मीराबाई | श्रीकृष्ण भक्त | कवयित्री


मीराबाई


      भारत की दिव्यभूमि पर प्राचीन काल से ही महान संतों, तपस्वियों, योगियों, पराक्रमी योद्धाओं, समाज सुधारकों व साधकों-विचारकों ने अवतरित होकर मानव जाति व समाज का अपने कृत्यों द्वारा मार्गदर्शन किया है। ऐसी ही एक कृष्ण भक्त व महा तपस्विनी थीं मीराबाई।

⚜️ मीराबाई का जन्म और प्रारंभिक जीवन

        मीराबाई का जन्म मारवाड़ (राजस्थान) के कुड़की नाम के गाँव में सन् 1503 ई. में एक राजपरिवार में हुआ था। उनके पिता रतनसिंह राठौड़ मेड़ता के शासक थे। वे एक वीर योद्धा थे। मीराबाई अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी। पिता रतनसिंह का अधिक समय युद्धों में ही व्यतीत होता था। मुगलकालीन युग था व अक्सर छोटे-बड़े युद्ध होना एक साधारण बात थी जब वह छोटी बच्ची थी तो उसकी माता का निधन हो गया। उसका लालन-पालन उसके दादा (राव दूदा जी) की देखरेख में हुआ था जो योद्धा होने के साथ-साथ भगवान् विष्णु के बड़े उपासक व भक्तिभाव से ओत-प्रोत थे।

       एक दिन राजमहल के सामने से एक बारात निकली। मीरा तब छोटी थी। दूल्हे ने बहुत ही आकर्षक वस्त्र पहने हुए थे। मीरा ने उसे देखा तो आकर्षित हो गई।

उसने अपने दादा जी से पूछा – “वह कौन है ?” 

उन्होंने जवाब दिया – “वह दूल्हा है”, 

बालिका मीरा को दूल्हे का अर्थ समझ में नहीं आया परन्तु उसने जिज्ञासापूर्वक कहा – “मुझे भी ऐसा ही एक दूल्हा ला दीजिए, मैं उसके साथ खेलूँगी।” 

मीरा के दादा जी श्रीकृष्ण की एक प्यारी सी मूर्ति लाकर मीरा को थमाते हुए बोले “इसे देखो, यही तुम्हारा दूल्हा है। इसकी अच्छी देखभाल करना।”

मीरा ने जो चाहा था, उसे वह मिल गया। मीरा ने प्रसन्न होकर उसे स्वीकार किया। वह उस मूर्ति के साथ हमेशा खेलती रहती और उससे ऐसा व्यवहार करती, मानो श्रीकृष्ण ही उसके पति हों।

मीरा के संबंध में यह एक प्रतीकात्मक कहानी है। यद्यपि निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता कि वास्तव में क्या हुआ? परन्तु इसमें श्रीकृष्ण के प्रति उसका अथाह प्रेम अवश्य झलकता है। मीरा को कृष्ण मूर्ति प्राप्त होने के संबंध में एक और कहानी भी उतनी ही रोचक है –

राव दूदा जी साधु-सन्तों का बहुत सम्मान करते थे। उनके महल में हमेशा कोई साधु-संत या कोई अतिथि आता रहता था। एक बार रैदास नामक एक संन्यासी राजमहल में आये। रैदास संत रामानंद के शिष्यों में से प्रमुख थे, जिन्होंने उत्तरी भारत में वैष्णव सम्प्रदाय का प्रचार किया। उनके पास श्रीकृष्ण की एक सुंदर मूर्ति थी। वे उस मूर्ति की स्वयं पूजा करते थे। मीरा ने उस मूर्ति को देख लिया और उसे माँगने लगी। मीरा उस मूर्ति के बारे में कई प्रश्न करने लगी तथा उसे पाने के लिए हठ करने लगी। संन्यासी राजा का आतिथ्य ग्रहण कर राजमहल से चले गये। मीरा उस मूर्ति के लिए हठ करती ही रही। यहाँ तक कि उसने मूर्ति को पाने के लिए अन्न-पानी छोड़ दिया। किन्तु अगले दिन सुबह रैदास वापस राजमहल में लौट आये और उन्होंने श्रीकृष्ण की प्रतिमा मीरा को सौंप दी। मीरा की प्रसन्नता का कोई ठिकाना न रहा। दूदा जी ने आश्चर्यचकित होकर कहा – ‘स्वामी जी, इसे रहने दो। कुछ समय बाद यह बच्ची मूर्ति को भूल जायेगी। ‘

       संन्यासी ने कहा, “पिछली रात श्रीकृष्ण मेरे स्वप्न में आये और कहने लगे ‘मेरी परम भक्त मेरे लिए रो रही है। जाओ, उसे यह मूर्ति दे दो।’ यह मेरा कर्तव्य है कि मैं अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करूँ, इसीलिए मैं वापस यह मूर्ति देने आया हूँ। मीरा एक बहुत बड़ी भक्त है।” इतना कहकर संन्यासी ने मीरा को आशीष दिया और चला गया। कुछ विद्वानों का मत है कि ये कहानियाँ केवल कल्पना नहीं, अपितु सत्य घटनाएँ हैं। मीरा ने स्वयं अपने गीतों में कहा है

     “मेरा ध्यान हरि की ओर है और मैं हरि के साथ एकरूप हो गई हूँ। मैं अपना मार्ग स्पष्ट देख रही हूँ। मेरे गुरु रैदास ने मुझे गुरुमंत्र दिया है। हरिनाम ने मेरे हृदय में बहुत गहराई तक अपना स्थान जमा लिया है। ” 

⚜️ मीराबाई का विवाह 

       मीरा अपने दादा जी की देख-रेख में राजमहल में बड़ी हुई। अपनी सामान्य शिक्षा के साथ-साथ मीरा को संगीत व नृत्य की शिक्षा भी मिली। मीरा इन कलाओं में निपुण हो गई। मीरा का विवाह सन् 1516 ई. में 13 वर्ष की आयु में सामाजिक रीति-रिवाज के अनुसार बसंत पंचमी के दिन सिसौदिया वंश के प्रसिद्ध राणा संग्राम सिंह (राणा साँगा) के पुत्र व चित्तौड़ के राजकुमार भोजराज के साथ हुआ। श्रीकृष्ण की प्रतिमा को वह अपने साथ ससुराल ले गई। उसकी पूजा-उपासना यथावत चलती रही। आरम्भ में उसकी ससुराल में उसके कीर्तन व तन्मय होकर नृत्य करने को ढोंग कहा गया।

       मीरा बचपन से ही श्रीकृष्ण की पूजा करना अपना अधिकार मानती थी। उसके मायके के किसी भी व्यक्ति ने उसकी राह में कोई विघ्न नहीं डाला था। अपितु वे मीरा को इस कृष्ण भक्ति के लिए प्रोत्साहित ही करते थे। परंतु उसकी ससुराल में स्थिति इसके उलट थी। उसकी ससुराल वाले उसकी अपार कृष्ण भक्ति से रुष्ट रहने लगे। वे उसकी कृष्ण भक्ति के घोर विरोधी हो गए। परन्तु मीरा पर इसका कोई प्रभाव नहीं हुआ। उसका श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम व भक्ति सदैव बनी रही। मीरा ने बाल्यकाल से ही भगवान् श्रीकृष्ण को माधुर्य भाव से स्वीकार किया था। अपने विवाह के समय भी उसने यह दर्शाया कि वह श्रीकृष्ण से ही विवाह कर रही है।

      मीरा का ससुराल एक ऐसा राजपरिवार था जो शूरता और वीरता के लिए प्रसिद्ध था। भोजराज भी बहुत शूरवीर था। प्राचीन काल से ही उसके परिवार के लोग शक्ति की देवी दुर्गा, काली, चामुंडी और पार्वती की पूजा करते थे। वे विष्णु की पूजा करना पसंद नहीं करते थे। देखने में यह कितनी विचित्र बात लगती है कि कोई स्त्री ईश्वर को अपना पति माने और उसी प्रकार का व्यवहार करे। परन्तु भक्ति सम्प्रदाय के लिए यह कोई नई बात नहीं थी। भक्ति कई प्रकार की हो सकती है। जो भगवान् और भक्त के परस्पर भावों पर निर्भर है। यदि भगवान् को पालक माना जाये तो वह प्रिय बालक का ‘वात्सल्य भाव’ कहलाता है। माता-पिता का अपने बच्चे के प्रति प्रेम को देखें तो कृष्ण और उनकी माता यशोदा के मध्य प्रेम इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। यदि भक्त भगवान् को अपना स्वामी माने और अपना जीवन ही ईश्वर कृपा पर छोड़ दे तो यह संबंध स्वामी और दास का भाव दर्शाता है। हनुमान और श्रीराम के बीच इसी प्रकार का संबंध था। जब ईश्वर को अपने अंतरंग मित्र के रूप में समझा जाये, तब वह ‘सखा-भाव’ कहलाता है जैसे श्रीकृष्ण, सुदामा और उद्धव की मित्रता।

         यदि ईश्वर एवं भक्त का संबंध प्रेम, समर्पण और अंतरंगता पर आधारित हो, जैसा पति-पत्नी के बीच होता है, तो यह ‘माधुर्य भाव’ कहलाता है। इसे भक्ति का सर्वोच्च रूप समझा जाये तो अतिशयोक्ति न होगी। इसमें भक्त पत्नी और ईश्वर पति होता है। पत्नी अपने स्वामी की दास की तरह सेवा करती है। वह उसकी देखभाल एक माँ की तरह प्रेमपूर्वक करती है। वह उसके साथ घनिष्ठ मित्र की तरह मधुर व्यवहार करती है। ‘माधुर्य भाव’ में भक्त का संबंध भगवान् से निश्चित ही पत्नी के रूप में होता है। मीराबाई का यही प्रेमभाव श्रीकृष्ण के प्रति था।

        यद्यपि मीरा बचपन से ही यह विश्वास करती थी कि गिरधर गोपाल ही उसका स्वामी है। किन्तु अपने दाम्पत्य जीवन में उसने कभी भी अपने पति की उपेक्षा नहीं की। एक आदर्श पत्नी की भाँति उसने अपने पति भोजराज को सम्पूर्ण स्नेह व प्रेम दिया। श्रीकृष्ण के प्रति वह पूर्णरूप से समर्पित थी। वह उसके लिए अपने मधुर कंठ से गीत गाती और नाचती थी। यही उसका जीवन- ध्येय था व यही उसका लक्ष्य था। उसकी ससुराल में उसे इस असामान्य व्यवहार को त्यागने की सलाह दी जाती थी। वह उनकी सब बातें सुनती थी। किन्तु यदि उसे कोई कृष्ण को भूल जाने के लिए कहे, तो वह सहन नहीं करती थी। ससुराल में वह अपना अधिक से अधिक समय साधु-सन्तों के संग बिताना चाहती थी।

       चितौड़ राजघराने की प्रतिष्ठा बहुत ऊँची थी। ऐसे प्रतिष्ठित एवं श्रेष्ठ परिवार के लिए यह कितनी अपमानजनक बात थी कि एक राजकुमार की पत्नी साधु-सन्तों के साथ नाचती और गाती है। इतना ही नहीं, माँ काली की पूजा न करके उसने अपनी ससुराल की परम्परा की अवहेलना कर उनका भी अपमान किया। इसलिए वे सभी मीरा से बहुत क्रोधित थे। परंतु भोजराज मीराबाई से अत्याधिक प्रेम करते थे। वह उसके ईश्वरीय प्रेम का सम्मान करते थे। इसीलिए किसी को उसके विरुद्ध कुछ कहने का साहस नहीं होता था।

       आखिर में भोजराज ने केवल मीरा के उपयोग के लिए राजमहल के पास ही एक मंदिर बनवा दिया। कुछ लोगों का कहना है कि राजमहल में आने वाले साधु-सन्तों की भीड़ को रोकने के लिए यह मंदिर बनवाया गया था। परन्तु मीरा के लिए यह अच्छा ही हुआ क्योंकि अब वह स्वतंत्र रूप से श्रीकृष्ण की भक्ति कर सकती थी।

🔆 मीराबाई के पति की असमय मृत्यु

       भोजराज दिल्ली के शासकों के साथ हुए संघर्ष में गम्भीर रूप से घायल हो गये जिसके कारण 1521 ई. में उनकी मृत्यु हो गई। मीरा तब मात्र 18 वर्ष की थी। पति की मृत्यु के बाद उसकी सास व ननद ने बलपूर्वक उसे विधवा वेष पहना दिया। अब मीरा की देखभाल करने वाला कोई नहीं रहा। पहले से ही वह लोगों के तिरस्कार सहन कर रही थी और कुछ लोगों ने तो उसे पागल की संज्ञा देकर अपमानित भी किया। परंतु लोगों के इस असभ्य और द्वेषपूर्ण व्यवहार से उसकी भक्ति तथा शक्ति और बढ़ गई। वह श्रीकृष्ण की भक्ति में और अधिक लीन हो गई।

🔆 मीराबाई को मारने के षड्यन्त्र

         पति की मृत्यु के बाद मीरा पर उसके परिवारजनों ने सती होने के लिये बहुत दबाव डाला, लेकिन वे इसके लिए सहमत नहीं हुईं। राणा साँगा (श्वसुर) की मृत्य के पश्चात् जब उसके देवर विक्रमाजीत महाराणा बने तो वह मीरा को और अधिक कष्ट देने लगे। उस पर तरह-तरह के लांछन लगने लगे। उसको विभिन्न प्रकार से प्रताड़ित किया गया।

        एक बार विक्रमाजीत ने अपनी बहन ऊदाबाई की सलाह पर मीरा के पास विष से भरा प्याला भिजवाया। मीरा उसे प्रभु का प्रसाद समझ कर पी गई। विष निष्प्रभावी हो कर अमृत में बदल गया। फिर राणा ने मीरा के पास एक भयंकर विषधर साँप सुन्दर फूलों की पिटारी में भेजा। मीरा पूजा में व्यस्त थी। उसने अपना हाथ टोकरी में डाला और कुछ फूल निकाले। कितना आश्चर्य था कि वह साँप शालिग्राम के रूप में बदल गया। (शालिग्राम गंडकी नदी के किनारे का छोटा गोल पत्थर है जिसे वैष्णवों द्वारा भगवान विष्णु के प्रतीक के रूप में पूजा जाता है।) मीरा ने आनन्दपूर्वक उसे हाथों में लिया तो वह एक सुन्दर फूलमाला में बदल गया। इसी प्रकार उस पर एक बार तलवार से प्रहार किया गया लेकिन उस पर उसका भी कोई प्रभाव नहीं हुआ। राणा ने मीरा के लिए नुकीले कीलों की शैया बनवाई। परन्तु उस शैया की कीलें उसके शरीर में चुभने की बजाय फूल बन गयीं।

       मीरा ने अपने कुछ गीतों में यह बताया है कि राणा ने किस प्रकार उसे कष्ट दिये। एक-एक कर उसे मारने के सभी प्रयास विफल हो गये। मीरा का विश्वास था कि यह सब उसके ईश्वर की कृपा से हुआ है। मीरा प्रभु प्रेम व उन्माद में अपने प्रियतम परमेश्वर को ढूंढने हेतु भटकने लगी। उसकी ससुराल के लोग जो अब तक गुप्त रूप से उसका विरोध करते थे, अब खुल कर उसकी आलोचना करने लगे। वे उसे तरह-तरह से प्रताड़ित करने लगे व उस पर आरोप लगाने लगे कि मीरा ने कुल की मर्यादा को धूल में मिला दिया। किन्तु समाज के अन्य वर्ग के बीच वह ‘महान संत’ और ‘कलियुग की राधा’ के नाम से जानी जाने लगी। उनका कहना था कि उसे देखना और उसके चरणस्पर्श करना बड़े सौभाग्य की बात है। वे उसे ईश्वर का ही स्वरूप मानते थे।

        राणा ने कभी भी उसे प्रत्यक्ष रूप से मारने का साहस नहीं किया। उसे भय था कि स्त्री को मारने से पाप लगता है। वह इस बात से भी भयभीत था कि कहीं उसके इस कृत्य से मीरा को चाहने वाले लोग क्रुद्ध न हो जायें। जब मीरा को मारने के लिये राणा के सभी हिंसात्मक षड्यन्त्र विफल हो गये, तब उसने कुछ अप्रिय बातें कहते हुए कहा “यह नीच महिला स्वयं डूब कर क्यों नहीं मर जाती ?” –

        जब मीरा को राणा की नियत का पता चला तो वह स्वयं भी सोचने लगी कि यदि वह डूब कर मर जाये तो उसके ससुराल वालों को बहुत शांति मिलेगी एवं इस तरह वह भी भगवान् श्रीकृष्ण से अन्ततः मिल जायेगी। इन सारी बातों का विचार कर मीरा नदी पर पहुँच गई। नदी किनारे खड़ी होकर वह श्रीकृष्ण से प्रार्थना करने लगी- “हे मेरे प्रभु, मुझे अपनी शरण में ले लो” और इसके बाद वह नदी में कूद ही रही थी कि एक आवाज ने अचानक उसे रोक दिया। वह आवाज मीरा को संबोधित कर कहने लगी- “स्वयं को मारना बहुत बड़ा पाप है। ऐसा मत करो। तुम वृंदावन चली जाओ।”

        धीरे-धीरे संसार से उसका मोह भंग होता गया व धार्मिक वृत्ति के प्रबल होने के कारण उसका सारा समय साधु-संतों की संगति, कीर्तन व कृष्ण भक्ति में व्यतीत होने लगा। विभिन्न प्रकार के कष्टों अत्याचारों – के चलते मीरा ने अपना परिवार यह कहते हुये त्याग दिया –

“तेरो कोई नहीं रोकण हार, मगन होय मीरा चली।”

      मीराबाई कुछ दिन अपने ताऊ वीरमदेव के घर उनके पुत्र भक्त जयमल के साथ रहकर वृन्दावन चली गई। जयमल धार्मिक वृत्ति के व्यक्ति थे। वहाँ पर मीरा ने आचार्य जीव गोस्वामी से वैष्णव धर्म की दीक्षा ली। संत रैदास से भी उन्होंने दीक्षा ली थी। परन्तु वृंदावन में वे चैतन्य सम्प्रदाय की वैष्णवी बन गई। बहुत दिनों तक वृंदावन में सत्संग करने के पश्चात् वह द्वारका चली गई जहाँ सन्त सेवा व भजन कीर्तन में ही अपना पूरा समय लगाया। वह हर समय श्रीकृष्ण के विषय में ही सोचती रहती थी। यही कारण है कि वह प्रत्येक भारतवासी के हृदय में परम कृष्णभक्त के रूप में बसी हुई हैं।

⚜️ हीरों का हार दुःख का कारण बना

       अकबर एक प्रसिद्ध मुगल सम्राट था। तानसेन उसके दरबार में उच्च कोटि का गायक व संगीतज्ञ था। तानसेन ने मीरा को देखा था। अकबर को भी मीरा के विषय में विस्तृत जानकारी मिली थी। वह उसके अथाह कृष्ण-प्रेम से परिचित था। इसी कारण अकबर के मन में मीरा को देखने की प्रबल इच्छा थी। तानसेन और अकबर ने मीरा से मिलने का निर्णय लिया। इसकी व्यवस्था करने की जिम्मेदारी उसने तानसेन को सौंपी।

      उस समय एक मुगल बादशाह के लिए किसी राजपूत महिला को जाकर देखना आसान नहीं था। यह अत्यंत जोखिमपूर्ण तथा मान-प्रतिष्ठा का विषय था। फिर भी तानसेन की योजनानुसार अकबर व तानसेन – दोनों ने साधुवेश में चित्तौड़ में प्रवेश किया।

      अकबर और तानसेन दोनों उस मंदिर में पहुँचे, जहाँ मीरा रहती थी। उस समय मीरा श्रीकृष्ण के आगे नाचने-गाने में मग्न थी। उसका मुखकमल ज्योति के समान दमक रहा था। उसके गायन में इतनी मधुरता थी कि जब अकबर ने मीरा को देखा सुना तो वह हतप्रभ रह गया। उसका हृदय – भक्तिभाव से सराबोर हो गया। वह बहुत शर्मिंदा हुआ कि ऐसे महान सन्त के आगे वह बहुरूपिया बनकर आया।

      अकबर ने कहा – “तानसेन, आओ, हम इस महान सन्त के आगे अपनी वास्तविकता को प्रकट कर दें और क्षमायाचना करें।” यह सुनकर तानसेन ने अकबर को सचेत किया- “शहंशाह, यदि लोग यह जान लेंगे कि हम वास्तव में साधु नहीं हैं, तो जरा कल्पना कीजिए कि हमारी क्या गत बनेगी? दूसरा, यदि वे जान लेंगे कि एक मुगल बादशाह एक राजपूत महिला को देखने आया है तो वे हमें जीवित नहीं छोड़ेंगे।”

        जब मीरा ने अपने गायन नृत्य को विराम दिया तो उसने श्रीकृष्ण को प्रणाम किया और पास में बैठ गई। उसी समय अकबर मीरा के सामने गया और उसके चरण स्पर्श कर प्रणाम किया। अकबर ने हीरों का एक बहुमूल्य हार निकालकर मीरा के चरणों में रख दिया।

तब मीरा ने कहा- “यह क्या है ? कृपया ऐसा न करें। मैं इस प्रकार की भेंट स्वीकार नहीं करती।”

अकबर ने कहा – “माता जी, यह तो हमने श्रीकृष्ण को अर्पित किया है। आप प्रार्थना कीजिए कि गिरिधर इसे स्वीकार कर लें। श्रीकृष्ण के लिए मैं जो कुछ लाया हूँ, उसे मैं वापस नहीं ले जा सकता। कृपया मेरी याचना अस्वीकार न करें।”

मीरा -“यह श्रीकृष्ण के लिए है तो फिर ठीक है। “

इतना कहकर मीरा ने वह हार उठाया और श्रीकृष्ण के गले में पहना दिया। वहाँ आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को उस हार को देखकर आश्चर्य होता था कि इतना बहुमूल्य हार किसने उपहार में दिया होगा? कुछ लोगों ने उस हार को पहचान लिया कि यह कीमती हार तो केवल अकबर बादशाह का ही हो सकता है। धीरे-धीरे यह बात चारों ओर फैल गई कि मुगल बादशाह मीरा को देखने उसके मंदिर में आया था और उसने मीरा के चरण स्पर्श कर यह बहुमूल्य हार श्रीकृष्ण को अर्पित किया है। जब यह बात राणा रतन सिंह तक पहुँची तो वह क्रोधित हो गये। उनके लिए यह राज परिवार की प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया –

“एक मुगल बादशाह न केवल राजपूतों की भूमि में आकर जिंदा लौट गया, बल्कि एक राजपूत रानी को स्पर्श भी कर गया ? इस परिवार के लिए यह बड़ी शर्म की बात है।”

उन्हें लगा कि मीरा का तपस्वी जीवन और कृष्णप्रेम ही इस समस्या का कारण है।

⚜️ मीराबाई एक सक्षम कवयित्री

      मीरा मात्र कृष्ण भक्त ही नहीं, एक सक्षम कवयित्री भी थीं। उनकी शब्द संवेदना, रचना व काव्य भारतीय साहित्य की अनमोल निधि है। उनका श्रीकृष्ण के प्रति अगाध श्रद्धा, प्रेम व समर्पण उनकी रचनाओं से सहज ही बरसता है। वह सदा श्रीकृष्ण के विषय में ही सोचती रहती थी जिसे उन्होंने सदैव प्रेमी के रूप में चाहा व सराहा –

श्रीगिरिधर आगे नाचूँगी 

नाच-नाच पिया रसिक रिझाऊँ,

प्रेमीजन को जाचूँगी। 

प्रेम, प्रीति के बाँध घुँघरू 

सूरत की कचनी काचूँगी ॥ 

लोक लाज कुल की मर्यादा 

या मैं एक ना राखूँगी।

पिया के पलंगा जा पडूंगी 

मीरा हरि रंग राचूँगी ॥

“मैं गिरिधर गोपाल के आगे नाचूँगी, मैं उस समय तक नाचती रहूँगी जब तक कि वे पूर्णरूप से खुश नहीं हो जाते। मैं उनका भी सम्मान करती हूँ जो उनसे प्रेम करते हैं। मैं ऐसे घुँघरू बाँधूंगी जो प्रेम और दया के प्रतीक हैं और इस प्रकार का वेश धारण कर नाचूँगी जो मुझे उनका स्मरण दिलाता रहे। मैं अपने परिवार की मर्यादा और नाम की परवाह नहीं करती जिसे लोग अधिक महत्त्व देते हैं। मैं अपने प्रेमी – हरि की शैया पर जा लेटूँगी और परम सुख का आनंद उठाऊँगी।”

” श्रीकृष्ण ही मेरे एकमात्र प्रेमी हैं। उनके प्रेम में मैं पागल हो जाती हूँ।”

“मुझे तब तक शांति नहीं मिलेगी, जब तक श्रीकृष्ण मेरे पास नहीं आयेंगे।”

“मीरा अपने स्वामी श्रीकृष्ण के बंधन में बँधी दासी है। “

👉 वैसे तो मीराबाई ने 11 रचनाओं का सृजन किया, परन्तु ‘गीत गोबिन्द की टीका’, ‘नरसी जी का मायरा’, ‘नरसी मेहता की हुण्डी ‘ ‘रुकमणि मंगल’ आदि कृतियाँ प्रमुख हैं। गीत काव्य की दृष्टि से ‘ पदावली’ उनकी सर्वोत्तम रचना है। यह हिन्दी साहित्य की अनुपम निधि है।

      आज भी घर-घर में लोग मीरा के गीत गाते-गुनगुनाते हैं, जिसने गिरिधर गोपाल के प्रेम में, उसकी भक्ति में सब कुछ भुला दिया और अपने आपको समर्पित कर दिया था। उसकी रचना मीरा के भजन एक अनूठी परंपरा के रूप में भारतीय संगीत में प्रचलित हैं। मीरा के मधुर गीतों में संगीत व सौंदर्य प्रचुर मात्रा में मिलता है। वे गीत अपनी विशेष भावपूर्ण रचना व राग के कारण अधिक लोकप्रिय हुए। यौवनावस्था में उसे पति को खोना पड़ा। परन्तु वह कहती थी

“मेरे तो गिरिधर गोपाल, दूसरो न कोई “

विवाह के समय मीरा ने श्रीकृष्ण की मूर्ति अपने पास रखी। राज-परिवार में यह परंपरा थी कि दूल्हा अपने प्रतिनिधि के रूप में अपनी तलवार दुल्हन के बाजू में रखता है, किन्तु वहाँ तो श्रीकृष्ण की मूर्ति रखी हुई थी। तलवार के स्थान पर श्रीकृष्ण की मूर्ति को सभी ने स्वीकार कर लिया।

मीरा के निम्नलिखित दोहे उसकी मनोस्थिति को अभिव्यक्त करते हैं –

मेरो तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई। 

जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई ॥

मैं तो मेरो नारायण की आपहि हो गई दासी रे।

 लोग कहै मीरा भई बावरी न्यात कहै कुलनासी रे ॥ 

उसके अपने लोग जिन्होंने उसे आनंदविभोर होकर गाते नाचते देखा था, इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि वह पागल हो गई है। परंतु साधु सन्त मीरा का एक महान संत के रूप में आदर करते थे। उन लोगों की भीड़ होने लगी जो उसके दर्शन और अनुग्रह के अभिलाषी थे। मीरा की संगीत साधना प्रशंसनीय है। उसने अपने गीतों को शास्त्रीय आधार पर संगीतबद्ध किया। ‘राग गोविन्द‘ और ‘राग मीरा मल्हार’ मीरा की ही देन हैं। मीरा के गीतों को आसानी से संगीतबद्ध किया जा सकता है। यही कारण है कि मीरा के गीत आज भी लोगों को बहुत प्रिय हैं।

        मीरा के गीत व रचनाऐं जिन्हें पदावली (लोकगीत शैली के गीत) कहा जाता है, बहुत लोकप्रिय हैं। परन्तु राजस्थान के वैभव काल में मीरा के नाम का कहीं उल्लेख नहीं है। समकालीन इतिहासकारों व लेखकों ने भी किसी प्रकार का विवरण नहीं दिया है। दुर्भाग्यवश, ईर्ष्या व द्वेष से प्रेरित कुछ लोगों ने मीरा को इतिहास में श्रेष्ठ स्थान न देने का निंदनीय कृत्य किया परन्तु मीरा अपनी मधुर, हृदयस्पर्शी रचनाओं व कृष्ण-भक्ति के कारण आज भी भारत की श्रेष्ठतम महिलाओं में अपना स्थान बनाए हुये है।

       राणा मीरा से इतने क्रोधित थे कि उन्होंने भी उसे विभिन्न प्रकार से मार डालने का प्रयत्न किया। परन्तु वह हर बार सुरक्षित बच जाती थी। उस पर किसी प्रकार की आँच नहीं आती थी। उसने अपने गीतों में यह प्रमाणित किया।

        वृंदावन वह स्थान था जहाँ श्रीकृष्ण ने अपना बचपन बिताया था। मीरा वृंदावन चली गई। वहाँ उसे परिवार की प्रतिष्ठा के लिए कष्ट देने वाला कोई नहीं था। वहाँ किसी राजघराने की परंपरा व नियमानुसार चलने की आवश्यकता भी नहीं थी। वह वहाँ राणा के भय व क्रोध से मुक्त रह सकती थी। अपनी इस आनंदमय स्थिति में मीरा श्रीकृष्ण के आगे कृतज्ञतापूर्वक व समर्पित भाव से नाचती व गाती थी।

⚜️ वृंदावन का एकमात्र पुरुष

      वृंदावन में मीरा के जीवन से एक अन्य रोचक कथा जुड़ी है। वृंदावन में कई साधु संत थे। जीवा गोस्वामी उनमें प्रमुख थे। वे अपने व्रत का दृढ़ता से पालन करते थे। वह नहीं चाहते थे कि उन पर किसी महिला की छाया भी पड़े। इसलिए महिलाएँ कभी भी उनके दर्शन के लिए नहीं जाती थीं। चैतन्य देव के भक्ति आन्दोलन में सम्मिलित होकर उन्होंने भक्ति – सम्प्रदाय का प्रसार किया। मीराबाई में साधुओं-तपस्वियों के प्रति अगाध श्रद्धा थी, इसीलिए वह इस संत व्यक्ति के दर्शन के लिए पहुँची। आश्रम के मुख्य द्वार पर ही गोस्वामी के शिष्यों ने मीरा को रोकते हुये कहा – “ठहरिये, स्वामी जी किसी महिला से नहीं मिलते।”

       यह बात सुनकर मीरा को हँसी आ गई। उसने कहा- “मैं तो सोचती थी कि वृंदावन में एक मात्र पुरुष श्रीकृष्ण है। अभी मैं देख रही हूँ कि यहाँ उनका भी कोई प्रतिस्पर्धी है।” मीरा के ये शब्द गोस्वामी जी के हृदय में नुकीले बाण की तरह लगे। वे तुरन्त अपनी कुटिया से निकल कर बाहर आये और मीरा को आदरपूर्वक आश्रम में ले गये।

       भक्ति सम्प्रदाय में पत्नी का पति के प्रति प्रेम उच्च कोटि की भक्ति समझी जाती है। इसके अनुसार संसार की सभी महिलाओं के लिए ईश्वर ही एक मात्र पुरुष है। वृन्दावन में एक मात्र पुरुष श्रीकृष्ण हैं। सभी भक्त गोपियाँ हैं। भक्तों में लिंग संबंधी कोई भेद नहीं। उन्हें मन से यह भावना धारण कर लेनी चाहिए कि ईश्वर उनके पति हैं। यदि भक्त के मन में यह धारणा रहे तो वह किसी महिला को देखने अथवा मिलने के लिए इन्कार नहीं कर सकता। यह सब जानते हुए भी यदि वह एक पुरुष की तरह व्यवहार करे, तो इससे यह धारणा बनती है कि वह भगवान् का प्रतिस्पर्धी बन गया है।

     राजमहल छोड़ने के पश्चात् मीरा कई महान लोगों एवं सुप्रसिद्ध कवियों के सम्पर्क में आई जिससे उसकी भक्ति और काव्यमय प्रतिभा को और अधिक बल मिला।

⚜️ मीराबाई द्वारका में

       मेड़ता और चित्तौड़ की राजनैतिक स्थिति उस समय तक बहुत बदल गई थी। अब तक मीरा की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया था। सभी ने उसे समाज के लिए कलंक मान लिया था। उसके चाचा वीरम देव अपने राज्य की रक्षा हेतु युद्ध करते रहे। उनके पास इतना समय नहीं था कि वे मीरा के बारे में कुछ सोचते। खुद मीरा ने भी कभी किसी पर बोझ नहीं बनना चाहा। बहुत घूमने-फिरने के बाद उसने द्वारका में विश्राम लिया। रणछोड़जी (श्रीकृष्ण का दूसरा नाम) का द्वारका स्थित मंदिर ही उसका तीर्थ स्थान बन गया।

🔆 मीरा को चित्तौड़ भेजने का प्रयास विफल

        यद्यपि राजस्थान में मीरा बहुत अधिक लोकप्रिय हो गई थी परन्तु प्रतिष्ठित घराने उसे अपनाने में हिचकिचाते थे। मीरा के प्रति राणा के दुर्व्यवहार की बातें चारों ओर फैल गई थीं। रतन सिंह की हत्या कर दी गई थी और उसके बाद उदयसिंह गद्दी पर बैठा। उसने सोचा यदि मीरा साधुओं के संग अकेली रहेगी तो उसके प्रतिष्ठित परिवार के लिए यह बदनामी की बात होगी। इसीलिए उसने मीरा से चित्तौड़ लौट जाने को कहा। परन्तु मीरा इसके लिए तनिक भी तैयार नहीं थी। उसने दृढ़तापूर्वक चित्तौड़ जाने से मना कर दिया।

        उदयसिंह समझ गया था कि मीरा उसके कहने से वापस नहीं लौटेगी। उसने चित्तौड़ के पाँच ब्राह्मणों को मीरा से अनुरोध करने के लिए भेजा कि वह चित्तौड़ लौट जाये। मीरा सोचने लगी कि यदि वह वापस राजमहल में लौटकर जायेगी, तो वही पुरानी बातें फिर दुहराई जाएँगी। इस समय मीरा की आयु लगभग 48 वर्ष की थी। जब उसके पति भोजराज जीवित थे, उस समय भी राजमहल में श्रीकृष्ण की भक्ति करने में उसे कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। मीरा ने मंदिर में शरण ली। उसके पति के निधन को 25 वर्ष हो गये थे। परन्तु उसका परिवार अभी भी उसकी हत्या करने का प्रयास कर रहा था। इसीलिए वह अपनी प्राण रक्षा हेतु उन सबसे दूर द्वारका चली आई थी। उसने निश्चय कर लिया था कि वह केवल गिरिधर गोपाल से ही संबंध रखेगी और किसी से नहीं। इन ब्राह्मणों ने मीरा को मनाने के बहुत प्रयास किये कि वह किसी प्रकार चितौड़ लौट जाये।

        मीरा का एक ही उत्तर था – ” मैं नहीं जाऊँगी।” तब ब्राह्मणों ने कहा – “हम आपको साथ लिए बगैर नहीं जायेंगे। यदि आप हमारे साथ नहीं चलेंगी, तो हम यहीं पर अन्न ग्रहण करना छोड़ कर अपने प्राण त्याग देंगे।”

        ब्राह्मणों की बात सुनकर मीरा बड़ी विचित्र स्थिति में फँस गई। वह नहीं चाहती थी कि वह इन ब्राह्मणों की मृत्यु का कारण बने। कुछ सोचकर मीरा ने ब्राह्मणों से कहा कि वे उस रात मंदिर में ठहर जायें। अगले दिन चित्तौड़ चलने के लिए वह राजी हो गई। ब्राह्मणों को यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई और वे मंदिर में ठहर गये। जब ब्राह्मण सुबह उठे तो मीरा वहाँ नहीं थी। अनिष्ट की आशंका से वे भयभीत हो गये। उन्होंने मीरा को बहुत ढूँढा। परन्तु मीरा का कहीं पता न चला। मीरा तो नहीं मिली किन्तु उसके वस्त्र रणछोड़ जी के मंदिर के सामने पड़े मिले। उसके भक्तों ने यह निष्कर्ष निकाला कि शायद वह अपने प्रिय परमेश्वर गिरधर से जा मिली है। भक्तों में अभी भी यह विश्वास प्रचलित है। कुछ लोगों का ऐसा भी कहना है कि मीरा की मृत्यु नहीं हुई बल्कि वह भेष बदलकर कहीं चली गई।

⚜️ मीराबाई करुणा व प्रेम का प्रतीक

       मीराबाई ने, उसे दुःख देने वालों, क्रूरतापूर्ण व्यवहार करने वालों के साथ भी कभी बदले की भावना अथवा घृणा और द्वेष से व्यवहार नहीं किया। उसके प्रेरणादायक व करुणामय जीवन चरित्र से ऐसा प्रतीत होता है कि एक भक्त अपने परमेश्वर (गिरिधर गोपाल) के लिए हर प्रकार की कठिनाइयों को शांत रह कर सह सकता है। अपनी धुन में मग्न हो वह निश्चित रूप से अपने लक्ष्य तक पहुँच जाता है और अपने पावन जीवन से लाखों-करोड़ों लोगों को प्रेरणा व आत्म-विश्वास प्रदान कर सकता है। कलियुग की इस राधा ने जीवन के संघर्ष को ईश्वरीय प्रेम मानकर सहर्ष स्वीकार किया और भारतीय नारी के अलौकिक आदर्श को प्रस्थापित किया।

      संत नाभादास ने भक्तमाल में उनका उल्लेख इस प्रकार किया – 

बार न बाँको भयौ गरल अमृत ज्यों पीयौ, 

भक्ति निसान बमाय कै काहू तै न लगी 

लोकलाज कुल शृंखला तजि गिरधर मीरा भजी |

मीरा के संबंध में प्रस्तुत है एक मुक्तक – 

 तन्मय हो काली पुतली की तली में बैठ, 

अखिलेश, अलख ललाम देख लेती थी। 

राई में सुमेरु का विराम जानकर शिशु, 

रोम-रोम में कृष्ण भगवान् देख लेती थी। 

द्वितिया के चन्द्र से अमा का आवरण चीर, 

अद्वितियता का द्युति दाम देख लेती थी 

न जाने कौन सा ममीरा थी मीरा लगाये हुए, 

कि नैन मूँदकर घनश्याम देख लेती थी।


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