कबीर दोहावली | Kabir Ke Dohe

कबीर दोहावली


दुख में सुमरिन सब करे, सुख में करे न कोय । 

जो सुख में सुमरिन करे, दुख काहे को होय ॥ 1 ॥

 

तिनका कबहुँ न निंदिये, जो पाँयन तर होय । 

कबहुँ उड़ आँखिन परे, पीर घनेरी होय ॥ 2 ॥

 

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर । 

कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर ॥ 3 ॥

 

गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूं पाँय । 

बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय ॥ 4 ॥

 

बलिहारी गुरु आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार । 

मानुष से देवत किया, करत न लागी बार ॥ 5॥

 

कबिरा माला मनहि की, और संसारी भीख । 

माला फेरे हरि मिले, गले रहट के देख ॥ 6 ॥

 

सुख में सुमिरन ना किया, दुःख में किया याद । 

कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥ 7 ॥

 

साईं इतना दीजिये, जा में कुटुम समाय ।

मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥ 8 ॥

 

लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट । 

पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥ 9 ॥

 

जाति न पूछो साधु की पूछि लीजिए ज्ञान । 

मोल करो तलवार का पड़ा रहन दो म्यान ॥ 10 ॥

 

जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप । 

जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥ 11 ॥

 

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।

माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय ॥ 12 ॥

 

कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और । 

हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥ 13 ॥

 

पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय ।

एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय ॥ 14 ॥

 

कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान । 

जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान ॥ 15 ॥

 

शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान । 

तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ॥ 16 ॥

 

माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर । 

आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥ 17 ॥

 

माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय । 

एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय ॥ 18 ॥

 

रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय । 

हीना जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥ 19 ॥

 

नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग ।

और रसायन छांड़ि के नाम रसायन लाग ॥ 20 ॥

 

जो तोकु कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल । 

तोकू फूल के फूल हैं, बाकू है त्रिशूल ॥ 21 ॥

 

दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार । 

तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ 22 ॥

 

आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर । 

एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात जंजीर ॥ 23 ॥

 

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब । 

पल में प्रलय हो जाएगी, बहुरि करेगा कब ॥ 24 ॥

 

माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख । 

माँगन से तो मरना भला, यह सतगुरु की सीख ॥ 25 ॥

 

जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग । 

कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग ॥ 26 ॥

 

माया छाया एक सी, विरला जाने कोय ।

भगता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय ॥ 27 ॥

 

आया था किस काम को, तु सोया चादर तान ।

सुरत सम्भाल ए गाफिल, अपना आप पहचान ॥ 28 ॥

 

क्या भरोसा देह का, विनस जात छिन मांह । 

साँस सांस सुमिरन करो और यतन कुछ नांह ॥ 29 ॥

 

गारी ही सों ऊपजे, कलह कष्ट और मींच। 

हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नींच ॥ 30 ॥

 

दुर्बल को न सताइए, जाकि मोटी हाय । 

बिना जीव की हाय से, लोहा भस्म हो जाय ॥ 31 ॥

 

दान दिए धन ना घटे, नदी न घटे नीर । 

अपनी आँखों देख लो, यों क्या कहे कबीर ॥ 32 ॥

 

दस द्वारे का पिंजरा, तामें पंछी का कौन ।

रहे को अचरज है, गए अचम्भा कौन ॥ 33 ॥

 

ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय ।

औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ॥ 34 ॥

 

हीरा वहाँ न खोलिये, जहाँ कुंजड़ों की हाट । 

चुप की पोटरी, लागहु अपनी बाट ॥ 35 ॥

 

कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि कर तन हार । 

साधु वचन जल रूप, बरसे अमृत धार ॥ 36 ॥

 

जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय । 

यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय ॥ 37 ॥

 

मैं रोऊँ जब जगत को, मोको रोवे न होय । 

मोको रोवे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 38 ॥

 

सोवा साधु जगाइए, करे नाम का जाप । 

यह तीनों सोते भले, साकित सिंह और साँप ॥ 39 ॥

 

अवगुन कहूँ शराब का आपा अहमक साथ ।

मानुष से पशुआ करे दाय, गाँठ से खात ॥ 40 ॥

 

बाजीगर का बांदरा, ऐसा जीव मन के साथ ।

नाना नाच दिखाय कर, राखे अपने साथ ॥ 41 ॥

 

अटकी भाल शरीर में तीर रहा है टूट । 

चुम्बक बिना निकले नहीं कोटि पटन को फ़ूट ॥ 42 ॥

 

कबीरा जपना काठ की, क्या दिखलावे मोय । 

ह्रदय नाम न जपेगा, यह जपनी क्या होय ॥ 43 ॥

 

पतिवृता मैली, काली कुचल कुरूप । 

पतिवृता के रूप पर, वारो कोटि सरूप ॥ 44 ॥

 

वैध मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार । 

एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम अधार ॥ 45 ॥

 

हर चाले तो मानव, बेहद चले सो साध ।

 हद बेहद दोनों तजे, ताको भता अगाध ॥ 46

 

राम रहे बन भीतरे गुरु की पूजा ना आस ।

रहे कबीर पाखण्ड सब, झूठे सदा निराश ॥ 47 ।।

 

जाके जिव्या बन्धन नहीं, ह्रदय में नहीं साँच । 

वाके संग न लागिये, खाले वटिया काँच ॥ 48 ॥

 

तीरथ गये ते एक फल, सन्त मिले फल चार । 

सत्गुरु मिले अनेक फल, कहें कबीर विचार ॥ 49 ॥

 

सुमरण से मन लाइए, जैसे पानी बिन मीन । 

प्राण तजे विन विछड़े, सन्त कबीर कह दीन ॥ 50 ॥

 

समझाये समझे नहीं, पर के साथ विकाय । 

मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाए ॥ 51 ॥

 

हंसा मोती विण्न्या, कुडन थार भराय ।

जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय ॥ 52 ॥

 

कहना सो कह दिया, अब कुछ कहा न जाय । 

एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय ॥ 53 ॥

 

वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सागर अनमोल ।

बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल ॥54॥

 

कली खोटा जग आंधरा, शब्द न माने कोय । 

चाहे कहँ सत आइना, जो जग वैरी होय ॥ 55 ॥

 

कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय ।

 भक्ति करे कोई सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥ 56 ॥

 

जागन में सोवन करे, साधन में लौ लाय । 

सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नाहिं जाय ॥ 57 ॥

 

साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय । 

सार-सार को गहि रहे, थोथ देइ उड़ाय ॥ 58 ॥

 

लागी लगन छूटे नाहिं, जीभ चोंच जरि जाय । 

मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय ॥ 59 ॥

 

भक्ति गेंद चौगान की, भावे कोई ले जाय । 

कह कबीर कुछ भेद नाहिं, कहां रंक कहां राय ॥ 60 ॥

 

घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार ।

बाल सनेही सांइयाँ, आवा अन्त का यार ॥ 61 ॥

 

अन्तर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार । 

जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार ॥ 62 ॥

 

मैं अपराधी जन्म का, नख-सिख भरा विकार । 

तुम दाता दुःख भंजना, मेरी करो सम्हार ॥ 63॥

 

प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट विकाय । 

राजा – परजा जेहि रुचें, शीश देई ले जाय ॥ 64 ॥

 

प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय । 

लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥ 65 ॥

 

सुमिरन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग । 

कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग ॥ 66 ॥

 

सुमरित सुरत जगाय कर, मुख के कछु न बोल ।

बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल ॥ 67 ॥

 

छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार । 

हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार ॥ 68 ॥

 

ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग ।

तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग ॥ 69 ॥

 

जा करण जग ढूँढ़िया, सो तो घट ही मांहि । 

परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं ॥ 70 ॥

 

जबही नाम हिरदे घरा, भया पाप का नाश । 

मानो चिंगरी आग की, परी पुरानी घास ॥ 71 ॥

 

नहीं शीतल है चन्द्रमा, हिंम नहीं शीतल होय । 

कबीरा शीतल सन्त जन, नाम सनेही सोय ॥ 72 ॥

 

आहार करे मन भावता, इंदी किए स्वाद । 

नाक तलक पूरन भरे, तो का कहिए प्रसाद ॥ 73 ॥

 

जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय ।

नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावें सोय ॥ 74 ॥

 

जल ज्यों प्यारा माहरी, लोभी प्यारा दाम । 

माता प्यारा बारका भगति प्यारा नाम ॥ 75 ॥

 

दिल का मरहम ना मिला, जो मिला सो गर्जी । 

कह कबीर आसमान फटा, क्योंकर सीवे दर्जी ॥ 76 ॥

 

बानी से पहचानिये, साम चोर की घात । 

अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह कई बात ॥ 77 ॥

 

जब लगि भगति सकाम है, तब लग निष्फल सेव । 

कह कबीर वह क्यों मिले, निष्कामी तज देव ॥ 78 ॥

 

फूटी आँख विवेक की, लखे ना सन्त असन्त । 

जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त ॥ 79॥

 

दाया भाव ह्रदय नहीं, ज्ञान थके बेहद ।

ते नर नरक ही जायेंगे, सुनि सुनि साखी शब्द ॥ 80 ॥

 

दाया कौन पर कीजिये, का पर निर्दय होय । 

सांई के सब जीव हैं, कीरी कुंजर दोय ॥ 81 ॥

 

जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाय । 

प्रेम गली अति साँकरी, ता में दो न समाय ॥ 82 ॥

 

छिन ही चढ़े छिन ही उतरे, सो तो प्रेम न होय । 

अघट प्रेम पिंजरे बसे, प्रेम कहावे सोय ॥ 83॥

 

जहाँ काम तहाँ नाम नहिं, जहाँ नाम नहिं वहाँ काम । 

दोनों कबहूँ नहिं मिले, रवि रजनी इक धाम ॥ 84 ॥

 

कबीरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय । 

टूट एक के कारने, स्वान घरै घर जाय ॥ 85 ॥

 

ऊँचे पानी न टिके नीचे ही ठहराय । 

नीचा हो सो भरिए पिए, ऊँचा प्यासा जाय ॥ 86 ॥

 

सबते लघुताई भली, लघुता ते सब होय ।

जसे दूज का चन्द्रमा, शीश नवे सब कोय ॥ 87 ॥

 

संत ही में सत बांटई, रोटी में ते टूक । 

कहे कबीर ता दास को, कबहूँ न आवे चूक ॥ 88 ॥

 

मार्ग चलते जो गिरा, ताकों नाहि दोष । 

यह कबिरा बैठा रहे, तो सिर करड़े दोष ॥ 89 ॥

 

जब ही नाम ह्रदय धरयो, भयो पाप का नाश । 

मानो चिनगी अग्नि की, परि पुरानी घास ॥ 90 ॥

 

काया काठी काल घुन, जतन- जतन सो खाय । 

काया वैध ईश बस, मर्म न काहू पाय ॥ 91 ॥

 

सुख सागर का शील है, कोई न पावे थाह । 

शब्द विना साधु नही, द्रव्य बिना नहीं शाह ॥ 92 ॥

 

बाहर क्या दिखलाए, अनन्तर जपिए राम । 

कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ॥ 93 ॥

 

फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम ।

कहे कबीर सेवक नहीं, चहै चौगुना दाम ॥ 94 ॥

 

तेरा साँई तुझमें, ज्यों पहुपन में बास । 

कस्तूरी का हिरन ज्यों, फिर-फिर ढूँढ़त घास ॥ 95 ॥

 

कथा-कीर्तन कुल विशे, भवसागर की नाव ।

कहत कबीरा या जगत में नाहि और उपाव ॥ 96 ॥

 

विरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा । 

कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुन गा ॥ 97॥

 

तन बोहत मन काग है, लक्ष योजन उड़ जाय । 

बहु के धर्म अगम दयी, कबहुं गगन समाय ॥ 98 ॥

 

जहँ गाहक ता हूँ नहीं, जहाँ मैं गाहक नाँय ।

मूरख यह भरमत फिरे, पकड़ शब्द की छाँय ॥ 99 ॥

 

कहता तो बहुत मिला, गहता मिला न कोय ।

सो कहता वह जान दे, जो नहिं गहता होय ॥ 100 ॥


तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे न सूर ।

तब लग जीव जग कर्मवश, ज्यों लग ज्ञान न पूर ॥ 101 ॥

आस पराई राख्त, खाया घर का खेत । 

औरन को तबोधता, मुख में पड़ रेत ॥ 102 ॥

सोना, सज्जन, साधु जन, टूट जुड़े सौ बार । 

दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, ऐके धका दरार ॥ 103 ॥

सब धरती कारज करूँ, लेखनी सब बनराय । 

सात समुद्र की मसि करूँ गुरुगुन लिखा न जाय ॥ 104 ॥

बलिहारी वा दूध की, जामे निकसे घीव । 

घी साखी कबीर की चार वेद का जीव ॥ 105 ॥

आग जो लागी समुद्र में, धुआँ न प्रकट होय । 

सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय ॥ 106 ॥

साधु गाँठि न बाँधई, उदर समाता लेय । 

आगे-पीछे हरि खड़े जब भोगे तब देय ॥ 107 ॥

घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार । 

बाल सने ही सांइया, आवा अन्त का यार ॥ 108 ॥

कबिरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय । 

जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय ॥ 109 ॥

ऊँचे ‘कुल में जामिया, करनी ऊंच न होय । 

सौरन कलश सुरा, भरी, साधु निन्दा सोय ॥ 110 ॥

सुमरण की सुव्यों करो ज्यों गागर पनिहार । 

होले होले सुरत में, कहैं कबीर विचार ॥ 111 ॥

सब आए इस एक में, डाल-पात फल-फूल ।

कविरा पीछा क्या रहा, गह पकड़ी जब मूल ॥ 112 ॥

जो जन भीगे रामरस, विगत कबहूँ ना रूख । 

अनुभव भाव न दरसते, ना दुःख ना सुख ॥ 113 ॥

सिंह अकेला बन रहे, पलक पलक कर दौर ।

जैसा बन है आपना, तैसा बन है और ॥ 114 ॥

यह माया है चूहड़ी, और चूहड़ा कीजो। 

बाप-पूत उरभाय के संग ना काहो केहो ॥ 115 ॥

जहर की जर्मी में है रोपा, अभी खींचे सौ बार । 

कविरा खलक न तजे, जामे कौन विचार ॥ 116 ॥

जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय । 

यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय ॥ 117 ॥

जो जाने जीव न आपना, करहीं जीव का सार । 

जीवा ऐसा पाहौना, मिले ना दूजी बार ॥ 118 ॥

कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार । 

बाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार ॥ 119 ॥

लोग भरोसे कौन के, बैठे रहें उरगाय । 

जी रही लूटत जम फिरे, मैंढ़ा लुटे कसाय ॥ 120 ॥

एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार ।

है जैसा तैसा हो रहे, रहें कबीर विचार ॥ 121 ॥

जो तु चाहे मुक्त को छोड़े दे सब आस । 

मुक्त ही जैसा हो रहे, बस कुछ तेरे पास ॥ 122 ॥

साँई आगे साँच है, साँई साँच सुहाय । 

चाहे बोले केस रख, चाहे घाँट भुण्डाय ॥ 123 ॥

अपने-अपने साख की, सबही लीनी मान । 

हरि की बातें दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान ॥ 124 ॥

खेत ना छोड़े सूरमा, जूझे दो दल मोह । 

आशा जीवन मरण की, मन में राखें नोह ॥ 125 ॥

लीक पुरानी को तजें, कायर कुटिल कपूत । 

लीख पुरानी पर रहें, शातिर सिंह सपूत ॥ 126 ॥

सन्त पुरुष की आरसी, सन्तों की ही देह ।

लखा जो चहे अलख को, उन्हीं में लख लेह ॥ 127 ॥

भूखा- भूखा क्या करे, क्या सुनावे लोग । 

भांडा घड़ निज मुख दिया, सोई पूर्ण जोग ॥ 128 ॥

गर्भ योगेश्वर गुरु बिना, लागा हर का सेव । 

कहे कबीर बैकुण्ठ से, फेर दिया शुकदेव ॥ 129 ॥

प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बनाय । 

चाहे घर में वास कर, चाहे बन को जाय ॥ 130 ॥

कांचे भाडें से रहे, ज्यों कुम्हार का देह । 

भीतर से रक्षा करे, बाहर चोई देह ॥ 131 ॥

साँई ते सब होते है, बन्दे से कुछ नाहिं । 

राई से पर्वत करे, पर्वत राई माहिं ॥ 132 ॥

केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह । 

अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहीं बरसे मेह ॥ 133 ॥

एक ते अनन्त अन्त एक हो जाय ।

एक से परचे भया, एक मोह समाय ॥ 134 ॥

साधु सती और सूरमा, इनकी बात अगाध । 

आशा छोड़े देह की, तन की अनथक साध ॥ 135 ॥

हरि संगत शीतल भया, मिटी मोह की ताप ।

निशवासर सुख निधि, लहा अन्न प्रगटा आप ॥ 136 ॥

आशा का ईंधन करो, मनशा करो बभूत ।

जोगी फेरी यों फिरो, तब वन आवे सूत ॥ 137 ॥

आग जो लगी समुद्र में, धुआँ ना प्रकट होय । 

सो जाने जो जमुआ, जाकी लाई होय ॥ 138 ॥

अटकी भाल शरीर में, तीर रहा है टूट ।

चुम्बक बिना निकले नहीं, कोटि पठन को फूट ॥ 139 ॥

अपने – अपने साख की, सब ही लीनी भान । 

हरि की बात दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान ॥ 140 ॥

आस पराई राखता, खाया घर का खेत ।

और्न को पथ बोधता, मुख में डारे रेत ॥ 141 ॥

आवत गारी एक है, उलटन होय अनेक । 

कह कबीर नहिं उलटिये, वही एक की एक ॥ 142 ॥

आहार करे मनभावता इंद्री की स्वाद ।

नाक तलक पूरन भरे, तो कहिए कौन प्रसाद ॥ 143 ॥

आए हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर । 

एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बाँधि जंजीर ॥ 144 ॥

आया था किस काम को, तू सोया चादर तान । 

तू सूरत सँभाल ए काफिला, अपना आप पहचान ॥ 145 ॥

उज्जवल पहरे कापड़ा, पान-सुपरी खाय । 

एक हरि के नाम बिन, बाँधा यमपुर जाय ॥ 146 ॥

उतते कोई न आवई, पासू पूछँ धाय ।

इतने ही सब जात है, भार लदाय लदाय ॥ 147 ॥

अवगुन कहूँ शराब का आपा अहमक होय ।

मानुष से पशुआ भया, दाम गाँठ से खोय ॥ 148 ॥

एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार ।

है जैसा तैसा रहे, रहे कबीर विचार ॥ 149 ॥

ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोए । 

औरन को शीतल करे, आपौ शीतल होय ॥ 150 ॥

कबीरा संग्ङति साधु की, जौ की भूसी खाय । 

खीर खाँड़ भोजन मिले, ताकर संग न जाय ॥ 151 ॥

एक ते जान अनन्त, अन्य एक हो आय ।

एक से परचे भया, एक बाहे समाय ॥ 152 |

कबीरा गरब न कीजिए, कबहूँ न हँसिये कोय । 

अजहूँ नाव समुद्र में, ना जाने का होय ॥ 153 ॥

कबीरा कलह अरु कल्पना, सतसंगति से जाय ।

दुख वासे भागा फिरे, सुख में रहै समाय ॥ 154 ॥

वीरा संगति साधु की, जित प्रीत कीजै जाय । 

दुर्गति दूर वहावति, देवी सुमति बनाय ॥ 155 ॥

कवीरा संगत साधु की, निष्फल कभी न होय । 

होमी चन्दन बासना, नीम न कहसी कोय ॥ 156 ॥

को छूट इहिं जाल परि, कत फुरंग अकुलाय । 

ज्यों-ज्यों सुरझि भजौ चहै, त्यों-त्यों उरझत जाय ॥ 157 ॥

कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान । 

जम जब घर ले जाएँगे, पड़ा रहेगा म्यान ॥ 158 ॥

काह भरोसा देह का, बिनस जात छिन मारहिं ।

साँस साँस सुमिरन करो, और यतन कछु नाहिं ॥ 159 ॥

काल करे से आज कर, सबहि सात तुव साथ । 

काल काल तू क्या करे काल काल के हाथ ॥ 160 ॥

काया काढ़ा काल घुन, जतन जतन सो खाय ।

काया बह्रा ईश बस, मर्म न काहूँ पाय ॥ 161 ॥

कहा कियो हम आय कर, कहा करेंगे पाय । 

इनके भये न उतके, चाले मूल गवाय ॥ 162 ॥

कुटिल वचन सबसे बुरा, जासे होत न हार । 

साधु वचन जल रूप है, बरसे अम्रत धार ॥ 163 ॥

कहता तो बहूना मिले गहना मिला न कोय । 

सो कहता वह जान दे, जो नहीं गहना कोय ॥ 164 ॥

कवीरा मन पँछी भया, भये ते बाहर जाय । 

जो जैसे संगति करै, सो तैसा फल पाय ॥ 165 ॥

कबीरा लोहा एक है, गढ़ने में है फेर । 

ताहि का बखतर बने, ताहि की शमशेर ॥ 166 ॥

कहे कबीर देय तू, जब तक तेरी देह । 

देह खेह हो जाएगी, कौन कहेगा देह ॥ 167 ॥

करता था सो क्यों किया, अब कर क्यों पछिताय ।

बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय ॥ 168 ॥

कस्तूरी कुन्डल बसे, म्रग ढूंढ़े बन माहिं । 

ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नाहिं ॥ 169 ॥

कबीरा सोता क्या करे, जागो जपो मुरार । 

एक दिना है सोवना, लांबे पाँव पसार ॥ 170 ॥

कागा काको घन हरे, कोयल काको देय । 

मीठे शब्द सुनाय के, जग अपनो कर लेय ॥ 171 ॥

कविरा सोई पीर है, जो जा नैं पर पीर ।

जो पर पीर न जानइ, सो काफिर के पीर ॥ 172 ॥

कविरा मनहि गयन्द है, आकुंश दै दै राखि ।

विष की बेली परि रहै, अम्रत को फल चाख ॥ 173 ॥

कबीर यह जग कुछ नहीं, खिन खारा मीठ ।

काल्ह जो बैठा भण्डपै, आज भसाने दीठ ॥ 174 ॥

कबिरा आप ठगाइए, और न ठगिए कोय । 

आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुख होय ॥ 175 ॥

कथा कीर्तन कुल विशे, भव सागर की नाव ।

कहत कबीरा या जगत, नाहीं और उपाय ॥ 176 ॥

विरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा ।

कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुनगा ॥ 177 ॥

कलि खोटा सजग आंधरा, शब्द न माने कोय । 

चाहे कहूँ सत आइना, सो जग बैरी होय ॥ 178 ॥

केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह । 

अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहिं बरसे मेह ॥ 179 ॥

कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार ।

वाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार ॥ 180 ॥

कबीरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय ।

जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय ॥ 181 ॥

गाँठि न थामहिं बाँध ही, नहिं नारी सो नेह । 

कह कबीर वा साधु की, हम चरनन की खेह ॥ 182 ॥

खेत न छोड़े सूरमा, जूझे को दल माँह ।

आशा जीवन मरण की, मन में राखे नाँह ॥ 183 ॥

चन्दन जैसा साधु है, सर्पहि सम संसार । 

वाके अंग लपटा रहे, मन मे नाहिं विकार ॥ 184 ॥

घी के तो दर्शन भले, खाना भला न तेल । 

दाना तो दुश्मन भला, मूरख का क्या मेल ॥ 185 ॥

गारी ही सो ऊपजे, कलह कष्ट और भींच । 

हारि चले सो साधु हैं, लागि चले तो नीच ॥ 186

चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय ।

दुइ पट भीतर आइके, साबित बचा न कोय ॥ 187 ॥

जा पल दरसन साधु का, ता पल की बलिहारी । 

राम नाम रसना बसे, लीजै जनम सुधारि ॥ 188 ॥

जब लग भक्ति से काम है, तब लग निष्फल सेव । 

कह कबीर वह क्यों मिले, निःकामा निज देव ॥ 189 ॥

जो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल । 

तोकू फूल के फूल है, बाँकू है तिरशूल ॥ 190 ॥

जा घट प्रेम न संचरे, सो घट जान समान । 

जैसे खाल लुहार की, साँस लेतु बिन प्रान ॥ 191 ॥

ज्यों नैनन में पूतली, त्यों मालिक घर माहिं । 

मूर्ख लोग न जानिए, बहर ढूंढ़त जांहि ॥ 192 ॥

जाके मुख माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप ।

पुछुप बास तें पामरा, ऐसा तत्व अनूप ॥ 193 ॥

जहाँ आप तहाँ आपदा, जहाँ संशय तहाँ रोग ।

कह कबीर यह क्यों मिटैं, चारों बाधक रोग ॥ 194 ॥

जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान । 

मोल करो तलवार का पड़ा रहन दो म्यान ॥ 195 ॥

जल की जमी में है रोपा, अभी सींचें सौ बार । 

कबिरा खलक न तजे, जामे कौन वोचार ॥ 196 ॥

जहाँ ग्राहक तँह मैं नहीं, जह मैं गाहक नाय । 

बिको न यक भरमत फिरे, पकड़ी शब्द की छाँय ॥ 197 ॥

झूठे सुख को सुख कहै, मानता है मन मोद । 

जगत चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद ॥ 198 ॥

जो तु चाहे मुक्ति को, छोड़ दे सबकी आस । 

मुक्त ही जैसा हो रहे, सब कुछ तेरे पास ॥ 199 ॥

जो जाने जीव आपना, करहीं जीव का सार ।

जीवा ऐसा पाहौना, मिले न दीजी बार ॥ 200 ॥


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