भारतीय संस्कृति का विदेशो में प्रचार – प्रसार

         प्राचीनकाल से ही भारत का संसार के अन्य देशों से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। इस बात के साक्ष्य हमें सिंधु सभ्यता के अवशेषों के समय से मिलते हैं। लेकिन भारत के अन्य देशों से सम्बन्धों में प्रगाढ़ता छठी सदी ई.पू. से हुई और विभिन्न साक्ष्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि वृहत्तर भारत की स्थापना 200 ई. तक हो चुकी थी। 11 वीं शताब्दी ई. तक इन देशों में भारत का राजनैतिक एवं सांस्कृतिक प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से बना रहा। बौद्ध ग्रंथों तथा फाह्यान व हेनसांग के यात्रा विवरणों से स्पष्ट हो जाता है कि मध्य एशिया एवं दक्षिण-पूर्वी एशिया भारतीय संस्कृति के गढ़ थे। समुद्रगुप्त के प्रयाग अभिलेख में भी इन देशों का उल्लेख ‘सर्वद्वीप समूह’ के रूप में हुआ है। जातक ग्रंथों में इनका उल्लेख ‘सुवर्ण भूमि’ अथवा ‘सुवर्णद्वीप’ के रूप में हुआ है जहाँ भारतीय व्यापारी धन कमाने के लिए जाया करते थे। इस प्रकार भारत का बाह्य देशों से सम्बन्ध अभूतपूर्व रहा है।

वृहत्तर भारत की स्थापना के प्रमुखतः तीन कारण माने जा सकते हैं-

(1) आर्थिक कारण – जिनके अन्तर्गत व्यापार एवं वाणिज्य आते है।

(2) धार्मिक कारण – धर्म प्रचार के लिए।

(3) राजनीतिक कारण – उपनिवेश बसाने के लिए।

उपर्युक्त कारणों से धीरे-धीरे भारत का एक विशाल सांस्कृतिक साम्राज्य स्थापित हुआ जिसे वृहत्तर भारत नाम दिया जाता है।

वृहत्तर भारत को भौगोलिक रूप से तीन भागों में बाँट सकते है-

(1) भारत का उत्तर एवं उत्तर-पूर्व के देशों से सम्बन्ध – इसमें चीन, तिब्बत, जापान एवं कोरिया आदि क्षेत्र आते हैं।

(2) भारत का दक्षिण एवं दक्षिण-पूर्व के देशों से सम्बन्ध – इनमें श्रीलंका, बर्मा, इण्डोनेशिया (जावा, सुमात्रा, बाली, बोर्नियों) मलेशिया, कम्बोडिया आदि देश आते हैं।

(3) मध्य एशिया – इसमें बुखारा, समरकन्द, कूची, यारकन्द, काशगर, तुर्फान, खोतान, काराशहर सम्मिलित है।

भारत का उत्तर एवं उत्तर-पूर्व के देशों से सम्बन्ध

  • तिब्बत

         उत्तर में तिब्बत भारत का निकटस्थ पड़ोसी है। तिब्बत में 7वीं शताब्दी में सांग-सैन-गैम्पों ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर अनेक बौद्ध-विहार तथा चैत्यों का निर्माण करवाया। संस्कृत भाषा के साथ ही उसने भारतीय वर्णमाला व लिपि को भी अपनाया। तिब्बत जाने वाले भारतीय बौद्ध विद्वानों में भिक्षु श्रीज्ञान दीपंकर प्रमुख हैं। 1950 ई. में चीन ने तिब्बत पर आक्रमण कर उसे अपने कब्जे में कर लिया था। बौद्धों के धर्मगुरु दलाई लामा को भारत ने सम्मानपूर्वक शरण दी हुई है।

  • चीन

        चीन के साथ भी भारत के सम्बन्ध प्राचीन काल से रहे हैं। महाभारत और मनुस्मृति में चीन का उल्लेख है और अर्थशास्त्र में चीनी रेशम का वर्णन है। इस बात के निश्चित प्रमाण है कि दूसरी शताब्दी पूर्व में भारत और चीन के मध्य व्यापारिक सम्बंध थे। भारत में चीनी रेशम की बड़ी कद्र थी। कुषाण शासकों और चीन के हान वंशी सम्राटों के बीच राजनैतिक सम्पर्क थे। प्रथम शताब्दी के अन्त में भारत के कुषाण वंशी शासक कनिष्क महान् ने पामीर पर्वत को पारकर चीन पर आक्रमण किया था।

        धर्मरत्न और काश्यप मातंग नामक दो भारतीय भिक्षुओं ने चीन की यात्रा की थी। मातंग के प्रभाव से चीनी सम्राट ने बौद्ध धर्म में दीक्षा ग्रहण कर ली। ये भिक्षु अपने साथ अनेक बौद्ध ग्रंथ लेकर गये थे। अतः चीन में रहते हुए चीनी भाषा सीखकर उन्होंने अनेक बौद्ध ग्रंथों का चीनी में अनुवाद किया।

         धर्मरत्न और मातंग के बाद मध्य एशियाई राज्यों खोतान, कूची आदि से भी अनेक बौद्ध भिक्षु लोकोत्तम, संघभद्र, धर्मरक्षक आदि चीन गये। इन बौद्ध विद्वानों के प्रचार कार्य और चीनी सम्राटों, दरबारियों व सामन्तों के संरक्षण से प्रथम शताब्दी ई. के अन्त तक बौद्ध धर्म तथा भारतीय संस्कृति ने चीन के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया था। चौथी शताब्दी से चीन में बौद्ध धर्म का प्रचार कार्य बहुत तेजी से हुआ इसमें कूची के भिक्षुओं ने बहुत उत्साह दिखाया। इनमें कुमारजीव नामक बौद्ध विद्वान सर्वप्रथम है। कुमारजीव ने बनधुदत्त नामक बौद्ध विद्वान से शिक्षा ग्रहण की और बौद्ध साहित्य व दर्शन में विशेष दक्षता प्राप्त की। बाद में वे कूची लौट गये। कूची लौटने के शीघ्र बाद कूची तथा चीन में युद्ध छिड़ गया जिसमें कूची की पराजय हुई। चीनी सेनानायक कुमारजीव को भी अपने साथ ले गया, यह घटना 383 ई. की है। चीन में उसकी विद्वता का सम्मान हुआ और उसे संस्कृत ग्रंथों का चीनी अनुवाद करने का कार्य सौंपा गया। कुमारजीव पहला व्यक्ति था जिसने चीनी भाषा में महायान दर्शन की व्याख्या की। उसने 12 वर्ष के अल्पकाल में ही 100 से अधिक बौद्ध ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद किया। चीन के विभिन्न भागों से आये अनेक व्यक्ति उसके शिष्य बन गये। कुमारजीव का चीनी भाषा पर इतना अधिकार था कि उसकी गणना चीन के महान लेखकों में की जाती है उसके प्रभाव से पाँचवीं ई. में चीन में बौद्ध धर्म को विशेष प्रोत्साहन मिला। कुमारजीव के बाद जाने वाले सैंकड़ों बौद्ध भिक्षुओं में कश्मीर से जाने वाले बुद्धयश और गुणवर्मन, पाटलिपुत्र से परमार्थ, गुजरात से धर्मगुप्त, काँची के राजकुमार बोधिधर्म, ब्रजबोधि, आमेधव्रज के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। चीन से भारत आने बालों में फाह्यान, ह्वेनसांग और इत्सिंग के नाम उल्लेखनीय हैं जो अपने साथ सैंकड़ों ग्रंथ चीन लेकर लौटे थे। इत्सिंग ने एक संस्कृत-चीनी कोश की रचना की थी। सातवीं शताब्दी तो चीन में बौद्ध धर्म का स्वर्ण युग रही। आठवीं शताब्दी में मध्य एशिया पर अरबों का अधिकार हो जाने से चीन व भारत के बीच स्थल मार्ग से आना जाना लगभग बन्द हो गया था। अन्तिम रूप से भारत से चीन जाने वाले बौद्ध विद्वानों में धर्मदेव (973 ई.), मंजुश्री और ज्ञानश्री (1053 ई.) के नाम उल्लेखनीय है।

         इस प्रकार लगभग 1200 वर्ष तक भारतीय विद्वान अपार कष्ट झेलते हुए चीन जाकर संस्कृत एवं पाली ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद करते रहे और चीन में न केवल बौद्ध धर्म वरन संस्कृत साहित्य, भारतीय कला ओर संस्कृति के प्रचार में जुटे रहे। इस सांस्कृतिक आदान-प्रदान के फलस्वरूप भारतीय गणित, ज्योतिष, संगीत एवं चिकित्सा शास्त्र का चीनियों पर गहरा प्रभाव पड़ा। चट्टानों को काटकर बनाये गये गुहा मंदिर और बुद्ध की साठ-साठ और सत्तर-सत्तर फुट ऊँची विशाल मूर्तियाँ यहाँ पर दर्शनीय है। तांग वंश के काल में तुह्नवांग नामक स्थान पर अनेक गुहा मंदिर बनाये गये जिनमें बुद्ध की एक हजार मूर्तियाँ मिली हैं। चीन के ‘पैगोडा’ भारतीय स्तूपों का नकल प्रतीत होते हैं।

  • कोरिया एवं जापान

        चीन से ही बौद्ध धर्म चौथी शताब्दी में कोरिया पहुँचा। वहाँ अधिकांश लोगों ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। इत्सिंग के वर्णन से जानकारी मिलती है कि 7वीं व 8वीं शताब्दी में कोरियाई भिक्षु बौद्धधर्म व दर्शन के ज्ञान हेतु भारत आए थे। जापान में बौद्ध धर्म कोरिया से पहुँचा। यहाँ भी बौद्ध धर्म का काफी प्रसार हुआ। जापानी इतिवृत्त में उल्लेख किया गया है कि 733 ई. में भारत से भिखु बोधिसेन जापान गया जहाँ उसका बड़ा आदर हुआ तथा उसे बौद्ध-विहारों का कुलपति नियुक्त किया गया। कोरिया व जापान से बौद्ध धर्म मंगोलिया, मंचूरिया और साइबेरिया में पहुँचा।

भारत का दक्षिण एवं दक्षिण-पूर्व के देशों से सम्बन्ध

  • श्रीलंका

       सिंहल द्वीप के नाम से लंका का उल्लेख सर्वप्रथम भारतीय महाकाव्य वाल्मीकि कृत रामायण में मिलता है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी लंका पहला स्थान है जहाँ भारतीय सभ्यता के विकास का विवरण मिलता है।

      अमेरिकी एजेंसी नासा ने रहस्योद्घाटन किया है कि भारत के दक्षिणी छोर (धनुषकोंडी) व लंका के मध्य मानव निर्मित पुल (रामसेतु) था जिसके पुष्ट प्रमाण प्राप्त हुए हैं। अतः भारत-श्रीलंका के मध्य निकटवर्ती सम्बन्ध थे।

      लंका के प्राचीन इतिहास के अनुसार लगभग 500 ई.पू. में भडौंच के राजकुमार विजय के नेतृत्व में भारतीयों ने इस द्वीप पर अपना उपनिवेश स्थापित किया था। तीसरी सदी ई.पू. में सम्राट अशोक ने अपने पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा को बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए भेजा था। बौद्ध धर्म के प्रवेश के बाद इस द्वीप में इस धर्म का तेजी से प्रसार हुआ और शीघ्र ही बौद्ध धर्म लंका का राष्ट्रीय धर्म बन गया। पहले राजराज प्रथम ने सिंहल के उत्तरी भाग पर और बाद में राजेन्द्र चोल ने संपूर्ण लंका द्वीप पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया था। लगभग 1070 ई. में राजा विजयबाहु ने चोलों को पराजित करके लंका को स्वतंत्र किया था। श्रीलंका में बौद्ध धर्म के साथ ही भारतीय ब्राह्मी लिपि और पाली भाषा तथा विशाल बौद्ध साहित्य का प्रवेश हुआ था। लंका में निर्मित विशाल बुद्ध मूर्तियों एवं बौद्ध विहारों पर भारतीय वास्तुकला की अमिट छाप दिखायी देती है। लंका में बौद्ध धर्म के विकास के कारण ही भारत और लंका के सांस्कृतिक और राजनीतिक संबंध घनिष्ठ हो गये।

  • बर्मा (म्यांमार)

         प्राचीन काल से बर्मा भारत का ही अंग था। आजकल यह म्यांमार के नाम से जाना जाता है। ह्वेनसांग ने इस क्षेत्र के अनेक राज्यों का वर्णन किया है जिन्होंने हिन्दूधर्म अपना लिया था। टॉलमी के भूगोल में द्वितीय शताब्दी ईस्वीं के बर्मा का जो वर्णन मिलता है उसमें अनेक स्थानों के नाम संस्कृत भाषा में है। बर्मा के लेखों में ब्राह्मी लिपि का प्रयोग और बौद्ध धर्म का प्रसार वहाँ भारतीय संस्कृति के प्रभाव को सिद्ध करता है। बर्मी वृत्तान्तों के अनुसार बुद्ध से बहुत पहले शाक्यवंश के राजकुमार अधिराज ने बर्मा के ऊपरी प्रदेश को जीतकर वहाँ पर अपना राज्य कायम किया था। अधिराज के ही एक अन्य वंशज ने दक्षिण बर्मा में राज्य स्थापित किया। इस राज्य की राजधानी वर्तमान में प्रोम के निकट थी। भारतीय परम्परा का ही प्रभाव है कि बर्मी राजाओं की रानियों को आज भी महादेवी कहा जाता है।

       बौद्ध स्रोतों से यह पता चलता है कि सम्राट अशोक के समय स्थविर, उत्तर और सोण इस प्रदेश में बौद्ध धर्म का प्रचार करने आये थे। जिसके फलस्वरूप पाँचवीं सदी ईस्वी तक दक्षिण बर्मा में बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार हो चुका था। कालान्तर में भारतीयों ने बर्मा के विभिन्न भागों को जीतकर वहाँ के मूल निवासियों को हिन्दू सभ्यता के रंग में रंग दिया। उदाहरण के लिए इरावती घाटी में रहने वाले ‘प्यू’ जाति के लोगों के बीच जाकर भारतीयों ने एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना कर ली थी। इनके लेखों से पता चलता है कि उनके राज्य का संस्थापक जयचन्द वर्मन था। यह राज्य तीसरी शताब्दी ईस्वी से लेकर नवी शताब्दी ईसवी तक चलता रहा। नवीं सदी में युन्नान (दक्षिण चीन) के राजा ने ‘प्यू’ राज्य पर आक्रमण कर उसे नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। बर्मा का एक अन्य उपनिवेश अराकान था जिसकी राजधानी वैशाली थी जिसके खण्डहर आज भी विद्यमान है। यहाँ से प्राप्त अभिलेखों से पता चलता है कि श्रीधर्मराजानुराज नामक हिन्दू राजवंश ने यहाँ पर 600 ई. से 1000 ई. तक शासन किया था। नवीं सदी में म्रम्म नामक हिन्दू जाति ने बर्मा में एक शक्तिशाली राजवंश की स्थापना की। उसकी राजधानी पेगान थी। 11वीं शताब्दी में अनिरुद्ध (1044-1077) ई. इस वंश का प्रतापी राजा हुआ, उसने अपनी सैनिक विजयों के द्वारा लगभग सम्पूर्ण बर्मा पर एकाधिपत्य स्थापित कर लिया। उसके शासनकाल में बौद्ध धर्म को बहुत प्रोत्साहन मिला। अनिरुद्ध के वंशज 1287 ई. तक शासन करते रहे। बर्मा में आज भी बौद्ध धर्म वहाँ का प्रमुख धर्म है और खुदाई में बौद्ध अवशेषों के साथ भारतीय सभ्यता एवं कला के उत्कृष्ट नमूने प्राप्त होते रहे हैं।

  • इण्डोनेशिया (हिन्देशिया)

            हिन्द महासागर के दक्षिण-पूर्वी द्वीप समूह को आजकल सामूहिक रूप से इण्डोनेशिया कहते हैं। इस द्वीप समूह के सुमात्रा, जावा, बाली, बोर्नियों आदि द्वीपों में प्राचीन काल में हिन्दुओं ने बड़े-बड़े राज्य कायम किये तथा अपनी सभ्यता व संस्कृति का प्रचार किया था। इस द्वीप समूह को सुवर्ण-भूमि भी कहा जाता था। इसमें प्रमुख द्वीप निम्नलिखित थे-

1. सुमात्रा (सुवर्णद्वीप)

      प्राचीन काल में इसे सुवर्णद्वीप कहते थे। लगभग चौथी ईसवीं में यहाँ श्रीविजय नामक हिन्दू राज्य की स्थापना हुई थी जो सातवीं सदी में उन्नति के शिखर पर पहुँच गया। 684 ई. में श्रीविजय के राजसिंहासन पर जयनाग नामक बौद्ध राजा का अधिकार था जिसने आक्रमणकारी नीति अपनाकर जावा, मलाया आदि राज्यों पर अपने प्रभाव का विस्तार किया था। आठवीं सदी ई. में यह एक विस्तृत एवं शक्तिशाली राज्य बन गया था। भारत और श्रीविजय के बीच समुद्री मार्ग से व्यापर होता था। भारत और चीन के बीच व्यापार का भी यह प्रमुख केन्द्र था। चीनी यात्री इत्सिंग यहाँ सात साल (688-695 ई.) रहा था और यहीं रहकर उसने संस्कृत भाषा का अध्ययन किया था। इत्सिंग के अनुसार चीनी यात्री भारत से जाने से पहले श्रीविजय रहकर संस्कृत का ज्ञान प्राप्त करते थे। संस्कृत के बहुत से शिलालेख श्रीविजय और सुमात्रा के अन्य स्थानों से उपलब्ध हुए हैं। 775 ई. के मलय प्रायद्वीप से प्राप्त अभिलेख में श्रीविजय के राजाओं के शौर्य का वर्णन है इससे मलय पर उनके अधिकार की पुष्टि होती है। इत्सिंग ने श्रीविजय को बौद्ध धर्म का केन्द्र बताया है।

2. जावा (यवद्वीप)

       इसका प्राचीन नाम यवद्वीप था जो भारतीय साहित्य में मिलता है। 132 ई. में जावा का राजा देववर्मा था। जिसने अपना राजदूत चीनी सम्राट के दरबार में भेजा था। जावा में कई हिन्दू राज्य थे। जिसमें कलिंग का राज्य सबसे अधिक प्रसिद्ध था। संस्कृत अभिलेखों में राजा पूर्णवर्मा का उल्लेख है जो पाँचवीं सदी ईस्वी के हैं। पाँचवीं सदी के शुरू में फाह्यान (414 ई.) भारत से चीन लौटते समय जावा में रूका था। उसने लिखा है कि इस द्वीप में भारतीय बड़ी संख्या में निवास करते हैं और उनमें से बहुत से शैव धर्म के अनुयायी थे। पाँचवीं शताब्दी ईसवीं में जावा और उसके आसपास बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार हुआ। इसका प्रधान श्रेय गुणवर्मा को है, जो कश्मीर के राजा संधानन्द का पुत्र था। उसने सिंहासन त्यागकर अपना सम्पूर्ण जीवन बौद्ध धर्म के प्रचार में लगा दिया था। उसी के प्रभाव से जावा का राजा और सम्पूर्ण राजपरिवार बौद्ध धर्म का अनुयायी बन गया था। छठी सदी से लेकर चौदहवीं सदी ईस्वीं तक जावा के विभिन्न भगाों में एक के बाद एक अनेक हिन्दू राजवंश शासन करते रहे। बाद में इस्लाम ने यहाँ विजय पाई। जावा में भारतीय संस्कृति सबसे व्यापक रूप से फैली। यहाँ पर सैंकडों हिन्दू व बौद्ध मंदिरों के ध्वंसावशेष प्राप्त हुए हैं। जावा का सर्वप्रसिद्ध स्मारक ‘बोरोबुदुर’ का बौद्ध स्तूप है जो जकार्ता के 35 मील पश्चिम में 750 ई. के लगभग निर्मित हुआ था।

बोरोबुदुर बौद्ध स्तूप

     जावा में रामायण, महाभारत का व्यापक प्रचार और प्रभाव था। भारतीय कला साहित्य, भाषा, लिपि, वर्ण व्यवस्था, त्योहार, रीति-रिवाज प्रत्येक क्षेत्र का व्यापक प्रभाव जावा में देखा जा सकता है।

rajgyan
borobudar temple

3. बाली

      जावा के पूर्व में बाली द्वीप स्थित है। बाली एकामत्र ऐसा देश है, जहाँ हिन्दू संस्कृति पल्लवित हुई एवं जीवित रही। आज केवल बाली ही पूर्वी द्वीप समूह अकेले पूर्णरूपेण हिन्दू धर्म व संस्कृति का केन्द्र बना हुआ है।

4. बोर्निया (वरुण द्वीप)

       जावा के उत्तर में बोर्निया स्थित है जिसका प्राचीन नाम वरुणद्वीप है। बोर्निया में 400 ई. के लगभग चार शिलालेख संस्कृत भाषा में मिले हैं। जिससे जानकारी मिलती है कि मूलवर्मा उस समय यहाँ का शासक था। उसके यज्ञ, दानपुण्य आदि कार्यों का उल्लेख इस लेख में मिलता है। यहाँ हिन्दू धर्म का व्यापक प्रभाव था और भारतीय देवी- देवताओं की मूर्तियों बड़ी संख्या में बनी थी।

5. मलेशिया (मलय-द्वीप)

       दक्षिण-पूर्व एशिया के अन्य देशों के समान मलाया (मलय द्वीप) में भी भारतीयों ने अपने अनेक उपनिवेश प्राचीन समय में स्थापित किये थे। भारत में इण्डोनेशिया और हिन्दचीन जाने वालों को मलय देश से होकर गुजरना पड़ता था। इसलिये उस युग में यह देश भारत और सुदूरपूर्व के देशों के बीच व्यापार का केन्द्र बन गया था। इस प्रायद्वीप के अनेक भागों से प्राचीन मंदिरों के खण्डहर मूर्तियाँ, संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण लेख मिले हैं। जिनसे पता चलता है कि ईसा की चौथी शताब्दी में सम्पूर्ण प्रायद्वीप में भारतीयों के अनेक उपनिवेश थे। मलय प्रायद्वीप के हिन्दू राज्य में कर्मरंग, कलशपुर, कटाह, पहग आदि थे। इनमें निरबोन श्री धम्मराट (लिगोर) का उपनिवेश सबसे अधिक प्रसिद्ध था। यहाँ के निवासियों में बौद्ध व ब्राह्मण दोनों थे जिन्होंने अनेक स्तूपों व मंदिरों का निर्माण करवाया था। इन सभी राज्यों का भारत से घनिष्ठ सम्बन्ध था। यहाँ के राजाओं में गौतम, समुद्र, विजयावर्मन आदि भारतीय नाम मिलते हैं। अनुश्रुति के अनुसार पाटलिपुत्र से कोई राजकुमार तीसरी सदी ईस्वीं में समुद्र मार्ग से मलाया गया था और वहाँ उसने अपना शासन स्थापित किया था। इस भारतीय राजकुमार का नाम ‘मरोड्’ प्रसिद्ध था। मरोड् के द्वारा स्थापित भारतीय उपनिवेश का नाम लंकाशुक था। मलाया के वल्जली जिले के उत्तरी भाग में बौद्ध मंदिरों के बहुत से अवशेष मिलते हैं। इसी प्रकार पेराक राज्य के शलिनसिङ् नामक स्थान से गरुड पर आरूढ़ विष्णु की मूर्ति प्राप्त हुई है। ऐसे अनेक अवशेष इस बात के ठोस प्रमाण हैं कि यहाँ पर प्राचीन काल में भारतीय धर्म, भाषा व संस्कृति का व्यापक प्रचार व प्रभाव था।

6. ,

       कम्बोडिया प्राचीन कम्बुज शब्द का ही रूपान्तर है। इस देश का उत्तरी भाग प्राचीनकाल में कुब्रज कहलाता था और इसके दक्षिण भाग को चीनी लोग फूनान कहते थे। कम्बोडिया एक हिन्दू उपनिवेश था। इस हिन्दू उपनिवेश की स्थापना पहली सदी में कौण्डिन्य नामक भारतीय ने की थी। समय के साथ कम्बुज में भारतीय संस्कृति खूब पल्लवित हुई। यहाँ भारतीय साहित्य एवं कला का पर्याप्त विकास हुआ। यहाँ लोग हिन्दू धर्मग्रन्थों का अध्ययन करते थे और मंदिरों में रामायण, महाभारत व पुराण की कथाओं के चित्रण किये जाते थे। कला के क्षेत्र में कम्बुज का सर्वश्रेष्ठ स्मारक अंगकोरवाट का भव्य मंदिर है। इस मंदिर में भारतीय आदर्शों को आज भी देखा जा सकता है।

  • मध्य एशिया

        मध्य एशिया के इतिहास से पता चलता है कि कभी यह प्रदेश सांस्कृतिक दृष्टि से भारत का ही अंग था। संभवतः अशोक के समय मध्य एशिया में बौद्ध धर्म के प्रसार के साथ भारतीय संस्कृति का प्रवेश हुआ था। इस क्षेत्र में स्थित बुखारा, समरकंद, कूची (कुचार), यारकन्द, काशगर, तुर्फान, काराशहर और खोतान भारतीय सभ्यता तथा बौद्ध धर्म के प्रसिद्ध केन्द्र थे। इन स्थानों की खुदाई में अनेक बौद्ध स्तूप, विहार एवं मूर्तियों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। ये सभी भारतीय शैली के अनुसार ही बने हुए हैं। किन्तु सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि बौद्ध ग्रंथों तथा सांसारिक विषयों से सम्बन्ध रखने वाले अनेक अभिलेखों की पाण्डुलिपियाँ हैं। ये पाण्डुलिपियाँ संस्कृत तथा प्राकृत भाषाओं और ब्राह्मी व खरोष्ठी लिपियों में हैं। ये लकड़ी की पट्टियों, चमड़े, कागज और रेशमी कपड़े पर लिखी हुई हैं। सबसे महत्वपूर्ण पाण्डुलिपि ‘धम्मपद’ की है जो खोतान के निकट ही एक स्थान से मिली है। ‘उदानवर्ग’ नामक उस बौद्ध ग्रंथ के खण्ड भी मिले हैं जो भारत से लुप्त हो चुका था। तुर्फान में अश्वघोष रचित ‘सारिपुत्र प्रकरण’ नामक नाटक का अन्तिम अध्याय भोजपत्र पर लिखा हुआ प्राप्त हुआ है। कुछ पत्र मिले हैं जिनमें पाने वालों के नाम और पते लिखे हुए हैं जो पूर्णतः भारतीय हैं जैसे भीम, नन्दसेन, शमसेन, उपाजीव आदि। सारांश यह है कि मध्य एशिया (चीनी तुर्किस्तान) के उपर्युक्त पुराने नगरों के भग्नावेष सिद्ध करते हैं कि वे नगर धर्म, भाषा, साहित्य और कला सभी दृष्टियों से भारतीय थे। फाह्यान, ह्वेनसांग आदि चीन यात्रियों के वृत्तान्तों से भी इस बात की पुष्टि होती है कि उस काल में मध्य एशिया की सभ्यता पूर्णतया भारतीय थी।

         उपर्युक्त सभी स्थानों में खोतान भारतीय सभ्यता का सबसे बड़ा केन्द्र था। बौद्ध परम्पराओं के अनुसार अशोक के पुत्र कुश्तन ने खोतान में एक स्वतंत्र राजवंश की नींव डाली थी। उसी वंश में आगे चलकर विजितसम्भव, विजितधर्म, विजितसिंह आदि राजा हुए। विजितसिंह का खरोष्ठी लिपि में उत्कीर्ण एक लेख भी खोतान से मिला है। यह राजवंश आठवीं शताब्दी ईसवीं तक खोतान में राज्य करता रहा। छठी ईस्वीं पूर्व में यहाँ के शासक विजितसम्भव ने वैरोचन नामक बौद्ध शिक्षा ग्रहण की थी तभी से खोतान में महायान सम्प्रदाय का प्रचार हुआ। खोतान का गोमती विहार नामक मठ मध्य एशिया का सबसे बड़ा मठ था। इसमें तीन हजार बौद्ध भिक्षु निवास करते थे। इनमें अनेकों चीनी व भारतीय विद्वान भी थे। गोमती विहार के भिक्षुओं द्वारा रचे गए ग्रंथों का सर्वत्र बड़ा सम्मान किया जाता था।

         कूची प्रदेश, जिसे आजकल कुचार कहते हैं, प्राचीनकाल से भारतीय संस्कृति का महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। इस समृद्धशाली नगर की लगभग सम्पूर्ण जनता बौद्ध थी। चीनी अभिलेखों से पता चलता है कि चौथी शताब्दी ईस्वीं में कूची में लगभग एक हजार स्तूप और विहार थे। अनेक मठ ऐसे थे जिनमें बौद्ध भिक्षुणियाँ रहती थीं। ये भिक्षुणियों प्रायः राजपरिवारों की स्त्रियाँ और पुत्रियाँ थीं। चौथी सदी में कूची के भिक्षुओं ने चीन में बौद्ध धर्म का प्रचार करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। इन भिक्षुओं में कुमारजीव सबसे प्रसिद्ध था। यहाँ से प्राप्त साहित्य से पता चलता है कि संस्कृत भाषा का यहाँ पर विशेष अध्ययन किया जाता था। संस्कृत के साथ-साथ भारतीय ज्योतिष, चिकित्सा शास्त्र तथा कलाओं का भी कूची में बहुत प्रचार था। उस समय भी वहाँ पर लगभग 100 मठ थे जिनमें लगभग 4000 बौद्ध भिक्षु निवास करते थे। ह्वेनसांग ने लिखा है कि कूची शहर के बाहर बुद्ध की 90 फुट ऊँची दो विशाल मूर्तियाँ थी, जिनके सामने प्रति पांच वर्ष बाद धार्मिक समारोह हुआ करता था। वह लिखता है कि कूची में भारतीय शैली के संगीत का बहुत प्रचार था। कूची के शासकों के नाम भी भारतीय थे जैसे सुवर्णपुष्प, हरिपुष्प, हरदेव, सुवर्णदेव आदि।

        कारा शहर भारतीयों की एक अन्य महत्वपूर्ण बस्ती थी। उसे उस युग में अग्निदेश कहते थे। उसके राजाओं के नाम इन्द्रार्जुन आदि थे। यहाँ के भारतीयों ने भी बौद्ध धर्म के प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। कूची के पूर्व में तुर्फान में भी बौद्धों अवशेष एवं संस्कृत भाषा में अभिलेख प्राप्त हुए हैं। पाँचवीं सदी ईस्वीं तक यहाँ बौद्ध धर्म का भली-भाँति प्रचार हो गया था और वहाँ के राजा चाउ ने यहाँ मैत्रेय का मंदिर बनवाकर वहाँ एक लेख भी उत्कीर्ण करवाय था। सम्राट कनिष्क के साम्राज्य में खोतान की तरह काशगर भी सम्मिलित था। संभवतः उसी समय यहाँ बौद्ध धर्म का प्रचार हुआ था। आठवीं सदी के प्रारंभ में इस्लाम ने मध्य एशिया में प्रवेश किया जिसके फलस्वरूप भारतीय संस्कृति उस प्रदेश से तेजी से लुप्त हो गई।

  • अफगानिस्तान

         प्राचीन काल में भौगोलिक दृष्टि से हिन्दुकुश का दक्षिण प्रदेश (अफगानिस्तान) भारत का ही हिस्सा था। वैदिक काल में यह प्रदेश राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भारत का अंग था। ऋग्वैदिक आर्यों की यह क्रीड़ाभूमि था क्योंकि ऋग्वेद में अफगानिस्तान की प्रायः सभी प्रमुख नदियों कुभा (काबुल), सुवास्तु (स्वात), कुमु (कुर्मम), गोमती (गोमल) आदि के नाम मिलते हैं। यह सर्वविदित है कि अफगानिस्तान के राजाओं ने कुरुक्षेत्र के युद्ध में भाग लिया था। रामायण और महाभारत काल में भी अफगानिस्तान गान्धार राज्य के रूप में राजनीतिक एवं सांस्कृतिक रूप से भारत से जुड़ा रहा। मौर्य सम्राटों ने इस प्रदेश पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था। अशोक के बाद अफगानिस्तान मगध साम्राज्य से पृथक् हो गया और वहाँ पर क्रमशः अनेक विदेशी जातियों यूनानी, शक, पहलव, कुषाण आदि का शासन कायम रहा। यद्यपि इन विदेशी जातियों का पश्चिमोत्तर भारत पर भी अधिकार बना रहा और उन सभी ने भारतीय धर्म व संस्कृति अपना ली थी। फलस्वरूप उस युग में भी भारत एवं अफगानिस्तान के राजनीतिक व सांस्कृतिक सम्बन्ध पूर्ववत् कायम रहे। उस समय के यूनानी व रोमन लेखकों ने अफगानिस्तान को भारत का ही अंग माना है ओर पार्थियन लोग उस प्रदेश को ‘श्वेत भारत’ के नाम से पुकारते थे। पाँचवीं सदी ई. में आने वाले चीनी यात्री फाह्यान एवं सातवीं सदी ई. में आने वाले ह्वेनसांग ने भी इस प्रदेश को भारत का ही अंग माना था। फाह्यान ने स्वात घाटी का उल्लेख करते हुए लिखा है कि यह प्रदेश उत्तर भारत का एक भाग है। यहाँ के लोग मध्य भारत की भाषा का प्रयोग करते हैं। उनके भोजन वस्त्रादि भी मध्य भारत के लोगों की तरह हैं। बुद्ध का धर्म यहाँ खूब फल फूल रहा है। ह्वेनसांग ने भी लिखा है कि हिन्दुकुश पर्वतमाला में स्थित बामियान घाटी को काट-काटकर भिक्षुओं के रहने के लिए गुफाएँ बनायी गयी थीं। बौद्धों के अनेक मठ थे। जिनमें हजारों बौद्ध भिक्षु निवास करते थे। यहाँ का राजा बौद्ध था और हर्षवर्धन की भाँति प्रति पाँच वर्ष बाद धर्मसमारोह करता था। ह्वेनसांग ने बामियान में बुद्ध की विशाल मूर्ति देखी थी। (यहाँ यह ज्ञातव्य है कि सन् 2001 ई. में अफगानिस्तान के तालिबान शासकों की धर्मान्ध नीति के फलस्वरूप यह मूर्ति नष्ट कर दी गई थी।) कपिशा के राजा को उसने बौद्ध अनुयायी बतलाते हुए लिखा है कि वह एक शक्तिशाली क्षत्रिय राजा था। उसके राज्य में 100 मठ थे जिनमें 6000 भिक्षु निवास करते । यहां अनेक हिन्दू मंदिर भी थे। नवीं शताब्दी तक अफगानिस्तान के साथ भारत में राजनीतिक व सांस्कृतिक सम्बन्ध घनिष्ठ रूप से कायम रहे। दसवीं शताब्दी के अन्त में सुबुक्तगीन द्वारा जयपाल शाही की पराजय के साथ-साथ अफगानिस्तान में भारतीय संस्कृति नष्ट हो गई और सम्पूर्ण देश इस्लामी रंग में रंग दिया गया। यहाँ खुदाई से प्राप्त सामग्रियों में भारतीय कला परम्पराओं का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। हद्दा के स्थान पर की गई खुदाई में 531 स्तूपों के भग्नावशेषों और 500 मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं। बामियान की खुदाई में अनेक सुन्दर भित्ति चित्र और संस्कृत की पाण्डुलिपियाँ प्राप्त हुई हैं। काबुल के उत्तर-पश्चिम में एक सूर्य की मूर्ति तथा गुप्त शैली के एक मंदिर के भग्नावशेष मिले हैं। इन सभी तथ्यों से बिना किसी संदेह के यह पूर्णतया स्पष्ट हो जाता है कि कभी अफगानिस्तान का सम्पूर्ण प्रदेश भारतीय भूभाग के रूप में भारतीय संस्कृति का गढ़ था।

स्मरणीय तथ्य

Share this Content ~

Leave a Comment