प्रेरक प्रसंग | Motivational Incident | 11-20

प्रेरक प्रसंग | Motivational Incident

अति लोभ से मृत्यु निश्चित 

             दुर्भिक्ष की छाया बहुत त्रासदायक होती है। वह सबको लील जाती है। एक बार देश में भयंकर अकाल पड़ा। पशु – पक्षी ही क्या, मनुष्य तक भूखे मरने लगे और भोजन की तलाश में दर – दर भटकने लगे। जहां देखो, वहां पलायन की पीड़ा ही दिखाई देने लगी थी। 

             एक स्थान पर पक्षियों का एक दल रहता था। जब मरने की नौबत आ गई तो पक्षियों के दल का नायक सबसे बोला- ‘ चलो यहां से उड़कर किसी पहाड़ पर चलें, पहाड़ पर तो कुछ न कुछ खाने को मिल ही जाएगा। ‘

             यह सुनकर पक्षियों के दल ने विचार किया और वह पहाड़ की ओर उड़ चला। पहाड़ पर कुछ घास तो मिली, परंतु अन्न का दाना नहीं मिला। यह देखकर पक्षीवृंद निराश हो गए।

             पक्षियों के इसी दल में एक लोभी पक्षी भी रहता था। एक रात उसने सोचा कि हमें पहाड़ के नीचे भी चलकर देखना चाहिए। शायद कहीं खाने को मिल जाए। ऐसा विचार कर वह पहाड़ के नीचे पहुंचा। सूर्योदय होने पर अन्न को खोजने लगा। सहसा उसकी नजर शहर की ओर जाने वाले मार्ग पर पड़ी। वह यह देखकर प्रसन्न हो उठा कि वहाँ से कुछ बैलगाड़ियां आ रही हैं, जिन पर बोरियां लदी हुई हैं। उस पक्षी ने सोचा कि अवश्य ही वे अनाजों की बोरियां होंगी। पेट भर खाऊंगा और अनाज को इकट्ठा भी कर लूंगा।

             बैलगाड़ियों पर अनाज की बोरियां लदी हुई थीं। पक्षी ने चोंच से बोरियों में छेद कर दिए। अनाज के बहुत से दाने मार्ग में गिर गए। पक्षी ने पर्याप्त पेट भर दाने खाए और पुनः अपने दल में जा मिला। उसको आया जानकर दल के अन्य पक्षियों ने पूछा- ‘कहीं खाने के लिए अनाज दिखाई पड़ा? लोभी पक्षी ने कहा कि अनाज तो दिखाई पड़ा था, लेकिन खाने को नहीं मिला। ‘ अनाज के पास कई शिकारी खड़े थे।

             दूसरे दिन भी उसने यही किया। ऐसे में वह यह भूल गया कि सड़क पर दूसरी बैलगाड़ी भी आ सकती है। सहसा पीछे से दूसरी बैलगाड़ी आ गई और वह बैलों के पैरों तले कुचलकर मर गया। पक्षियों का दल उसको खोजने निकला तो देखा कि पक्षी मरा पड़ा था। पक्षीराज को समझते देर नहीं लगी कि इसे अनाज का पता था, मगर यह अपने साथियों के साथ विश्वासघात करना चाहता था। अति लोभ के कारण ही वह काल कवलित हो गया।

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बड़ा वह जो बुरा करने वालों की भलाई करे

             महाराजा मलिक प्रजापालक थे। वह अपनी जनता – जनार्दन के पालन में दिन – रात जुटे रहते थे। एक बार उन्होंने सोचा कि उसकी कीर्ति दूर – दूर तक फैली हुई है। प्रजा और दरबारी भी उसकी प्रशंसा करते हैं। क्या वह सचमुच श्रेष्ठ है? इसका पता लगना चाहिए।

             राजा ने विद्वानों से पूछा। उन्होंने कहा- ‘ महाराज! आपका चरित्र चंद्रमा के समान उज्ज्वल है। ‘ मंत्रियों और सेनापति ने भी राजा को अच्छे गुणों का पुंज बताया। राजा ने यह सोचा कि जब तक उसकी प्रशंसा राज्य की प्रजा नहीं करती, वह प्रशंसनीय नहीं हो सकता। प्रजा से भी इस बारे में पूछना चाहिए।

             राजा ने प्रजा से पूछा। कइयों ने कहा- ‘आपमें कोई त्रुटि नहीं है, आप सद्व्यवहार कर रहे हैं। अपनी प्रशंसा सुनकर राजा ने सोचा कि हो सकता है प्रजा ने भय के कारण मेरी प्रशंसा की हो। अत: सच जानने के लिए मुझे बाहर निकलना चाहिए।

            महाराजा मलिक रथ पर बैठकर भ्रमण पर निकल पड़ा। गाँव – गाँव जाकर पूछने लगा। उसे सभी जगह यही उत्तर मिला कि महाराजा मलिक में कोई अवगुण नहीं है। महाराजा गर्व से फूल उठा। राजा मलिक का रथ आगे बढ़ता जा रहा था। दूसरी ओर से वाराणसी के राजा ब्रह्मदत्त का रथ आ रहा था।

            मलिक ने ब्रह्मदत्त के सारथी से कहा- ‘ अपने रथ को उसके सामने से हटा ले। ‘

            ब्रह्मदत्त के सारथी ने उत्तर दिया- ‘ मेरे रथ पर सभी गुणों के भण्डार काशी के राजा ब्रह्मदत्त विराजमान हैं। मेरे रथ को आगे निकल जाने दीजिए। ‘

            मलिक बोला- ‘ सभी गुणों का भण्डार तो मैं हूं, अपने रथ को बगल में कर लो। ‘ ब्रह्मदत्त अभी तक मौन था। मलिक की बात सुनकर उससे पूछा- ‘क्या मैं जान सकता हूं कि आप अपने को श्रेष्ठ क्यों समझते हैं?’

            मलिक ने इस पर उत्तर दिया- ‘क्योंकि मैं बुराई करने वालों के साथ बुराई और भलाई करने वालों के साथ भलाई करता हूं।

            ब्रह्मदत्त बोला- ‘परंतु, सबसे बड़ा मनुष्य वह है, जो बुराई करने वालों की भलाई करता है। ‘ यह सुनते ही राजा मलिक ने काशीराज ब्रह्मदत्त के पैर पकड़ लिए ।

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परस्पर लड़ाई से नुकसान

            जंगल की बात है। एक गीदड़ अपनी पत्नी के साथ वनखण्ड की सैर पर निकाला। रास्ते में पत्नी थककर बैठ गई। गीदड़ ने थकावट का कारण पूछा।

            गीदड़ी ने उत्तर दिया – ‘पता नहीं क्या हो गया, कई दिनों से मैं अपने आपको बहुत निर्बल महसूस कर रही हूं। ‘

            गीदड़ बोला – ‘तो तुमने मुझसे पहले क्यों नही कहा? अच्छा घर चलो, मैं तुम्हारे लिए स्वादिष्ट गोश्त लेकर आता हूं। ‘

            गीदड़ी बोली – ‘ मैनें सुना है, रोहित मछली का मांस बहुत शक्तिवर्धक होता है। यदि कहीं मिल सके तो रोहित मछली ले आइएगा। ‘

            गीदड़ सोचने लगा कि आखिर रोहित मिले तो मिले कैसे? सहसा उसकी दृष्टि दो ऊदबिलावों पर पड़ी, जो एक जाल से रोहित मछली को निकाल रहे थे। ऊदबिलाव नदी के किनारे मछली को रखकर बैठ गए और उसे बांटने के प्रश्न को लेकर आपस में झगड़ने लगे थे।

            गीदड़ समझ गया कि दोनों ही ऊदबिलाव मछली के बंटवारे को लेकर उलझ रहे हैं। उनको समझाने के बहाने वह मछली प्राप्त कर सकता है। गीदड़ ने एक आपात् योजना बना डाली। वह मछली को काटने के लिए औजार ढूंढ़ने लगा। सहसा उसने एक ऐसे मजदूर को देखा जो एक वृक्ष के नीचे सो रहा था। गीदड़ ने धीरे से उसकी कुल्हाड़ी अपने दांतों से खींच ली। वह कुल्हाड़ी को लेकर ऊदबिलावों के बीच जा पहुंचा और लगा पूछने – ‘अरे भाइयों! आपस में क्यों झगड़ रहे हो ? मैं मछली को तुम दोनों मे बराबर बांटकर तुम्हारे झगड़े का निस्तारण कर सकता हूं।

            गीदड़ की बात सुनकर दोनों ऊदबिलावों के चेहरे पर मुस्कान दौड़ गई। प्रसन्नता से उन्होंने गीदड़ को अपना फैसला करने वाला बना दिया। गीदड़ ने कुल्हाड़ी से रोहित मछली का सिर काटकर एक ऊदबिलाव को और पूंछ दूसरे ऊदबिलाव को थमा दी।

            ऊदबिलावों ने गीदड़ से पूछा कि ‘तीसरा धड़ वाला भाग आप किसे देंगे? ‘

            गीदड़ बोला – ‘वह तो मै ही लूंगा। ‘दोनों ने विस्मय भरे स्वर में पूछा – ‘क्यों भला? ‘ क्या तुम दोनों मुझे मजदूरी नहीं देना चाहते हो? यह कहकर गीदड़ तीसरा भाग लेकर चलता बना। दुखी होकर ऊदबिलाव कहने लगे कि यदि हम दोनों न लड़ते तो आज इस तरह छले न जाते। सच ही कहा है- आपस में लड़ने से हानि को छोड़कर और कुछ भी हासिल नहीं होता।

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यों हुई ईश्वर के अंशीभूत मानव की रचना

            सृष्टिकर्ता ने अपने में से आत्मा को अलग किया और उसे सुंदरता का स्वरूप दिया। उसने उसे आनंद का प्याला थमाया और कहा – ‘इस प्याले से तब तक मत पीना, जब तक भूत और भविष्य को न भूल जाओ, क्योंकि आनंद और कुछ नहीं, केवल वर्तमान क्षण है।’                         उसने उसे शोक का प्याला भी दिया और कहा – ‘इस प्याले में से पीना और तुम जीवन के सुख के शीघ्रता से बीतते हुए क्षणों का अर्थ समझ जाओगे, क्योंकि शोक का सदा से आधिक्य रहा है।’

            और सृष्टा ने उसे वह प्यार प्रदान किया, जो उसकी सांसरिक परितृप्ति की पहली सांस पर उसे सदैव के लिए छोड़ देगा। एक माधुर्य प्रदान किया, जो उसके मिथ्या – प्रशंसा की चेतना के साथ लुप्त हो जाएगा। उसने उसे परम पवित्र मार्ग पर ले जाने के लिए स्वर्गिक विवेक प्रदान किया और उसके हृदय की गहराई में वह आंख रखी जो अदृश्य को देखती है।

            उसने उसे सजाया स्वर्ग के दूतों द्वारा इंद्रधनुष के तंतुओं से बुने हुए आशाओं के वस्त्र से  और उसने उसे पराजय की छाया से ढंक दिया, जो जीवन और प्रकाश का उष:काल है। तब सृष्टा ने क्रोध की भट्टी में से विनाशकारी अग्नि ली और अज्ञान की मरुभूमि में से झुलसाने वाली आंधी, स्वार्थपरता के तट से तेजी से खिसकने वाली बालू और अनादिकाल के पैरों के नीचे से शुष्क मिट्टी और उन सबको मिलाकर मनुष्य का निर्माण किया।

            इसी प्रकार उसने मनुष्य को एक अन्धशक्ति दी, जो प्रचंड गति से मनुष्य को पागलपन की ओर ले जाती है और इच्छाओं की पूर्ति के साथ ही शान्त होती है। फिर उसने उसके अंदर वह जीवन डाला, जो मृत्यु का प्रेत रूप है। सृष्टा पहले हँसा फिर रोया। उसने मनुष्य के प्रति एक दुर्निवार प्यार और करुणा का अनुभव किया और फिर उसने उसे अपने संरक्षण का आश्रय दिया।

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मोक्ष सुख के मुकाबले राज सुख नगण्य

            एक समय की बात है। उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के राज्य में एक सदाचारी और संतोषी ब्राह्मण निवास करता था। वह बहुत निर्धन था। स्त्री की प्रेरणा से वह धन प्राप्ति के लिए अपने घर से निकला। मार्ग में जाते हुए उसकी भेंट एक महात्मा से हुई।

            महात्मा ने ब्राह्मण को चिंतित दशा में देखा तो उससे उसके दुखों का कारण पूछा और उन सभी कष्टों को दूर कराने का आश्वासन दिया। महात्मा ने विक्रमादित्य को पत्र लिखा – ‘तुम्हारी इच्छापूर्ति का अब समय आ गया है। अपना राज्य इस ब्राह्मण को देकर यहाँ चले आओ।’

            वह पत्र विक्रमादित्य ने पढ़ा। पत्र पढ़कर राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे ब्राह्मण को राज्य सौंपने की तैयारी करने लगे। ब्राह्मण ने जब राजा विक्रमादित्य को राज्य के सुखों का त्याग करने के लिए इतना उत्सुक और अत्यन्त आनंद – विभोर देखा तो वह सोचने लगा कि जब राजा ही राजसुख को ठोकर मारकर योगी के पास जाने में विशेष आनंद अनुभव कर रहे हैं तो योगी के पास अवश्य ही कोई राज्य से भी बड़ा सुख है।

            यह सोचकर उसने राजा से कहा – ‘महाराज मैं अभी महात्माजी के पास पुनः जा रहा हूं और लौटकर राजपाट संभालूंगा।’

            वह ब्राह्मण योगी के पास पहुंचकर बोला – ‘भगवन् ! राजा तो राज्य त्यागकर आपके पास आने के लिए बहुत ही प्रसन्न और उतावले हैं। इससे जान पड़ता है कि आपके पास राज्य से भी बड़ी और महत्वपूर्ण कोई वस्तु है। मुझे भी आप वही दीजिए।’

            महात्मा ने आश्चर्यचकित और प्रसन्न होकर उसे पूर्ण योगक्रिया बताई, जिसके माध्यम से वह ब्राह्मण पूर्ण तपस्वी हो गया। उसे मोक्ष की प्राप्ति हो गई। अत : कहा जाता  है कि मोक्ष – सुख के आगे राज – सुख नितान्त तुच्छ होता है।

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प्रजा से प्रेम का परिणाम मोती

            राजपुर उन दिनों राजधानी था। वहीं भव्य महलों में राजा का निवास था। रानी के साथ वह प्रायः प्रजा के कष्टों को जानने के लिए घुमा करता था। एक दिन वह घूमते हुए राजधानी से बाहर चला गया।

            रास्ते में उसने देखा कि एक खेत में किसान हल चला रहा है। हल में एक ओर बैल जुता है, दूसरी ओर स्त्री। वह हल को खींच रही थी। राजा को बड़ा दुःख हुआ ।

            वह किसान के पास जाकर बोला – ‘ तुम यह क्या कर रहे हो ? बैल की जगह महिला को जोत रहे हो। ‘

            किसान ने कहा- ‘ – ” मैं क्या करूं। मेरा एक बैल मर गया है और मुझे खेत की बुवाई करनी है। ‘

            राजा ने कहा – ‘ मेरी बात सुनो। ‘

            किसान बोला – ‘ मेरे पास समय नहीं है। ‘

            राजा ने उससे कहा – ‘ मेरा एक बैल ले लो। ‘

            किसान बोला – ‘ तुम्हारी घरवाली नहीं मानी तो? ‘

            राजा ने कहा- अपनी स्त्री को भेज दो। वह बात कर आएगी। ‘

            किसान मुँह बनाकर बोला – ‘ उसके जाने से मेरा काम रुक जाएगा । ‘

            राजा ने गंभीर होकर कहा – ‘ उसकी जगह मैं हल खींच दूंगा। ‘

            किसान ने अपनी स्त्री को रानी के पास भेज दिया और उसकी जगह राजा हल खींचने लगा। स्त्री ने रानी से परेशानी वाली सारी बात कह सुनाई।

            उसकी बात सुनते ही रानी बोली – ‘बहन ! तुम्हारा बैल बूढ़ा है, हमारा बैल जवान। दोनों साथ कैसे चलेंगे? ‘

           किसान की स्त्री ने कहा – ‘ तुम अपना बैल नहीं देना चाहती हो तो मत दो। बहाना क्यों बनाती हो? ‘

            रानी बोली – ‘मेरे कहने का मतलब है कि तुम दोनों बैलों को ले जाओ। ‘

            किसान की स्त्री चकित रह गई। रानी ने दोनों बैलों की डोर उसको थमा दी। उन बैलों की मदद से उन्होंने शाम तक सारे खेत में बीज डाल दिए। कुछ दिन बाद फसल बड़ी हुई। किसान ने देखा कि जितनी धरती में राजा ने हल खींचा था और उसके पसीने की बूंदे टपकी थीं, वहां अनाज नहीं मोती लगे हैं। किसान ने अपनी आंखें मलीं कि उसे कही भ्रम तो नहीं हो रहा है। परंतु , वे सचमुच मोती ही थे।

            शायद वे प्रजावत्सल राजा के उत्तम श्रम से उपजे हुए मोती थे। जब भी प्रजा के लिए शासक ने वात्सल्य का परिचय दिया है, धरती ने भी अपना सर्वस्व लुटाया है।

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खजाने के वचनों में दंभ

            एक राजा और रानी थे। उनकी पुत्री जब बड़ी हुई तो रानी को उसके विवाह की चिंता होने लगी। रानी को उत्तम घर और श्रेष्ठ वर की तलाश थी। उनके महल में एक जमादारिन आया करती थी।

            एक दिन रानी को उदास देखकर उसने कारण पूछा तो रानी ने कहा – ‘बेटी बड़ी हो गई है, उसके ब्याह की चिंता रात – दिन खाए जा रही है।’

            जमादारिन तपाक् से बोली – ‘ रानीजी! आप नाहक परेशान हैं, मेरा लड़का है न। उससे राजकुमारी का ब्याह कर दीजिए। ‘

            रानी आपे से बाहर होकर बोली – ‘ तू अपनी औकात भूल गई है क्या? कहाँ राजकुमारी और कहाँ तेरा लड़का! ‘

            रानी ने उस जमादारिन को महल से बाहर निकलवा दिया। रात को राजा महल में आए तो रानी ने सारी बात उन्हें कह सुनाई ।

            राजा ने रानी से पूछा – ‘ वह कहाँ खड़ी होकर यह बात कर रहीं थी ? ‘

            रानी ने इशारा करके वह जगह बता दी ।

            राजा ने कहा – ‘रानी! जमादारिन ऐसा नहीं बोल सकती। जरूर किसी और ने ऐसा बोला होगा।’

            रानी ने खीझकर कहा – ‘ हम दो को छोड़कर और कोई वहां था ही नहीं। ‘

            दूसरे दिन राजा ने उस जगह को खुदवाया , जहाँ खड़े होकर जमादारिन ने ऐसा कहा था। देखा तो नीचे अशर्फियों से भरे कलश गड़े हुए थे। राजा ने उन्हें निकलवा कर जगह को ठीक कर दिया और रानी से कहा ‘ अब तुम जमादारिन को इसी स्थान पर खड़ा करके उससे बात करना। ‘

            रानी ने जमादारिन को बुलवाया और अपनी तरफ से बेटी के ब्याह की चर्चा छेड़ते हुए कहा – ‘अरी ! तेरे लड़के का क्या हुआ? तू भी तो सोच सकती है।’ जमादारिन ने गिड़गिड़ाकर कहा – ‘ कहाँ आप और कहाँ हम ! अब रानी की समझ में आया कि उस दिन जमादारिन नहीं , अशर्फियों का खजाना बोल रहा था।

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भक्तिभाव की पराकाष्ठा

            महाभारत काल की घटना है। धनुर्धर अर्जुन को सबसे बड़ा भक्त होने का गर्व हो गया था। श्रीकृष्ण इस पर अर्जुन को लेकर निकल पड़े। रास्ते में एक ऐसे ब्राह्मण को देखा जो नयन मूंदे बैठा हुआ सूखी घास खा रहा था।

            आसपास सभी जगह हरी घास होने के बाद भी सूखी घास खाने के बारे में अर्जुन के पूछने पर श्रीकृष्ण ने कहा कि सूखी घास में चैतन्य भाव लुप्त हो जाता है। अर्जुन की दृष्टि सहसा ब्राह्मण की कमर में लटक रही तलवार पर पड़ी। अर्जुन ने तत्काल फिर प्रश्न किया।

            श्रीकृष्ण ने कहा – ‘इस विषय में भला मैं क्या बताऊं? तुम स्वयं ही उनसे क्यों नहीं पूछ लेते? ‘

            अर्जुन ने विनम्र भाव से पूछा – ‘हिंसा का सबसे बड़ा प्रतीक तलवार आपके पास है।’

            ब्रह्मण ने कहा – ‘इससे मुझे चार लोगों को काटकर समाप्त करना है। ‘

            किस – किसको ? ‘ अर्जुन ने पूछा। ‘

            सबसे पहले उस दुष्ट नारद को, जो न दिन देखे, न रात, जब चाहे गाते बजाते आए और मेरे भगवान को जगा दे; दूसरा दुष्ट प्रहलाद है। धूर्त ने मेरे भगवान् की मक्खन जैसी कोमल देह को कठोर स्तंभ के भीतर से निकलने पर विवश कर दिया। ‘ ब्रह्मण दांत भींचता हुआ बोला। ‘ तीसरी, वह दुष्ट द्रौपदी है, जिसकी इतनी हिम्मत कि जब मेरे भगवान् भोजन करने बैठे, तभी उनको बुलाकर भोजन नहीं करने दिया। चौथा , वह अर्जुन, उसका इतना दुस्साहस कि त्रिलोक स्वामी, परमब्रह्म, जगत्पालक मेरे प्रभु को अपना सारथी ही बना डाला। उसको तो मैं किसी भी स्थिति में नहीं छोडूंगा। ‘

            अभिमान से भरा हुआ अर्जुन सुन रहा था कि उस ब्राह्मण की वाणी कठोर से कठोरतर होती जा रही थी। ब्राह्मण के भक्तिभाव की गहराई को देख वीरवर अर्जुन का गर्व एकदम चूर – चूर हो गया।

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ज्ञान से मुक्ति ही चरम स्थिति

            प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक महात्मा सुकरात से किसी ने पूछा कि ज्ञान की चरम स्थिति क्या है? सुकरात ने तुरंत जवाब दिया – ‘ज्ञान से मुक्ति।’

            जिज्ञासुगण उनका मुँह ताकने लगे। सुकरात ने उन्हें समझाया – ‘ देखो, जब मैं युवा था तो सोचता था कि मैं बहुत कुछ जानता हूं। जब मैं बूढ़ा हुआ, तो और बहुत से व्यक्तियों, विषयों तथा व्यवस्थाओं को जाना तो ऐसा लगा कि मैं बहुत कम जानता हूं। इतना जानने को पड़ा है दुनिया में कि उसके लगते मेरे पास जो है वह तो कुछ भी नहीं है। जैसे मैं एक विशाल समुद्र – तट पर बैठा हूं। मोती – मणिक समझकर जो लहरों से छीना या डुबकी लगाकर कमाया वह तो मात्र रेतकण अथवा कंकड़ पत्थर ही निकले। कितना विराट अपरिचय अभी शेष है। बहुत अल्प ज्ञान है मेरा, ऐसी सोच मेरी हो गई जब मैंने वृद्धावस्था में पैर रखा। ‘

            सुकरात ने देखा कि अब भी उसके वे शिष्य जो उसे महाज्ञानी समझते थे अविश्वास और आश्चर्य से उसका मुँह ताक रहे हैं। उसने आगे कहा – ‘अब मैं मरने के करीब हूं। तब मैं जान गया हूं कि वह भी मेरा वहम था कि मैं कुछ थोड़ा तो जानता हूं। दरअसल मैं कुछ भी नही जानता।  मैं घोर अज्ञानी हूं। ‘

            जिस दिन महात्मा सुकरात ने यह घोषणा की कि मैं घोर अज्ञानी हूं, उसी दिन यूनानवासी अपने देवता के मंदिर में चले गए। देवता ने कहा – ‘ जाओ, और सुकरात से कहो कि वह दुनिया का सबसे बड़ा ज्ञानी है। ‘ वे लोग सुकरात को ऐसा ही बताने लगे।

            सुकरात बोला – ‘ जवानी में यही बात बताते तो खुशी होती, अब तो मैं घोर अज्ञानी हूं।’ उन्होंने देवता को जाकर बताया कि हम सुकरात की बात माने या तुम्हारी? ‘ देवता का प्रत्युत्तर था- ‘सुकरात की ही मानो, क्योंकि वह ज्ञानयुक्त है।’

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परहित का व्रत

            महाराष्ट्र के संत तुकाराम के कई गुण मानवता के लिए प्रेरक हैं। वे जो कुछ कमाते थे, उसे लगे हाथों जरूरतमंदों में बांट देते थे। ऐसे ही कारणों से उनकी धर्मपत्नी उनसे बहुत नाराज थीं। वह अपने पति को निखटू कहकर संबोधित करती और सदैव दुर्वचन बोला करती।

            एक दिन तो संतजी ने हद ही कर दी। घर में जो थोड़ा – बहुत था, उसे भी गरीबों में वितरित कर दिया। अब भूखे मरने की नौबत थी। उनकी पत्नी ने अत्यन्त दुखी होकर कहा कि ‘तुमसे अगर कुछ भी नहीं बनता, तो कम से कम खेत में जाकर थोड़े से गन्ने ही ले आओ।’

            तुकाराम निकले और गन्ने के खेत की ओर चल दिए। वहाँ जाकर गन्ने तोड़े। एक से एक अच्छे, मोटे  रसीले गन्ने थे। उनका एक गट्ठर बनाया। सिर पर रखा। खुशी – खुशी घर को चल दिए कि आज तो पत्नी प्रसन्न हो जाएगी। उन्होंने जैसे ही बस्ती में प्रवेश किया, उन्हें भिखारियों ने घेर लिया। संत ने सभी भिखारियों को एक – एक गन्ना थमा दिया। रास्ते में आगे कुछ बालक मिल गए। उन्होंने संत को पहचान कर गन्ने मांगे। संतश्री ने उन्हें भी गन्ने दे दिए। सिर्फ एक गन्ना शेष बचा।

            संत तुकाराम ने दृढ़ निश्चय कर लिया कि अब यह गन्ना मैं किसी को भी नहीं दूंगा। वे उसे लेकर घर आ गए। उनकी पत्नी ने जब उनके हाथ में मात्र एक गन्ना देखा तो वह गुस्से के मारे लाल हो गई। उसे लगा कि यह कैसा निखटू पति है। इसकी वजह से आज भी पेट में कुछ नहीं जा पाएगा। क्या इतनी देर के बाद इन्हें केवल एक गन्ना ही मिला? मारे क्रोध के उन्होंने तुकाराम के हाथ से वह गन्ना छीनकर उन्हें उसी से मारना चालू किया। संतश्री पिटते रहे। थोड़ी देर में गन्ने के दो टुकड़े हो गए। अब सन्त से न रहा गया।

            वे बोले – ‘भाग्यवान ! अब पिटाई बंद कर दे। गन्ने के दो टुकड़े हो गए हैं। एक मैं चुतूं । एक तू चूस। ‘ संत तुकाराम के चेहरे पर मुस्कान थी और पत्नी का चेहरा तमतमाया हुआ था।

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