पारिवारिक सम्बंध _ रिश्तों को समझना
“माता के प्यार, पिता के दुलार और भाई -बहिन के पवित्र रिश्ते में सुख-शांति व सही मार्गदर्शन का वातावरण सृजित होता है। अतः परिवार व किशोरों की आपसी समझ, कतर्व्य पूर्ति व संवाद, परिवार को किशोरों की आदर्श पाठशाला बना देते हैं।” |
हमारी स्वयं की अपनी स्वतंत्र पहचान होते हुए भी हम समाज के एक स्वतंत्र जीव मात्र नहीं हैं। हमारा जीवन भावनाओं, संस्कारों,परम्पराओं, जीवन मूल्यों, सहजीवन की जरूरतों के कारण अनेक बन्धनों में बँधा होता है। सम्बन्ध ऐसे ही कुछ बन्धन हैं जिनसे हम किसी कारण बँधें होते हैं।
पारिवारिक सम्बंध – जिम्मेदारी, प्रतिबद्धता व लगाव का प्रतिरूप है। कुछ सम्बन्ध नैसर्गिक होते हैं तो कुछ सम्बन्ध जीवन की गति के साथ बनते जाते हैं। सम्बन्धों में जहाँ कुछ स्थायी भाव और प्रकृति के सम्बन्ध हैं तो कुछ सम्बन्ध समय और परिस्थितियों के साथ बदलते भी रहते हैं। हमें सम्बन्धों की गहनता व गम्भीरता को समझते हुए अपनी पहचान की तटस्थता का ध्यान रखना भी जरूरी है।
विषय-सूची
पारिवारिक सम्बंध में हमारी पहचान क्या है ?
हम सभी जानते हैं कि हमारे स्वयं की पहचान, आदतें, स्वभाव, पसन्द, रुचियाँ आदि हमारे परिवार अथार्त् माता-पिता, भाई-बहन, दादा-दादी, नाना-नानी आदि से प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ी हुई है। ये सम्बन्ध जहाँ हमें कुछ जन्मजात स्वभावगत आदतें देते हैं तो दूसरी ओर जन्म से लेकर आज तक हम इन सभी रिश्तों से प्रभावित होकर कुछ न कुछ सीखते हैं। किशोरावस्था तक आते-आते हम अपने आपको बड़ा व परिवार का एक जिम्मेदार सदस्य समझने लगते हैं।
पारिवारिक सम्बंध में अपेक्षाएं
हमारे माता-पिता की भी हमसे अपेक्षाए बढ़ने लगती हैं। पढ़ाई तथा भविष्य निर्माण के दबाव में, कभी मानसिक व भावनात्मक उथल-पुथल के कारण तो कभी लापरवाही से हम माता-पिता की इन अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर पाते। कई बार देखने में आता है कि एक दूसरे की इच्छाओं, आवश्यकताओं व अपेक्षाओं के प्रति हमारी लापरवाही के कारण परिवार में तनाव व अशांति का वातावरण बनता है। इसके कुछ तुरन्त व कुछ दूरगामी प्रभाव पड़ते हैं।
दूसरी ओर, परिवार में एक दूसरे के प्रति सकारात्मक व सहयोगात्मक दृष्टिकोण अपनाने के कई लाभ होते हैं। सवर्प्रथम, सभी सदस्य अपनी ऊर्जा व समय का सदुपयोग रचनात्मक कार्यों में कर सकते हैं।
दूसरे, स्वस्थ व शान्त वातावरण में सम्प्रेषण अपेक्षित व प्रभावषाली बन जाता है। यह भी देखने में आया है कि कई प्रकार की मानसिक परेषानियाँ जैसे- तनाव, कुण्ठा, द्वन्द्व, डर, चिन्ता, निराषा आदि का मुख्य कारण पारिवारिक वातावरण ही होता है।
पारिवारिक सम्बंधों में हिचकिचाहट
अक्सर किशोर-किशोरी अपनी बात बेहिचक नहीं कह पाते तथा अनजाने डर व भ्रान्तियाँ पालते रहते हैं। ऐसी स्थितियाँ तब पैदा होती है जब माता-पिता और हमारे बीच में संवादहीनता की स्थिति आ जाती है। एक तरफ माता-पिता हमारे द्वारा किये हुए निणर्यों को कभी-कभी नकारते हैं तो दूसरी ओर हम अपने माता-पिता से कुछ कार्योंं को छुपाना चाहते हैं। यहाँ कोई भी एक पक्ष दोषी नहीं है। दोषी तो स्थितियाँ या घटनाए हैं।
पारिवारिक सम्बंधों में पीढ़ियों का अंतर
सामाजिक और वैचारिक परिवर्तन के कारण दो पीढ़ियों के मध्य अन्तर होना स्वाभाविक है। हमारे खान-पान, रहन-सहन व सोचने-समझने की आदतों पर सिनेमा, टी.वी., मित्र, फैशन आदि का भी व्यापक असर पड़ता है।
कई बार पीढ़ी अन्तराल व सोच के अन्तर के कारण माता-पिता हमारी इस नवीन जीवन शैली को नापसन्द करते हैं तथा परिवार में आपसी तालमेल नहीं रह पाता। ऐसी स्थितियों से बचने के लिए हमें माता-पिता व अन्य बड़ों का पक्ष भी समझना चाहिए तथा प्रत्यक्ष विरोध करने की जगह शान्ति से अपनी बात कहनी चाहिए।
पारिवारिक सम्बंधों में वार्तालाप क्यों जरूरी है ?
माता-पिता तथा अन्य सम्बन्धियों के साथ हम जितना अधिक वातार्लाप करते हैं उतना ही उनके अनुभवों व विचारों से हम लाभ भी उठा सकते हैं। स्थिर भाव और परिवर्तन, गति और विराम दो पूर्णत: विपरीत पक्ष हैं। जब किसी गति को विराम अथवा रूकावट मिलती है तो स्वभावतः ही एक धक्का लगता है।
पारिवारिक सम्बंध में प्रचलन क्या है ?
प्रचलन एक निरन्तरता का प्रतीक है। प्रचलन में बदलाव अन्तविर्रोध को जन्म देता है। इसी बात को सामने रख कर हम पारिवारिक सम्बन्धों में वैचारिक मतभेद से उठे विरोध को समझ सकते हैं। दो पीढ़ियों में वैचारिक भिन्नता को विरोध के रूप में न लेकर एक तार्किक संवाद की प्रक्रिया द्वारा हल किया जाना चाहिए।
हमारे माता-पिता हमारी दैनिक जीवन की आवश्यकताओं, हमारे स्वास्थ्य व सुखद भविष्य के प्रति चिन्तातुर तथा समर्पित रहते हैं। उनकी इच्छाओं, अपेक्षाओं व आवश्यकताओं पर उतनी गम्भीरता से हम विचार नहीं करते। हमें माता-पिता का गुस्सा या रोक-टोक तो दिखाई देते हैं किन्तु उसके पीछे छिपा उनका प्रेम व स्नेह हम नहीं देख पाते।
पारिवारिक सम्बंध क्यों है जरूरी ?
यदि हम कुछ छोटी-छोटी क्रियाओं के माध्यम ;जैसे- छोटे भाई-बहनों का ध्यान रख कर, अपने घर व घर से बाहर की अपनी भूमिका के प्रति सजग रहकर, घर के कुछ छोटे-छोटे काम करके हम अपने माता-पिता व अन्य सदस्यों को आराम व ख़ुशी दे सकते हैं, तो हमारे परिवार का पूरा परिदृष्य ही बदल सकता है।
अतः हमें परिवार में सुख व शान्त वातावरण बनाये रखने के लिए सकारात्मक व सहयोगात्मक योगदान देना चाहिए। परिवार समाज की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। व्यक्तियों से परिवार बनता है व परिवारों से समाज का निर्माण होता है। इसी प्रकार समाज व्यापक रूप में राष्ट्र का निर्माण करता है।
महत्वपूर्ण बिन्दु
- परिवार में आपसी सामंजस्य व सहयोगात्मक व्यवहार रखना चाहिए।
- परिवार में हमें एक-दूसरे की भावनाओं व अपेक्षाओं का ध्यान रखकर व्यवहार करना चाहिए।
- परिवार के प्रति उत्तरदायित्व रखना अत्यन्त आवश्यक है।
जानें, समझें और करें
1.मुझे उठते ही माँ ने आवाज लगाई और कहा कि तुम्हें शहर जाना है। तुम्हारी भाभी की तबीयत खराब है। यह सुनकर मुझे अच्छा नहीं लगा और मैं असमंजस की स्थिति में आ गया क्योंकि आज मुझे अपने मित्रों के साथ खेलने जाने की तीव्र इच्छा थी, इधर भाभी की तबीयत का ध्यान भी रखना था।
Q. पिछले एक घंटे से मैं यही सोच रहा हूँ कि क्या करूँ ? अगर आप इस स्थिति में होते तो क्या करते ?
2. आपके पिता आपके परीक्षा परिणाम से नाराज़ हैं, आप अपने पक्ष में क्या तर्क देना चाहेंगे ?
3. अभिभावकों के सहयोग के लिए आप और क्या कार्य कर सकते हैं ?
4. कई बार आपके परिवार वाले आपको बहुत से कार्य करने से रोकते हैं। आपको लगातार ऐसा लगता है, कि आप सही हैं और उन्हें ऐसा लगता है कि वे सही हैं। कुछ परिस्थितियाँ दी गई हैं, जिनमें माता-पिता और आपकी सोच में अन्तर है। Q.अपनी बात माता-पिता को समझाने के लिए क्या तर्क देेंगे ? यदि आप अपने मित्रों के साथ घूमने जाना चाहते हैं। आप आगे पढ़ना चाहते हैं परन्तु घरेलू परिस्थितियों के कारण आप अपनी पढ़ाई निरन्तर जारी नहीं रख पा रहे हैं।
⇒♣ “घर में तालमेल होना पृथ्वी पर स्वर्ग के समान है।” – महात्मा गांधी
⇒♠ “परिवार के मेल से समाज बनता है। परिवार सुसंस्कारित, सकारात्मक एवं प्रगतिशील है तो समाज स्वतः ही सुसंस्कारित, सकारात्मक एवं प्रगतिशील होगा।” – अज्ञात
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