राजस्थान के इतिहास के प्रमुख स्त्रोत  

राजस्थान के इतिहास के स्त्रोत 

        इतिहास भूतकाल में हुई विशेष घटनाओं का वृतान्त होता है। इतिहासकार उन विशेष घटनाओं केमहत्वपूर्ण तथ्यों को सामने रखकर भूतकाल को वर्तमानकाल से जोड़ता है। ऐसे महत्वपूर्ण तथ्य प्राप्तकरने के लिए जो स्त्रोत (साधन) होते हैं उन्हें इतिहास के स्त्रोत कहा जाता है। ऐसे स्त्रोतों में अभिलेख(शिलालेख), मुद्राएँ, ताम्रपत्र है, जो ऐतिहासिक घटनाओं, ऐतिहासिक पुरुषों एंव उनके वंशक्रम काविवेचन प्रस्तुत करते हैं। 

      साहित्यकार वर्डसवर्थ ने कहा है कि बहता हुआ झरना, एक रोड़ा (पत्थर) व जमीन में दबी हुई चीजें प्राचीन मानव की सही जानकारी देती है, किताबें नहीं। कहा जाता है कि राजस्थान के पत्थर भी अपना इतिहास बोलते हैं। 

    अध्ययन की दृष्टि से राजस्थान के इतिहास जानने के स्त्रोतों (साधनों) को निम्नलिखित भागों मेंविभाजित (वर्गीकृत) किया जा सकता है 

 

विषय-सूची

👉 इतिहास जानने के स्त्रोत 

इतिहास जानने के स्त्रोत 
पुरातात्विक स्त्रोत साहित्यिक स्त्रोत  आधुनिक इतिहासकार एवं ग्रन्थ 

(1) अभिलेख / शिलालेख

(2) सिक्के  

(3) ताम्रपत्र 

(4) स्मारक 

 

 

(1) संस्कृत साहित्य

(2) हिन्दी एंव राजस्थानी साहित्य  

(3) ख्यात साहित्य

(4) जैन साहित्य

(5) चारण साहित्य 

(6) रासो साहित्य 

(7) फारसी साहित्य

 

 

 

 

 

(1) कर्नल जेम्स टॉड

(2) डॉ. एल पी टेस्सिटोरी

(3) मुहणौत नैणसी

(4) सूर्यमल्ल मिश्रण 

(5) गौरीशंकर हीराचंद ओझा 

(6) कविराज श्यामलदास 

(7) मुंशी देवी प्रसाद 

(8) रामनाथ रत्नू 

(9) जगदीश सिंह गहलोत 

(10) डा. दशरथ शर्मा 

(11) हरविलास शारदा 

(12) पं झाबरमल शर्मा 

(13) पं. विश्वेश्वरनाथ रेऊ 

(14) पं. गंगासहाय

 

✍️ पुरातात्विक स्त्रोत 

 

      प्राचीन काल का अधिकांश इतिहास लिपिबद्ध नहीं हैं। अतः प्राचीन भारत व राजस्थान के इतिहास केअध्ययन हेतु पुरातात्विक स्त्रोत सर्वाधिक प्रामाणिक हैं, जिनमें मुख्यतः अभिलेख, सिक्के, ताम्रपत्र, स्मारक आदि हैं।इनके अध्ययन से ऐतिहासिक कालक्रम के निर्धारण में सहायता मिलती हैं। इनकीसहायता से हम सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एंव राजनीतिक जीवन की विवेचना कर सकते हैं। 

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की स्थापना 1861 ई. में अलेक्जेण्डर कनिंघम के नेतृत्व में की गई। 

 1902 ई. में सर जॉन मार्शल के द्वारा इसका पुनर्गठन किया गया। 

 राजस्थान में पुरातात्विक सर्वेक्षण कार्य सर्वप्रथम 1871 ई. में ए.सी.एल. कार्लाइल के नेतृत्व में प्रारम्भहुआ। कालान्तर में राजस्थान में व्यापक स्तर पर उत्खनन कार्य प्रारम्भ किया गया। 

📄 अभिलेख 

       अभिलेखों के अध्ययन को पुरालेखशास्त्र या अभिलेखशास्त्र (Epigraphy) कहते हैं। अभिलेखों तथा पुराने दस्तावेजों की प्राचीन लिपि के अध्ययन को ‘पुरालिपिशास्त्र (Palaeography) कहते हैं। अधिकांश अभिलेख शिलाओं, प्रतिमाओं, स्तम्भों, गुहाओं, मंदिरों, ताम्रपत्रों एंव सिक्कों पर खुदे हुए हैं।

अभिलेखों का महत्व

(1) इसमें राजाओं की वंशावली, उपलब्धियों, विजय अभियानों, उपाधियों के बारें में जानकारी मिलती हैं।

(2) शिलालेखों में वर्णित घटनाओं के आधार पर हमें तिथिक्रम निर्धारित करने में सहायता मिलती हैं।

(3) तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एंव राजनीतिक स्थिति के बारे में जानकारी प्राप्त होती हैं।

(4) अधिकांश शिलालेखों से विभिन्न राजाओं और दिल्ली के सुल्तानों तथा मुगल सम्राटों के राजनीतिक एवं सांस्कृतिक सम्बन्धों के बारे में जानकारी प्राप्त होती हैं।

Note:- जिन शिलालेखों पर किसी शासककी उपलब्धियों की यशोगाथा का वर्णन होता है, उसे ‘प्रशस्ति” कहते हैं। प्रमुख प्रशस्तियाँ :- कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति, राजसिंह प्रशस्ति, रायसिंह प्रशस्ति, जगन्नाथ राय प्रशस्ति आदि हैं। राजस्थान के प्रारम्भिक अभिलेखों की भाषा संस्कृत है, लेकिन मध्यकालीन अभिलेख संस्कृत, राजस्थानी, फारसी भाषा में हैं। अभिलेखों की शैली गद्य-पद्य है तथा इनकी लिपि महाजनी एंव हर्षकालिन है, लेकिन अधिकाशतः नागरी लिपि का प्रयोग मिलता हैं।

📜 राजस्थान के प्रमुख शिलालेख एंव प्रशस्तियाँ:

(1). बड़ली का शिलालेख (बड़ली गाँव, अजमेर) 

        443 ई. पू. का यह शिलालेख राजस्थान का प्राचीनतम शिलालेख हैं। यह ब्राह्मी लिपि का प्रथम शिलालेख हैं। इस लेख से ज्ञात होता है कि अजमेर के साथ-साथ माध्यमिका (चित्तौड़) में भी जैन धर्म का प्रसार हुआ था।

(2). घोसुण्डी शिलालेख(घोसुण्डी गाँव, चित्तौड़गढ़)

      द्वितीय शताब्दी ई. पू. के इस लेख की भाषा संस्कृत और लिपि ब्राह्मी हैं। इसमें गजवंश के राजा सर्वतात द्वारा अश्वमेध यज्ञ करने एवं विष्णु मंदिर की चारदीवारी ‘बनवाने का वर्णन है। डॉ. डी. आर भण्डारकर द्वारा प्रकाशित घोसुण्डी शिलालेख राजस्थान में “भागवत (वेष्णव) धर्म” से संबंधित प्राचीनतम शिलालेख हैं।

(3). नांदसा यूप स्तम्भ लेख (नांदसा गाँव, भीलवाड़ा 225 ई.)

       गोल स्तम्भ पर उत्कीर्ण इस लेख की स्थापना सोम द्वारा की गई। इस लेख से ज्ञात होता है कि राजाओं (क्षत्रियों) के राज्य विस्तार हेतु शक्ति गुणगुरू नामक व्यक्ति द्वारा नांदसा गाँव में षष्ठिरात्र यज्ञ सम्पादित करवाया गया। अतः उत्तरी भारत में प्रचलित पौराणिक यज्ञों एंव राजाओं द्वारा राज्य विस्तार हेतु किए गए प्रयासों के बारे में जानकारी इसी लेख से मिलती है। यह लेख संस्कृत भाषा में हैं।

(4). बर्नालायूप – स्तम्भ लेख (बर्नाला गाँव, जयपुर, 227 ई., संस्कृत भाषा)

       आमेर म्यूजियम में सुरक्षित इस लेख से ज्ञात होता है कि सोहर्न-गोत्र के वर्धन नामक व्यक्ति ने सात पाठशालाओं की स्थापना करवाकर पुण्य प्राप्त किया।

(5). बड़वा स्तम्भ लेख (बड़वा गाँव, कोटा, संस्कृत 238-39 ई.) 

     इस लेख से ज्ञात होता है कि बलवर्धन, सोमदेव व बल सिंह नामक तीन भाईयों द्वारा त्रिरात्र यज्ञ (अप्तोयामयज्ञ) करवाया गया था। इस लेख में वैष्णव धर्म एंव यज्ञ की महिमा का उल्लेख हैं।

(6). बिचपुरिया यूप-स्तम्भ लेख (बिचपुरिया मंदिर, उणियारा, जिला-टोंक)

      यह संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध हैं। 274 ई. के इस लेख में यज्ञानुष्ठान का उल्लेख हैं। इसमें धरक का परिचय अग्निहोत्र (यज्ञ सम्पन्न करवाने वाले ऋषि) के रूप में हैं।

(7). विजयगढ़ यूप–स्तम्भ लेख (विजयगढ दुर्ग, भरतपुर) 

     संस्कृत भाषा के इस लेख से ज्ञात होता हैं कि राजा विष्णुवर्द्धन के पुत्र यशोवर्द्धन ने पुंडरीक यज्ञ करवाया था।

(8). गंगाधर का लेख (गंगाधर, झालावाड़, संस्कृत भाषा, 423 ई.) 

      इस लेख से ज्ञात होता है कि मयूराक्ष ( राजा विश्वकर्मा का मंत्री) ने एक विष्णु मंदिर, तांत्रिक शैली की एक बावड़ी तथा मातृगृह का निर्माणकरवाया। इस लेख में 5 वीं सदी की सामन्ती व्यवस्था का भी वर्णन हैं।

(9). नगरी का शिलालेख (नगरी, चित्तौड़गढ, 424 ई., संस्कृत भाषा ) 

      नगरी से उत्खनन में डा. डी. आर. भण्डारकर को प्राप्त यह लेख वर्तमान में अजमेर म्यूजियम में स्थित है। इसमें 424 ई. (5 वीं सदी) में विष्णु पूजा का उल्लेख हैं।

(10). भ्रामरमाता का लेख (भ्रामरमाता मंदिर, छोटी सादड़ी, प्रतापगढ़, 490 ई. संस्कृत भाषा )

      यह लेख पूर्वा नामक व्यक्ति ने उत्कीर्ण करवाया तथा इसका रचयिता ब्रह्मसोम था। इस लेख में औलिकार वंश तथा गौर वंश के राजाओं का उल्लेख मिलता हैं।

(11). चित्तौड़गढ के दो खण्ड लेख (532 ई.)

     संस्कृतभाषा में यह लेख चित्तौड़गढ़ दुर्ग से प्राप्त हुआ हैं। यह लेख दो भागों में विभक्त हैं। इस लेख से ज्ञात होता है कि छठी सदी के प्रारम्भ में मन्दसौर (मध्य-प्रदेश) के शासकों का चित्तौड़ पर अधिकार था। विष्णुदत्त एक व्यापारी का पुत्र चित्तौड़ व दशपुर का राजस्थानीय था।

Note :-राजस्थानीय- जबराजा अपने किसी अधिकारी को किसी प्रांत का प्रशासक / शासक नियुक्त करता था, तो उसे राजस्थानीय कहा जाता था।

(12). बसंतगढ़ शिलालेख (सिरोही, संस्कृत भाषा, 625 ई. या विक्रम संवत्682 )

       राजस्थान शब्द का प्राचीनतम प्रयोग ‘राजस्थानीयादित्य‘ नाम से इस लेख मिलता हैं। इसलेख से 7 वीं सदी की सामंत व्यवस्था की जानकारी मिलती हैं।

(13). सामोली शिलालेख (सामोली गाँवभोमट क्षेत्र, उदयपुर, संस्कृत भाषा, 646 ई.)

       यह लेख अजमेर म्यूजियम में स्थित हैं। यह लेख मेवाड़ के गुहिल राजा शिलादित्य के समय 646 ई. का हैं जिसमें शिलादित्य की विजयों का उललेख हैं। यह मेवाड़ के गुहिल वंश के समय को निश्चित करने तथा उस समय की आर्थिक व साहित्यिक स्थितिको जानने हेतु महत्वपूर्ण हैं। इस लेख में शिलादित्य को शत्रुओं को जीतने वाला, देव-ब्राह्मण औरगुरूजनों को आनंद देने वाला और अपने कुलरूपी आकाश का चंद्रमा कहा गया हैं। इस लेख से ज्ञातहोता हैं कि जेंतक मेहत्तर ने उदयपुर में अरण्यवासिनी देवी का मंदिर (जावर माता का मंदिर) बनवाया।सामोली शिलालेख जहाँ 7 वीं सदी के मेवाड़ के जन-जीवन का चित्रण प्रस्तुत करता है वहाँ गुहिल वंश की प्राचीनता को परिलक्षित करने वाला यह प्रथम लेख हैं।

(14). अपराजित का शिलालेख (661 ई.)

    यहउदयपुर जिले के नागदा गाँव के कुड़ेश्वर मंदिर से प्राप्त हुआ। वर्तमान में विक्टोरिया हॉल (अजमेर) के म्यूजियम में सुरिक्षत हैं। इसमें गुहिल शासक अपराजित की विजयों का वर्णन हैं जिसने वराह सिंह जैसे शक्तिशाली शासक को पराजित कर अपने अधीन रख और बाद में उसे अपना सेनापति नियुक्त किया। अपराजित प्रशस्ति की रचना दामोदर ने की और इसे उत्कीर्ण किया यशोभट्ट नें

(15). मंडोर का शिलालेख (685 ई.)

    मंडोर (जोधपुर) की एक बावड़ी में शिला पर उत्कीर्ण लेख संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध हैं। इस बावड़ी का निर्माण माधू ब्राह्मण ने करवाया। इसी लेख से 7 वीं सदी में शिव तथा विष्णु की पूजा का उल्लेख मिलता हैं।

(16). मंडोर का दूसरा शिलालेख (837 ई.)

     यह गुर्जर नरेश ‘बाउक’ ने खुदवाया था। यह बाउक की प्रशस्ति हैं। जिसमें मंडोर के गुर्जर प्रतिहारों की वंशावली मिलती हैं।

(17). शंकरघट्टा का शिलालेख (713 ई.)

   शंकरघट्टा (चित्तौड़गढ़ जिले में गम्भीरी नदी के तटपर) से प्राप्त यह लेख संस्कृत भाषा में हैं। इसके प्रारम्भ में शिव की वन्दना की गई हैं। इसमें राजा मानभंग या मानमोरी का वर्णन मिलता हैं जिसने चित्तौड़ का प्राचीन सूर्य मंदिर बनवाया।

(18). मानमोरी का लेख (713ई.)

     मानमोरी अभिलेख मानसरोवर झील (पूठोली गाँव, चित्तौड़गढ़) के तट पर एक स्तम्भपर कर्नल जेम्स टॉड को प्राप्त हुआ। इसमें अमृत मंथन की कथा एवं उसके संबंध में कर का उल्लेख हैं। इसमें चित्रांगद मौर्य का उल्लेख है जिसने 8वीं सदी में चित्तौड़गढ़ का निर्माण करवाया था। इसमें चार मौर्य राजाओं- महेश्वर, भीम, भोज एंव मानमौर्य का उल्लेख हैं। यह अभिलेख कर्नल जेम्स टॉड द्वारा इंगलैण्ड ले जाते समय भारी होने के कारण संभवतः समुद्र में फेंक दिया गया था। इसका अनुवाद उसने अपनी पुस्तक ‘एनाल्स एण्ड एन्टिक्वीटीज ऑफ राजस्थान’ में किया। इस लेख में राजा भोज के पुत्र मानमौर्य का वर्णन हैं जो सद्गुण सम्पन्न, सचरित्र, ईमानदार और समृद्ध था जिसने संसार का क्षणभंगुर (नाशवान ) समझकर अपनी सम्पत्ति के सदुपयोग हेतु मानसरोवर झील (चित्तौड़गढ़) कानिर्माण करवाया। इस लेख की रचना पुष्प ने की और उत्कीर्ण करवाया शिवादित्य ने।

(19). कंसुआ याकणसवा का लेख (738 ई.)

     कंसुआ या कणसवा गाँव के शिव मंदिर (कोटा) में उत्कीर्ण इस लेख में मौर्यवंशी राजा धवल का उल्लेख हैं। राजा धवल के बाद किसी भी मौर्यवंशी राजा का राजस्थान में उल्लेख नहीं मिलता हैं |

(20). चाटसू या चाकसू की प्रशस्ति (813 ई.)

    चाकसू गाँव (जयपुर) से प्राप्त इस लेख से हमें चाकसू के गुहिल वंश की जानकारी प्राप्त होती हैं जो प्रतिहार वंशीय शासकों के सामन्त थे। इस प्रशस्ति के रचयिता भानु थे। तथा भाइल ने इसे उत्कीर्ण करवाया। 

(21). बुचकला शिलालेख (815 ई.)

    जोधपुर जिले की बिलाड़ा तहसील के बुचकला गाँव के पार्वती मंदिर से प्राप्त हुआ। यह लेख प्रतिहार राजा वत्सराज के पुत्र नागभट्ट द्वितीय ( 795–833ई.) के समय का हैं। नागभट्ट द्वितीय ने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया। इस लेख में प्रतिहार वंश के शासकों तथा सामके नाम मिलते हैं।

(22). घटियाला का शिलालेख (861 ई.)

      यह लेख जोधपुर के उत्तर-पश्चिम में घटियाला में एक जैन मंदिर पर उत्कीर्ण हैं। यह लेख गद्य व पद्य दोनों में है अतः यह लेख संस्कृत की चम्पू शैली में हैं। इस लेख को प्रतिहार राजा कक्कुक ने उत्कीर्ण करवाया था। घटियाला से दो अन्य लेख प्राप्त हुए हैं जिनमें से एक लेख मराठी पद्य में तथा दूसरा संस्कृत भाषा में हैं। इस लेख से प्रतिहारों की नामावली तथा उनकी उपलब्धियों की जानकारी प्राप्त होती हैं। इस लेख के अनुसार गुर्जर प्रतिहारों का आदि पुरुष हरिशचंद्र नामक ब्राह्मण था जिसने प्रतिहार वंश की स्थापना की (मंडोरमें)। गुर्जर प्रतिहारों ने मंडोर (जोधपुर) में अपना शासन स्थापित किया।

(23). प्रतापगढ़ का शिलालेख(946 ई.)

     प्रतापगढ़ में चेनाराम अग्रवाल की बावड़ी के पास एक चबूतरे से प्राप्त यह लेख अजमेर म्यूजियम में सुरक्षित हैं। इस लेख में प्रतिहार राजा महेन्द्रपाल की उपलब्धियों का वर्णन हैं। इस लेख में अनुदान देने का उल्लेख हैं। इस लेख में संस्कृत भाषा के साथ कुछ प्रचलित देशी शब्दों का उल्लेख हैं, जैसे- अरहट, कोशवाह (चड़स से सींची जाने वाली भूमी), चौसर (एक फूलों की माला), पली (यहतेल की नाप है), घाणा/घाणी (तेल निकालने का साधन) आदि। इस लेख से 10 वीं सदी के सामाजिक, धार्मिक जीवन, गाँवों की सीमा, जन-जीवन, अनुदान, कर व्यवस्था, आर्थिक व राजनीतिक स्थिति के बारे में जानकारी मिलती हैं।

(24). आदिवराह मंदिर का लेख (944 ई.)

     आहड (उदयपुर) से प्राप्त यह लेख मेवाड़ के शासक भर्तृहरि द्वितीय के समय का हैं। इस लेख से ज्ञात होता हैं कि आदिवराह मंदिर का निर्माण आदिवराह नामक व्यक्ति ने करवाया था।

(25). सारणेश्वर प्रशस्ति (953 ई.)

      सारणेश्वर शिवमंदिर (उदयपुर) से प्राप्त इस प्रशस्ति में मेवाड़ के गुहिलवंशी राजा अल्लट तथा इसके पुत्र नरवाहन एंव मुख्य कर्मचारियों (नौकरशाहों) के नाम उनके पद सहित दिए गए हैं। इस प्रशस्ति की भाषा संस्कृत और लिपि नागरी है। इस प्रशस्ति के लिपिकार कायस्थ पाल और वेलकथे। 

(26). ओसियों का लेख (जोधपुर) (956 ई.)

      इस लेख में प्रतिहार नरेश वत्सराज को रिपुदमन (रिपुओं या शत्रुओं का दमन करने वाला) कहा गया, इस लेख के अनुसार 10 वीं सदी का समाज चार वर्गों (ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य व शूद्र) में विभाजित था।

(27). चित्तौड़ का लेख (971 ई.)

   वर्तमान में यह भारतीय मंदिर (अहमदाबाद) में सुरक्षित है। इस लेख में मुख्यत परमार राजा भोज और उसके उत्तराधिकारियों की उपलब्धियों के बारे में जानकारी प्राप्त होती हैं। इस लेख से ज्ञात होता हैं कि परमार राजा नरवर्मा ने चित्तौड़ के महावीर जिनालय का निर्माण करवाया। इस लेख में देवालय में स्त्रियों का प्रवेश निषिद्ध बताया गया है। जो उस समय की सामाजिक व्यवस्था पर प्रकाश डालता हैं। निषेधात्मक नियम से दुराचार की प्रवृत्ति और धार्मिक स्तर में गिरावट का संकेत मिलता है।

(28). नाथप्रशस्ति (971 ई.)

     यह लेख एकलिगंजी मंदिर (कैलाशपुरी, नागदा, उदयपुर) के पास लकुलीश मंदिर से प्राप्त हुआ है। इसमें नागदा नगर एवं बापा रावल, गुहिल तथा नरवाहन राजाओं का वर्णन हैं। इस प्रशस्ति के रचयिता आम्रकवि थे। इस प्रशस्ति से मेवाड़ के राजनीतिक एंव सांस्कृतिक इतिहास के बारे में जानकारी प्राप्त होती हैं। इसमें स्त्रियों के आभूषणों का वर्णन है।

(29). हर्षनाथ अभिलेख या हर्षनाथकी प्रशस्ति (हर्षनाथ मंदिर, सीकर 973 ई., संस्कृत भाषा में पद्य में लिपिबद्ध)

     इसमें चौहानों की वंशावली तथा उनकी उपलब्धियों पर प्रकाश डाला गया है। इसमें बागड़ प्रदेश के लिए ‘वार्गट‘ शब्द का उल्लेख है। यह प्रशस्ति शाकम्भरी एवं अजमेर के चौहान राजा विग्रहराज द्वितीय के समय की है। हर्षनाथ मंदिर का निर्माण विग्रहराज द्वितीय के सामन्त अल्लट ने करवाया था। अल्लट शैव आचार्य था। इस मंदिर को प्रकाश में लाने का श्रेय सार्जेन्ट ई. डीन को हैं (3 दिसम्बर 1834 ई.)।

(30). आहड़ का देवकुलिका लेख (उदयपुर, 977 ई. संस्कृत भाषा)

      इस लेख में मेवाड़ के राजा अल्लट, नरवाहन, शक्तिकुमार तथा तीनों शासकों के समय के अक्षपटलाधीशों के बारे में जानकारी मिलती हैं। इस लेख से अल्लट और प्रतिहार राजा देवपाल के मध्य युद्ध की जानकारी प्राप्त होती हैं।

(31). आहड़ का शक्तिकुमार का लेख ( उदयपुर, 977 ई.. संस्कृत भाषा)

       इस लेख में गुहदत्त / गुहादित्य से शक्तिकुमार तक मेवाड के शासकों की वंशावली हैं। इस लेख से अल्लट की माता महालक्ष्मी का राठौड़ वंश की होना तथा अल्लट की रानी हरियादेवी का हूण राजा की पुत्री होना और रानी हरियादेवी द्वारा हर्षपुर गाँव बसाना ज्ञात होता है। इस लेख को कर्नल जेम्स टॉड अपने साथ इंग्लैण्ड ले गए थे। कर्नल टॉड ने अपनी पुस्तक (एनाल्स एण्ड एन्टिक्वीटीज ऑफ राजस्थान) में इस लेख की विषयवस्तु का वर्णन किया हैं।

(32). हस्ति-कुंडी शिलालेख (996 ई.)

     उदयपुर सिरोही मार्ग पर स्थित हस्तिकुंडी से प्राप्त यह लेख वर्तमान में अजमेर म्यूजियम में सुरक्षित है। इसमें हस्तिकुंडी के चौहान शासक हरिवर्मा, उसकी पत्नी रूचि तथा धवल की उपलब्धियों का ज्ञान होता है। यह प्रशस्ति संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध हैं जो सूर्चाचार्य द्वारा लिखि गई हैं।

(33). किणसरिया लेख (999 ई.)

     किणसरिया गाँव (परबतसर तहसील, नागौर) में कैवाय माता के मंदिर में उत्कीर्ण इस लेख में देवी की स्तुति के अलावा चौहान वंश की प्रशस्ति वर्णित है। प्रशस्ति लेखक गौड़ कायस्थ महादेव था।

(34). पाणाहेड़ा का लेख (1059 ई.)

     मंडलीश्वर शिवालय (पाणाहेड़ा गाँव, बाँसवाड़ा) से प्राप्त इस लेख में मालवा एंव बागड के परमारों का इतिहास ज्ञात होता है। इसमें परमार राजा मुंज, सिंधुराज एवं भोज की उपलब्धियों ज्ञात होती हैं। बागड़ के परमारों की धनिक से मंडलीक तक की वंशावली प्राप्त होती है।

(35). जालौर का लेख (1118 ई.)

     इस लेख से जालौर शाखा के परमारों की जानकारी प्राप्त होती हैं। इस लेख से ज्ञात होता है कि परमारों की उत्पत्ति ऋषि वशिष्ठ के यज्ञ से हुई तथा परमारों की जालौर शाखा का प्रवर्तक वाक्पतिराज था।

(36). किराडू का लेख (बाड़मेर 1161 ई.)

       इसमें किराडू (बाड़मेर) के परमार शासकों की वंशावली मिलती हैं। इसमें परमारों की उत्पत्ति ऋषि वशिष्ठ द्वारा आबू पर्वत पर किए गए यज्ञ से बताई गई हैं। इस लेख से ज्ञात होता हैं कि चौहान सामंत आल्हणदेव ने मास के दोनों पक्षों कीअष्टमी, एकादशी और चतुर्दशी को पशुवध पर रोक लगाई। 

(37). बिजौलिया शिलालेख

     बिजौलिया(भीलवाडा) के पार्श्वनाथ मंदिर के पास एक चट्टान पर उत्कीर्ण (5 फरवरी, 1170 ई. का) यह शिलालेख दिगम्बर जैन श्रावक लोलाक द्वारा पार्श्वनाथ मंदिर और कुंड के निर्माण की स्मृति में बनवाया गया था। इसमें 13 पद्य एवं 32 श्लोक हैं तथा यह संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध हैं। इसमें सांभर एंव अजमेर के चौहानों को वत्सगोत्रीय ब्राहमण बताते हुए उनकी वंशावली दी गई हैं। इसमें 12वीं सदी की सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, भोगौलिक, राजनैतिक एवं शिक्षा संबंधी व्यवस्था का व्यापक वर्णन मिलता हैं। बिजौलिया शिलालेख (प्रशस्ति) का रचयिता गुणभद्र तथा लेखक कायस्थ केशव था और अंकित या उत्कीर्ण करवाने वाला व्यक्ति गोविन्द था। इस लेख में उस समय के क्षेत्रों के प्राचीन नाम भी दिए गए हैं, जैसे- जाबालिपुर (जालौर), शाकम्भरी (सांभर), दिल्लीका (दिल्ली), मंडलकर (मांडलगढ़), नड्डुल (नाडोल), श्रीमाल (भीनमाल), विन्ध्यवल्ली (बिजौलिया) इत्यादि। इसलेख से ज्ञात होता हैं कि 12वीं सदी में भूमि अनुदान (दान में दी जाने वाली भूमि) को ‘डोहली‘ तथा ग्राम समूह की बड़ी इकाई को ‘प्रतिगण‘ नाम से जाना जाता था। इस लेख के अनुसार चौहानों के आदि पुरुष वासुदेव चौहान ने 551 ई. में शाकम्भरी (सांभर ) में चौहान वंश की स्थापना की, सांभर झील का निर्माण करवाया तथा अहिच्छत्रपुर (नागौर) को अपनी राजधानी बनाया। मोहिल चौहानों की एक शाखा हैं।

(38). नांदेसमा का लेख (1222 ई. उदयपुर)

      इसमें जैत्रसिंह की राजधानी नागदा बताई गई हैं, जिसमें स्पष्ट होता हैं. कि 1222 ई. तक नागदा नगर का पतन नहीं हुआ था। नागदा गुहिलों की राजधानी था।

(39). लूणवसही की प्रशस्ति (1230 ई.)

       संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध यह लेख सिरोही जिले के देलवाड़ा गाँव (आबू के पास) के लूणवसही मंदिर से प्राप्त हुआ हैं। इस मंदिर का निर्माण चालुक्यराजा वीर धवल के मंत्री वास्तुपाल व तेजपाल द्वारा 1230-31 ई. में करवाया गया था। इस मंदिर में 22 वें जैन तीर्थकर नेमिनाथ की प्रतिमा स्थापित हैं। तेजपाल ने यह मंदिर अपनी पत्नी अनुपमा देवी के श्रेय के लिए बनवाया था। नेमीनाथ प्रशस्ति में आबू के शासक धारावर्ष का वर्णन हैं। इस प्रशिस्त में आबू, मारवाड़, सिंध, मालवा तथा गुजरात पर शासन करने वाले परमारवंशी राजाओं की उपलब्धियों का वर्णन हैं। इसमें मेवाड़ के गुहिलवंशी राजा सामतसिंह और गुजरात के चालुक्य (सोलंकी) राजा अजयपाल के मध्य युद्ध का वर्णन हैं। इस प्रशस्ति की रचना सोमेश्वर ने की थी तथा सूत्रधार चण्डेश्वर ने इसे उत्कीर्ण किया।

(40). हुडेरा जोगियान (चुरू) का सती स्मारक लेख

     इस लेख से ज्ञात होता है कि नरहरिदास राठौड़ की पत्नी पोहड़ कृष्णा (पोहड. किसना) यहाँ सती हुई थी तथा राठौड़ों के वैवाहिक संबंध भाटियों से होने लगें। यह लेख 1252 ई. का हैं।

(41). सुन्डा पर्वत का शिलालेख (1262 ई.)

    जालौर जिले के जसवंतपुरा गाँव के पास सुन्डा पर्वत के शिलाखण्डों पर उत्कीर्ण इस लेख से जालौर के शासक चाचिगदेव चौहान के बारे में जानकारी प्राप्त होती हैं। इसकी भाषा संस्कृत एंव लिपि देवनागरी हैं। इस लेख से ज्ञात होता हैं कि समर सिंह ने जालौर में गढ़ का निर्माण करवाया और समरपुर की स्थापना की। इस लेख का रचयिता जैन साधु जयमंगलाचार्य तथा उत्कीर्णक सुत्रधार जैसा था। यह लेख जालौर के सोनगरा चौहानों के संस्थापक कीर्तिपाल व उसके उत्तराधिकारियों के बारे में जानकारी देता हैं। इस लेख को सोनगरा चौहानों की प्रशस्ति अथवा ‘चौहानों की प्रयागप्रशस्ति’ कहा जाता हैं।

(42). गम्भीरी नदी के पुल का लेख (1267 ई.)

       यह लेख चित्तौड़गढ़ जिले में गम्भीरी नदी के पुल पर उत्कीर्ण हैं। इस पुल का निर्माण दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के पुत्र खिज्रखाँ ने करवाया था।

(43). चीरवा का शिलालेख (1273 ई.)

     चीरवा (उदयपुर) के एक मंदिर के बाहरी द्वार पर संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण इस शिलालेख में बाप्पा रावल के वंशजो पदम सिंह, जैत्र सिंह, तेजसिंह एवं समरसिंह की उपलब्धियों का वर्णन है। इसमें जैत्र सिंह के पराक्रम की प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि वह शत्रु राजाओं के लिए प्रलय मारुत के समान था और मालवा, गुजरात, मारवाड, जांगलप्रदेश, दिल्ली के सुल्तान उसके मानमर्दन में थे। जैत्रसिह ने भूताला के युद्ध में दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश को पराजित किया था। यह लेख बागेश्वर और बागेश्वरी की आरधना से आरम्भ होता है। इस लेख से हमें हाटे जाति के तलाक्षों (चित्तौड़ में नियुक्तअधिकारी) के बारे में जानकारी प्राप्त होती है जो नगर के सज्जन व ईमानदार व्यक्तियों की रक्षा और दुष्टों को दण्ड देते थे। तलारक्ष सैनिक सेवाएँ भी देते थे। तलारक्ष योगराज का बड़ा पुत्र पमराम भूताला के युद्ध (नागदा के पास) में मारा गया । तलाक्षों का कार्य मध्यकालीन कोतवालों के समकक्ष था। डाटेड जाति के पास तलारक्ष का पद वंश परम्परा से चला आ रहा था।

चीरवा लेख का रचयिता रत्नप्रभुसुरी (चैत्रगच्छ के आचार्य भुवनसिंह सूरि के शिष्य) था। इस लेख का लेखक पार्श्व चंद, उत्कीर्णक केली सिंह एवं शिल्पकार देल्हण था। 36 पंक्तियों एवं नागरी लिपि में उत्कीर्ण चीरवा लेख में 51 श्लोक है जो संस्कृत भाषा में लिखे हुए हैं।

यह लेख मेवाड़ के राणा समर सिंह के समय लिखा गया था। इस लेख में एकलिंगजी (नागदा) के अधिष्ठाता पाशुपत योगियों और इस मंदिर की व्यवस्था का उल्लेख है। इसी लेख में चैत्रगच्छ के आचार्यों का भी वर्णन मिलता है। इस लेख में चीरवा गाँव में प्रचलित सती प्रथा के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

(44). बीलू का लेख (1237 ई.)

      बीलूगाँव (पाली) से प्राप्त इस लेख से ज्ञात होता है कि मारवाड के राठौड़ों का आदिपुरुष राव सीहा संतकुंवर का पुत्र था जिसकी 1273 ई० में मृत्यु होने पर उसकी रानी पार्वती ने वहाँ देवली (पत्थर की प्रतिमा) स्थापित की । इस लेख से राव सीहा के चरित्र के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

(45). रसिया की छतरी का लेख (1274 ई.)

      रसिया की छतरी (चित्तौड़गढ़) पर उत्कीर्ण यह लेख वर्तमान में उदयपुर म्यूजियम में सुरक्षित है। इस लेख की रचना नागर जाति के ब्राह्मण वेदशर्मा ने की। इस लेख से हमें मेवाड़ के गुहिलवंश (बापा से लेकर नरवर्मा तक) तथा दक्षिण-पश्चिमी राजस्थान की वनस्पति (खेर, पलाश, आम, चम्पा, केसर, अंगूर आदि) के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। इस लेख से ज्ञात होता है कि दापा ने हारीत ऋषि के आशिर्वाद से राज्य प्राप्त किया तथा यज्ञस्तम्भ स्थापित करवाया था।

(46). आबू के मंत्रीपार्श्वनाथ मंदिर का लेख (1278 ई.)

     मेवाड़ के गुहिलवंशीय राजा तेजसिंह की रानी जयतल्ला देवी ने नाथ आचार्य भर्तृपुरीय के उपदेशों से प्रभावित होकर चित्तौड़ में पार्श्वनाथ मंदिर का निर्माण करवाया था। 

(47). अचलेश्वर का लेख (1285 ई.)

     यह लेख आबू (सिरोही) के अचलेश्वर मंदिर के पासमठ की एक चौपाल की नवा तथा दीवार पर लगा हुआ है। पद्यमयी संस्कृत में लिपिबद्ध इस लेख में मेवाड़ के गुहिलवंशीय बापा से लेकर गुहिलवंशी समरसिंह तक की वंशावली मिलती है। 62 श्लोकों में लिपिबद्ध इस लेख के रचयिता वेदशर्मा, लेखक शुभचंद्र व उत्कीर्ण या शिल्पकार कर्मसिंह था। इसलेख से ज्ञात होता है कि हारित ऋषि ने नागदा में तपस्या की तथा उनके आशीर्वाद से बापा को राज्यप्राप्त हुआ। इस लेख में मेदपाट (मेवाड़ का प्राचीन नाम) के संबंध में ज्ञात होता है कि बापा के द्वारा दुष्टों की चर्बी (मद) से यहाँ की भूमि गीली हो जाने से इसे मैदघाट कहा गया। इस लेख से ज्ञात होता है कि अचलेश्वर के मठाधीश भावशंकर के कहने पर समरसिंह ने अचलेश्वर मठ का जीर्णोद्धार करवाया तथा तपस्वियों हेतु भोजन का प्रबंध करवाया था। अचलेश्वर प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि राजपूतों की उत्पत्ति अग्निकुण्ड से हुई तथा धूम्रराज परमारों का मूल निर्माण पुरुष या आदि पुरुष था। 

(48).पटनारायण का लेख (1287 ई.)

     पटनारायणमंदिर (गिरवर गाँव सिरोही) से प्राप्त इस लेख से ज्ञात होता है. कि ऋषि वशिष्ठ ने आबूपर्वत पर यज्ञ किया और आबू के अग्निकुड से परमार धूम्रराज की उत्पत्ति हुई थी।

(49) जूना के आदिनाथ मंदिर का लेख (1295 ई) 

     यह लेख जूना गाँव के आदिनाथ मंदिर (बाड़मेर) पर उत्कीर्ण हैं। इस लेख से ज्ञात होता है कि 13वीं सदी में जूना एक व्यापारिक केन्द्र था, जहाँ से ऊँट, घोडे, बैल आदि माल लेकर जाते थे। इस लेख से 13वीं सदी की व्यापार व्यवस्था, व्यापारिक मार्ग एंव मुद्रा कर आदि की जानकारी प्राप्त होती है।

(50). जावर प्रशस्ति, 1421 ई. (उदयपुर)

      जावर प्रशस्ति के अनुसार रमाबाई (महाराणा कुंभा की पुत्री) संगीतशास्त्र की ज्ञाता थी।

(51). श्रृंगी ऋषि का शिलालेख (1428 ई.)

      संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध यह लेख एकलिंगजी से 10 किमी. दूर श्रृंगी ऋषि नामक स्थान पर प्राप्त हुआ है। इस लेख से मेवाड़ के महाराणाओं- हम्मीर, क्षेत्र सिंह, लक्ष सिंह (लाखा) और मोकल की उपलब्धियों की जानकारी मिलती है। यह लेख महाराणा मोकल के समय (1428 ई.) का है। इसमें मोकल द्वारा अपनी पत्नी गौराम्बिका की मुक्ति के लिए श्रृंगी ऋषि नामक स्थान पर कुंड बनाने एवं 25 बार तुलादान करने का उल्लेख है। मोकल ने एकलिंगजी के मंदिर के चारों तरफ प्राचीर (दीवार) तथा तीन द्वार बनवाये थे। महाराणा लाखा ने गया में शिव मंदिर का निर्माण करवाया। इस लेख से मेवाड़ की आदिम जाति भीलों के सामाजिक जीवन के बारे में जानकारी मिलती है। इस लेख से मेवाड, गुजरात और मालवा के राजनीतिक संबंधों के बारे में जानकारी मिलती है। श्रृंगी ऋषि लेख का रचयिता कविराज वाणी विलास योगीश्वर तथा शिल्पकार पन्ना था।

(52). समिधेश्वर या समाधीश्वर के मंदिर का लेख (1428 ई.) 

     समिधेश्वर मंदिर (चित्तौड़) से प्राप्त इस लेख से ज्ञात होता है कि महाराणा लाखा ने झोटिंग भट्ट नामक विद्वान को आश्रय दिया था इस लेख का रचयिता एकनाथ, लेखक बीसल और उत्कीर्णक गोविन्द था। इस लेख में हम्मीर की तुलना अच्युत, कामदेव, कर्ण, ब्रह्मा तथा शंकर से की गई है।

(53). देलवाड़ा का लेख (1434 ई.)

     देलवाड़ा (आबू, सिरोही) से प्राप्त यह लेख संस्कृत एवं मेवाड़ी दोनों भाषाओं में लिपिबद्ध हैं। इस लेख से ज्ञात होता है कि हलथनामी नामक स्थानीय अधिकारी उस समय (15 वीं सदी में)  कर वसूल करते थे तथा टंका नामक मुद्रा प्रचलित थी।

(54). रणकपुर प्रशस्ति (1439 ई.)

     रणकपुर (पाली) के चौमुखा मंदिर से प्राप्त 47 पंक्तियों की यह प्रशस्ति (लेख) संस्कृत भाषा व नागरी लिपि में उत्कीर्ण है। इसमें मेवाड़ राजवंश (बापा से कुम्भा तक), सेठ धरणक के वंश एवं उसके शिल्पी का परिचय मिलता है। इसमें बापा व कालभोज को अलग-अलग व्यक्ति बताया गया है जबकि दोनों एक की व्यक्ति हैं। इसमें महाराणकुम्मा की विजयों, उपलब्धियों का वर्णन है। इसमें कुम्भा को विजेता, सफलप्रशासक, धर्मपरायण, न्यायप्रिय एवं प्रजापालक बताया गया है। इससे ज्ञात होता है कि कुम्भा ने बूँदी, गागरोन, नागौर, सारंगपुर, अजमेर, मंडोर, कुम्भलगढ़ आदि क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की थी। इससे ज्ञात होता है कि 15वीं सदी में नाणक नामक मुद्रा प्रचलित थी। इस प्रशस्ति का सूत्रधार / शिल्पकार देपाक (दीपा) था।

(55). कीर्तिस्तम्म प्रशस्ति (1460 ई.) 

     यह चित्तौड़गढ़ दुर्ग में स्थित कीर्तिस्तम्भ की कई शिलाओं पर संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध है। इसमें गुहिल वंश के बापा से लेकर कुम्भा तक की वंशावली एंव उपलब्धियों का वर्णन है। इसमें बापा को पराक्रमी एवं शिवभक्त कहा गया है। बापा का इष्टदेव शिव था। महाराणा कुम्भा के समय 1460 ई. में उत्कीर्ण इस प्रशस्ति में कुम्भा की विजयों ( मालवा व गुजरात), विरुदों/ उपाधियों (अभिनवभरताचार्य, हिन्दू सुरताण, राणोरासी, राजगुरू, दानगुरू, छापगुरू) तथा रचनाओं (चण्डीशतक, गीतगोविन्द की टीका- रसिक प्रिया, संगीत राज) का वर्णन हैं। इसमें कुम्भा द्वारा मालवा और गुजरात की सम्मिलित सेनाओं को परास्त करने का वर्णन मिलता है, जो इसके अलावा अन्यत्र नहीं मिलता। कुम्भा द्वारा मालवा व गुजरात की संयुक्त सेनाओं को पराजित करने का वर्णन इस प्रशस्ति के 179 वे श्लोकमें मिलता है। इस प्रशस्ति से 15वीं सदी के राजस्थान के सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक जीवन की पर्याप्त जानकारी मिलती है। इस प्रशस्ति के रचयिता कवि अत्रि भट्ट थे, लेकिन इनकी मृत्यु के पश्चात् इनके पुत्र कवि महेश भट्ट ने इसे पूरा किया। इस प्रशस्ति में राणा हम्मीर की चेलावट विजय का वर्णन किया गया हैं। राणा हम्मीर ने विकट परिस्थितियों में भी अपना धैर्य नहीं खोया अतः इस प्रशस्ति में राणा हम्मीर को ‘विषम घाटी पंचानन‘ (विकट परिस्थितियों में सिंह के समान) कहा गया।

(56). कुम्भलगढ़ प्रशस्ति (1460 ई.)

     कुम्मश्याम मंदिर/मामादेव मंदिर (कुम्भलगढ़, राजसमंद) से प्राप्त इस प्रशस्ति में महाराणा कुम्भा की उपलब्धियों का वर्णन हैं। इस लेख में बापा रावल को विप्रवंशीय (ब्राह्मण) बताया गया है। यह मेवाड़ के महाराणाओं की वंशावली को विशुद्धरूप से जानने का महत्वपूर्ण साधन हैं। इसमें तत्कालीन समय की दासप्रथा, आश्रम व्यवस्था, तपस्या, यज्ञ एवं शिक्षा आदि का वर्णन मिलता हैं। इस प्रशस्ति से ज्ञात होता हैं कि मेवाड़ के राणा रतन सिंह प्रथम अलाउद्दीन खिलजी के विरुद्ध चित्तौड़ के प्रथम साके(1303 ई.) में वीरगति को प्राप्त हुए, तो दुर्ग की रक्षा का भार खुमाण वंश के लक्ष्मण सिंह ने संभाला। लक्ष्मण सिंह तथा उसके सातपुत्र भी दुर्ग की रक्षा करते हुए वीर गति को प्राप्त हुए। इस प्रशस्ति के रचयिता कवि महेशभट्ट था। संभवतः इसका रचयिता कान्हा व्यास था, जो उस समय कुंभलगढ़ में ही निवास करता था।

(57). खजूरी गाँव का शिलालेख

     खजूरी गाँव (कोटा) से प्राप्त यह लेख महाराजा सूरजमल (जाटों का प्लेटो) के समय 1506 ई. का हैं। इससे बूँदी (वृन्दावती) के हाड़ा राजाओं का इतिहास ज्ञात होता है।

(58). माधवराय की प्रशस्ति (1591 ई.)

     सूरजपुर (डूंगरपुर) के माधवराय की प्रशस्ति संस्कृत पद्य तथा बागड़ी गद्य में लिपिबद्ध हैं, जिसमें वागड़ प्रदेश (डूंगरपुर, बाँसवाड़ा, प्रतापगढ़) की संस्कृति का वर्णन हैं। इसके रचयिता हरदास था।

(59). रायसिंह की प्रशस्ति (1594 ई.) या जूनागढ़ प्रशस्ति या बीकानेर दुर्ग की प्रशस्ति

      बीकानेर महाराजा रायसिंह द्वारा जूनागढ़ निर्माण के बाद दुर्ग के द्वार पर लगी यह प्रशस्ति रायसिंह के समय (1594 ई.) की हैं। संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध इसमें बीकानेर के राठौड़ शासकों राव बीका से लेकर रायसिंह तक की उपलब्धियों का उल्लेख हैं। इसमें रायसिंह की विजयों (काबुल, सिंध व कच्छ) का वर्णन हैं। इसमें राजयसिंह को विजेता के साथ-साथ विद्या प्रेमी, कवि और विद्वानों का आश्रयदाता भी बताया गया हैं। इसका रचयिता जैता(जइता) नामक जैनमुनि था।

(60). कोकिन्द के पार्श्वनाथ मंदिर का लेख (1609 ई.)

       इसमें जोधपुर के महाराजा शूरसिंह एंव गजसिंह तथा जोधपुर राज्य की समृद्धि ज्ञात होती हैं। उस समय जोधपुर राज्य में चोरी व डकैती का भय नहीं था।

(61). आमेर का लेख (1612 ई.)

     इस लेख में आमेर के कछवाहा शासकों में पृथ्वीराज, उसके पुत्र राजा भारमल, उसके पुत्र भगवंतदास और उसके पुत्र मान सिंह प्रथम के नाम क्रमशः दिए गए है। इस लेख में कछवाहा वंश को ‘रघुवंशतिलक‘ कहा गया है। इस लेख(प्रशस्ति) में प्रांतीय विभाग के लिए ‘निजाम‘ शब्द का प्रयोग किया गया है, जो मुगल प्रभाव का द्योतक है। यह लेख संस्कृत भाषा व नागरी लिपि में है।

(62) जगन्नाथ कछवाहा की छतरी का लेख (1613 ई.)

      मांडल कस्बे (भीलवाड़ा) में मेजा बाँध पर 32 खंभों की छतरी निर्मित हैं, जिसे जगन्नाथकछवाहा की छतरी और सिंहेश्वर महादेव का मंदिर कहते हैं। मेवाड़ आक्रमण से लौटते समय जगन्नाथ कछवाहा की मांडल गाँव में मृत्यु (1613ई.) हो गई थी, जिसके स्मारक के रूप में इस छतरी का निर्माण करवाया गया था। जगन्नाथ कछवाहा आमेर के राजा भारमल का पुत्र था। जहाँगीर के शासनकाल में इस छतरी की प्रतिष्ठा हुई थी।

(63). गोवर्द्धननाथजी के मंदिर की प्रशस्ति (डूंगरपुर, 1623ई.)

     इसमें डूंगरपुर के महारावलों (शासकों) का उल्लेख हैं। यह प्रशस्ति महारावल पूँजा के समय(1623ई.) की हैं। इससे ज्ञात होता हैं कि महारावल सैरुमल वीर, शांतिप्रिय एवं विद्यानुरागी शासकथा। महारावल सैरुमल ने डूंगरपुर में ‘नोलखा बाग‘ लगवाया।

(64). खमनोर की छतरी का लेख (1624 ई., राजसमंद)

     इस छतरी पर मेवाड़ी भाषा में उत्कीर्ण एक लघु लेख हैं। यह छतरी ग्वालियर (एमपी) के राजा रामशाह के पुत्र शालिवाहन की हैं जिसका निर्माण उदयपुर के महाराणा कर्ण सिंह ने करवायाथा।

(65). जगन्नाथराय प्रशस्ति (1652 ई.)

     जगन्नाथ / जगदीश मंदिर (उदयपुर) में काले पत्थर पर उत्कीर्ण इस प्रशस्ति में बापा रावल से लेकर जगतसिंह प्रथम तक के शासकों का वर्णन हैं। इस प्रशस्ति की रचना महाराणा जगतसिंह प्रथम के समय कृष्ण भट्ट ने की थी। इसमें हल्दीघाटी युद्ध(1576 ई.), महाराणा कर्णसिंह के समय सिरोज के विनाश तथा महाराणा जगतसिंह प्रथम के युद्धों एवं पुण्य कार्यों का विस्तृत विवेचन हैं। जगदीश मंदिर का निर्माण अर्जुन, सूत्रधार माणा और मुकुन्द की देखरेख में हुआ। इस मंदिर में प्रभु जगन्नाथ राय की प्रतिमा हैं। इसे स्वप्न (सपने) में बना मंदिर भी कहते हैं।

(66). त्रिमुखी बावड़ी की प्रशस्ति (1675 ई.)

      देबारी (उदयपुर) के पास त्रिमुखी बावड़ी से प्राप्त प्रशस्ति में बापा रावल से लेकर राजसिंह तक के शासकों की उपलब्धियों का वर्णन है। त्रिमुखीबावड़ी का निर्माण महाराणा राजसिंह (1652-1680) की रानी रामरसदे ने करवाया था। इस प्रशस्ति में राजसिंह के समय सर्व ऋतुविलास बाग बनवाये जाने, मालपुरा (टोंक) की विजय और लूट, चारूमति (किशनगढ़ के राजा रूपसिंह की पुत्री) का विवाह इत्यादि का उल्लेख मिलता है। इसमें राजपरिवार की कन्याओं के विवाह अवसर पर अन्य कन्याओं (डावडियो) के दान का भी वर्णन है। इस प्रशस्ति का रचयिता रणछोड़भट्ट था।

(67). राज प्रशस्ति (1676 ई.)

       राजसमंद झील की नौ चौकी पाल पर 25 काली पाषाण पट्टिकाओं (शिलाओं) पर संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण यह प्रशस्ति 1676 ई. में महाराणा राजसिंह द्वारा स्थापित कराई गई। संस्कृत भाषा में पद्यों में लिपिबद्ध इस प्रशस्ति का रचयिता रणछोड भट्ट तैलंग (ब्राह्मण) था। इस प्रशस्ति में 1106 श्लोक है, जो 25 सर्गो में विभाजित है। प्रत्येक पट्टिकाओं / शिलाओं में प्रशस्ति का एक-एक सर्ग उत्कीर्ण हैं। अत इस प्रशस्ति को ‘महाकाव्य‘ की संज्ञा दी गई है। यह विश्व की सबसे बड़ी प्रशस्ति (अभिलेख) हैं। इस महाकाव्य की रचना का उद्देश्य महाराणा राजसिंह की उपलब्धियों पर प्रकाश डालना था। डॉ. मोतीलाल मेनारिया ने राजप्रशस्ति महाकाव्य का सम्पादन किया था, जिसे साहित्य संस्थान, राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर ने 1973 ई. में प्रकाशित किया है। राज प्रशस्ति में बापा रावल से लेकर महाराणा राजसिंह (1652-1680) तक के शासकों की वंशावली व उपलब्धियों का वर्णन है। महाराणा राजसिंह ने राजसमंद झील का निर्माण (1662-1676) अकाल राहत कार्यों के तहत करवाया था। इसकी नींव घेवर माता ने रखी थी।

राज प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि :

(i) बापा ने 734 ई. में चित्तौड़ के राजा मान मौर्य (मानमोरी) को पराजित कर चित्तौड़ पर अधिकार किया तथा ‘रावल‘ की उपाधि धारण की।

(ii) मेवाड़ शासक समर सिंह ने पृथ्वीराज चौहान तृतीय की बहन पृथा (पृथ्वीबाई) से विवाह किया था। समरसिंह ने तराइन के द्वितीय युद्ध (1192 ई.) में मुहम्मद गौरी के विरुद्ध पृथ्वीराज चौहान तृतीय का साथ दिया और वीरगति को प्राप्त हुआ।

(iii) चित्तौड़ के प्रथम साके (1303 ई.) में खुमाण वंश का लक्ष्मणसिंह अपने 12 भाईयों और 7 पुत्रों के साथ अलाउद्दीन खिलजी के विरुद्ध लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ था।

(iv) महाराणा अमर सिंह प्रथम (1597-1620) ने उटाला गाँव (आधुनिक वल्लभनगर) में मुगल सेनापति कायम खों की हत्या की तथा मालपुरा को लूट कर वहाँ से कर वसूल किया।

(v) महाराणा अमर सिंह प्रथम तथा शाहजादा खुर्रम (जहाँगीर का पुत्र) के मध्य 1615 ई. में मेवाड़-मुगल संधि का वर्णन।

(vi) महाराणा कर्णसिंह ने खुरम को अपने पिता जहाँगीर के विरुद्ध विद्रोह करने पर चार माह तक जगमंदिर महल में शरण दी थी।

(vii) 1857 ई. में औरंगजेब ने डूंगरपुर की जागीर का फरमान महाराणा राजसिंह के नाम जारी किया था।

(viii) 1659 ई. में खजुआ के युद्ध (इलाहाबाद, यू.पी.) में महाराणा राजसिंह ने अपने पुत्र सरदार सिंह को मेवाड़ी सेना के साथ औरंगजेब की सहायता हेतु भेजा था। इस युद्ध में औरंगजेब ने अपने भाई शाहशुजा को पराजित किया। खजुआ की विजय के उपलक्ष्य में औरंगजेब ने राजसिंह को देश, गज/ हाथी, और अश्व प्रदान किए थे।

(ix) इस प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि अकबर खूद भी महाराणा प्रताप से युद्ध करने गया था, परन्तु उसने महाराण प्रताप को अपने से अधिक बहादुर समझा। अतः वह खुद तो आगरा की ओर चला गया और युद्ध का नेतृत्व अपने पुत्र शेखू को सौंप दिया।

(x) महाराणा राजसिंह ने 1660 ई. में चारूमति से विवाह किया, जो किशनगढ़ के शासक रूप सिंह की पुत्री थी।

(xi) महाराणा राजसिंह ने 1664 ई. में सूर्यग्रहण के समय हिरण्य कामधेनु महादान दिया।  1672 में चंद्रग्रहण के समय कल्पलता नामक दान दिया तथा 1677 ई० में अपने जन्मदिन के समय कल्पद्रुम और हिरण्याश्य महादान दिए थे।

(xii) इन्द्रभान परमार की पुत्री सदाकुँवरी महाराणा राजसिंह की पटरानी थी।

(xiii) महाराणा राजसिंह ने राव बैरीसाल को सिरोही का शासक बनाने में सहयोग दिया था।

राज प्रशस्ति का ऐतिहासिक महत्व यह है कि इससे मेवाड़ की संस्कृति, वेशभूषा, शिल्पकला, मुद्रा, दान प्रणाली, धर्म-कर्म एव युद्धनीति पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। इसमें संवतों के साथ ऐतिहासिक घटनाओं का विवरण हैं, जो इतिहास के लिए सर्वाधिक उपयोगी है। मेवाड़ के राजनीतिक तथा सांस्कृतिक इतिहास का वर्णन मिलता है।

(68). दक्षिणामूर्ति लेख (1719 ई.)

     राज राजेश्वर शिव मंदिर (उदयपुर) से प्राप्त इस लेख से ज्ञात होता है कि प्रकांड पंडित श्रीदक्षिणामूर्ति महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय (1710-1734 ई.) के गुरु थे। महाराणा संग्राम सिंह, ने गुरु की प्रेरणा से इस शिव मंदिर का निर्माण करवाया। इस लेख से संग्राम सिंह की धार्मिक नीति ज्ञात होती हैं।

(69). वैद्यनाथ मंदिर की प्रशस्ति (1719 ई.)

     पिछोला झील (उदयपुर) के निकट सीसारमा गाँव के वैद्यनाथ मंदिर में स्थित यह प्रशस्ति 1719 ई. की है, जिसका रचयिता रूपभट्ट था। इसमें बापा रावल से संग्राम सिंह द्वितीय तक के गुहिल शासकों का वर्णन है। इसमें बापा रावल द्वारा हारीत ऋषि की कृपा से राज्य प्राप्ति का उल्लेख हैं। इस प्रशस्ति में बोंदनवाडा युद्ध का वर्णन है, जिसमें महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय ने मुगल सेनापति रणबाज खाँ को पराजित किया।

(70). जनासागर प्रशस्ति (उदयपुर)

    यह प्रशस्ति मेवाड़ के महाराणा राजसिंह के समय (1677 ई.) की है जिससे ज्ञात होता है कि जनासागर तालाब (उदयपुर) का निर्माण महाराणा राजसिंह ने अपनी माता जनादे की स्मृति में करवाया था।

(71). बेणेश्वर का लेख (1866 ई.)

     सोम-माही-जाखम नदियों के संगम पर स्थित बेणेश्वर (डूंगरपुर) से प्राप्त इस लेख से ज्ञात होता है कि बेणेश्वर महादेव का मंदिर महारावल आसकरण के समय का है जिसे लेकर डूंगरपुर और बाँसवाड़ा राज्यों के मध्य विवाद था। अंत में इसे डूंगरपुर राज्य की सीमा में माना गया। सीमा निर्धारण के इस लेख पर मेजर एम. एम. मैकेंजी तथा पॉलिटिकल सुपरिन्टेन्डेन्ट हिली ट्रैक्ट्स के अंग्रेजी में हस्ताक्षर है। सीमा निर्धारण से संबंधित इस लेख का ऐतिहासिक महत्व है। सम्भवत इस तरह के हस्ताक्षरों वाला यह एक मात्र अभिलेख है।

(72). ग्वालियरप्रशस्ति (ग्वालियर, एम.पी.)

    संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध इस प्रशस्ति का लेखक मग तथा प्रशस्तिकार कृष्णेश्वर था। यह गुर्जर-प्रतिहार वंश के प्रसिद्ध शासक मिहिरभोज प्रथम ( 836-885 ई.) की प्रशस्ति है। इसमें मिहिरभोज प्रथम की उपाधि आदिवराह मिलती है। इससे प्रतिहार वंश के शासकों की राजनैतिक उपलब्धियाँ तथा वंशावली ज्ञात होती है।

(73). श्रीनाथजी की हवेली (उदयपुर) का लेख

    इससे ज्ञात होता है कि यशवंतराव होल्कर (मराठा) ने मेवाड़ पर आक्रमण किया था।


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