कालिदास का जीवन परिचय एवं प्रमुख रचनाएँ

कालिदास

       सम्राट् विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों में से एक कालीदास थे, वे उच्च कोटि के एवं प्रतिभावान, महाकवि और नाटककार थे। धन्वन्तरि, क्षपणक, अमरसिंह, वेदालभट्ट, खटकर्परा, वराहमिहिर, रत्नाकर और वररुचि आदि दरबार के अन्य महान व जाज्वल्यमान् कवि थे।

कालिदास के जीवन और परिचय के संदर्भ में कोई अधिकारिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। अन्य अनेक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक श्रेष्ठ मुनियों की भाँति उनके जीवन को भी किंवदन्तियों और चिंतन के आधार पर ही हमें पूर्णतया निर्भर रहना पड़ेगा।

“कालिदास” का अर्थ है ‘कालि’ का ‘सेवक’ अथवा ‘दास’ । यह सत्य है कि वे दिव्यज्ञानी और अप्रतिम प्रतिभा के धनी थे क्योंकि उन्हें माँ काली का आशीर्वाद प्राप्त था, इसीलिए उन्हें “काली-दास” के उपनाम से जाना जाता है। हो सकता है इससे पूर्व उन्हें किसी अन्य नाम से जाना जाता होगा।

कालिदास को विश्व की महानतम् काव्य-प्रतिभा माना जाता है। उनका गांभीर्य, सौन्दर्यबोध और स्वच्छन्दता उनकी रचनाओं में शाश्वत झलकती है जिसके परिणामस्वरूप आज सम्पूर्ण विश्व में उनके सबसे अधिक प्रशंसक, अनुगामी हैं और वे प्रसिद्धि के चरम शिखर पर विद्यमान हैं।

कालिदास की रचनाएँ साहित्य-कला के विद्यार्थियों को दर्शन, काव्य-परम्परा, दूरदृष्टि, सामान्य ज्ञान और जनजीवन का वृहत् बोध कराती हैं। उनकी काव्य-धारा से विद्यार्थियों के अन्त: चक्षु सहज ही खुल जाते हैं। कालिदास की काव्य कल्पना में शाश्वत् सौन्दर्य एवम् मानव-अभिव्यक्ति का सशक्त सम्मिश्रण दिखाई देता है।

कालिदास की ‘कृतियों’ (रचनाओं) में मानव जीवन की मूलभूत विधाओं एवम् विशेषताओं के प्रकाश-पुंजों के प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं। वे जीवन के शुद्ध एवम् व्यावहारिक पक्ष को लम्बे व सत्यापित अनुभवों पर आधारित दर्शन कराते हैं। जरासंत कण्व द्वारा शकुन्तला को दिए गए परामर्श की एक बानगी देखिए कि आदर्श गृहलक्ष्मी के रूप का कैसा शाश्वत् चित्रण किया है। ‘कुमारसंभव’ के अष्टम् अध्याय में वर्णन किया गया है कि किस प्रकार ‘नवदाम्पत्य’ में बँधे युगल को सहज रूप से एक दूसरे को समझ कर आत्मसात् होना चाहिए।

कालिदास की रचनाएँ अनेक संतोषजनक अनुभवों के वर्णन द्वारा आज के नैगम विश्व में व्याप्त व संचित ‘तनाव’ से मुक्ति दिलाने में सार्थक सिद्ध हो सकती हैं।

कालिदास की रचनाएँ

महाकवि कालिदास की रचनाओ में मुख्यत: तीन नाटक और तीन महाकाव्य उपलब्ध हैं। समय की धारा में उनकी अन्य कितनी रचनाएँ लुप्त हो गई, यह आज भी एक रहस्य ही है । उपलब्ध ‘नाटक’ निम्न प्रकार हैं। :

1. मालविकाग्निमित्रम्

2. विक्रम – उर्वशीयम्

3. शाकुन्तलम्

सर्वविदित ‘महाकाव्य ‘ निम्न प्रकार हैं :

1. मेघदूतम्

2. रघुवंशम्

3. कुमार सम्भवम्

    कालिदास की रचनाओं की महानता के विषय में विद्वानों और समालोचकों में मतभिन्नता है। कुछ कहते हैं कि ‘कुमारसम्भवम्’ उनकी काव्य प्रतिभा और सूक्ष्म प्रतिपादन क्षमता का प्रदर्शन करता है जबकि अन्य ‘शाकुन्तलम् ‘ नाटक को श्रेष्ठ एवम् अद्वितीय रचना मानते हैं। इस विषय में एक लोकोक्ति भी प्रचलित है

“काव्येषु नाटकम् श्रेष्ठम् तत्र शाकुन्तलम् मतं”

“उनके नाटकों और काव्य ग्रंथों में नाटक श्रेष्ठ है और उनमें ‘शाकुन्तलम्’ अप्रतिम है। “

जी हाँ, यह रुचि का अंतर है। एक लोकोक्ति में कहा गया है, “नहीं गुल गलिकाय, कभी माधुर्य भेद” गुड़ की डलियों के मिठास में कोई अन्तर नहीं होता, उनकी सभी रचनाएँ श्रेष्ठ हैं और सभी उदात्त आदर्श प्रस्तुत करती हैं।

उनकी अधिकांश रचनाएँ परवर्ती कवियों और नाटककारों के लिए प्रेरणा का स्रोत प्रस्तुत करती हैं। उनकी लगभग सभी रचनाएँ प्रतिकृति रूप में प्रकाशित हुई हैं और उनका उपयोग साहित्य-कला के क्षेत्र में संगीत, नृत्य, नाट्य, अभिनय, गायन आदि विद्याओं में किया जाता है।

मालविकाग्निमित्रम्

     कालिदास का सर्वप्रथम उपलब्ध नाटक ‘मालविकाग्निमित्र’ राजा अग्निमित्र उनके अन्य समकालीन राजा शुंग द्वितीय की प्रेम कहानी है । इस प्रेम कथा में नायक अपनी नायिका ‘मालविका’ का एक चित्र देखकर उसके प्रेम बंधन में बँध जाता है । नायिका एक छोटी सी गलती के कारण निष्कासित नौकरानी हो जाती है। जब रानी को अपने पति के मन में उसके प्रति गहन और अमिट आसक्ति का आभास होता है तो वह क्रोधित होकर मालविका को बंदी बनाने का आदेश देती है। भावनापूर्ण नाटक में जब यह सुनिश्चित हो जाता है कि मालविका भी एक जन्मजात राजकुमारी है तब यह प्रेम संबंध यथार्थवादी हो जाता है।

विक्रम उर्वशीयम्

       कालिदास का दूसरा नाटक है ‘विक्रमउर्वशीयम्’ यद्यपि यह एक काल्पनिक नाटक कथा है – तथापि इस पर अति वास्तविकतापूर्ण कथानक का आवरण है। कहानी का मुख्य सूत्र इन्द्र सभा की एक ब्रहमाण्डीयगणिका ‘उर्वशी’ को अपने पराक्रम से पुरुवसि द्वारा जीत लेना है। दोनों के आत्मीय मिलन और प्रणय भाव जगने के पश्चात् उर्वशी वापस अपने लोक में जाकर एक नाटक का मंचन करती है। परन्तु जाते हुए वह अपने अमर प्रेमी के लिए भोज-पत्र पर लिखा प्रेम-पत्र छोड़ जाती है। वह उसके अमर-प्रेम में इतनी डूब चुकी थी कि उसका ध्यान सदैव उसमें खोया रहता था, वह भौतिक रूप से एक स्थान पर थी और मानसिक रूप से दूसरे स्थान पर थी। इसलिए नाटकीय अभिनय के दौरान भी वह अपने पात्र को भूलकर अपने नाटकीय प्रेमी के नाम का भी गलत उच्चारण करती है। नाटक भाव-भावना और अनुभूति व आनन्द का विनाश करने पर उर्वशी को स्वर्गलोक से पृथ्वीलोक पर भेजने की सजा दी जाती है और अपने प्रसव से उत्पन्न बालक को अपने लौकिक पति को सौंपकर उसे वापस देवलोक आने की अनुमति दी जाती है। अनेक प्रकार की प्रतिकूलता, घटनाक्रम और मानसिक आघातों की श्रृंखला के पश्चात् उर्वशी का अमरबेल के रूप में परावर्तन हो जाता है और उसका अभिशाप स्वतः समाप्त हो जाता है तथा प्रेमी युगल को पृथ्वीलोक पर ही रहने की अनुमति मिल जाती है। नाटक पूर्णतया काव्यमय तथा लोकप्रिय हास्य से भरपूर संवादों से परिपूर्ण है।

शाकुन्तलम्

      कालिदास रचित यह संभवत: मानव-सभ्यता को कदाचित उपलब्ध लिखित एवम् असमंजस से भरपूर और अति नाटकीयता से परिपूर्ण यह सर्वोत्तम नाटक है। शाकुन्तलम् को अनेक पुरस्कारों से आलोचकों एवम् गुण-पारखियों ने सदैव विभूषित किया है। इस नाटक की उस साहित्यिक श्रेष्ठकृति के रूप में प्रशंसा की गई है जिसकी रचना महानतम् कवि एवं नाटककार द्वारा की गई है। इसके कथानक में भी एक प्रेम- गाथा का चित्रण है जिसमें राजा दुष्यन्त ऋषि कण्व की पौष्य – पुत्री शकुन्तला के प्रेम-पाश में बँध जाते हैं। नायिका शकुन्तला के व्यक्तित्व में अप्रतिम सौन्दर्य, विशेषता, कुशाग्रता, बुद्धिमत्ता और विनम्रता का सम्मिश्रण है। जिस समय राजा विश्वामित्र ब्रह्मऋषि की उपाधि पाने के लिए गहन तपस्या का उपक्रम कर रहे थे तो देवराज इन्द्र क्रोधित हो गये और उन्होंने समझा कि विश्वामित्र उनका स्थान प्राप्त करने के लिए तपस्या कर रहे हैं। इसलिए उन्होंने ईर्ष्यावश विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए सब प्रकार के छल-कपट का सहारा लिया परन्तु इन्द्र को इस चाल में सफलता नहीं मिली। इसके पश्चात् इन्द्र ने दिव्य-नर्तकी मेनका को बुलाकर विश्वामित्र की तपस्या भंग करने का आदेश दिया। मेनका ने पृथ्वी पर अवतरण किया और पूर्णतया तपस्यालीन विश्वामित्र के पास पहुँची। अथक प्रयास के बाद मेनका ने विश्वामित्र की तपस्या भंग की और उनके मन-मंथन और तपभंग के पश्चात् उसने शकुन्तला को जन्म दिया। पुत्री प्रसव के पश्चात् मेनका नवजात को जंगल में अकेला व निराश्रित छोड़कर स्वर्गलोक वापस चली गई और ऋषि विश्वामित्र अपनी तपस्या व ध्यान में लीन बने रहे।

         एक दिन ऋषि कण्व पवित्र नदी में देह – प्रक्षालन कर लौट रहे थे कि उन्होंने किसी शिशु के बिलखने की आवाज सुनी तो वे उस दिशा की ओर बढ़े और उन्होंने एक निरीह बालिका को घास-फूस पर पड़े देखा। ऋषि कण्व ने उसे उठाकर अपने सीने से चिपका लिया और अपने आश्रम में ले गये, जहाँ उन्होंने उसकी अच्छी सुश्रुषा व पालन पोषण किया। बालिका ने एक अद्भुत यौवना के सौंदर्य का रूप धारण कर लिया और आश्रम के एकान्त अनुशासन-पालन में बड़ी हो गई। शकुन्तला की दो सहेलियाँ बनीं, अनुसूया और प्रियंवदा ।

       एक दिन राजा दुष्यन्त अपने मित्र मदाव्य और सैनिकों के साथ शिकार हेतु निकले और उन्होंने कण्व ऋषि के आश्रम में प्रवेश किया। दुष्यन्त अपने रथ में शर-संधान की अवस्था में एक हिरण को शिकार का लक्ष्य बना ही रहे थे कि दो कण्व शिष्य आ गए और संधान मार्ग को अवरोधित कर दिया। उन्होंने आह्वान किया, “ओ महान राजा, यह हिरण आश्रम की संपत्ति है, आप इसे मत मारिये।” यह सुनकर दुष्यन्त ने तुरन्त धनुष से बाण को हटा लिया। वे अपने रथ से उतरे और उन भिक्षुओं को साष्टांग प्रणाम किया ।

     ऋषि कण्व के शिष्यों ने उनका स्वागत व सत्कार किया और कहा, “महाराज आपने अपनी वंश-परम्परा और प्रशंसनीय व्यक्तित्व की गरिमा के अनुरूप व्यवहार किया है। ईश्वर आपको आपकी आदर योग्य गरिमा से युक्त पुत्र रत्न प्रदान करें ! क्या हम जान सकते हैं कि यहाँ इस समय पर आपका आगमन किस उद्देश्य से हुआ है ?”

       राजा ने उत्तर दिया, “हे मुनिवृंद, मैं यहाँ अवलोकन करने आया था और निरीक्षण करना चाहता था कि आश्रम ठीक-ठाक अवस्था में है। क्या आपका धार्मिक शिक्षण-प्रशिक्षण वेदानुसार हो रहा है।”

       भिक्षुओं ने निवेदन किया, “महात्मन्! आपकी शुभ चिंतन और कामनाओं से सब कुछ ठीक चल रहा है। ऋषि कहीं अन्यत्र तप साधना हेतु गए हैं और कुछ दिनों बाद लौटेंगे। आपसे निवेदन है तब तक आश्रम में ही आप विश्राम करें।” आश्रम में राजा दुष्यन्त ने शकुन्तला को देखा और उसकी निष्कपट अबोधता और उसके आकर्षक सौन्दर्य की छटा का अवलोकन किया। दोनों प्रणय सूत्र में बँध गये और स्वयंवर परम्परा के अनुसार दोनों ने दाम्पत्य-बंधन को स्वीकार कर लिया।

       अपनी राजधानी में अत्यावश्यक कार्य हेतु उन्हें तुरंत शकुन्तला को छोड़कर दूर जाना पड़ा। शकुन्तला से बिछुड़ते हुए दुष्यन्त ने आश्वासन दिया कि वे शीघ्र वापस आएँगे और राजसी ठाटबाट और परम्पराओं के साथ उचित ढंग से विवाह कर अपने साथ ले जाएँगे। वापस जाते हुए राजा ने शकुन्तला को राज-चिह्न से अंकित एक अँगूठी स्मृति एवं उपहार स्वरूप दे दी।

       शकुन्तला सदैव दुष्यन्त की यादों में खोई रहती थी, अत: वह एक बार क्रोध की प्रतिमूर्ति संत दुर्वासा ऋषि को नहीं पहचान सकी। उसकी इस अतिथि सत्कार शून्यता के कारण दुर्वासा ऋषि ने शाप दे दिया कि, “मेरे सत्कार और सम्मान की उपेक्षा करने वाली तुम जिसके ध्यान में खोई हो, ईश्वर करे वह तुम्हें आवश्यकता पड़ने पर न पहचाने।”

      शकुन्तला की सहेलियाँ तुरन्त आयीं और ऋषि दुर्वासा से क्षमा का दान माँगने लगीं। तब उन्होंने कहा कि “जब एक समुचित परिचय प्राप्त हो जाएगा तो अभिशाप से मुक्ति हो जाएगी” और वे शीघ्रता से चले गए।

        जब ऋषि कण्व तपस्या से लौटे तो उन्हें आभास हुआ कि उनकी पुत्री गर्भवती हो गई है और यह सारा प्रसंग उनके ध्यान में आया। उन्होंने कहा,“मेरी प्रिय बिटिया, मुझे असीमित प्रसन्नता है। तुम सुखपूर्वक अपने पति के आँगन में जाने के लिए तैयारी करो।” शकुन्तला को विदा करते हुए ऋषि कण्व ने आदर्श ‘गृहिणी’ के रूप में नई नवेली को कैसा व्यवहार करना चाहिए, इस विषय का ज्ञान देते हुए कहा, “एक पति क्रोधवश तुम पर बिना किसी सत्य प्रसंग को जाने वह आरोप लगाए जिसे किसी अन्य ने गपशप के आधार पर लगाया हो ” उस पर न तर्क-वितर्क करो न प्रतिवेदन करो। कुछ समय बीतने पर क्रोध शांत हो जाए तब अपने कारण और घटनाक्रम सुनाएँ, जिसे जानकर तुम्हारे प्रति स्नेह-भाव कई गुना बढ़ जाएगा। दुर्भाग्यवश शकुन्तला से राजा दुष्यन्त द्वारा उपहार में दी अँगूठी नदी में खो गई और राजा दुष्यन्त भी यकायक गर्भवती शकुन्तला को नहीं पहचान सके ।

       इसी बीच एक मछुआरे ने उस मछली को पकड़ लिया जिसने शकुन्तला की अँगूठी को नदी में गिरते ही निगल लिया था। मछुआरे द्वारा उस अँगूठी को बाजार में बेचने का प्रयास करने पर सैनिकों ने उसे पकड़ लिया। पूछताछ करने पर मछुआरे ने पूरी घटना का सत्य बता दिया किन्तु सैनिकों ने उसके कथन पर विश्वास नहीं किया। उसे न्यायालय में प्रस्तुत किया गया। उसने राजा के समक्ष अपना पक्ष रखा।

       राजा ने अंगूठी हाथ में ली और अचानक उसे शकुन्तला और उसके साथ बिताए प्रेमालाप के क्षणों की याद आई। वे अपने किए पर पछताते हुए क्षमाग्रही हो गये। उन्हें प्रशासनिक कार्यों में भी अरुचि होने लगी और अपने गलत व्यवहार के लिए शोक संतप्त रहने लगे। यह जानकर देवराज इन्द्र ने उन्हें किसी अन्य प्रयोजन हेतु बुलाया और उसके पूर्ण होने पर इन्द्र के प्रख्यात सारथी मातलि ऋषि स्वयं राजा दुष्यन्त को पृथ्वीलोक ले आये ।

      राजा दुष्यन्त के व्यवहार से पूर्णतया विक्षिप्त शकुन्तला अब विरक्त व एकांत जीवन व्यतीत कर रही थी, इसी समय उसने एक दैदीप्यमान बालक को जन्म दिया और ‘भरत’ के रूप में उसका नामकरण किया गया।

      अपनी वापसी के समय दुष्यन्त हिमालय की घाटियों में एक सुन्दर, सुरम्य स्थान पर कुछ समय के लिए ठहरे। वहाँ उन्होंने एक शेर और नवजात शावक के साथ एक सुवीर बालक को खेलते हुए देखा। एक देवी, संभवतः उस बालक की माँ उसे ऐसा करने से रोक रही थी। राजा दुष्यन्त को यह समझने में देर न लगी कि वह शकुन्तला है और वह बालक उसका अपना पुत्र है। इसके पश्चात् सभी भ्रम-विभ्रम समाप्त हो गए और वे एक आनन्दमय जीवन व्यतीत करने लगे।

मेघदूत

     कालिदास की प्रथम काव्य रचना ‘मेघदूत’ एक प्रणय- प्रधान ग्रंथ है। एक संदेशवाहक के माध्यम से भेजा गया यह विरह-काव्य अपने प्रकार का प्रथम महाकाव्य है ।

    एक अर्ध-देव ‘यक्ष’ को प्राप्त अभिशाप के कारण अपनी अर्द्धांगिनी से विरह की अग्नि में जलना पड़ता है। इस विरह-वेदना को सहने में असमर्थ यक्ष अपने देश एक विचित्र माध्यम ‘बादल’ द्वारा अपनी पत्नी को भेजता है । 

    कवि ने संवेदना के गहनतम भावों शृंगार एवं करुणा के आधार पर छंदबद्ध काव्य रचना के द्वारा अपनी श्रेष्ठ प्रतिभा का परिचय दिया है।

   उल्लेखनीय है कि प्रकृति से अपने आत्मीय संबंधों का भी इसमें सहज सृजन हो पाया है। हिमालय से लेकर दक्षिणी छोर तक की वास्तविक एवम् प्राकृतिक सौन्दर्य छटा का अलंकारिक वर्णन इसमें शब्दश: उतारा गया है। कवि ने प्रत्येक स्थान विशेष का वर्णन, वहाँ पर संदेशवाहक ‘बादल’ को क्या कहना है, इसकी स्पष्ट अभिव्यक्ति को शब्दरूप प्रदान किया है।

    कालिदास के जोशीले यात्रा अनुभवों का विस्तृत वृत्तान्त किसी को भी आश्चर्यचकित कर सकता है। प्रत्येक पद्य और छंद की रचना में मोहित करने वाली अद्भुत सौंदर्य-छटाओं और यत्र-तत्र बदलते भिन्न-भिन्न मौसमों का इस लघु-करुणगाथा में सुन्दर चित्रण किया गया है।

रघुवंशम्

     महाकवि कालिदास की रचनाओं में रघुवंशम् सबसे लम्बा महाकाव्य है जिसमें ‘रघुवंश’ के इतिहास, जीवनधारा और विरल उपलब्धियों का अत्यंत रुचिकर वर्णन किया गया है। इस महाकाव्य का आरम्भ राजा ‘दिलीप’ सुपुत्र वैश्वत् मनु से होकर उनके पुत्र ‘रघु’ उनके पुत्र ‘अज’, उनके पुत्र ‘नेमि’ (दशरथ) और उनके पुत्र ‘राम’ से लेकर अन्तिम राजा ‘अग्निवर्ण’ तक की वंशावलि का वर्णन किया गया है। उन सभी के जीवन की लगभग सभी बड़ी घटनाओं का भव्य चित्रण अत्यधिक विशालता से किया गया है।

      जब राजा दिलीप को विवाह के अनेक वर्ष बाद भी पुत्र रत्न की प्राप्ति नहीं हुई तो वे ऋषि वशिष्ठ से नैतिक परामर्श प्राप्त करते हैं। गुरु वशिष्ठ पवित्र ‘सुरभि’ की आराधना की सलाह देते हैं और इस सिद्धि के सफल उपक्रम के पश्चात् उन्हें ‘ रघु’ के रूप में पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। इसके बाद के वर्णन में ‘अज’ और तत्पश्चात् अतिविस्तार से ‘राम’ के प्रसंग का विवरण दिया गया है।

‘रघुवंशम् ‘ महाकाव्य का प्रारम्भ मंत्रमुग्ध करने वाले प्रेरणायुक्त आराधना – सूत्र से किया गया है:

“वागार्थौ इव सम्पृक्तौ वागार्थौ प्रतिपत्त्ये

जगतः पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ ।।”

     संपूर्ण ब्रह्माण्ड के माता – पिता  पार्वती और परमेश्वर को मैं प्रणाम करता हूँ, जो एक ‘शब्द’ की भाँति सौम्य बंधन में बँधे हैं, जिसका ‘अर्थ’ अंतर्निहित अर्थयुक्त सहज शब्दों के द्वारा मेरे लिए ‘आशीर्वाद’ ही है।

     ‘रघुवंशम् ‘ में कालिदास द्वारा रचित लगभग सभी श्लोकों में सहज बुद्धिविकास के सूत्रों का समावेश देखने योग्य है। उदाहरणतः – ” आफलोदय कर्मणाम् ” अर्थात् जो अंत तक अथक परिश्रम करता है, उसे परिणाम मिलता है। हममें से अनेक ‘आरम्भ शूर: ‘ हैं अर्थात् किसी उद्यम के प्रारम्भ में अति उत्साही। जैसे – जैसे विषय आगे बढ़ता है और एक या दो छोटी-मोटी बाधाएँ सामने आती हैं तो हम अपने उद्यमी प्रयासों को वहीं का वहीं छोड़ देते हैं।

     एक कुशाग्र विद्यार्थी, एक बुद्धिमान उद्यमी, एक समझदार व्यापारी के रूप में हमें पहले से अपने कार्य को आरम्भ करने में आने वाली बाधाओं – सुविधाओं की कल्पना कर लेनी चाहिए। यदि मुझे उदाहरणतः राजस्थान में व्यापार करना है तो कौन – कौन सी श्रमिक संगठनात्मक अथवा प्रशासनिक लालफीताशाही की समस्याओं, हड़ताल से होने वाली तोड़-फोड़, बिजली कटौती, पर्यावरण के नाम पर स्थानीय विरोध, निरीक्षण-परीक्षण खर्च इत्यादि का विचार करते हुए, तदनुसार उद्यमशील योजना बनानी चाहिए ।

      यदि मैंने सफलतापूर्ण कार्य आरम्भ किया तो मेरी लाभ-हानि और उपलब्धियों की स्थिति कैसी रहेगी? इस प्रक्रिया में मुझे कौन सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा? इन सभी अनुकूलताओं एवम् प्रतिकूलताओं पर उद्यम शुरू करने से पहले विचार करना आवश्यक है। तत्पश्चात् यदि कोई सकारात्मक निर्णय करके अपनी योजना में आगे बढ़ता है, अन्त तक श्रम करता है तो उसे निश्चित परिणाम मिलता है अर्थात् “आफलोदय कर्मणाम्” ।

ज्ञाने मौनम्

     कालिदास ने बताया कि ज्ञान होते हुए भी मौन रहें, मुँह बंद रखें अर्थात पूर्ण ज्ञान होते हुए भी मौन धारण करना चाहिए। यह एक महान् विशेषता है । चुप रहने का अर्थ है अच्छा श्रोता होने का गुण । उत्तर तभी दें जब कुछ पूछा जाए और उत्तर भी स्पष्ट एवं यथार्थपूर्ण दें। अधिक बोलने का अर्थ है अनावश्यक बोलना। अतः अनावश्यक बातें न करें। हम सभी कुछ बोलने को उत्सुक रहते हैं परन्तु सुनना नहीं चाहते। हम अनेकानेक सलाह देते हैं, परन्तु थोड़ी सी सलाह भी लेने को तैयार नहीं होते। ये सभी गहन अर्थ इन दो शब्दों में समाहित हैं- “ज्ञाने मौनम् ।

   कालिदास ‘उपमानों’ अर्थात् हास्य के उत्कृष्ट कलाकार माने जाते हैं। “उपमा कालिदासस्य” अर्थात् हास्य तो बस कालीदास का ।

आइए एक-दो उदाहरण देखें :

“एको ही दोषा गुणा सन्निपाथ निमज्जातिंदु किरणाई सशंका”

     चन्द्रमा की सतह पर छाई धूल की हल्की सी परत उसकी उजली और शीतल किरणों के सामने शून्य के समान है, जिस प्रकार हजारों अच्छाइयों के सामने किसी एक अयोग्यता की बार-बार उपेक्षा की जा सकती है।  कालिदास की सारगर्भित रचनाएँ बिना किसी विशेषण के कभी-कभी सार्थकता का अनन्त सागर खोल देती हैं ।।

“कथा रामस्य, वाल्मीकि कृति स्तम् किन्नरा स्वाणौ: “

राम की कहानी, वाल्मीकि की जुबानी सुरीली ही लगती, किन्नरों को भी सुनानी ।।

किसी मन बुद्धि और आत्मा को जगाने के लिए वाल्मीकि की राम कथा है तो और क्या चाहिए।

    रावण के वध और विभीषण को लंकेश बनाकर उत्तर – रामायण के अनुसार राम और उनके अनुयायी अयोध्या लौट गये। राम का राजा के रूप में राज्याभिषेक हुआ और उन्होंने अयोध्या में सुखपूर्वक जीवन व्यतीत किया ।

     सीता गर्भवती हुई परन्तु एक तुच्छ धोबी ने सीता पर रावण की अधीनता में रहने का आरोप लगाया और राम ने इस आधार पर सीता का परित्याग कर दिया। ऋषि वाल्मीकि सीता को अपने साथ ले गये और उस सीता को अपने आश्रम में आश्रय दिया जो गंगा में डूबकर जान देना चाहती थी। सीता ने वाल्मीकि आश्रम में दो पुत्रों को जन्म दिया और ऋषि वाल्मीकि ने उनका पालन-पोषण किया और उन्हें वेद, शास्त्र और शस्त्रविद्या में पारंगत कर दिया। अन्त में उन्होंने अपने द्वारा रचित प्रथम ‘काव्य’ रामायण का पाठ पढ़ाया ।

राम ने अयोध्या में महान् त्याग के प्रतीक ‘राजसूय यज्ञ’ का भव्य आयोजन किया जिसमें अनेक राजा, सामन्त, महात्मा, ब्राह्मण देवता और अन्य गणमान्य लोगों ने भाग लिया।

लव – कुश भी इस भव्य आयोजन में भाग लेना चाहते थे। वेदो छोटे-छोटे भिक्षुक जैसे दिखाई देते थे। इस विशाल आयोजन में उन्होंने अपने गुरु ऋषि वाल्मिीकि द्वारा रचित काव्य रामायण का मधुर गायन प्रस्तुत किया। सभा में उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति उनके मीठे स्वर गायन को सुनकर भावुक हो गया । श्रोताओं की मंत्रमुग्ध स्तब्धता को देखकर कवि कालिदास कहते हैं:

वाल्मिकि रचित राम कथाकाव्य रूप में बालकों ने इतनी मधुरता से गाया। श्रोताओं का हृदय जीतने के लिए और किस चीज़ की आवश्यकता हो सकती है ? कालिदास की काव्य-कला का अद्वितीय लालित्य तथा उसमें व्याप्त स्पष्टता और शुद्धता के निम्नलिखित उत्कृष्ट उदाहरण की बानगी देखते ही बनती है:

“संचारिणी दीपशिखेवा रात्रौ 

यम यम व्यतीयाय पतिम् वर सा,

नरेन्द्र मार्गता दव प्रापदे

 विवर्ण भवम् सा, सा भूम पल: “

    “वह नारी जो अपने अद्वितीय पति का अनुसरण करती थी चाहे वह कोई भी हो किंतु वह उसे अपना पथप्रदर्शक मानती थी तथापि राजकुमार अपनी छवि के विभिन्न रूपों से प्रकाशित था, कभी चमकदार कभी धुँधला जैसे वीथि में पेड़ो की कतार ” यह दृश्य इंदुमति के स्वयंवर में पति के चयन का था । वह फूलों का हार लिए अपने द्वारा चयनित होने वाले राजकुमारों के सामने आई, उसकी सहेलियाँ प्रत्येक राजकुमार की विशेषताओं का बारीकी से वर्णन करने लगीं।

     जब राजकुमारी किसी एक राजकुमार के सामने आती थी तो उसका चेहरा इस आशा की चमक में दमक उठता था कि वह उसके गले में हार पहनाएगी। परन्तु जैसे ही राजकुमारी अगले राजकुमार के पास जाती तो आशा की चमक में दमकता पहले राजकुमार का चेहरा अतीव धुँधला पड़ जाता था जैसे किसी कार की रोशनी एक पेड़ से दूसरे पर जाते समय दिखायी देती है।

“परस्परेना स्पृहनीय शोभम्

ना चेद् इद्म द्वांतम् अयोजयिष्यत् । 

अस्मिन् द्ववये रूपा विधान यज्ञ । 

पत्युः प्रजानम् विभालो अभविष्यत्।।”

सृष्टि-निर्माता ब्रह्मा का अपनी छैनी से दो व्यक्तित्वों की रचना की संपूर्ण श्रेष्ठता व्यर्थ हो जाती यदि ‘अजा’ और ‘इंदुमति’ जिनकी निर्मिति एक दूसरे की सुन्दरता और श्रेष्ठता से बढ़कर की गई थी, वे एक दूसरे के प्रणीत न हो जाते।

कुमार सम्भव

     कालिदास जी के अनुसार भगवान कामदेव की पत्नि और दक्ष – पुत्री ‘सती’ ने अपने ही पिता द्वारा अपमानित होने पर अपनी ही योगाग्नि में आत्मदाह कर लिया। भगवान शिव को अपने पति के रूप में प्राप्त करने के लिए उसने हिमवान और उसकी पत्नि मैना की पुत्री के रूप में पुनर्जन्म लिया। दिव्य-युगल हिमवान और मैना की एक बड़ी पुत्री मेनका भी थी । शास्त्रों के अनुसार दिव्य और अभिजात्य वर्ण में उत्पन्न बालिका का एक बड़ा भाई होना चाहिए। प्राचीन काल में किंवदन्ती थी कि पहाड़ों के भी पंख थे और वे इधर- उधर उड़ते घूमते हुए सप्तऋषियों सहित सभी की गतिविधियों में बाधा डालते रहते थे। इंद्र इस असुविधा को सहन नहीं कर सके और उन्होंने अपना दिव्य अस्त्र वज्र छोड़ दिया जिससे पहाड़ों के पंख कट गये और मेनका ने सागर की गोद में शरण ले ली।

     सती के निर्वासन के पश्चात् भगवान शिव ने अपनी अपूर्व कठोर तपस्या को पुनः आरम्भ करने के लिए हिमालय की कंदराओं का चयन किया।

    हिमवान की पुत्री पार्वती स्वर्गिक सौन्दर्य, गुणों वाक्पटुता और सभी प्रतिभाओं की श्रेष्ठता का एक समुच्चय थी। मैना और हिमवान दोनों अपनी देवपुत्री समान पुत्री को निहारते नहीं थकते थे। पार्वती बड़ी होने लगी तो पिता ने उसकी शिक्षा हेतु कला और विज्ञान के विभिन्न श्रेष्ठ ज्ञाताओं और विद्वानों को इस कार्य हेतु नियुक्त किया । उन सभी के लिए यह आश्चर्य जनक था कि उन्हें उसे कुछ भी नये सिरे से नहीं पढ़ाना पड़ा क्योंकि कला और विज्ञान आदि सभी विषयों से वह पूर्णतया भिज्ञ थी । विद्या की देवी उसमें उसी प्रकार विचरण कर रही थी जैसे समुद्रतल पर वसन्त के दिनों में बत्तखें तैरती हैं।

     हिमवान बालिका के भविष्य के विषय में बहुत चिंतित रहता था, “इसमें कैसी प्रतिभा है, इतनी शालीनता और अप्रतिम गुणों का भण्डार ?” वह बस यही सोचता था । “यह कौन है ? क्या स्वर्ग से उतरी एक दिव्य परी या एक दिव्य संदेश वाहक ?” वह निश्चित रूप से इस दृढ़ विश्वास में था कि वह एक आदर्श कन्या किसी विशेष संदेश की वाहक है।

    एक दिन ब्रह्माण्ड के अथक यात्री देवर्षि नारद हिमवान से भेंट करने हेतु आए। पार्वती के माता-पिता ने अतिथि का भरपूर आदर-सत्कार किया। उन्होंने उनका चरण – प्रक्षालन और पवित्र जल से मस्तकाभिषेक किया। परम्परागत अभिवादन के पश्चात् नारद जी ने बालिका को निहारते हुए हिमवान से कहा :

“नारायण, नारायण” “हे सौभाग्यशाली नरेश ! आप और आपकी भार्या दोनों ही अत्यधिक अभिशप्त हैं। वास्तव में भगवान विष्णु के जन्मदाता ऋषि कश्यप और अदिति भी उतने अभिशप्त नहीं हैं। और यही भगवान शिव की पत्नी का सत्य अवतरण हो सकती है। अपनी कठोर तपस्या के बल पर यह स्वयं भगवान शिव को अपने पति के रूप में प्राप्त करने योग्य है।”

     ध्यान व तपस्या के अप्रत्याशित कष्टों की भयावहतायुक्त भविष्य की बात सुनकर मैना घबराकर चिल्ला पड़ी, “उ माँ” अर्थात् “ओह ! नहीं” और यही बालिका का नाम पड़ गया अर्थात् ‘उमा’

      नारद जी कहते गये “नारायण, नारायण, कोई चिंता की बात नहीं है, देवी मैना ! आपकी बेटी से एक पुत्र ‘कुमार’ का जन्म होगा जो समस्त राक्षस जाति से मुक्ति संघर्ष में देवों की सेना का नेतृत्व करेगा। इस प्रकार वह देवों के सभी कष्टों का विनाश करेगा।” आशा के वचनों से हिमवान और चिन्तापूर्ण बातों से मैना का मार्गदर्शन करके देव महर्षि नारद चले गये। यह जानने के बाद कि भगवान शिव ने तपस्या के लिए उनका क्षेत्र चुना है, हिमवान ने उनकी सेवा-सुश्रुषा के लिए अपनी पुत्री को नियुक्त किया। पार्वती प्रतिदिन शिव जी की ‘पर्णशाला’ में जाकर उसकी स्वच्छता, प्रक्षालन, घास-छँटाई करके तपस्या के लिए पुष्प-संग्रह और उनके लिए जल इत्यादि की व्यवस्था कर सायंकाल लौट जाती थी ।

       देव, अधिदेव और संतजन भयानक राक्षसी ताड़का के आतंक से अत्यधिक पीड़ित थे क्योंकि वह अपने भीषण अत्याचारों से संपूर्ण मानव जाति को कुचलकर समाप्त करना चाहती थी। अतः वे सभी भगवान इंद्र के नेतृत्व में सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी के पास इसका हल निकालकर ताड़का के आतंक से मुक्ति पाने हेतु गये। उन सब की व्यथा सुनकर ब्रह्मा जी ने कहा:

    “मैं परिस्थितियों को भली प्रकार समझता हूँ। वह असह्य रूप से आतंकी हो गई है परन्तु अपने द्वारा ही उगाए गये पेड़ को काटना भी अनुचित है।” उन्होंने आगे कहा:

    “भगवान शिव सृष्टि के रचयिता, संरक्षक और विनाशक हैं और आजकल हिमालय की कंदराओं में अपनी तपस्या में लीन हैं। उनकी परित्यक्ता पत्नी पार्वती उनकी सेवा सुश्रुषा कर रही हैं और इस पुनः अवतरण के परिणामस्वरूप उनका पुनर्मिलन भी सुनिश्चित नियति ही है । “

      “इस पुनर्मिलन के बाद उनका एक पुत्र होगा जो आप सबका नेतृत्व कर सहज रूप से ताड़का का वध करेगा। श्रेष्ठ कार्य करो और उचित अवसर की प्रतीक्षा करो।”

     सभी प्रसन्नता पूर्वक वापस लौट गये । देवराज इन्द्र ने तुरन्त गुप्तज्ञान के देवता कामदेव और उनके मित्र वसंतदेव को बुलाया और कामदेव को विश्वास में लेकर उनसे शिव एवम् पार्वती के हृदयों में प्रणयभाव जगाने का आग्रह किया ताकि शीघ्रातिशीघ्र उनका पुनर्मिलन हो सके । अन्ततोगत्वा जिस उदारता से इन्द्र ने आग्रह किया था, कामदेव ने असीमित उत्साह से ध्यान – लीन भगवान शिव से भेंट की । वसंतदेव भी उनके साथ गए। उनके प्रवेश करते ही सम्पूर्ण वातावरण में वसंत बहार आने से चारों ओर फूल खिल उठे और उनकी मीठी सुगंध से वातावरण महक उठा । कामदेव अधीरता से अपने धनुष पर शर-पुष्प तान कर उपयुक्तक्षणों की प्रतीक्षा कर रहे थे। जैसे ही ‘उमा’ पार्वती पूजा – सामग्री लेकर भगवान शिव के समीप पहुँचीं, कामदेव ने शर-पुष्प साधकर निशाने पर छोड़ दिया। शर-पुष्प का स्पर्श मिलते ही उन्होंने आँखें खोलकर एक ठण्डी आह भरी, जिसके प्रभाव से शर-पुष्प दिशान्तरित होकर सीधे पार्वती के हृदय में उतर गया। भगवान शिव ने अपने ज्ञान चक्षु खोले तो उसके तेज एवं प्रकाश से उत्पन्न अग्नि में कामदेव रूपी शरीर तुरन्त भस्म होकर मुट्ठीभर राख में बदल गया। अपने पति कामदेव की मृत्यु का समाचार पाकर सती अनियंत्रित शोक से कराह उठी। तब इन्द्रदेव ने उसे आशीर्वाद दिया कि शिव-पार्वती के विवाह के पश्चात् कामदेव को पुनर्जीवन प्राप्त होगा। इसके बाद दोगुने उत्साह व तेजस्विता के साथ भगवान शिव उस स्थान को छोड़कर चले गये और पुनः और अधिक कठोर तपश्चर्या में लीन हो गये। पार्वती भी यह जानकर कि पति के रूप में शिव को पाने का उनका लक्ष्य अत्यधिक कठिन है, ध्यानावस्था में चली गई । उनका समर्पण तीव्र एवं कठोर था। प्रारम्भ में उन्होंने प्रतिदिन केवल एक समय कंद मूल एवम् फलाहार ग्रहण किया। तत्पश्चात् आसपास गिरे पत्रों तक अपना भोजन सीमित कर लिया। इसके बाद वर्षा की बूँदें और अन्त में केवल वायु को अपना भोजन बना लिया ।

     शरद ऋतु में गहरे अतिशीतल जल में गर्दन तक खड़े रहकर भी उन्होंने तपस्या की और ग्रीष्म ऋतु में तो पंचाग्नि के बीच बैठकर तप किया। एक दिन जब वे गहन तपस्या में लीन थीं, निकटस्थ आश्रम से एक ब्रह्मचारी ने उनके तपश्चर्या की प्रगति के विषय में जानने के लिए उनसे भेंट की ।

     “हे युवा देवी तुम कैसी हो ? तुम्हारी ध्यानावस्था में कैसी प्रगति है?” उसने अपना परिचय देते हुए पूछा, “मैं एक ब्रह्मचारी हूँ और यहाँ से कुछ योजन की दूरी पर तपस्या कर रहा हूँ। तुम पश्चाताप में लीन हो यह जानकर मुझे आश्चर्य हुआ।” “मेरे मन में तुमसे भेंट करने और तुम्हारा हालचाल जानने का विचार आया। मैं तुम्हारी किस प्रकार सहायता कर सकता हूँ? अथवा किस काम आ सकता हूँ? कृपया मुझे बताइए।” पार्वती जी ने सादर प्रणाम किया और शिष्टाचार में उनसे उनकी कुशलता के विषय में पूछा ।

     “अब मैं तुमसे एक बात पूछता हूँ।” ब्रह्मचारी ने कहा, “तुम क्यों इतनी कठोर तपस्या से अपने सुंदर शरीर पर अत्याचार कर रही हो। इस दुनिया में कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसे तुम चाहो और तुम्हें प्राप्त न हो रही हो। तुम सर्वोत्तम कुल से हो और सौन्दर्य, सम्पन्नता यश-कीर्ति सब तुम्हारे साथ हैं। कृपया अपनी इस कठोरता के पीछे अपने प्रयोजन के विषय में बताओ।”

      भिक्षुक के प्रति पूर्ण आदर भाव से पार्वती ने उत्तर दिया, “ओ पवित्रात्मा ! भगवान शिव पिछले जन्म में मेरे पतिदेव थे और मैं इस जीवन में भी उन्हें अपने पति के रूप में प्राप्त करना चाहती हूँ। अतः मैने कठोर तपस्या के इस कार्य को अपनाया है।” ब्रह्मचारी ने कुछ उद्वेलित होकर कहा, “हे भगवान, यह कैसा विरोधाभास है। तुम्हारी महत्वाकाँक्षा पूर्णतया अनुपयुक्त है अत: तुम्हारा सहयोग करने का अपना वचन मैं वापस लेता हूँ।”

      इसके बाद ब्रह्मचारी भगवान शिव की निंदा करते हुए उन्हें अनेक प्रकार बुरा-भला कहने लगा। उसने आशंका व्यक्त की कि यदि वे पुनः विवाह-सूत्र के बंधन में बँध भी गये तो वह एक बेमेल युगल ही होगा।

      ब्रह्मचारी के मुख से इस प्रकार निंदा के असहनीय शब्दों का प्रवाह सुनकर पार्वती ने अपनी सहयोगी से उस ब्रह्मचारी को बाहर निकालने को कहा। परन्तु इसके विपरीत वह अन्दर की ओर आने लगी जब ब्रह्मचारी ने अपना शिव स्वरूप दिखा कर उसे रोका।

     भगवान शिव मन ही मन चाहते थे कि सप्तऋषि वहाँ उपस्थित और वे तुरन्त प्रकट हो गये। तब भगवान ने ऋषिजनों से हिमवान के पास जाकर शिव के लिए पार्वती का हाथ माँगने को कहा। वहाँ पर उस समय ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी जो उस युगल और सप्तऋषियों को प्रसन्न कर सके। फिर भी भगवान विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र और सभी देवों, अधिदेवों और सन्तों की उपस्थिति में भगवान शिव एवम् पार्वती का विवाह सम्पन्न हुआ।

     कुमारसंभव में अनेक ऐसे सुन्दर श्लोक समाहित हैं जिनमें सहज बुद्धिमानों के लिए अर्थ के अगणित मापदण्ड उपस्थित हैं। उसके अन्तिम अध्याय में नव विवाहितों के लिए आदर्श प्रेरणा का उदाहरण इस प्रकार है:

     ऐसी वधु जिसने अपने पिता के अतिरिक्त कभी किसी पुरुष को न देखा हो वह स्वाभाविक रूप से अपने पति के सामने आने में भी संकोच करती है और उन्हें एक दूसरे के पास आने और समझने में पूरा एक मास लग जाता है, इसलिए दूल्हे को एक महीने तक अपनी ससुराल में ही रहना पड़ता है।

     अपने प्रथम मिलन के समय दुल्हन भाग खड़ी होती है और दूसरे अवसर पर भी छुप-छुप कर ही वर को देख पाती है। केवल तीसरी बार ही लज्जावती के रूप में वह सामने आती है। इसके बाद दूल्हे द्वारा कुछ न कुछ पूछने पर भी वह केवल हाँ या ना में ही उत्तर दे पाती है। जब पति उसकी बाँह पकड़ता है तो वह तुरंत छुड़ा लेती है। जब वह उसका चुम्बन लेने का प्रयास करता है तो वह केवल उन क्षणों को ‘झेल’ पाती है और दूसरी बार वह चुम्बन का उत्तर चुम्बन से देती है और अन्त में कवि कहता है, “ जो कुछ उसने अपने श्रेष्ठ शिक्षक से सीखा था, वह ही उस गुरुदक्षिणा के रूप में उसे लौटाती है । “

     पार्वती के ध्यानातीत अवस्था की बानगी तो देखते ही बनती है: उस विस्मय-प्रेरणापूर्ण छवि पर वर्षा की पहली बूँदें कैसे गिरती हैं, इस काव्यांश में वर्णन किया गया है:

“स्थित क्षणं पक्षमासु तदिता अधराः

पयोधरोत्सैधा निपथ चूर्णिताः 

वलिषु तस्य स्कालिता प्रापैदिरै 

चिरैना नाभिम प्रधमोदक बिदंवा: “

“उसकी नीली-काली आँखों की पलकों पर कुछ क्षण ठहरकर वर्षा की पहली बूँद उसके लाल मणि जैसे होठों पर बिखर गई और फिर उसके सघन उरोजों की विभेदक दरार में बहकर उसके उदर साँचेकी थुलथुल में बिखरते हुए अन्त में उसकी नाभि- भँवर में ठहर गई ।”

भिक्षुक ब्रह्मचारी ने भी पार्वती और शिव के मिलन को बेमेल सिद्ध करने के लिए अपने तर्क निम्न प्रकार से दिए है:

“त्वम् इव त्वद् परिचिंत्या स्वयम् 

कदाचित् इदे यति योगम अर्हताः

वधु दुकूलम् कलाहंस लक्षणम

गजाजिनम् शोणिता बिंदु वर्शी च”

      “आप स्वयं सोचकर अपने आपको संतुष्ट करें क्या ये दोनों कभी परस्पर मेल खा पाएँगे ?

दुल्हन के रेशमी परिधानों पर अंकित राजहंस और दुल्हे की हाथी जैसी खाल पर दिखती रक्त धाराएँ”

    “विवाह के समय वर-वधु दोनों नये वस्त्र धारण करते हैं और परम्परा के अनुसार दोनों के परिधानों के छोर बाँधे जाते हैं । यह कैसे होगा पार्वती और शिव के विवाह में, पार्वती पहनेंगी रेशमी साड़ी और शिव धारण करेंगे रक्त- धाराओं से आच्छादित हाथी की नई खाल “

“अलक्तकांगिनी पदाणि पादयोः

विकीर्ण केशेसु परेत् भूमिशु”

   कैसे विभिन्न रंगों से सजे अपने चरणपदों से तुम अपने पति के आँगन में प्रवेश कर सकोगी ? जिसका आँगन है श्मशान, जहाँ मृतकों के केश बिखरे पड़े होंगे जगह-जगह । भगवान शिव के बारे में ब्रह्मचारी की अनापशनाप बातों को सुनकर पार्वती स्वयं प्रतिकार करना चाहती थी परन्तु भगवान ने ही उन्हें ऐसा करने से रोक दिया ।

“त्वम् विक्ष्य विपतुभति : सरसंग याक्षीः

 विक्षेपण्या पदम् उदरुत्तम उद्वहन्ति 

मार्गचला प्रतिकार कुलित्वा सिंधु:

 शैलाधिराज तन्य ना ययायु, ना तस्तौ “

     नख से शिख तक अप्रतिम सौन्दर्य की धनी पार्वती ने जब शिव को उनके सत्य स्वरुप में देखा तो वे आश्चर्यचकित होकर काँपने लग गये और घबराकर दूर जाने के लिए अपना पैर आगे बढ़ाया तो ऐसा लगा मानो किसी पहाड़ ने नदी के प्रवाह को रोक दिया हो।

     कहते हैं कालिदास श्रीलंका के राजा कुमारदास के अभिन्न मित्र थे । कुमारदास के प्रासाद की एक गणिका को कालिदास से प्यार हो गया था। एक दिन राजा ने गणिका के भित्तिचित्र पर एक अधूरी काव्य पंक्ति लिखवाई और घोषणा की कि जो इस काव्य पंक्ति को पूरा करेगा उसे यथोचित राशि पुरस्कार स्वरूप दी जाएगी। कुमारदास ने प्रथम पंक्ति में यूँ लिखवायाः

“बाले, तव मुखंभोजे दृशमिन्दिवारा द्वयम्” 

अर्थात् – ओ बाला ! तुम्हारे कमल से मुख से दो कमल खिले हैं। कालिदास ने इसे पूरा करते हुए दूसरी पंक्ति में लिखा:

“कमले कमलोलपति श्रुयते ना तु दृश्यते ” 

अर्थात्-एक कमल में से दो कमल के फूल खिलते हुए न किसी ने देखे न सुने ।

गणिका ने कालिदास की हत्या करवा दी और कहा कि यह काव्य रचना उसने की है और पुरस्कार की राशि प्राप्त कर ली । अन्त में कुमारदास को सत्य घटना का आभास हुआ और अपने मित्र की मृत्यु का दुःख सहन नहीं कर पाने के कारण उसने भी कालिदास की चिता में कूद कर प्राणांत कर लिया ।


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