प्राचीन  भारत  में  शिक्षा  का  विकास

प्राचीन भारतीय सभ्यता विश्व की सर्वाधिक रोचक तथा महत्त्वपूर्ण सभ्यताओं में से एक है। इस सभ्यता के समुचित ज्ञान के लिए हमें इसकी शिक्षा पद्धति का अध्ययन करना आवश्यक है, जिसने इस सभ्यता को चार हजार वषों से भी अधिक समय तक सुरक्षित रखा। प्राचीन भारतीयों ने शिक्षा को अत्यधिक महत्व प्रदान किया। भौतिक तथा आध्यात्मिक उत्थान तथा विभिन्न उत्तरदायित्वों के विधिवत निर्वाह के लिए शिक्षा की महती आवश्यकता को सदा स्वीकार किया गया जो मानव जीवन के विभिन्न क्षेत्रों को आलोकित करते हुए उसे सही दिशा-निर्देश देता है।

         प्राचीन भारतीयों का यह दृढ़ विश्वास था कि शिक्षा द्वारा प्राप्त एवं विकसित की गई बुद्धि ही मनुष्य की वास्तविक शक्ति होती है। शिक्षा व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक उत्थान का सर्वप्रमुख माध्यम है।

शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य

    विभिन्न ग्रंथों में शिक्षा से संबंधित जो उल्लेख मिलते हैं उनके आधार पर हम शिक्षा के उद्देश्यों तथा आदर्शों की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। इन्हें इस प्रकार रखा जा सकता है-

(1) चरित्र का निर्माण

      भारतीय शास्त्रों में सच्चरित्रता को बहुत शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति के चरित्र महत्व दिया गया है। का निर्माण करना था।

(2) व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास

       प्राचीन शिक्षा का एक उद्देश्य विद्यार्थी को व्यक्तित्व के विकास का पूरा अवसर प्रदान करना था, जिससे विद्यार्थी के मानसिक विकास के साथ-साथ शारीरिक विकास आत्मसम्मान, आत्मसंयम, आत्मविश्वास, विवेकशक्ति, न्यायशक्ति आदि गुणों का विकास हो।

(3) नागरिक तथा सामाजिक कर्तव्यों का ज्ञान

     शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को नागरिक एवं सामाजिक कर्तव्यों का बोध कराकर उसे सुयोग्य नागरिक बनाना भी था।

(4) सामाजिक सुख तथा कौशल की वृद्धि

      शिक्षा का उद्देश्य केवल संस्कृति अथवा मानसिकता तथा बौद्धिक शक्तियों को विकसित करना नहीं था बल्कि इनका उद्देश्य लोगों को विभिन्न उद्योगों, व्यवसायों आदि में दक्ष बनाना था।

(5) संस्कृति का संरक्षण तथा प्रसार

     शिक्षा संस्कृति के परिरक्षण तथा परिवर्धन का प्रमुख माध्यम है। इसी के द्वारा प्राचीन संस्कृति वर्तमान में जीवित रहती है तथा पूर्वकालिक परम्पराओं में जीवनी शक्ति आती है।

(6) निष्ठा तथा धार्मिकता का संचार

      भारत की प्राचीन संस्कृति धर्मप्राण रही है। अतः शिक्षा पद्धति भी धर्म से प्रभावित थी तथा उसका एक प्रमुख उद्देश्य विद्यार्थियों में निष्ठा एवं धार्मिकता की भावना जाग्रत करना था।

      शिक्षा का अर्थ एवं उद्देश्य समान रहते हुए भी विभिन्न कालों में शिक्षा के पाठ्यक्रम, पद्धति, परीक्षा विधियों में अन्तर आता गया जिसे हमें कालक्रमानुसार अध्ययन करेंगे।

  • ऋग्वैदिक युग

    वैदिक युग में शिक्षा की गुरुकुल पद्धति प्रचलित थी जिसमें गुरु के आश्रम में रहकर शिक्षा प्राप्त की जाती थी। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, उपनयन संस्कार के बाद गुरु के आश्रम में प्रवेश करते थे जहाँ लगभग चौबीस वर्ष तक शिक्षा ग्रहण करते थे। वैदिक युग में शिक्षा का माध्यम मौखिक था अर्थात् गुरु द्वारा कहे गये वचनों को छात्रों द्वारा बार-बार दोहराया जाता था। वैदिक शिक्षा केन्द्रों में विद्यार्थी वेद, तर्कशास्त्र, नीतिशास्त्र, ब्रह्मविद्या आदि का अध्ययन करते थे। प्राचीन भारतीय समाज में गुरु को अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। गुरु-शिष्य अत्यन्त मधुर एवं सौहार्दपूर्ण थे। वैदिक युग में आचार्य तथा शिष्य के मध्य सीधा संबंध होता था।

       प्राचीन भारतीय शिक्षा में शुल्क प्रदान करने का कोई निश्चित नियम नहीं था। प्रायः शिक्षा निःशुल्क दी जाती थी। शिक्षा प्रदान करना विद्वानों एवं आचार्यों का पुनीत कर्त्तव्य माना जाता था। परंतु राज्य तथा समाज का यह कर्तव्य था कि वह अध्ययन-अध्यापन करने वाले विद्वानों के निर्वाह की उचित व्यवस्था करे। इस उद्देश्य से शासक तथा कुलीन लोग शिक्षण संस्थाओं को भूमि तथा धन आदि दान में देते थे।

       वैदिक युग में आधुनिक युग की भाँति परीक्षा लेने तथा उपाधियाँ प्रदान करने की प्रथा का अभाव था। विद्यार्थी गुरु के सीधे सम्पर्क में रहते थे। अध्ययन की समाप्ति पर समावर्तन नामक संस्कार आयोजित होता था। वहाँ छात्र से विद्वत मण्डली द्वारा उसके अध्ययन से संबंधित गूढ प्रश्न पूछे जाते थे। तदनन्तर वह स्नातक बन जाता था।

        वैदिक युग में स्त्रियों को भी शिक्षा प्रदान की जाती थी। गार्गी, लोपामुद्रा, मैत्रेयी आदि विदुषी महिलाओं द्वारा वाद-विवाद में भाग लेना एवं विभिन्न ऋचाओं की रचना इसका प्रमाण है।

        उत्तर वैदिक युग में ब्राह्मण ग्रंथ लिखे गये तथा ये शिक्षा का विषय बन गये। उपनिषद तथा सूत्रों के युग में वैदिक मंत्रों के शुद्ध उच्चारण पर बल दिया गया। वैदिक साहित्य के अध्ययन को सरल बनाने के निमित्त छः वेदांगों की रचना हुई। सूत्र युग के अंत तक आते-आते वैदिक साहित्य का अध्ययन कम हो गया तथा उसके स्थान पर अन्यान्य विषयों जैसे दर्शन, धर्मशास्त्र, महाकाव्य, व्याकरण, खगोल विद्या, मूर्तिकला, वैद्यक, पोत निर्माण कला आदि का समावेश हो गया। धार्मिक तथा लौकिक विषयों की शिक्षा में समन्वय स्थापित किया गया। इस युग के स्नातक वेदों तथा 18 शिल्पों में निपुण होते थे। इस कला में भी शिक्षा की पद्धति मौखिक ही थी। कण्ठस्थ करने की विधि पदपाठ, क्रमपाठ, जटापाठ और घनपाठ पर आधारित थी।

        बुद्ध कालीनशिक्षा के विषय में जानकारी प्राप्त करने के महत्वपूर्ण स्रोत पाली ग्रंथ है। त्रिपिटकों में गुरु शिष्य संबंध, शिक्षा के विषय अध्ययन-अध्यापन का ढंग शुल्क एवं दक्षिणा जैसे शिक्षा के विभिन्न आयामों पर विचार किया गया है। बौद्ध धर्म में चरित्र पर विशेष बल दिया गया है।

       बौद्धशिक्षा के तीन महत्वपूर्ण लक्षण बताये गये हैं- (1) चारित्रिक (2) बौद्धिक एवं (3) आध्यात्मिक ।

       बुद्ध काल तक भारत में लेखन का पूर्ण विकास हो चुका था। किन्तु शिक्षा अधिकांशतः मौखिक ही थी। बुद्ध काल में वैदिक साहित्य के अध्ययन की लोकप्रियता कम हो गई तथा साहित्यिक अध्ययन के साथ-साथ व्यवसाय, उद्योग, चिकित्सा, आखेट, हस्तविद्या, पशु भाषा विज्ञान, विधि, सैन्य विज्ञान, शिल्प आदि की शिक्षा दी जाने लगी। मौर्य काल तक आते-आते शिक्षा का स्वरूप पूर्णतः बुद्ध काल के अनुरूप हो गया। मौर्यकाल में साधारण जनता की भाषा पाली थी तथा संस्कृत शिक्षित समुदाय तथा साहित्य की भाषा थी। मौर्यकाल में तक्षशिला शिक्षा का महत्वपूर्ण केन्द्र था जहाँ सभी विषयों की शिक्षा दी जाती थी। शिक्षा का माध्यम संस्कृत था तथा ब्राह्मी तथा खरोष्ठी दोनों लिपियों का प्रयोग किया जाता था।

          गुप्तकाल में शिक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई। गुरु अपने शिष्यों को व्यक्तिगत रूप से शिक्षा देते थे। आचार्य, प्रमुख धर्म स्थानों, तीर्थों, नगरों एवं आश्रमों में निवास करते थे। दक्षिणा, राजकीय सहायता आदि से आचार्यों का जीवन निर्वाह होता था। मथुरा, उज्जयिनी, वाराणसी, पाटलिपुत्र, वल्लभी, प‌द्मावती एवं अयोध्या आदि प्रमुख शिक्षा केन्द्र गुप्तकाल में थे।

         याज्ञवल्क्य ने दो प्रकार के शिष्यों का उल्लेख किया है –

(1) नैष्ठिक – जो जीवन भर शिक्षा अर्जन हेतु समर्पित होते थे।

(2 ) उपकुर्वाण – जो ब्रह्मचर्य आश्रम पूरा होने तक शिक्षा प्राप्त करते थे।

       शिक्षकों को उपाध्याय, आचार्य एवं परम विद्वान को ‘भट्ट’ कहा जाता था। आचार्य को दान में प्रदत्त गाँव को ‘अग्रहार’ कहा जाता था।

      वेदशिक्षा के मुख्य पाठ्य विषय थे। इनके अतिरिक्त वेदांग, व्याकरण, पुराण, न्याय, मीमांसा, धर्मव्यवहार आदि भी पाठ्य विषय थे। याज्ञवल्क्य ने वर्णन किया है कि विद्यार्थी के ऊपरी वस्त्र मृगचर्म का और अधोवस्त्र सण या ऊन का होता था। उच्च शिक्षण संस्थाओं को घटिकाकहते थे। ब्राह्मण व क्षत्रियों में शिक्षा का अधिक प्रचार था। शूद्रों की शिक्षा का प्रबन्ध नहीं था। स्त्रीशिक्षा भी कम होती जा रही थी। ‘लिपिशाला’ प्रारंभिक शिक्षण संस्था; प्रायः सभी गाँवों में होती थी इन प्रारम्भिक शिक्षकों को ‘द्वारकाचार्य’ कहते थे।

         प्राचीन साहित्य में कुछ आश्रमों के उल्लेख भी मिलते हैं जैसे महर्षि भारद्वाज का आश्रम, मालिनी नदी के तट पर कण्व, हिमालय पर व्यास का आश्रम, रामायण में चित्रकूट में वाल्मीकि का आश्रम। छठी शताब्दी ई.पू. में बौद्ध धर्म के अन्तर्गत विहारों को केन्द्र बनाकर शिक्षा केन्द्रों का विकास हुआ जैसे कपिलवस्तु का निग्रोधाराम विहार, वैशाली का आम्रवन विहार तथा राजगृह का वेलुवन विहार, श्रावस्ती में अनाथ पिंडक ने जेतवन विहार का निर्माण करवाया था।

        सातवीं सदी में भी उत्तर भारत में अनेक विहार थे कन्नौज में प्रसिद्ध मद्र विहार थे। कालांतर में मंदिरों, विहारों, मठो के अलावा शिक्षा केन्द्रों के रूप में अनेक विश्वविद्यालय स्थापित हुए जैसे-तक्षशिला, काशी, नालंदा, विक्रमशिला, वल्लभी, कांची एवं उदयन्तपुर आदि के बाद जहाँ हजारों देशी तथा विदेशी विद्यार्थी दूर-दूर से आकर शिक्षा प्राप्त करते थे। मध्यकाल में विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं ने यहाँ के इन वृहद शिक्षा केन्द्रों को नष्ट कर दिया।

  • प्रमुख शिक्षा केन्द्र

 तक्षशिला

        प्राचीन भारत के प्रमुख शिक्षा केन्द्र तक्षशिला की स्थापना राजा भरत ने की थी जिसका प्रशासक अपने पुत्र ‘तक्ष’ को सौंपने के कारण इसका नाम तक्षशिला पड़ा। यह वर्तमान पाकिस्तान के रावलपिंडी (पंजाब प्रांत) में स्थित है। प्राचीन समय में कौशलनरेश प्रसेनजित, पतंजलि, पाणिनी, चरक, चाणक्य, चन्द्रगुप्त मौर्य, बिम्बिसार के राजवैघ जीवक ने यहीं से शिक्षा प्राप्त की थी। यहाँ शिक्षा प्राप्त करने की आयु 16 वर्ष थी। यहाँ शिक्षा ‘संस्कृत’ भाषा में प्रदान की जाती थी तथा ब्राह्मी एवं खरोष्ठी दोनों लिपियों का लेखन में प्रयोग किया जाता था। चौथी सदी ई. तक यह शिक्षा का प्रमुख केन्द्र बना रहा।

नालंदा

       नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना गुप्तवंश के शासक कुमारगुप्त प्रथम के समय हुई थी। यह वर्तमान में राजगीर बिहार में स्थित है। ह्वेनसांग ने नालंदा का वर्णन किया है। नालंदा विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए पंडित प्रवेशार्थियों की परीक्षा लेते थे। मूलतः इस विश्वविद्यालय में महायान बौद्ध धर्म का वर्चस्व था। नालंदा का पुस्तकालय अपने विशिष्ट पाण्डुलिपियों के लिए प्रसिद्ध था। इस पुस्तकालय को ‘धर्मगंज’ कहते थे। पुस्तकालय में 9 मंजिल ऊँचे तीन विशाल भवन थें रत्नानसागर, रत्नोदधि और रत्नरंजक। यहाँ के आचार्य शीलभद्र (कुलपति), निमित्र ज्ञानचंद तथा प्रभामित्र सुविख्यात थे। हर्ष के समय यहाँ के विद्वान धर्मकीर्ति बहुत प्रसिद्ध थे। 12वीं शताब्दी में 1193 ई. में कुतुबुद्दिन बख्तियार खिलजी के आक्रमण के समय नालंदा को जलाकर नष्ट कर दिया था।

विक्रमशिला विश्वविद्यालय

          इसकी स्थापना पालवंश के शासक धर्मपाल द्वारा की गयी थी। यह बिहार के भागलपुर में स्थित है। यह विश्वविद्यालय मूलतः बौद्धशिक्षा का केन्द्र था। इस विश्वविद्यालय में बौद्ध धर्म, न्याय, व्याकरण, तत्वज्ञान आदि विषयों की शिक्षा दी जाती थी। सभी धर्मों में तेजवाद का अध्ययन इस विश्वविद्यालय का लोकप्रिय विषय था। इस विश्वविद्यालय से संबंद्ध महाविद्यालयों के आचार्यों को द्वार पंडित कहा जाता था। यहाँ अनेक विद्वानों ने विभिन्न ग्रंथों की रचना की थी। इनमें प्रसिद्ध विद्वान थे – रक्षित, विरोचन, दीपंकर, ज्ञानपाद आदि। 1203 ई. में कुतुबद्दीन बख्तियार खिलजी ने इसे नष्ट कर दिया था।

वल्लभी

         यह वर्तमान में ‘वाला’ काठियावाड में स्थित है। वल्लभी मैत्रक शासकों की राजधानी थी। वल्लभी विश्वविद्यालय की स्थापना मैत्रक शासक ध्रुवसेन प्रथम की बहन की पुत्री दद्दा ने की थी। वल्लभी जैनधर्म का तथा बौद्ध धर्म-दर्शन का प्रमुख केन्द्र था। आचार्य स्थिरमति और गुणमति यहाँ के प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान थे। वल्लभी में गणित, विधि, साहित्य आदि की शिक्षा दी जाती थी। वल्लभी विद्या के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक केन्द्र भी था। 12वीं शताब्दी के बाद वल्लभी का ह्रास होना प्रारंभ हो गया।

काशी (बनारस)

         यह वर्तमान में बनारस के नाम से प्रसिद्ध है जो उत्तरप्रदेश में स्थित है। बनारस वैदिक काल से ही हिन्दू धर्म की शिक्षा के लिए प्रसिद्ध था। पूर्व मध्यकाल में यहाँ वेद, वेदांग, इतिहास, पुराण, ज्योतिष आदि की शिक्षा दी जाती थी। दसवीं शताब्दी में जब अलबरुनी भारत आया था तो भारतीय धर्म ग्रंथों का अध्ययन करने के लिए वह काशी गया था। प्रसिद्ध कवि श्रीहर्ष ने ‘नैषधीयचरितम्‘ की रचना काशी में ही की थी।

कन्नौज

       कन्नौज हर्षवर्धन की राजधानी थी। यह हिन्दू व बौद्धशिक्षा का प्रमुख केन्द्र था। ‘हर्षचरित’ और ‘कादम्बरी’ के रचयिता बाण कन्नौज के रहनेवाले थे।

उदयन्तपुरी

       इस विश्वविद्यालय की स्थापना पालवंश के शासक धर्मपाल ने 8वीं शताब्दी में की थी। यह बौद्ध धर्म की शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था। प्रभाकर यहाँ के प्रसिद्ध विद्वान् थे। यह वर्तमान में बिहार राज्य में स्थित है।

अन्हिलपाटन

         यह गुजरात के चालुक्य शासकों की राजधानी थी। अन्हिलपाटन शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था। यहाँ हिन्दू एवं जैन दर्शन की शिक्षा दी जाती थी। हेमचन्द्र, जयसिंह, वत्सराज जैसे विद्वान यहीं निवास करते थे।

धारा

     यह परमार शासकों की राजधानी थी। परमार शासक भोज ने अपनी राजधानी धारा में एक ‘भोजशाला‘ नामक शिक्षा केन्द्र की स्थापना की। भोज की राजसभा में धनपाल, विज्ञानेश्वर आदि विद्वान रहते थे। दशरूपक का लेखक धनञ्जय भी यही रहता था।

कश्मीर

         कश्मीर शैव धर्म एवं बौद्ध धर्म के लिए शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था। यहाँ ब्राह्मण शिक्षा केन्द्र ‘मठ‘ कहलाते थे। कश्मीर के शासक ललितादित्य, दिद्दा और अनन्त ने अनेक मठों और विहारों का निर्माण करवाया। क्षेमेन्द्र, सोमदेव, रत्नाकर आदि प्रसिद्ध विद्वान कश्मीर के ही निवासी थे। कल्हण जिसने राजतंरगिणी की रचना की कश्मीर का ही निवासी था।

काँची

      पल्लव शासकों की राजधानी काँची शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था। महाकवि दण्डिन ‘दशकुमार चरित’, वात्स्यायन ‘कामसूत्र’ और दिङ्‌नाग जैसे विद्वानों ने काँची में ही शिक्षा प्राप्त की थी।



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