महाराणा प्रताप का मुगलों से संघर्ष

      राजपूताने के वीर महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 ई. (रविवार) को कुम्भलगढ़ के कटारगढ़ दुर्ग (बादलमहल) में हुआ था। प्रताप महाराणा उदयसिंह का सबसे बड़ा पुत्र था। प्रताप की माता का नाम जयवंताबाई (अखैराज सोनगरा चौहान की पुत्री) था। प्रताप का बचपन कुंभलगढ़ में ही व्यतीत हुआ। महाराणा प्रताप बनवासी भीलों में ‘कीका’ (छोटा बच्चा) के नाम से प्रसिद्ध थे। महाराणा प्रताप का विवाह ‘अजब दे पँवार’ के साथ 1557 ई. में हुआ तथा राजकुमारी छीहर बाई (जैसलमेर की राजकुमारी) भी प्रताप की दूसरी पत्नी थी।

      28 फरवरी 1572 ई. को उदयसिंह की गोगुंदा में मृत्यु हो गई थी, उदयसिंह ने अपनी मृत्यु से पहले अपने तीसरे पुत्र जगमाल को अपना उत्तराधीकारी घोषित कर दिया था। जब गोगुदा में उदयसिंह का अन्तिम संस्कार किया जा रहा था तो वहाँ उदयसिंह के छोटे पुत्र जगमाल को न पाकर ग्वालियर के राजा रामसिंह और पाली के राजा अखैराज सोनगरा ने वहाँ उत्तराधिकारी के प्रश्न को उठाया। सभी सरदारों की सहमति से गोगुंदा जाकर जगमाल के स्थान पर महाराणा प्रताप को गद्दी पर बैठाया गया। इस प्रकार महाराणा प्रताप का पहली बार राज्याभिषेक गोगुंदा में किया गया। जगमाल मुगल सम्राट अकबर की सेवा में चला गया। अकबर ने उसे मनसबदार बनाकर ‘जहाजपुर’ का परगना जागीर में प्रदान किया। जगमाल आजीवन मेवाड़ का शत्रु एवं मुगलदरबार का वफादार बना रहा। 1583 ई. में सिरोही में दाताणी के युद्ध में उसकी मृत्यु हो गई। महाराणा प्रताप का दूसरी बार राज्याभिषेक कुंभलगढ दुर्ग में हुआ था।

      महाराणा बनने के बाद प्रताप को मुगल आक्रमण का भय बना हुआ था। चित्तौड़, शाहपुरा, रायला आदि मेवाड़ के प्रमुख सीमान्त भाग मुगलों के हाथ में चले गये थे। 1570 ई. में अकबर का नागौर का दरबार लगा, जिसमें मेवाड़ के अलावा ज्यादतर राजपूतों ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी। अकबर ने प्रताप को अधीनता स्वीकार करवाने के लिए चार दल भेजे। पहली बार जलाल खाँ को नवम्बर 1572 ई. में प्रताप के पास भेजा। दूसरी बार जून 1573 ई. में मानसिंह (आमेर का राजकुमार), तीसरी बार अक्टूबर 1573 ई. में आमेर के राजा भगवानदास तथा चौथी बार दिसम्बर 1573 ई. में टोडरमल को भेजा गया। ये चारों शिष्टमंडल प्रताप को समझाने में असफल रहे तथा अकबर ने प्रताप को युद्ध में बंदी बनाने की योजना तैयार की।

      कर्नल टॉड ने इस आक्रमण का एक कारण ‘मुहणौत नैणसी री ख्यात’ पढ़कर यह बताया कि आमेर का मानसिंह महाराणा प्रताप को समझाने उदयपुर गया था। राणा ने उसको उदयसागर झील पर ठहराया और वहाँ राणा की तरफ से भोजन का आयोजन रखा गया। भोजन के समय स्वयं महाराणा प्रताप न आकर अपने पुत्र अमरसिंह को वहाँ भेज दिया। जब मानसिंह ने राणा के नहीं आने का कारण पूछा तो अमरसिंह ने बताया कि पिताजी अस्वस्थ हैं इसलिए भोजन में नहीं आ सकते। मानसिंह जान गया था कि राणा उससे घृणा करते है क्योंकि आमेर के कछवाहों ने अकबर से वैवाहिक संबंध स्थापित कर लिए थे। मानसिंह वहाँ से बिना भोजन किये “शीघ्र ही महाराणा के सिर दर्द का इलाज करने पुनः उदयपुर आऊँगा’ कहकर वापस लौट गया।

हल्दीघाटी का युद्ध

      प्रताप को बंदी बनाने की योजना बनाई जा रही थी तो मानसिंह के जीवन की यह पहली लड़ाई थी जिसमें वह स्वयं सेनापति था। बंदी बनाने की योजना अजमेर में स्थित ‘अकबर के किले‘ में जिसे ‘मैग्जीन का किला/अकबर का दौलत खाना’ कहा जाता है, में बनाई गई। अकबर ने मानसिंह को युद्ध का मुख्य सेनापति बनाया तथा मानसिंह का सहयोगी आसफखाँ को नियुक्त किया गया। मानसिंह 3 अप्रैल, 1576 ई. को शाही सेना लेकर अजमेर से रवाना हुआ उसने पहला पड़ाव मांडलगढ़ में डाला, 2 माह तक वहीं पर रहा उसके बाद वह आगे नाथद्वारा के पास खमनौर के मोलेला नामक गाँव के पास अपना पड़ाव डाला। उधर इस शाही सेना के आगमन की सूचना महाराणा प्रताप को मिल गई थी।

     महाराणा प्रताप कुंभलगढ से गोगुंदा की ओर चला गया और वहाँ गोगुंदा और खमनौर की पहाड़ियों के मध्य स्थित हल्दी घाटी नामक तंग घाटी में अपना पड़ाव डाला। इस घाटी में एक बार में एक आदमी या एक ही घुड़सवार प्रवेश कर सकता था। इसलिए सैनिकों की कमी होते हुए भी महाराणा प्रताप के लिए मोर्चाबन्दी के लिए यह सर्वोत्तम स्थान था। जहाँ प्रताप के पहाड़ों से परिचित सैनिक आसानी से छिपकर आक्रमण कर सकते थे। इस समय महाराणा प्रताप के साथ बड़ी सादड़ी के मन्ना (मानसिंह) जयमल मेहता, ग्वालियर के रामसिंह और उसके पुत्र शलिवाहन प्रताप सिंह व भगवान सिंह, हकीम खाँ सूरी, भीलों के सरदार, मेरपुर के राणा पूंजा, भामाशाह व उनका भाई ताराचन्द आदि प्रमुख थे। मानसिंह की सेना के साथ वराह के सैयद, गाजी खाँ बदरख्शी, राव लूणकरण, जगन्नाथ कछवाह, ख्वाजा ग्यानुद्दीन अली, आसिफ खाँ और मिहत्तर खाँ आदि प्रमुख थे। वहीं मुगल सैनिक भटक कर मेवाड के सैनिकों से या भूखे प्यासे मरकर जीवन गँवा सकते थे। अंत में दोनों सेनाओं ने हल्दीघाटी के पास लगे शिलालेखानुसार 18 जून, 1576 ई. को युद्ध प्रारम्भ कर दिया।

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       राजपूतों ने मुगलों पर पहला वार इतना जोशिला किया कि मुगल सैनिक चारों ओर जान बचा कर भागे। मुगल इतिहासकार बँदायूनी खाँ जो कि मुगल सेना के साथ था। वह स्वयं भी उस युद्ध से भाग खड़ा हुआ। मुगलों की रिजर्व फौज के प्रभारी मिहत्तर खाँ ने यह झूठी अफवाह फैला दी कि ‘बादशाह अकबर स्वयं शाही सेना लेकर आ रहे हैं’। अकबर के सहयोग की बात सुनकर मुगल सेना की हिम्मत बँधी और वह पुनः युद्ध के लिए तत्पर होकर आगे बढ़े। राजपूत भी पहले मोर्चे में सफल होने के बाद बनास नदी के किनारे वाले मैदान में जिसे ‘रक्तताल’ कहते हैं, में आ जमे। इसी युद्ध के मध्य हाथियों का युद्ध आरंभ हुआ। हाथियों की चिंघाड़ से सारा युद्ध स्थल गूंज उठा। इस युद्ध में राणा की ओर से ‘पूणा व रामप्रसाद हाथी’ और मुगलों की ओर से ‘जगयुक्ता व गजराज हाथी‘ के मध्य युद्ध हुआ। इस युद्ध के समय मुगलों ने रामप्रसाद हाथी के महावत को गोली मार दी, जिस कारण वह हाथी मुगलों के हाथ लग गया। रामप्रसाद हाथी का अकबर के लिए बहुत बड़ा महत्त्व था क्योंकि अकबर इस हाथी को प्रताप से पहले माँग चुका था। महाराणा प्रताप ने रामप्रसाद हाथी को अकबर को देने के लिए मना कर दिया था। रामप्रसाद हाथी को जब अकबर के सम्मुख उपस्थित किया गया तो अकबर के मुँह से अकस्मात ही निकल पड़ा कि ‘यह हाथी मुझे पीर की कृपा से मिला है।’ इसलिए इसका नाम अकबर ने ‘पीर प्रसाद’ रख दिया। हाथियों का युद्ध थमा और दूसरे दिन पुनः युद्ध शुरू हुआ। महाराणा प्रताप अपने राजपूतों के साथ मैदान में उतरा तभी उसकी नजर मुगल सेना के सेनापति मानसिंह पर पड़ी। महाराणा प्रताप ने अपने स्वामीभक्त घोड़े चेतक को ऐड़ लगाई। चेतक स्वामी की बात समझकर अपने कदम उस और बढ़ाया, जिधर मुगल सेनापति मानसिंह ‘मरदाना’ नामक हाथी पर बैठा हुआ था।

     महाराणा प्रताप शत्रुदल को चीरते हुए मानसिंह के पास पहुँचकर चेतक को ऐड़ लगायी तो चेतक अपने स्वामी की इच्छा समझकर अपने पैर हाथी के सिर पर टिका दिए अब क्या था बस मौका पाकर महाराणा प्रताप ने अपने भाले का भरपूर प्रयोग मानसिंह पर किया परंतु मानसिंह हौदे में छिप गया और उसके पीछे बैठा अंगरक्षक मारा गया व हौदे की छतरी का एक खंभ टूट गया। चेतक इस प्रहार को सफल समझकर अपने पैर हाथी के सिर से हटा रहा था तो उसी समय हाथी की सैंड में बँधे हुए जहरीले खंजर से चेतक की टाँग कट गयी। इससे चेतक के भारी घाव लगा किंतु चेतक ने स्वामी को इसका आभास तक नहीं होने दिया। उसी समय मुगलों की शाही सेना ने प्रताप को चारों ओर से घेर लिया यह युद्ध का दृश्य बड़ी सादड़ी का झाला मन्ना/मानसिंह दूर खड़ा देख रहा था। झाला मन्ना/बींदा सेना को चीरते हुए राणा के पास पहुँचा और महाराणा से निवेदन किया कि ‘आप राजचिह्न उतार कर मुझे दे दीजिए और आप इस समय युद्ध के मैदान से चले जाएँ इसी में मेवाड़ की भलाई है।’ परिस्थिति को देखकर राणा ने वैसा ही किया राजचिह्न के बदलते ही सैंकडों तलवारे झाला मन्ना/बींदा पर टूट पड़ी। झाला मन्ना/बींदा इन प्रहारों का भरपूर सामना करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ। महाराणा प्रताप युद्ध के मैदान से बाहर जा रहे थे तो उनको दो मुगल सैनिकों ने देख लिया। मुगल सैनिकों ने महाराणा प्रताप का पीछा किया तभी पीछा करते हुए मुगल सैनिकों पर महाराणा प्रताप के छोटे भाई शक्तिसिंह जो कि अबकर के दरबार में था कि नजर पड़ी। शक्तिसिंह ने अपने भाई को संकट में पड़ा देखकर उसका भ्रातृ-प्रेम जाग उठा और उसने मुगलों का पीछा कर उनको मार दिया।

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       महाराणा प्रताप का स्वामीभक्त घोड़ा चेतक बलीचा गाँव में स्थित एक छोटा नाला पार करते हुए परलोक सिधार गया। इसी जगह ‘बलीचा गाँव’ में चेतक की छतरी बनी हुई है। महाराणा प्रताप जो कभी भी परिस्थिति में नहीं रोये परंतु चेतक की मृत्यु पर उसकी आँखों से आँसू निकल पड़े। प्रताप ने सिर उठाकर देखा तो सामने उसके भाई शक्तिसिंह को पाया। शक्तिसिंह ने अपनी करनी पर लज्जित होकर बड़े भाई के चरण पकड़ कर क्षमा याचना माँगी महाराणा प्रताप ने उसे गले लगाया और क्षमा कर दिया। इसकी जानकारी हमें ‘अमर काव्य वंशावली  ग्रंथ व राजप्रशस्ति‘ से मिलती है जिसकी रचना संस्कृत भाषा में रणछोड़ भट्ट नामक विद्वान ने की।

     इस युद्ध में मुगलों की विजय हुई। यद्यपि इसे डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने ‘अनिर्णित युद्ध की संज्ञा’ दी है। मुगलों ने महाराणा प्रताप की सेना के बारे में शौर्य की गाथाएँ ही सुनी थी आज इस साहस और इस शौर्य को प्रत्यक्ष रूप से देख लिया था। इसलिए विजय के बाद भी मुगल सैनिक इतने घबराए हुए थे कि युद्ध के बाद अपने शिविर के चारों ओर ऊँची-ऊँची मोटी मिट्टी की दीवारें खड़ी करवा दीं ताकि कहीं राजपूतों के घोड़े लाँघ कर न आ जाये।

    महाराणा प्रताप युद्ध भूमि से कोल्यारी गाँव पहुँचे जहाँ उन्होंने अपना व घायल सैनिकों का इलाज करवाया और कोल्यारी गाँव के निकट ही कमलनाथ पर्वत के निकट ही ‘आवरगढ़’ में अपनी अस्थायी राजधानी स्थापित किया।

    हल्दीघाटी के युद्ध के बाद अकबर ने महमूद खाँ नामक व्यक्ति को इस युद्ध व सेना संबंधी जानकारी लेने के लिए भेजा था। हल्दीघाटी के युद्ध के बाद मानसिंह अकबर के पास पहुँचा तो अकबर उससे काफी नाराज हो गया क्योंकि उसने न तो प्रताप को पूरी तरह पराजित किया और न ही अपने साथ मुगल दरबार में लेकर आया इसलिए अकबर ने मानसिंह को दी हुई सात हजारी मनसबदारी को छीन ली और उसके घोड़ों को शाही दाग से मुक्त कर दिया।

 हल्दीघाटी के युद्ध के परिणाम 

    राजस्थानी स्रोत ‘राजप्रशस्ति’, ‘राजविलास’ स्पष्ट रूप से राणा प्रताप की विजय का उल्लेख करते हैं। फारसी इतिहासकार मुगलों की विजय का उल्लेख करते हैं। वास्तविकता यह है कि अकबर मेवाड़ पर अधिकार करना चाहता था, वह अभिलाषा उसकी कभी पूर्ण नहीं हई और उसने युद्ध इसलिए किया था कि वह राणा प्रताप को जिंदा या मुर्दा अपने दरबार में देखना चाहता था। यह अभिलाषा भी उसकी पूर्ण नहीं हई। बदायूँनी का कथन, मानसिंह की अकबर द्वारा दरबार में उपस्थिति की मनाही व अन्य घटनाओं का विश्लेषण करें तो स्पष्ट है कि हल्दीघाटी के युद्ध में प्रताप का पलड़ा भारी रहा। उसने मुगलों के अजेय होने का भ्रम तोड़ दिया।

   मुगल सेना संकट में हल्दीघाटी के युद्ध के पश्चात मुगल सेना गोगुन्दा पहुँच गई। सैनिक पूर्णतया थक गये थे। राणा प्रताप एवं उसके सैनिकों का भय भी सताये जा रहा था। इनकी रसद सामग्री भील लूट ले गये थे और कहीं से रसद सामग्री नहीं प्राप्त हो सके इसकी व्यवस्था राणा प्रताप ने पुख्ता कर दी थी। भयभीत, आतंकित तथा रसद के अभाव में मुगल सेना की बड़ी दुर्दशा हो रही थी। ऐसी स्थिति में राणा के छापामार सैनिक दस्ते, मुगल सेना पर धावे मारने लगे। अंततः यह मुगल सेना भीलों से लुकती-छिपती, लड़ती-भिड़ती अजमेर पहुँची।

हल्दीघाटी के युद्ध का महत्त्व

     इस युद्ध में राणा प्रताप का पलड़ा भारी रहा। यह युद्ध साम्राज्यवादी नीति के विरूद्ध प्रादेशिक स्वतंत्रता का संघर्ष था। राणा प्रताप ने न तो अकबर को कोई चुनौती दी थी और न ही उस पर आक्रमण किया था बल्कि अकबर ने उस पर अपनी सर्वोच्चता आरोपित करने के लिए युद्ध छेड़ा। ऐसी स्थिति में प्रताप द्वारा अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए लड़ना अनिवार्य हो गया था। इस युद्ध से उसकी कीर्ति उज्ज्वल हो गयी और हल्दीघाटी का क्षेत्र स्वाधीनता-प्रेमियों के लिए एक पवित्र तीर्थ स्थल बन गया।

युद्ध के पश्चात् प्रतिरोध

    हल्दीघाटी के बाद राणा प्रताप कुंभलगढ़ को केन्द्र बनाकर पुनः अपनी शक्ति को संगठित करने लगा, तथा उसने गोगुन्दा पर पुनः अधिकार कर लिया। तब अकबर ने राजा भगवन्तदास, मानसिंह और कुतुबुद्दीनखाँ को सेना सहित गोगुन्दा भेजा तथा स्वयं भी सेना सहित गोगुन्दा पहुँचा। मुगल सेना के पहुँचने पर राणा प्रताप पुनः पहाड़ियों में चला गया। अकबर ने राणा का पता लगाने का काफी प्रयास किया और कई दिनों तक मोही गाँव के पास-पास डेरा डाले पड़ा रहा, लेकिन उसे कोई सफलता नहीं मिली, अंततः वह वहाँ से खाली हाथ लौट आया।

कुंभलगढ़ का युद्ध (1578 ई-1580 ई.)

      अकबर के गोगुन्दा से लौट आने के बाद राणा ने मुगल सेना नायक मुजाहिद बेग को मारकर पुनः गोगुन्दा पर अधिकार जमा लिया। अकबर ने क्रुद्ध होकर 15 अक्टूबर 1577 ई. को शाहबाज खाँ के नेतृत्व में एक विशाल सेना भेजी। यह सेना राणा की राजधानी कुंभलगढ़ पर अधिकार करना चाहती थी। इसलिए इसने कुंभलगढ़ की तलहटी में स्थित केलवाड़ा कस्बे पर अधिकार किया। तत्पश्चात् कुंभलगढ़ पर धावे मारना शुरू किया। मुगल सेना के क्रमिक रूप से चार बार कुंभलगढ़ पर आक्रमण किये, लेकिन हर बार उसे राणा की सेना से भारी शिकस्त मिली। राणा ने फिर पहाड़ों की ओर गमन किया। 3 अप्रैल, 1578 ई. को दुर्ग पर मुगलों का अधिकार हो गया, लेकिन प्रताप सकुशल दुर्ग से निकलने में सफल रहा।

      शाहबाज खाँ राणा प्रताप की खोज में गोगुन्दा, उदयपुर तथा चावण्ड पर अधिकार करता हुआ भटकता रहा, लेकिन राणा का पता नहीं लगा सका। राणा छप्पन के पहाड़ी क्षेत्र को केन्द्र बनाकर मुगलों के क्षेत्र पर आक्रमण करके चुनौती देता रहा। मई 1578 ई. में शाहबाज खाँ वापस लौट गया। उसके लौटते ही राणा प्रताप ने गोगुन्दा सहित अनेक महत्त्वपूर्ण चौकियों पर फिर से अधिकार कर लिया। 15 दिसम्बर, 1578 ई. को अकबर ने पुनः राणा को दण्डित करने के लिए शाहबाज खाँ को मेवाड़ भेजा। उसके आते ही राणा फिर पहाड़ों में चला गया। शाहबाज खाँ ने महत्त्वपूर्ण स्थानों पर कब्जा करके वहाँ सैनिक चौकियाँ स्थापित कर दीं। पर इस बार भी उसे कोई सफलता नहीं मिली, और अप्रैल 1579 ई. को वह वापस लौट गया। उसके लौटते ही राणा फिर सक्रिय हो उठा। उसने सभी स्थानों पर पुनः अधिकार कर लिया तथा मुगलों की सैनिक चौकियाँ ध्वस्त कर दी। अकबर ने तीसरी बार शाहबाज खाँ को पुनः भेजा। जब इसे कोई सफलता नहीं मिली तो अकबर ने मई 1580 ई. में उसे वापस बुला लिया।

      1580 ई. के अन्त में अकबर ने राणा के विरुद्ध अब्दुर्रहीम खानखान के नेतृत्व में एक विशाल सेना मेवाड़ भेजी। अब्दुर्रहीम खानखाना ने शेरपुर गांव में अपने परिवार को ठहरा दिया और मेवाड पर धावा बोल दिया। राणा प्रताप के पुत्र कुँवर अमरसिंह ने शेरपुर पर आक्रमण करके सेनापति अब्दुर्रहीम खानखाना के परिवार, जिसमें उसकी बेगमें भी थी, को बंदी बना लिया। राणा प्रताप को जब इसकी सूचना मिली तो उसने अपने पुत्र अमर सिंह को खानखाना के परिवार के सदस्यों को तत्काल सम्मान सहित वापस पहुँचाने का आदेश दिया। राणा का यह कदम नैतिकता के जगत में उसे बहुत ऊँचा उठा देता है। खानखाना को मेवाड़ के इस अभियान में कोई सफलता नहीं मिली।

दिवेर का युद्ध (अक्टूबर, 1582 ई.)

      मुगल सेना के मेवाड में निरन्तर आक्रमण करने और उनमें उन्हें कोई सफलता नहीं मिलने से निराशा घर कर गयी। आगामी लगभग दो वर्ष तक मेवाड़ की ओर झाँक भी नहीं सके। इधर राणा प्रताप अपने क्षेत्र में शासन व्यवस्था को संगठित करने ओर अपनी शक्ति को बढ़ाने में लगा हुआ था। 1582 ई. में प्रताप ने पश्चिमी मेवाड़ के क्षेत्र में मुगल चौकियों और थानों के विरूद्ध कार्यवाही प्रारम्भ की।

     अकबर ने मेवाड़ स्थित महत्वपूर्ण घाटों में सैनिक छावनियाँ स्थापित की थीं, जिनमें सेनानायक एवं सैनिक तैनात किये गये थे। ये थाने थे। ऐसे चार थाने-डूंगरपुर की घाटियों में देवल, उदयपुर में देबारी, पाली में देसुरी तथा अजमेर की ओर दिवेर प्रमुख थे। इनमें सबसे महत्वपूर्ण थाना दिवेर का था क्योंकि यह अजमेर की ओर के मार्ग पर स्थित था। इससे मुगल सेना को मेवाड़ क्षेत्र में किये जाने वाले अभियानों में सुरक्षा मिलती थी। इस थाने का मुगलों के लिए अत्यधिक सामरिक महत्व था, इसलिए अकबर ने यहाँ अपने काका सुल्तान खाँ को तैनात कर रखा था।

   अक्टूबर 1582 ई. में मेवाड़ के सरदारों एवं भील वीरों ने दिवेर को घेर लिया। सुल्तान खाँ ने आस-पास की छावनियों तथा थानों के सेनानायकों को भी सेना सहित बुला लिया। एक तरफ हाथी पर सुल्तान खाँ उसके सेनानायक तथा दूसरी तरफ राणा प्रताप, कुँवर अमरसिंह, भामाशाह आदि वीरों के साथ मेवाड़ के राजपूतों एवं भीलों के सैनिक थे। भीषण संग्राम हुआ। भीलों ने सुल्तान खाँ की सेना के होश ठिकाने लगा दिये। सोलंकी पड़िहार ने सुल्तान खाँ को अपनी तलवार से घाव दिये, उसके हाथी को घायल कर दिया। राणा ने पलक झपकते ही हाथी के कुंभ स्थल पर भाले से वार कर उसे धराशायी कर दिया। अंततः अमरसिंह जो इस युद्ध में अद्भुत कौशल एवं शौर्य का प्रदर्शन कर रहा था, ने अपने भाले का प्रहार पूर्वक सुल्तान खाँ के शरीर में पार कर दिया। मुगल सेना की कमर टूट गई। सेना में भगदड़ मच गयी। राणा प्रताप की निर्णायक विजय हुई। अन्य अनेक चौकियों पर तैनात मुगल सेना भी सुरक्षित स्थानों की ओर भागने लगी। राणा प्रताप की सेना जब कुंभलगढ़ की ओर प्रस्थान करने लगी तो दुर्ग में तैनात मुगल सेना भाग खड़ी हुई। राणा ने कुंभलगढ़ पर तत्पश्चात् दक्षिण में जाकर तथा छप्पन क्षेत्र पर अपना अधिकार किया। चावण्ड पर अधिकार करके उसे अपनी राजधानी बनाया। चावण्ड में राणा प्रताप ने चामूण्डा माता का मन्दिर बनवाया।

    अकबर को जब प्रताप की इन गतिविधियों की सूचना मिली तो उसने सेना सहित जगन्नाथ कछवाहा को मेवाड़ भेजा। मुगल सेना के आते ही राणा पुनः पर्वतराज की शरण में चला गया। जगन्नाथ भी वापस लौट गया। 1585 ई. के बाद अकबर ने राणा की ओर से निराश होकर कोई आशा नहीं रखी और अभियान नहीं किया। राणा ने भी जीवन के अन्तिम 12 वर्ष में आक्रमण नीति अपनाकर एक के बाद एक मेवाड़ में स्थित मुगल थानों को हटाते हुए यहाँ तक की अपने पिता के काल में चित्तौड़ व मांडलगढ़ को छोड़कर मुगलों के पास गये हुये स्थानों को लेने में सफल रहा।

     इस बीच एक दिन अपनी राजधानी चावण्ड में जब वह धनुष की प्रत्यंचा की जोर से खींच कर आजमा रहा था, तभी प्रत्यंचा के टूट जाने से वह घायल हो गया और 19 जनवरी, 1597 ई. को उसका देहान्त हो गया।

महाराणा प्रताप से संबंधित प्रमुख ऐतिहासिक स्थल

गोगुंदा

      यह गाँव उदयपुर से 22 मील उत्तर-पश्चिम में चारों ओर पहाड़ियों से घिरा होने के कारण सैन्य दृष्टि से काफी सुरक्षित था। इसी स्थान पर चित्तौड़ के बाद उदयसिंह ने अपनी अस्थायी राजधानी बनाई थी। हल्दीघाटी के युद्ध के समय मानसिंह ने अपनी सेना का पड़ाव यहीं डाला था। गोगुंदा गाँव के तालाब के किनारे उदयसिंह का अंतिम संस्कार हुआ। अंतिम संस्कार के बाद महाराणा प्रताप का राजतिलक/राज्याभिषेक इसी तालाब के किनारे हुआ, जहाँ आज भी एक छतरी बनी हुई है। महाराणा प्रताप का राजतिलक विधिवत् ढंग से कुंभलगढ़ दुर्ग में हुआ।

मायरा 

      गोगुंदा के पूर्वी पहाड़ जिन्हें लाभ के नाम से पुकारते है। यहीं पर मायरा की गुफा स्थित है, जहाँ पर महाराणा प्रताप का शास्त्रगार था। महाराणा प्रताप ने छापामार युद्ध के लिए इसी स्थान को चुना था। धुलिया/धोलिया व राणा गाँव गोगुंदा के पश्चिम में स्थित पठार जो की धुलिया नाम से जाना जाता है। इन्हीं पहाड़ियों में महाराणा के महलों के खंडहर हैं। जहां संकट के समय महाराणा व उसका परिवार रहता था। जिसने वहाँ पर रहते हुए अमर फल के पेड़ से फल प्राप्त कर अपना जीवन बिताया था। इन्हीं खंडहरों के समीप राणा नामक गाँव है।

मचीन 

      गोगुंदा, हल्दीघाटी व कुंभलगढ़ के बीच में मचीन गाँव स्थित है। इस गाँव में एक ऊँचा पर्वत होने से आसपास की हलचलें आसानी से देखी जा सकती हैं। पर्वत में एक गुफा भी स्थित है जो कि 4-5 मील लंबी है तथा इस गुफा का मुँह दूसरी तरफ भी खुलता है जनश्रुति के अनुसार मुगल आक्रमणों के समय महाराणा व उसकी सेना  इसमें चली जाती थी।

उबेश्वर

       उबेश्वर नामक स्थान उदयपुर से 16 मील पश्चिम में स्थित है। जहाँ सज्जनगढ़ के रास्ते में एक शिव मंदिर है। इसके समीप ढलान पर खंडहर है जो कि महाराणा के आवास स्थल बताए गए हैं यहाँ के शिवलिंग के बीच दरार है। जनश्रुति के अनुसार महाराणा को ढूँढते हुए जब मुगल सेना यहाँ आई तब यह फट गया और इसमें से भैवर निकले जिससे सेना डरकर भाग गई।

जावर

       उदयपुर से 22 मील दूर यहाँ दक्षिणी पहाड़ियों में एक विशाल गुफा स्थित है, जिसमें अंधकार है। इस गुफा में 100-150 लोग बैट सकते हैं। यहाँ रोशनी व हवा की व्यवस्था भी की जा सकती है। यहाँ पर शस्त्रों को छिपाकर रखा जाता था। जावर में ही महाराणा व मुगलों के बीच मुठभेड हुई।

कमलनाथ आवरगढ़

        उदयपुर की झाड़ोल तहसील की सघन पहाड़ियों में आवरगढ़ स्थित है। इसे देखने से लगता है कि महाराणा यहाँ काफी समय रूके होंगे। इस पर्वत की चढ़ाई के बीच में एक बड़ा गोल चबूतरा है जहाँ महाराणा की सभाएँ हुई होंगी।

कोल्यारी

       आवरगढ़ के दक्षिण में स्थित कोल्यारी गाँव में हल्दीघाटी युद्ध के उपरांत महाराणा रूके थे। यहाँ प्रताप व उनकी घायल सेना का इलाज करवाया गया था। मानसिंह को गोगुंदा के चारों ओर से घेरे रखने के लिए सारा नियंत्रण यहीं से होता था।

चावंड 

      उदयपुर व गोगुंदा से अधिक सुरक्षित स्थान चावंड जो कि लगभग 12 वर्षों तक महाराणा प्रताप की आपातकालीन राजधानी रही। चावंड नामक गाँव आज जहाँ स्थित है उससे आधा मील दूर महाराणा के महलों के खंड़हर हैं। इसी गाँव की पहाड़ियों में चामुंडा माता का मंदिर स्थित है। गांव के समीप बांडोली गाँव के निकट नाले के किनारे ही महाराणा का दाह संस्कार हुआ। जहाँ 8 खम्भों की एक छतरी आज भी बनी हुई है।

महाराणा प्रताप स्मारक (मोती मगरी)

      उदयपुर के फतेहसागर झील के किनारे मोती मगरी पहाड़ी पर महाराणा प्रताप का स्मारक स्थित है। यहीं पर इनके पिता उदयसिंह द्वारा निर्मित महल खंडहरों के रूप में स्थित है।

उदयसागर झील

      उदयपुर से 8 मील दूर स्थित इसी स्थान पर अमरसिंह व अकबर के सेनापति मानसिंह के बीच वार्तालाप हुई थी। इसी वार्तालाप में प्रतिष्ठा का सवाल उठा व हल्दीघाटी का ऐतिहासिक युद्ध हुआ।

हल्दीघाटी 

      उदयपुर से 27 मील दूर उत्तर-पश्चिम में व नाथद्वार से 7 मील पश्चिम में हल्दीघाटी नामक स्थान है। जहाँ 1576 ई. अकबर व महाराणा प्रताप के मध्य युद्ध हुआ था। इस राष्ट्रीय तीर्थ स्थली पर प्रतिवर्ष प्रताप जयन्ती पर एक विशाल मेले का आयोजन किया जाता है।

कुंभलगढ़

     महाराणा प्रताप ने 1576 ई. में सैन्य सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए अपनी राजधानी गोगुंदा से हटाकर कुंभलगढ़ ले गया। 1578 ई. में यहाँ मुगलों का अधिकार हो गया किन्तु कुछ महीनों बाद ही महाराणा प्रताप ने वहाँ अपना अधिकार वापस कर लिया।

महत्वपूर्ण तथ्य

  • डॉ. वी.एल. पनगडिया ने झाला मन्ना का नाम झाला बींदा भी बताया है।
  • हकीम खाँ सूरी एकमात्र मुस्लिम सेनापति था जो महाराणा प्रताप की तरफ से युद्ध करते हुए मारे गये इनका मकबरा खमनौर में बना हुआ है।
  • हल्दीघाटी युद्ध के समय महाराणा प्रताप ने मुख्य नियंत्रण केन्द्र के रूप में केलवाडा (राजसमंद) को बनाया तथा युद्ध के बाद कुम्भलगढ़ दुर्ग को मुख्य केन्द्र बनाया।
  • अकबर ने 4 नवम्बर 1576 ई. में मेवाड पर आक्रमण करके उदयपुर को जीत लिया तथा उसका नाम ‘मुहम्मदाबाद’ कर दिया।
  • हल्दीघाटी युद्ध (राजसमंद) को अब्दुल कादिर बदापूंनी ने इस युद्ध को गोगुंदा का युद्ध अबुलफजल (अकबरनाम) ने ‘खमनौर का युद्ध’ तथा कर्नल जेम्स टॉड ने ‘राजस्थान की थर्मोपल्ली’ कहा है। तथा इस युद्ध को बनासनदी का प्रवाह क्षेत्र होने से बनास का युद्ध भी कहते हैं।
  • कर्नल जेम्स टॉड ने कुंभलगढ़ दुर्ग को ‘सार्वभौमिक स्थल का युद्ध’ कहा है।
  • भामाशाह का जन्म 28 जून 1547 ई. को रणथम्भौर में हुआ जबकि वे पाली के निवासी थे।
  • कर्नल टॉड ने दिवेर के युद्ध को ‘मेवाड का मैराथन’ कहा है।
  • कर्नल टॉड ने प्रताप को ‘मेवाड केसरी’ कहकर पुकारा है।

महाराणा प्रताप के जीवन का घटनाक्रम

 

9 मई 1540 महाराणा प्रताप का जन्म
2 फरवरी 1572 महाराणा प्रताप का राजतिलक (गोगुंदा में)
सितम्बर 1572 पहला संधि प्रस्ताव जलाल खाँ कोरची द्वारा
जून 1573 दूसरा संधि प्रस्ताव मानसिंह द्वारा
अक्टूबर 1573 तीसरा संधि प्रस्ताव भगवानदास द्वारा
दिसम्बर 1573 चौथा संधि प्रस्ताव टोडरमल द्वारा
14 मार्च 1576 मेवाड पर हमले की योजना
3 अप्रैल 1576 मानसिंह द्वारा कूच
18 जून 1576 हल्दीघाटी का युद्ध
सितम्बर 1576 प्रताप का गोगुंदा पर पुनः अधिकार
13 अक्टूबर 1576 गोगुंदा के लिए अकबर का कूच
नवम्बर 1576 अकबर का उदयपुर पर अधिकार
मार्च 1578 प्रताप का प्रत्याक्रमण
3 अप्रैल 1578 कुंभलगढ पर मुगल विजय
नवम्बर 1578 कुम्भलगढ़ पर प्रताप की पुनः विजय
दिसम्बर 1578 शाहबाज खाँ का दूसरा हमला
नवम्बर 1579 शाहबाज खाँ का तीसरा हमला
7 दिसम्बर 1584 जगन्नाथ कछवाह का आक्रमण
1586 प्रताप द्वारा अधिकांश मेवाड की विजय
19 जनवरी 1597 प्रताप का देहावसान चावण्ड में



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