी सर्वमान्य नेतृत्व का न होना, आपसी समन्वय एवं रणनीति की कमी, शासकों का असहयोग तथा साधनों एवं शस्त्रों की कमी के कारण यह क्रांति असफल रही।

ताँत्याटोपे और 1857 की क्रांति 

        ताँत्या टोपे, पेशवा नाना साहब का सहयोगी था, जिसने कानपुर में क्रांति का नेतृत्व किया। 22 जून, 1858 को अलीपुर में चार्ल्स नेपियर से पराजित होने के बाद सैन्य सहायता प्राप्ति की आशा में उसने राजस्थान में प्रवेश किया। जनरल राबर्ट्स के जयपुर पहुँचने की सूचना पर वह टोंक की ओर मुड़ गया। उसके साथ बान्दा का नवाब रहीम अली खाँ भी था। टोंक के नवाब ने ताँत्या का सामना करने के लिए एक सैनिक टुकड़ी भेजी, मगर वह विद्रोहियों से मिल गई। ताँत्या टोंक से रवाना होकर इन्दरगढ़ और माधोपुर होता हुआ बूँदी पहुँचा लेकिन बूँदी से भी कोई सहायता न मिलने पर वह मेवाड़ की ओर मुड़ गया।

    ताँत्या ने माण्डलगढ़ से मेवाड़ में प्रवेश किया तथा रतनगढ़ और सिंगोली होते हुए रामपुरा पहुँचा मगर, ब्रिगेडियर पार्क तथा मेजर टेलर द्वारा उसका मार्ग रोके जाने पर वह भीलवाड़ा पहुँच गया। वहाँ कोठारी नदी के किनारे 9 अगस्त, 1858 को जनरल राबर्ट्स की सेना से पराजित होने के बाद वह कोठारिया चला गया। कोठारिया के रावत जोधसिंह ने उसकी सहायता की।

      13 अगस्त, 1858 को रूकमगढ़ के पास अंग्रेज सेना से वह पुनः परास्त हुआ और अकोला होता हुआ वह झालरापाटन पहुँचा। झालरापाटन की सेना ताँत्या से मिल गई और वहाँ उसे सैन्य सामग्री भी प्राप्त हुई। झालरापाटन से ताँत्या मध्य भारत की ओर चला गया।

      ताँत्या ने दूसरी बार दिसम्बर, 1858 में राजस्थान में प्रवेश किया। वह 9 दिसम्बर, 1858 को कुशलनगढ़ होता हुआ बाँसवाड़ा पहुँचा। कुशलगढ़ का राव उसे रोकने में असफल रहा। ताँत्या ने 11 दिसम्बर को बाँसवाड़ा पर अधिकार कर लिया। प्रतापगढ़ के समीप मेजर रॉक से उसका युद्ध हुआ, जिसमें ताँत्या को भारी क्षति उठानी पड़ी। यहाँ से भागकर ताँत्या मन्दसौर की ओर बढ़ा। वह दौसा की तरफ चला गया मगर, वहाँ कैप्टन शावर्स और होनर्स की सेना से पराजित होकर वह सीकर पहुँचा। सीकर में वह कर्नल होम्स से पराजित हुआ, जिससे उसकी शक्ति पूर्णतया समाप्त हो गई। ताँत्या के छ: सौ सैनिकों ने बीकानेर महाराजा के सामने आत्मसमर्पण कर दिया।

    सभी ओर से निराश होकर ताँत्या अपने पुराने सहयोगी नरवर के मानसिंह के पास चला गया। मानसिंह ने विश्वासघात करते हुए 7 अप्रैल, 1859 को उसे अंग्रेजों को सुपुर्द कर दिया। ग्वालियर में उस पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया और 18 अप्रैल, 1859 को उसे फाँसी दे दी गई।

क्रांति का समापन

क्रांति का अन्त सर्वप्रथम दिल्ली में हुआ, जहाँ 21 सितम्बर, 1857 को मुगल बादशाह को परिवार सहित बन्दी बना लिया। जून, 1858 तक अंग्रेजों ने अधिकांश स्थानों पर पुनः अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। किन्तु तात्या टोपे ने संघर्ष जारी रखा। अंग्रेजों ने उसे पकड़ने में सारी शक्ति लगा दी। यह स्मरण रहे कि तांत्या टोपे ने राजस्थान के सामंतों तथा जन साधारण में उत्तेजना का संचार किया था। परन्तु राजपूताना के सहयोग के अभाव में तांत्या टोपे को स्थान स्थान पर भटकना पड़ा। अंत में उसे पकड़ लिया गया और फांसी पर चढ़ा दिया।

     जहाँ तक आउवा ठाकुर का प्रश्न है, उसने नीमच में अंग्रेजों के सामने आत्मसमर्पण (8 अगस्त, 1860) कर दिया था। उस पर मुकदमा चलाया गया, किन्तु बरी कर दिया गया।

     क्रांति के बाद अंग्रेजी सरकार ने रेलवे व सड़कों का जाल बिछाने का काम शुरू किया, जिससे आवागमन की व्यवस्था तेज व सुचारू हो सके। मध्यम वर्ग के लिए शिक्षा का प्रसार कर एक शिक्षित वर्ग खड़ा किया गया, जो उनके लिए उपयोगी हो सके। अर्थतन्त्र की मजबूती के लिए वैश्य समुदाय को सरंक्षण देने की नीति अपनाई। बाद में वैश्य समुदाय राजस्थान में और अधिक प्रभावी बन गया।

      1857 की क्रांति ने अंग्रेजों की इस धारणा को निराधार सिद्ध कर दिया कि मुगलों एवं मराठो की लूट से त्रस्त राजस्थान की जनता ब्रिटिश शासन की समर्थक है। परन्तु यह भी सच है कि भारत विदेशी जुये को उखाड़ फेंकने के प्रथम बड़े प्रयास में असफल रहा। राजस्थान में फैली क्रांति की ज्वाला ने अर्द्ध शताब्दी के पश्चात् भी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लोगों को संघर्ष करने की प्रेरणा दी, यही क्रांति का महत्व समझना चाहिए।

क्रांति के परिणाम

      यद्यपि 1857 की क्रांति असफल रही किन्तु उसके परिणाम व्यापक सिद्ध हुए। क्रांति के पश्चात् यहाँ के नरेशों को ब्रिटिश सरकार द्वारा पुरस्कृत किया गया क्योंकि राजपूताना के शासक उनके लिए उपयोगी साबित हुए थे। अब ब्रिटिश नीति में परिवर्तन किया गया। शासकों को संतुष्ट करने हेतु गोद निषेध का सिद्धान्त समाप्त कर दिया गया। राजकुमारों के लिए अंग्रेजी शिक्षा का प्रबन्ध किया जाने लगा। अब राज्य कम्पनी शासन के स्थान पर ब्रिटिश नियंत्रण में सीधे आ गये। साम्राज्ञी विक्टोरिया की ओर से की गई घोषणा (1858) द्वारा देशी राज्यों को यह आश्वासन दिया गया कि देशी राज्यों का अस्तित्व बना रहेगा। क्रांति के पश्चात् नरेशों एवं उच्चाधिकारियों की जीवन शैली में पाश्चात्य प्रभाव स्पष्ट रूप से देखने को मिलता हैं। अब राजस्थान के राजे-महाराजे अंग्रेजी साम्राज्य की व्यवस्था में सेवारत होकर आदर प्राप्त करने व उनकी प्रशंसा करने के आदी हो गए थे। जहाँ तक सामन्तों का प्रश्न है, उसने खुले रूप में ब्रिटिश सत्ता का विरोध किया था। अतः क्रांति के पश्चात् अंग्रेजों की नीति सामन्त वर्ग को अस्तित्वहीन बनाने की रही। जागीर क्षेत्र की जनता की दृष्टि में सामन्तों की प्रतिष्ठा कम करने का प्रयास किया गया। सामन्तों को बाध्य किया गया कि वे सैनिकों को नगद वेतन देवें। सामन्तों के न्यायिक अधिकारों की सीमित करने का प्रयास किया। उनके विशेषाधिकारियों पर कुठाराघात किया गया। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि सामन्तों का सामान्य जनता पर जो प्रभाव था, ब्रिटिश नीतियों के कारण कम करने का प्रयास किया गया।

क्रांति का स्वरूप (1857 का वर्ष)

     1857 की घटना को लम्बे समय तक सैनिक विद्रोह या विप्लव के नाम से सम्बोधित किया जाता रहा। परन्तु आधुनिक विद्वानों, इतिहासकारों एवं शिक्षाविदों के विचार विमर्श के बाद यह माना गया कि क्रान्ति का स्वरूप केवल सैनिक विद्रोह ही नहीं था बल्कि यह राष्ट्रीय जन क्रान्ति थी। फिर भी किसी घटना पर मत विभेद होना अनुचित नहीं है।

निःसन्देह 1857 का वर्ष राजस्थान सहित भारत के लिए यादगार वर्ष रहा, क्योंकि ऐसी महान घटना भारतीय इतिहास की पहली घटना थी। भावी स्वतंत्रता संग्राम में देशभक्तों और विशेष रूप से क्रांतिकारियों पर असाधारण प्रभाव डाला। यह घटना उनके लिए प्रेरणा का स्त्रोत बनी। सम्पूर्ण राष्ट्र द्वारा 1857 की 150वीं जयन्ती वर्ष 2007 में उत्साहपूर्वक मनाना ही घटना के महत्व एवं प्रभाव को दर्शाती है। वास्तविक अर्थों में विद्रोह के स्वरूप के बारे में महत्वपर्ण तथ्य यह है कि किसी क्रांति का स्वरूप केवल उस क्रांति के प्रारम्भ करने वालों के लक्ष्यों से निर्धारित नहीं हो सकता, बल्कि इससे निर्धारित होता है कि उस क्रांति ने अपनी क्या छाप छोड़ी।

        1857 की घटना के स्वरूप को लेकर विद्वानों में अनेक मत हैं। ब्रिटिश इतिहासकारों ने इसे सैनिक विद्रोह कहा है जबकि गैर ब्रिटिश विद्वानों ने इस घटना को जन आक्रोश की संज्ञा दी है। भारतीय इतिहासकारों में प्रमुख रूप से आर.सी. मजूमदार, सुरेन्द्र नाथ सेन एवं अशोक मेहता आदि ने 1857 की महान घटना को जन साधारण का राष्ट्रीय आन्दोलन कहा है, जिसमें हिन्दू मुस्लिम सब ने मिलकर ब्रिटिश शासन का विरोध किया। 

      यहाँ हमारे लिए यह उचित होगा कि हम राजस्थान के परिप्रेक्ष्य में इस घटना की समीक्षा करें। मारवाड़ के ख्यात लेखक बाँकीदास, बूँदी, के साहित्यकार सूर्यमल्ल मीसण ने अपनी कृतियों अथवा पत्रों के माध्यम से गुलामी करने वाले राजपूत शासकों को धिक्कारा है। सूर्यमल्ल मीसण ने पीपल्या के ठाकुर फूलसिंह को लिखे एक पत्र में राजपूत शासकों को गुलामी करने की मनोवृत्ति की कटु आलोचना की थी। आउवा व अन्य कुछ ठाकुरों ने, जिनमें सलूम्बर भी शामिल है, अपने क्षेत्रों में चारणों द्वारा ऐसे गीत रचवाये, जिनमें उनकी छवि अंग्रेज विरोधी मालूम होती है।

      राजस्थान में क्रांति की शुरुआत 1857 से हुई, जब यहाँ के ब्रिटिश अधिकारी भागकर ब्यावर की ओर गये, तब रास्ते में ग्रामीण उन पर आक्रमण करने के लिए खड़े थे। कप्तान प्रिचार्ड ने स्वीकार किया है कि यदि बम्बई लॉन्सर के सैनिक उनके साथ न होते तो उनका बचे रहना आसान नहीं था। उसके अनुसार मार्ग में किसी भी भारतीय ने उनके प्रति सहानुभूति प्रदर्शित नहीं की। उसने आगे लिखा है कि इस घटना के 24 घण्टे पहले ऐसी स्थिति नहीं थी। इन अंग्रेजों के घरेलू नौकरों में भी उनके प्रति उपेक्षा का भाव देखा गया। क्रांतिकारी जिस मार्ग से भी गुजरे लोगों ने उनका हार्दिक स्वागत किया। मध्य भारत का लोकप्रिय नेता तांत्या टोपे जहाँ भी गया, जनता ने उसका अभिनन्दन किया तथा उसे रसद आदि प्रदान की। जोधपुर के सरकारी रिकार्ड में यह स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि जब ए०जी०जी० जॉर्ज लॉरेन्स ने आउवा पर चढ़ाई की तब सर्वप्रथम गाँव वालों की तरफ से आक्रमण हुआ था। मारवाड़ में ऐसी परम्परा थी कि जब किसी बड़े अधिकारी की मृत्यु होती थी। तब राजकीय शोक मनाते हुए किले में नौबत बजाना बन्द हो जाता था। किन्तु कप्तान मॉक मेसन की मृत्यु के बाद ऐसा नहीं किया गया, जबकि किलेदार अनाड़सिंह की मृत्यु होने पर किले में नौबत बजाना बन्द रखा गया। आउवा ठाकुर कुशालसिंह द्वारा ब्रिटिश सेनाओं की टक्कर लेने से घटना को उस समय के साहित्य में सर्वोच्च स्थान प्रदान किया गया है। राजस्थान के सदंर्भ में 1857 की क्रांति का अध्ययन और विश्लेषण करने से यह विदित होता है कि राजस्थान में यह महान घटना किसी संयोग का परिणाम नहीं थी, अपितु यह तो ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध सर्वव्यापी रोष का परिणाम थी। यही कारण है कि आउवा की जनता सैनिकों के जाने के बाद भी लड़ती रही। नसीराबाद, नीमच और एरिनपुरा की घटनाएँ निःसन्देह भारतव्यापी क्रांति का अंग थी, लेकिन कोटा और आउवा की घटनाएँ स्थानीय परिस्थितियों का परिणाम थी और उनमें ब्रिटिश विरोधी भावना निर्विवाद रूप से विद्यमान थी। टोंक और कोटा की जनता ने तो विद्रोहियों से मिलकर संघर्ष में भाग लिया था।

        जन आक्रोश के कारण ही भरतपुर के शासक ने मोरीसन को राज्य छोड़ने का परामर्श दिया था। कोटा के महाराव ने भी मेजर बर्टन को कोटा नहीं आने के लिए कहा था। जन आक्रोश के कारण ही मजबूरीवश टोंक के नवाब ने अंग्रेजों को अपने राज्य की सीमा से नहीं गुजरने के लिए कहा था।

      अंत में, यह कहा जा सकता है कि राजस्थान की जनता अंग्रेजों को फिरंगी कहती थे और अपने धर्म को बनाये रखने के लिए उनसे मुक्ति चाहती थी। कुछ स्थानों पर स्थानीय जनता ने भी इस संघर्ष में भाग लिया था, तो अन्य स्थानों पर जनता का नैतिक समर्थन प्राप्त था। यह कहने में हमें संकोच नहीं करना चाहिए कि 1857 का यह संघर्ष विदेशी शासन से मुक्त होने का प्रथम प्रयास था। इस क्रांति को यदि राजस्थान का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा जाये तो संभवतः अनुचित नहीं होगा।

राजस्थान में महत्वपूर्ण स्थानों पर विद्रोह का विवरण

क्र.सं.                        स्थान                                                        तिथि

1.             नसीराबाद विद्रोह                                          28 मई, 1857 ई०

2.             भरतपुर में विद्रोह                                          31 मई, 1857 ई०

3.             नीमच में विद्रोह                                             3 जून, 1857 ई०

4.             देवली में विद्रोह                                            10 जून, 1857 ई०

5.             टोंक में विद्रोह                                              14 जून, 1857 ई०

6.             अलवर में विद्रोह                                          11 जुलाई, 1857 ई०

7.             अजमेर केन्द्रीय कारागाह में विद्रोह                9 अगस्त, 1857 ई०

8.             एरिनपुरा में विद्रोह                                      21 अगस्त, 1857 ई०

9.             आउवा में विद्रोह                                         8 सितम्बर, 1857 ई०

10.          धौलपुर में विद्रोह                                         12 अक्टूबर, 1857 ई०

11.          कोटा राज्य में विद्रोह                                   15 अक्टूबर, 1857 ई०

12.          बांसवाड़ा                                                    11 दिसम्बर, 1857 ई०

राजस्थान में 1857 ई० की क्रांति के समय प्रमुख राज्यों के शासक

क्र.सं.                   राज्य                        शासक

1.                     बीकानेर                     सरदार सिंह

2.                     अलवर                       बन्ने सिंह

3.                     करौली                       मदनपाल

4.                     मारवाड़                      तख्त सिंह

5.                     धौलपुर                      भगवंत सिंह

6.                     जयपुर                       रामसिंह

7.                     मेवाड़                        स्वरूप सिंह

8.                     कोटा                         रामसिंह द्वितीय

9.                     टोंक                          वजीरुद्दोल्ला

10.                  भरतपुर                     जसवंत सिंह

11.                  बांसवाड़ा                    लक्ष्मण सिंह

12.                  झालावाड़                   पृथ्वीसिंह

13.                  सिरोही                       शिवसिंह

14.                  प्रतापगढ़                   दलपत सिंह

राजस्थान में 1857 ई० की सैनिक क्रांति के प्रमुख शहीद

अब्बास बेग मिर्जा

         उत्तर प्रदेश के आगरा जिले में सन् 1823 में जन्मे मिर्जा बेग कोटा राज्य की सेना में दफादार थे। इन्होंने सन् 1857 ई० में कोटा में ब्रिटिश राज्य के विरूद्ध सैनिक व नागरिक विद्रोह में मुख्य भूमिका निभाई। बेग ने अंग्रेजी सेना व कोटा के महाराव की सेना के विरूद्ध कई लड़ाइयाँ लड़ी। बाद में महाराव के सैनिकों द्वारा बन्दी बनाए गए तथा मार्च, 1858 ई० में मारे गये।

अकबर खान

        तत्कालीन कोटा राज्य के करौली क्षेत्र में 7 फरवरी, 1820 को पैदा हुए रिसालदार मोहम्मद खान के छोटे भाई अकबर खान कोटा राज्य की सेना में अफसर थे। मेहराव खान के नेतृत्व में कोटा स्टेट आर्मी की टुकड़ियों द्वारा ब्रिटिश सत्ता के विरूद्ध विद्रोह में इन्होंने सक्रिय भाग लिया तथा ब्रिटिश व महाराव की सेना की टुकड़ियों के विरूद्ध कई लड़ाइयाँ लड़ी और अन्त में मार्च, 1858 ई० में अंग्रेजी हुकूमत ने इन्हें बन्दी बना लिया था। विद्रोहियों की पराजय के पश्चात् ये मार दिए गए।

अलीम खान, हफीज उन उमर

         टोंक राज्य में सन् 1794 में पैदा हुए अलीम खान टोंक नवाब के चाचा थे। इनकी शिक्षा उर्दू और फारसी में हुई थी। राजकुमार मोहम्मद मुनीर खां एवं अजीमुल्ला खां से मिलकर टोंक के नवाब की सेना की टुकड़ी ने जो विद्रोह किया था, उसका संगठन अलीम खान ने किया था। इन्होंने नीमच से सेना की टुकड़ियों को बुला लिया और एक हजार टुकड़ियों की एक पंक्ति बनाने के लिए टोंक में विद्रोही सैनिकों का युद्ध नेतृत्व किया। अलीम खान ने दिल्ली की तरफ सेना का नेतृत्व किया और अंग्रेजी सेना के विरूद्ध कई स्थानों पर युद्ध लड़ा। उसके पश्चात् विद्रोहियो की पराजय के बाद वे टोंक वापस आ गये और दिसम्बर 1858 ई० में नवाब के अफसरो से मुठभेड़ में मारे गये।

भैरोंसिंह जोधा

      ठाकुर रणजीत सिंह के पुत्र भैरों सिंह जोधा का जन्म जोधपुर जिले के गेराओं स्थान में सन् 1816 में हुआ था। गेराओं के जागीरदार भैरों सिंह ने सन् 1857 ई० की महान क्रांति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और ब्रिटिश सेना के विरूद्ध नेतृत्व स्वयं जनरल लारेन्स ने किया, आउवा में 1857 ई० में युद्ध हुआ ओर यहीं युद्ध करते हुए वे वीरगति को प्राप्त हुए।

गुल मोहम्मद

          तत्कालीन कोटा राज्य के करौली क्षेत्र में सन् 1828 में जन्में गुल मोहम्मद कोटा राज्य की सेना में जमादार व विद्रोही सैनिकों के नेता मेहराव खान के छोटे भाई थे। सन् 1857 ई० में कोटा में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ सैनिक व नागरिक क्रांति में मुख्य भूमिका अदा करने वाले गुल मोहम्मद ने ब्रिटिश सेना व कोटा महाराव की सेना के विरूद्ध कई लड़ाइयाँ लड़ीं। अन्त में महाराव की सेना के द्वारा बन्दी बना लिए गए एवं मार्च, 1858 ई० में दिवंगत हो गए।

गुल मोहम्मद निशान्ची हाफिज

     राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिले के टोंक राज्य के निवासी गुल मोहम्मद टोंक स्टेट आर्मी में बंदूकची थे। मुगल सम्राट की सहायतार्थ टोंक से दिल्ली की तरफ बढ़ती हुई विद्रोही सेनाओं के एक सदस्य के रूप में गुल मोहम्मद ने 1857 ई० की महान क्रांति के समय अंग्रेजी सेना के विरूद्ध युद्ध किया और लड़ते लड़ते सन् 1857 ई० में ही दिल्ली में शहीद हो गए।

हरदयाल भटनागर

         भरतपुर जिले के कामा में 1817 में पैदा हुए हरदयाल भटनागर, प्रोफेसर रूपलाल भटनागर के पुत्र थे। इनकी शिक्षा फारसी में हुई थी तथा वे कोटा कोर्ट में नियुक्त थे। अपने बढ़े भ्राता जयदयाल भटनागर के नेतृत्व के कोटा आर्मी की टुकड़ियों और जनता द्वारा किए गए ब्रिटिश सेना के विरूद्ध सन् 1857 ई० के विद्रोह में उन्होंने सक्रिय भूमिका अदा की। उन्होंने मार्च 1858 में कैथूनीपोल पर मेजर जनरल राबर्टस की सेना के विरूद्ध युद्ध में विद्रोही सेना का नेतृत्व किया और लड़ाई में मारे गए।

हरनाथ सिंह ठाकुर

     सिंहास के जागीरदार हरनाथ सिंह का जन्म 4 अप्रैल, 1818 में जोधपुर राज्य के सिंहास स्थान में हुआ था। सन् 1857 ई० की महान क्रांति में जनरल लारेन्स के सेनापतित्व में ब्रिटिश सेना के विरूद्ध हरनाथ सिंह ने आउवा में मुख्य भूमिका निभाई तथा यहीं युद्ध में मारे गए।

हीरा सिंह

     सन् 1857 ई० की क्रांति में ब्रिटिश सेना के विरूद्ध युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले कोटा राज्य की सेना में रिसालदार हीरा सिंह का जन्म तत्कालीन कोटा राज्य के नान्ता गांव में 8 जुलाई, 1818 को हुआ था। कोटा के एजेंसी हाउस पर विद्रोहियों के आक्रमण के समय इन्होंने ब्रिटिश सेना के खिलाफ युद्ध किया। इन्होंने नवम्बर, 1857 ई० में कोटा किले पर अधिकार करने में भी भाग लिया। अंग्रेजों के प्रति वफादार कोटा के महाराव की फौज के विरूद्ध लड़ते हुए हीरा सिंह की मृत्यु हो गई।

लाला जयदयाल भटनागर

       उर्दू, फारसी और अंग्रेजी भाषाओं के ज्ञाता, कोटा महाराव के दरबार में वकील जयदयाल भटनागर का जन्म 4 अप्रैल, 1812 में भरतपुर स्टेट के कामा नामक स्थान पर हुआ था। इन्होंने कोटा राज्य में अंग्रेजी सत्ता के विरूद्ध विद्रोह का संगठन और नेतृत्व किया। इस क्रांति के मुख्य नागरिक नेता के तौर पर कोटा राज्य सेना के रिसालदार मेहराव खान के साथ अंग्रेजी सेना के खिलाफ सैनिक गतिविधियों को निर्देश देने के लिए भी वह उत्तरदायी थे। अक्टूबर, 1857 ई० में एजेंसी हाउस पर कब्जा एवं मेजर बर्टन की हत्या के बाद कोटा की सेना के प्रधान प्रशासक के रूप में भी हरदयाल ने कार्य किया। इन्होंने 1858 में अंग्रेजों के आक्रमण के विरूद्ध जनता व विप्लवकारी टुकड़ियों का नेतृत्व किया। मार्च, 1858 में अधिक शक्तिशाली अंग्रेजी ताकत से विद्रोही सेनाओं की पराजय के बाद इन्होंने शिवपुर नदी की तरफ प्रस्थान किया और परोन के राजा मान सिंह की सीमा में आकर शरण ली। युद्ध के कुछ माह बाद वे कल्पी की तरफ बढ़े और बाद में बीकानेर पहुंचे जहां उन्होंने अपनी सेना को डिस्पेण्ड किया। इन्होंने फकीर के वेश में अलवर की यात्रा की। इसी बीच में कोटा के महाराव ने इनकी गिरफ्तारी के लिए दस हजार रूपये के इनाम की घोषणा की। इन्होंने स्थान-स्थान का भ्रमण किया ताकि गिरफ्तारी से बचा जा सके। बाद में किसी ऐसे व्यक्ति ने इनके बारे में सूचना दे दी जिसने इनका शिष्य बनकर विश्वास प्राप्त कर लिया था और ये जयपुर स्टेट के बैराठ जिले के गांव में पकड़ लिए गए। आत्महत्या के असफल प्रयास के बाद इन्हें 15 अप्रैल, 1860 में जयपुर लाया गया। तत्पश्चात अंग्रेजी राजनीतिक एजेंट ने इन पर मुकदमा चलाया और मृत्यु दण्ड दे दिया गया। 17 सितम्बर, 1860 में इस क्रांतिकारी नेता को कोटा के एजेंसी हाउस में फांसी दे दी गई।

जियालाल

       सन् 1790 में निम्बाहेड़ा जिला चित्तौड़गढ़ में जन्मे जियालाल यहां के मुख्य पटेल थे। इन्होंने निम्बाहेड़ा में कप्तान सी० एल० शावर्स के विद्रोह को दबाने के आदेशों का पालन करने से इन्कार कर दिया था। निम्बाहेड़ा की रक्षा के लिए इन्होंने विद्रोही टुकड़ियों को संगठित किया। अंग्रेजी सेना के शहर पर आक्रमण के समय इन्होंने उसका मुकाबला किया। विद्रोहियों की हार के पश्चात् इन्हें अंग्रेजी सेना ने गिरफ्तार कर लिया। दिसम्बर, 1857 ई० में ब्रिटिश टुकड़ियों की सार्वजनिक परेड के समय इन्हें मार दिया गया।

कामदार खान

      कोटा स्टेट आर्मी में अफसर के पद पर रहे, उर्दू और फारसी में शिक्षा प्राप्त कामदार का जन्म कोटा में सन् 1819 में हुआ था। इन्होंने 1857 ई० के युद्ध में प्रमुख भूमिका निभाई थी। नवम्बर, 1857 ई० में कामदार ने विदेशी सत्ता के तरफदार कोटा के महाराव की वफादार सेना के अफसर ठाकुर लक्ष्मणसिंह की सेना के विरूद्ध पाटनपोल पर आक्रमण किया था। इसी पाटनपोल युद्ध में वे मारे गए।

खवास खान उर्फ एवाज खान

         कोटा स्टेट आर्मी में योद्धा इनायतुल्ला खान के पुत्र कोटा राज्य निवासी खवास का जन्म 1831 के आसपास हुआ था। इन्होंने अक्टूबर, 1857 ई० में कोटा स्टेट आर्मी द्वारा किए गए विद्रोह में भाग लिया। 15 अक्टूबर, 1857 ई० को कोटा में ब्रिटिश राजनैतिक एजेंट के घर पर आक्रमण करने में भी इन्होंने भाग लिया। इस हमले का नेतृत्व किया था, सेना के मेहराब खान एवं गदर के नागरिक नेता ने एजेंसी हाउस को सैक करने व एजेंट की हत्या करने के बाद जनरल राबर्टस के नेतृत्व में अंग्रेजों के आक्रमण के विरूद्ध भी खवास ने लड़ाई लड़ी। अंग्रेजी हुकूमत ने इन्हें गिरफ्तार कर लिया और मृत्यु दण्ड दे दिया और सन् 1860 में एजेंसी हाउस में इन्हें फांसी के फंदे पर लटका दिया।

मेहराब खान

        अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ सेना के विद्येह को संगठित व नेतृत्व करने वाले कोटा स्टेट आर्मी में रिसालदार मेहराब खान का जन्म तत्कालीन कोटा स्टेट के करौली में 11 मई 1815 को हुआ था। इन्होंने कोटा में एजेंसी हाउस पर अक्टूबर, 1857 ई० में आक्रमण किया। वे सैनिक गतिविधियों को निर्देश देने वाले थे। इस आक्रमण में राजनीतिक एजेंट मेजर बर्टन, उनके दो पुत्र और कई लोग मारे गए तथ बाद में इन्होंने जन नेता लाला जयदयाल भटनागर के साथ कोटा राज्य का शासन अपने हाथ में ले लिया। कोटा पर फिरंगी आक्रमणों के विरूद्ध कई युद्ध कियें तथा सन् 1859 में अंग्रेजों के हाथों पकड़े गए और उन्हें मृत्यु दण्ड दे दिया गया। तत्पश्चात् 1860 में एजेंसी हाउस में उन्हें फांसी पर लटका दिया गया।

मोहम्मद खान

        राजस्थान कोटा राज्य के करौली नामक स्थान में 5 जनवरी, 1817 को जन्में मोहम्मद खान ने अंग्रेजों के प्रति वफादार कोटा महाराव की सेना के विरूद्ध युद्ध में प्रमुख रूप से भाग लिया। ये कोटा स्टेट आर्मी में रिसालदार थे और उर्दू व इंग्लिश भाषाओं में शिक्षित। नासिर खां के पुत्र मोहम्मद खान महाराव की सेना द्वारा पकड़ लिए गए और मार्च, 1858 में मार दिए गए।

मुनव्वर खान

        तत्कालीन चित्तौड़गढ़ जिले के टोंक राज्य के निवासी मुनव्वर खान टोंक स्टेट आर्मी में सिपाही थे। विद्रोही सेना के एक सदस्य के रूप में इन्होंने 1857 ई० की महान क्रान्ति के दौरान ब्रिटिश सेना के विरूद्ध युद्ध किया। यह विद्रोही सेना दिल्ली दरबार की सहायतार्थ टॉक स्टेट से चली थी। मुनव्वर खां इसी ब्रिटिश सेना से लड़ते हुए दिल्ली में मारे गए।

नबी शेर खां

         सन् 1857 ई० में कोटा आर्मी की टुकड़ियों द्वारा किए गए विद्रोह में सक्रिय सहयोग देने वाले नबी शेर खां कोटा कोटा स्टेट में करौली में 1915 में जन्मे थें। वे कोटा किले में कोटा स्टेट आर्टिलरी में थे इन्होंने समस्त बंदूक आदि शस्त्र अपने अधिकार में रख लिए और इस तरह से विप्लवकारियों की सहायता की। 15 अक्टूबर, 1857 ई० को जब विद्रोहियों ने कोटा में एजेंसी हाउस पर आक्रमण कर दिया और कोटा महाराव ने राजनीतिक एजेंट मेजर बर्टन को बचाने की कोशिश की तब नबी शेर खां ने उन्हें ऐसा करने से रोका और महाराव की अंग्रेज वफादार सेना के विरूद्ध लड़ रहे विद्रोहियों की सहायता की। मार्च, 1858 में अंग्रेजों ने इन्हें पकड़ लिया और गोली से उड़ा दिया।

नसीर मोहम्मद

        तत्कालीन टोंक स्टेट में 15 अक्टूबर, 1825 को जन्मे नसीर मोहम्मद कोटा स्टेट आर्मी में अफसर थे और 1857 ई० की गदर में सैनिक व असैनिक विद्रोह में सक्रिय भूमिका निभाई। इन्होंने विदेशी सत्ता व महाराव की सेना के विरूद्ध लड़ाइयां लड़ी एवं नवम्बर, 1857 ई० में कोटा के किले पर हुए आक्रमण का नेतृत्व किया और इस तरह वे युद्ध में ही काम आए।

रोशन बेग

       सन् 1857 ई० में कोटा में अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ नागरिक एवं सैनिक क्रांति के अग्रणी नेता, कोटा स्टेट आर्टिलरी में सेवारत रोशन बेग कोटा में लगभग 1817 में पैदा हुए। गदर के चार नेताओं में से एक नेता के रूप में इन्होंने क्रांतिकारियों का नेतृत्व किया। अपने चार्ज में कोटा आर्मी के जितने भी अस्त्र शस्त्र थे उन्हें विप्लवकारियों को सौंप दिया और महाराव के शक्तिबल के विरूद्ध इन्होंने आक्रमण किया। अन्त में कैथूनीपोल पर मेजर जनरल राबर्टस की सेना के विरूद्ध युद्ध करते करते रोशन बेग मार्च, 1858 में मारे गए।

सफदरयार खान

      तलवार खान के पुत्र व टोंक स्टेट के जागीरदार सफदरयार खान चित्तौड़गढ़ जिले के तत्कालीन टोंक राज्य के निवासी थे। इन्होंने टोंक राज्य छोड़कर दिल्ली में मुगल कोर्ट में कार्य करना आरम्भ कर दिया। सन् 1857 ० में अंग्रेजी सेना के आक्रमण को रोकने में सहयोग दिया। दिल्ली के पतन के पश्चात् वे अपने परिवार के साथ अलवर में आकर रहने लग गए। दिसम्बर, 1857 ई० में अलवर में ही अंग्रेजों द्वारा इन्हें पकड़ लिया गया और दिल्ली ने जाकर सूली पर चढ़ा दिया गया।

नरदार अली

       सन् 1857 ई० के गदर में कोटा स्टेट आर्मी द्वारा किए गए विप्लव में मुख भूमिका अदा करने वाले, कोटा स्टेट आर्मी के नारायण पलटन में नहायक सेनाधिकारी, इसरार अली के पुत्र सरदार अली का जन्म कोटा,राजस्थान में 4 जून, 1830 को हुआ था। 15 अक्टूबर, 1857 ई० को कोटा एजेन्सी हाउस पर हुए आक्रमण में भी इन्होंने भाग लिया था। इस आक्रमण में मेजर बर्टन की मृत्यु हो गई थी। कोटा महाराव की सेना जो ब्रिटिश सत्ता के प्रति वफादार रही थी, के विरूद्ध लड़ते लड़ते सरदार अली 1857 ई० में कोटा फोर्ट के पास मारे गए।

शक्तिदान ठाकुर

       6 मई, 1824 में जोधपुर राज्य के आसब स्थान पर जन्मे आसब के जागीरदार के छोटे भाई शक्तिदान ठाकुर ने 1857 ई० की महान क्रान्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और जनरल लॉरेन्स के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना के विरूद्ध युद्ध किया। सन् 1857 ई० में ही आठवा में अंग्रेजों ने इन्हें युद्ध करते हुए पकड़ लिया। तत्पश्चात् जोधपुर राज्य के अधिकारियों ने इन्हें कारावास का दण्ड दिया और आउवा की हवेली में ही कारावास के दौरान ही उनकी मृत्यु हो गई।

ताराचन्द

        सन् 1857 ई० की गदर में राजस्थान के अन्य सभी अमर शहीदों में ताराचन्द का नाम भी अमर रहेगा। ताराचन्द तत्कालीन टोंक राज्य के निवासी थे और चित्तौड़गढ़ जिले की निम्बाहेड़ा में मुख्य पटेल थे। सितम्बर, 1857 ई० में कर्नल जैक्सन की सेना ने जब निम्बाहेड़ा पर आक्रमण किया। तब इन्होंने इसे रोकने में काफी सतर्कता दिखाई। सन् 1857 ई० में निम्बाहेड़ा पर अंग्रेजों द्वारा अधिकार किए जाने के बाद ताराचन्द को गिरफ्तार कर लिया गया और तोप से उड़ा दिया गया।

स्मरणीय तथ्य

  1. 1818 ई० की अंग्रेजों की राजस्थान के राज्यों के साथ संधियाँ गवर्नर जनरल हेस्टिंगज के कहने पर दिल्ली के रेजिडेण्ट चार्ल्स मेटकॉफ द्वारा भी गई। सर्वप्रथम कोटा राज्य (26 दिसम्बर 1817 ई०) ने तथा सबसे अन्त में सिरोही राज्य (1823 ई०) ने संधि की थी।
  2. 17 नवम्बर, 1817 ई० को अंग्रेजों व पिंडारियों के मध्य संधि हो जाने पर पिंडारियों के प्रमुख नेता अमीर खाँ का अंग्रेजों ने टोंक तथा रामपुरा का स्वतंत्र नवाब स्वीकार कर लिया था।
  3. 1817 ई० क्रांति का तात्कालिक कारण एनफीण्ड राइफलें थी। अजमेर राजस्थान में ब्रिटिश सत्ता का केन्द्र था।
  4. देवली छावनी कोटा कंटिजेन्ट का केन्द्र था। कोटा कंटिजेन्ट को क्रांति से पहले मथुरा नियुक्त कर दिया गया था। जहाँ कोटा कंटिजेन्ट ने जुलाई 1857 ई० में संघर्ष शुरू कर दिया।
  5. अंग्रेजों ने देवली की सुरक्षा के लिए जहाजपुर (भीलवाड़ा) से मीणाओं की भर्ती करके 800 सैनिकों की टुकड़ी भर्ती करके देवली में नियुक्त की।
  6. बिथौड़ा के युद्ध में अंग्रेजी सेना का नेतृत्व ओनाड सिंह (जोधपुर के महाराज तख्त सिंह के सेनापति) व अंग्रेज अधिकारी हीथकोट ने किया। कुशाल सिंह के नेतृत्व में क्रांतिकारियों द्वारा ये दोनों मारे गए।
  7. ऊँट पालक (रेबारी) समुदाय के लोग जोधपुर के पालिटिकल एजेन्ट मैक मेसन की कब्र पर पूजा अर्चना करते हैं।
  8. 1857 ई० की क्रांति के दो विजय स्तम्भ पाली में स्थित है।
  9. कोटा में मेजर बर्टन को मारकर उसकी गर्दन को काटकर भाले पर रखकर नारायण व भवानी नामक दो व्यक्तियों ने पूरे शहर में घुमाया था।
  10. धौलपुर राजस्थान की एकमात्र रियासत थी जहाँ पर विद्रोह बाहर (ग्वालियर व इन्दौर) के क्रांतिकारियों ने किया तो इस विद्रोह को दबाने वाले सैनिक भी बाहर (पटियाला) के थे।
  11. तांत्या टोपे राजस्थान के जैसलमेर के अलावा प्रत्येक राज्य में घूमा थे।
  12. बीकानेर के शासक सरदार सिंह एकमात्र ऐसा शासक था जो क्रांति में स्वयं सैनिक लेकर विद्रोहियों को दबाने के लिए राजस्थान से बाहर (पंजाब) गया था।
  13. अंग्रेजों ने करौली के शासक मदनपाल को उसकी मदद के बदले जी०आई०सी० की उपाधि एवं कुछ करों में छूट देकर 17 तोपों की सलामी दी।
  14.  
  15. अंग्रेजों ने जयपुर के शासक रामसिंह को क्रांति में सहायता के बदले कोटपुतली नामक स्थान दिया तथा रामसिंह को ‘सितार-ए-हिन्द’ की उपाधि प्रदान की। जयपुर रियासत राजपूताने की एकमात्र रियासत थी जिसमें राजा एवं आम जनता ने भी अंग्रेजों का साथ दिया।

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