गुप्तकालीन कला और साहित्य
कला और साहित्य की दृष्टि से गुप्तकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्ण-युग कहा जाता है। गुप्तकाल में ही मंदिर निर्माण कला का जन्म हुआ। ये मंदिर नागर शैली के हैं।
विषय-सूची
गुप्तकालीन मन्दिर
गुप्तकालीन मंदिरों का प्रारम्भ गर्भगृह के साथ हुआ जिसमें देवमूर्ति की स्थापना की जाती थी। यहाँ तक पहुँचने के लिए एक दालान होता था जिसमें एक सभा भवन से होकर प्रवेश किया जाता था। सभा भवन का द्वार ड्योढी में निकलता था। इस भवन के चारों ओर एक प्राचीर युक्त प्रांगण होता था जिसमें बाद में अनेक पूजा स्थलों की स्थापना होने लगी। इस काल के मंदिरों की छतें अधिकांशतः सपाट होती थी, किन्तु शिखर युक्त मंदिरों का निर्माण भी प्रारम्भ हो चुका था। मन्दसौर के लेख के अनुसार दशपुर के मंदिर में अनेक आकर्षक शिखर थे। मंदिर का निर्माण चबूतरे के ऊपर किया जाता था और ऊपर जाने के लिए चारों ओर सीढ़ियाँ बनाई जाती थी। मंदिर का भीतरी भाग सादा होता था। द्वारपाल के स्थान पर मकरवाहिनी गंगा एवं कूर्मवाहिनी यमुना की प्रतिमाएँ बनी होती थी। गंगा व यमुना की मूर्ति रूप गुप्तकाल की ही देन है। गुप्तकाल में पत्थरों को जोड़ने के लिए चूना या मिट्टी का प्रयोग नहीं किया जाता था।
प्रमुख गुप्तकालीन मंदिर निम्नलिखित हैं-
1. तिगता गाँव (जबलपुर, मध्यप्रदेश) का विष्णु मंदिर
2. भूमरा (नागोद, मध्यप्रदेश) का शिव मंदिर
3. खोह (नागोद, मध्यप्रदेश का शिव मंदिर इसमें मुखलिंग शिवमूर्ति स्थापित की गयी।)
4. नचना कुठार (मध्यप्रदेश) का पार्वती मंदिर।
5. देवगढ़ (झाँसी, उत्तरप्रदेश) का दशावतार मंदिर।
6. भितर गाँव (कानपुर, उत्तरप्रदेश) का मंदिर (इनमें अच्छे ढंग का मेहराब है जो कि भारत की भवन निर्माण कला में प्रयुक्त मेहराब का प्राचीनतम नमूना है।)
7. सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर (रामपुर, मध्यप्रदेश)
8. उदयगिरि (विदिशा) का विष्णु मंदिर।
9. लाड़खा (मध्यप्रदेश) का मंदिर।
10. दर्रा का मंदिर (कोटा, राजस्थान)।
गुप्तकालीन मंदिर छोटी-छोटी ईटों एवं पत्थरों से बनाए जाते थे, परन्तु ‘कानपुर का भितरगाँव का मंदिर’ केवल ईटों से ही निर्मित है। इसी तरह ‘सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर’ भी केवल ईंटों से ही निर्मित है। एरण में वराह और विष्णु के मंदिर है।
देवगढ़ दशावतार मंदिर
गुप्तकाल का सर्वोत्कृष्ट मंदिर देवगढ़ का दशावतार मंदिर है। इसमें 12 मीटर ऊँचा एक शिखर है जो भारतीय मंदिर निर्माण में शिखर का पहला उदाहरण है। नागोद में, खोह के मंदिर में शिवमूर्ति की स्थापना की गयी थी जहाँ अन्य मंदिरों में एक मंडप होता था इसके विपरीत इसमें चार मंडप है।
बौद्ध स्तूप
गुप्तकाल के बौद्ध स्तूपों में सारनाथ का धमेख स्तूप प्रसिद्ध है। यह ईंटों का बना है। इसका आधार स्तूपों के समान वर्गाकार न होकर गोलाकार है। इसमें अन्य स्तूपों के समान चबूतरा नहीं है, बल्कि यह धरातल पर निर्मित है। नालन्दा का बौद्ध विहार पाँचवी सदी में बना है।
गुहा मंदिर
गुप्तकालीन गुहा मंदिरों को दो भागों में ब्राह्मण गुहा मंदिर और बौद्ध गुहा मंदिरों में बाँटा जा सकता है।
(1). ब्राह्मण गुहा मंदिर – इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण उदयगिरि का मंदिर है। इसमें विष्णु के वराह अवतार की विशाल मूर्ति उत्कीर्ण है। उदयगिरी गुहा मंदिर का निर्माण चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के सेनापति वीरसेन ने करवाया था।
(2). बौद्ध गुहा मंदिर – इसके प्रमुख उदाहरण अजन्ता तथा वाघ की गुफाएँ हैं। अजन्ता की गुफा संख्या 16,17 और 19 गुप्तकालीन मानी जाती है। इनमें मुख्यतः बौद्ध धर्म से सम्बन्धित चित्र हैं। बाघ की गुफाओं में भी बौद्ध धर्म से सम्बन्धित चित्रकारियाँ मिलती हैं।
मूर्तिकला
गुप्तकाल की उत्कृष्टता प्रारम्भिक यज्ञ और वृक्ष पूजा के लोक प्रचलित मतों के बीच समन्वय की स्पष्टता में निहित है। गुप्तकालीन मूर्तियों में कुषाणकाल की मूर्तियों की तरह नग्नता नहीं है। यहाँ की मूर्तियों में सुसज्जित प्रभामंडल बनाए गए जबकि, कुषाणकालीन मूर्तियों में प्रभामंडल सादा था। गुप्तकालीन मूर्तियों में देवगढ़ से प्राप्त विष्णु की प्रतिमा अत्यन्त सुन्दर है। इस अनन्तशायी मूर्ति में विष्णु को शेषनाग की शय्या पर दर्शाया गया है। काशी से प्राप्त कृष्ण की मूर्ति, जिसमें उन्हें गोवर्धन पर्वत को धारण किया हुआ दिखाया गया है, भी काफी सुंदर है।
गुप्तकालीन बुद्ध की मूर्तियों में सारनाथ में बैठे हुए बुद्ध की मूर्ति तथा मथुरा में खड़े हुए बुद्ध की मूर्ति अत्यन्त प्रसिद्ध है। भागलपुर के निकट सुल्तानगंज से 2 मीटर से भी ऊँची बुद्ध की एक खड़ी ताम्रमूर्ति पायी गई है, जो इस समय बरमिंघम संग्रहालय में सुरक्षित है। मनकुँवर के लेख के अनुसार बुद्धमित्र नामक भिक्षु ने बुद्ध मूर्ति स्थापित की थी। इसी तरह 476 ई. के सारनाथ लेख में अभयमित्र नामक भिक्षु द्वारा बुद्ध मूर्ति की स्थापना का उललेख है। इस युग की बुद्ध मूर्तियों के बाल घुँघराले हैं, उनके प्रभामंडल अलंकृत हैं तथा मुद्राओं में विविधता है।
चित्रकला
‘वात्स्यायन के कामसूत्र’ में चित्रकला की गणना 64 कलाओं में की गयी है। गुप्त चित्रकला के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण अजन्ता और बाघ की गुफाओं से प्राप्त हुए हैं।
अजन्ता की चित्रकला
अजन्ता की गुफाएँ महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में स्थित हैं। इसमें पहले 29 गुफाओं में चित्र बने थे, परन्तु अब केवल 7 गुफाओं (1,2,9,10,16,17 और 19) के चित्र अवशिष्ट हैं। इसमें 16,17 और 19 गुप्तकालीन हैं। अजन्ता की गुफाओं का निर्माण ई.पू. दूसरी शताब्दी से लेकर सातवीं शताब्दी ई. तक किया गया था। अजन्ता की खोज 1819 ई. में मद्रास रेजिमेन्ट के जॉन स्मिथ नामक यूरोपीय सैनिक ने की थी। अजन्ता में मुख्यतः ब्राह्मण और बौद्ध धर्म से सम्बन्धित चित्र हैं। बौद्ध धर्म के चित्र महायान शाखा से सम्बन्धित हैं।
(1) गुप्त कालीन मूर्तिकारों ने मोटे उत्तरीय वस्त्र का प्रदर्शन किया है।
(2) गुप्तकाल की शिल्पकला का जन्म विशेषतः मथुरा शैली द्वारा स्थापित प्रतिमानों पर आधारित था।
(3) वराह की वास्तविक आकृति में निर्मित मूर्ति एरण से प्राप्त हुई है, जिसका निर्माण ‘धन्यविष्णु’ ने किया था।
(4) इस समय की तीन बुद्ध मूर्तियाँ प्रसिद्ध हैं- मथुरा संग्रहालय की बुद्ध मूर्ति, बरमिंधम संग्रहालय की ताम्रमूर्ति और सारनाथ की प्रतिमा।
(5) यद्यपि गुप्त राजा अजन्ता चित्रकारियों के संरक्षक नहीं थे। इन गुफाओं में से कुछ 100 फीट गहरी हैं तथा घोडे के नाल के आकार में खदी हैं। 16वीं गुफा में बुद्ध के गृहत्याग का चित्रण हैं। निर्मोह भाव प्रदर्शन का अनुपम चित्रण है। 17वी गुफा में बुद्ध अपनी पत्नी से भिक्षा माँगते हैं और वह पुत्र राहुल को अर्पित करती है। इसी गुफा में जुलूस में शामिल सुन्दर वस्त्राभूषण युक्त स्त्री पुरुष प्रदर्शित हैं। अनेक पशुपक्षी भी चित्रित हैं।
(6) अजन्ता के चित्रों में तीन विषय है- (1) छतों, कोनों आदि को सजाने के लिए प्राकृतिक सौन्दर्य यथा वृक्ष, पुष्प, नदी झरने, पशु-पक्षी आदि तथा रिक्त स्थानों को भरने के लिए अप्सराओं, गंधर्वों तथा यज्ञों के चित्र। (2) बुद्ध और बोधिसत्व के चित्र (3) जातक ग्रंथों के वर्णात्मक दृश्य।
रंग – अजन्ता के चित्रों में लाल, हरा, नीला, सफेद, काला एवं भूरे रंग का प्रयोग हुआ है। यहाँ पीले एवं मिश्रित रंग नहीं प्राप्त होते हैं।
गुफाओं का वर्णन – अजन्ता की गुफा संख्या 9 और 10 सबसे पुराने (वाकाटक काल की) हैं जबकि गुफा संख्या 1 और 2 पुलकेशिन द्वितीय के समय की हैं। 16वीं गुफा के चित्रों में मरणासन्न राजकुमारी का चित्र अत्यनत सुन्दर है। 17वीं गुफा के चित्रों को चित्रशाला कहा गया है। ये अधिकतर बुद्ध के जन्म, जीवन, महाभिनिष्क्रमण तथा महापरिनिर्वाण की घटनाओं से सम्बन्धित हैं। इन चित्रों में माता और शिशु का चित्र सर्वोत्कृष्ट है।
एलोरा गुफा
बाघ की चित्रकला ग्वालियर के समीप धार जिले में बाघ नामक स्थान पर ये गुफाएँ बनायी गई थीं। इनकी खोज 1818 ई. में डेंजर फील्ड महोदय ने की। इन गुफाओं की संख्या 9 है। अजन्ता के चित्रों के विपरीत बाघ के चित्र मनुष्य के लौकिक जीवन से भी सम्बन्धित हैं। यहाँ का सबसे प्रसिद्ध चित्र संगीत और नृत्य का एक दृश्य है।
अन्य कलाएँ
इस काल की अन्य कलाओं में संगीत, नृत्य और अभिनय कला प्रमुख हैं। समुद्रगुप्त को संगीत का ज्ञाता माना जाता है। मालविकाग्निमित्र में गणदास को संगीत व नृत्य का उच्च कलाकार माना जाता था। नाट्यशालाओं के लिए प्रेक्षागृह तथा रंगशाला शब्द मिलते हैं।
साहित्य
गुप्तयुग में साहित्य की अभूतपूर्व प्रगति हुई। इस युग में अधिकांश अभिलेख व साहित्य संस्कृत भाषा में लिखे गये हैं तथा संस्कृत राजकीय व्यवहार की भाषा हो गयी। गुप्त सम्राट स्वयं संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे। पुराणों के वर्तमान स्वरूप की रचना इसी काल में हुई। अनेक स्मृतियों और सूत्रों पर भाष्य लिखे गए। अनेक पुराणों तथा रामायण एवं महाभारत को इसी समय अन्तिम रूप दिया गया। इस समय स्मृतियों जैसे-नारद, बृहस्पति, विष्णु, कात्यायन, पाराशर आदि की रचना हुई। गुप्तकाल श्रेष्ठ कवियों का काल था। कुछ कवियों के केवल अभिलेखीय प्रमाण मिले हैं। जिसमें हरिषेण, वत्सभट्टि तथा वीरसेन महत्वपूर्ण हैं। हरिषेण समुद्रगुप्त के समय सन्धिविग्रहिक, कुमारामात्य तथा महादण्डनायक था। उसकी प्रसिद्ध कृति प्रयाग स्तम्भ लेख है। यह गद्य-पद्य मिश्रित (चम्पू शैली में) है। वत्सभट्टि, कुमारगुप्त प्रथम का दरबारी कवि था। इसने मालव संवत् 529 ई. (472 ई.) में मन्दसौर प्रशस्ति की रचना की। वीरसेन शाब चन्द्रगुप्त द्वितीय का युद्ध सचिव था। उसकी रचना (उदयगिरि गुहालेख) है जिसमें उसे शब्द, अर्थ, न्याय, व्याकरण, राजनीति आदि का मर्मज्ञ, कवि एवं पाटलिपुत्र का निवासी कहा गया है। गुप्तकालीन साहित्यिक कवियों में सर्वश्रेष्ठ कवि कालिदास है। इन्हें ‘भारत का शेक्सपीयर‘ कहा जाता है। इनकी रचनाओं को नाटक, महाकाव्य और खण्डकाव्य में बाँटा जाता है। गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय के दरबार में नौ विद्वान रहते थे जिन्हें नवरत्न कहा जाता था, उनके नाम है- कालिदास, धन्वन्तरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, वेताल भट्ट, घटकर्पर, वराहमिहिर, वररुचि थे। इसके समय पाटलिपुत्र व उज्जयिनी शिक्षा के प्रमुख केन्द्र थे। चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय चीन यात्री फाह्यान भारत आया था। वह लगभग 6 वर्ष तक भारत रहा। चीन वापस लौटकर उसने अपना यात्रा वृतान्त ‘फो-काओ-की’ नाम से लिखा।
कालिदास की रचनाएँ :-
नाटक – गुप्तकालीन नाटक मुख्यतः प्रेम प्रधान एवं सुखान्त होते थे। इस समय के नाटकों की उल्लेखनीय बात यह है कि उच्च सामाजिक स्तर के पात्र संस्कृत बोलते हैं जबकि निम्न सामाजिक स्तर के पात्र तथा स्त्रियाँ प्राकृत भाषा का प्रयोग करती हैं। कालिदास के प्रमुख नाट्य ग्रंथ निम्नलिखित हैं-
(1). मालविकाग्निमित्रम् – यह कालिदास का प्रथम नाटक है जिसमें मालविका और अग्निमित्र की प्रणय कथा वर्णित है।
(2). विक्रमोर्वशीयम् – इसमें उर्वशी तथा पुरूरवा की प्रणय कथा है।
(3). अभिज्ञान शाकुन्तलम् – यह कालिदास का सर्वश्रेष्ठ नाटक है। इसमें दुष्यनत और शकुन्तला का मिलन है। इसकी कथा महाभारत से ली गई है। जिसका आंग्लभाषा में 1789 ई. में विलियम जोंस ने अनुवाद किया।
महाकाव्य
(1). रघुवंशम् – यह 19 सर्गों का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है जिसमें राम के पूर्वजों का वर्णन है।
(2). कुमारसम्भवम् – 17 सर्ग के इस नाटक में प्रकृति-चित्रण तथा कार्तिकेय जन्म की कथा वर्णित है।
गीतिकाव्य या खण्डकाव्य
(1). मेघदूतम् – इसमें विरही यक्ष एवं उसकी प्रिया का वियोग वर्णन चित्रित है।
(2).ऋतुसंहार – इसमें षड्ऋतु का वर्णन है।
अन्य लेखकों की रचनाएँ
मृच्छकटिकम् – यह गुप्तकाल का एक मात्र दुःखान्त नाटक है। इसके लेखक शुद्रक हैं। इसका नायक ब्राह्मण चारुदत्त है, जो सार्थवाह है और नायिका बसन्तसेना नामक गणिका है। इस नाटक में राजा, ब्राह्मण, जुआरी, व्यापारी, वेश्या, चोर, धूर्त, दास, घूसखोर आदि सभी सामाजिक वर्गों का वर्णन है।
मुद्राराक्षस – इसके लेखक विशाखादत हैं। इसमें चाय की योजनाओं का वर्णन है।
देवीचन्द्रगुप्तम् – विशाखदत्त द्वारा रचित इस नाटक में चन्द्रगुप्त द्वितीय, द्वारा शकराज एवं रामगुप्त के वध तथा धुत्रदेवी के साथ उसके विवाह का वर्णन है।
अमरकोश – यह संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान अमरसिंह की रचना है।
बन्द्रव्याकरण – यह चन्द्रगोमिन नामक बंगाली बौद्ध भिक्षु द्वारा लिखा गया ग्रंथ है। इसे महायान बौद्धों ने अपनाया।
कामसूत्र – इसके लेखक वात्स्यायन हैं। इसमें कामजीवन के समस्त पक्षों जैसे सामाजिक, वैयक्तिक, शारीरिक, मानसिक परिवारिक भोग आदि का वैज्ञानिक ढंग से विवेचन किया गया है।
पंचतंत्र – इसके लेखक विष्णु शर्मा हैं। इस ग्रंथ का अनुवाद 50 से अधिक भाषाओं में किया जा चुका है।
नीतिसार – इसके लेखक कामन्दक हैं।
बौद्ध ग्रंथ – गुप्त युग में बौद्ध दर्शन पर भी अनेक ग्रंथों की रचना हुई। असंग, महायान धर्म का प्रकाण्ड विद्वान था। उसने पोभूमि प्रकरणआर्यवाचा, महायानसूत्रालंकार पेटिकाका महायानसम्रग्रह और महायानभिधर्मसंगीतशास्त्र आदिग्रंथ लिखे।
वसुबंधु ने अभिधर्मकोश लिखा। इसमें बौद्ध धर्म के मौलिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। इसको समुद्रगु था। समुद्रगुप्त कवि, संगीतज्ञ और विद्या का संरक्षक संरक्षण दिया प्रमुख शासक कुमारगुप्त प्रथम के समय नालन्दा विश्वविद्यालय की स्थापना की गयी थी।
बुद्धघोष ने हीनयान धर्म पर प्रसिद्ध विद्धिमरण लिखा। जैन ग्रंथ इसमें आचार्य सिद्धसेन का ‘न्यायावर’ सबसे प्रसिद्ध है।
विज्ञान एवं तकनीक
गुप्तयुग में विज्ञान एवं तकनीक का समुचित विकास हुआ। इस काल के प्रमुख गणित ज्योतिष विद्या में भी निपुण थे। आ इन दोनों शाखाओं का समुचित विकास हुआ। इस समय के आर्यभट्ट वराहमिहिर, भास्कर प्रथम तथा बहागुप्त अत्यन्त प्रसिद्ध विद्वान है।
आर्यभट्ट – यह कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) के निवासी थे। इनका जन्म 499 ई. में हुआ था। इनका प्रसिद्ध पंग आर्यभट्टी है। इन्होंने ज्योतिष को गणित से अलग शास्त्र माना तथा दशमलव प्रणाली का विकास किया। सर्वप्रथम इन्होंने ही बताया कि पृथ्वी गोल है और अपनी धुरी पर घूमती है तथा इसकी छाया चन्द्रमा पर पड़ने के कारण ग्रहण पड़ता है। इस प्रकार सूर्यग्रहण एवं चन्द्रग्रहण पड़ने के वास्तविक कारणों पर प्रकाश डाला गया। पाई का मान 3.1416 बताया तथा सौर वर्ष की लम्बाई 365.3586805 दिन बताया। ये गुप्तकालीन सर्वश्रेष्ठ गतिणतज्ञ एवं ज्योतिषी थे। इन्होंने वृत्त, त्रिभुज, दशमल पद्धति एवं गणित के अनेक सूत्रों का प्रतिपादन किया।
भास्कर प्रथम (600 ई.) – आर्यभट्ट के सिद्धान्तों पर भास्कर प्रथम ने टीकाएँ लिखी तथा स्वतंत्र ग्रंथ भी लिखे। ये ब्रह्मगुप्त के समकालीन और प्रसिद्ध खगोलशास्त्री थे। इन्होंने तीन ग्रंथों की रचना की- महाभास्कर्य, लघुभास्कर्य और भाष्य।
ब्रह्मगुप्त (598 ई.)- इन्होंने ब्रह्म सिद्धान्त की रचना की तथा सर्वप्रथम यह बताया कि पृथ्वी सभी वस्तुओं को अपनी ओर आकर्षित करती है। इनका जन्म उज्जैन में हुआ था। इन्होंने न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त को न्यूटन से काफी पहले खोज लिया था।
वराहमिहिर (550 ई.) – ये भी गुप्त काल के प्रसिद्ध ज्योतिषी थे परन्तु ज्योतिषी के रूप में इतने अधिक प्रशंसनीय नहीं हैं जितने ज्योतिष के इतिहासकार के रूप में। इनकी प्रसिद्ध रचनाएँ पंचसिद्धांतिका, वृहत्संहिता, वृहज्जातक एवं लघुजातक हैं। पंच सिद्धान्तिका में वराह मिहिर ने ज्योतिष के पाँच सिद्धान्त पैतामह, वशिष्ठ, पोलिस, रोमक और सूर्य बताये हैं।
निःशक, पांडुरंगस्वामी और लाट गुप्त युग के प्रकाण्ड ज्योतिष विद्वान थे। लाट को सर्वसिद्धान्त गुरु कहा गया है।
चिकित्सा ग्रंथ
गुप्त काल में अनेक चिकित्सा ग्रंथ भी लिखे गये। 6वीं शताब्दी में वाग्भट्ट ने आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रंथ अष्टांगहृदय की रचना की। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के दरबार में आयुर्वेद का विद्वान और चिकित्सक धन्वतरि था जिसने निघण्टु नामक ग्रंथ की रचना की तथा घोड़ों के उपचार के लिए शालिहोत्र ऋषि ने अश्वशास्त्र नामक ग्रंथ लिखा। नवनीतकम् नामक आयुर्वेद ग्रंथ की रचना भी इसी काल में हुई। पालकाप्य नामक पशु चिकित्सक ने ‘हस्त्यायुर्वेद’ नामक ग्रंथ की रचना की जो हाथियों के रोगों व चिकित्सा से सम्बन्धित थी। भारतीय चिकित्सा-विषयक ज्ञान का प्रचार पश्चिम एशिया में हुआ और एक फारसी चिकत्सक भारतीय औषधिशास्त्र के अध्ययन के लिए छठी शताब्दी ई. में भारत आया।
रसायन विज्ञान में भी प्रगति हुई। बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन रसायन ओर धातुविज्ञान का विद्वान था। उसने यह प्रमाणित किया कि सोना, चाँदी, ताँबा आदि खनिज पदार्थों के रासायनिक प्रयोग से रोगों का निवारण हो सकता है। अणु सिद्धान्त का प्रतिपादन गुप्तयुग में हुआ। नागार्जुन धातु एवं रसायन विज्ञान का ज्ञात था। पारद का आविष्कार गुप्तयुग की देन है।
षड्दर्शन
भारत के प्रमुख षड्दर्शनों का अन्तिम रूप से संकलन गुप्तकाल में ही हुआ। इनका वर्णन निम्नलिखित है-
(1). सांख्यदर्शन – यह भारत का प्राचीनतम दर्शन है। इसके प्रणेता कपिलमुनि हैं। इस दर्शन के सिद्धान्तों का वर्णन ईश्वरकृष्ण की पुस्तक सांख्यकारिका में मिलता है। सांख्य की व्युत्पत्ति संख्या शब्द से हुई है। इस दर्शन के अनुसार जगत की उत्पत्ति प्रकृति और पुरुष से मिलकर होती है। सांख्य दर्शन जैन दर्शन से समानता रखता है।
(2). योग दर्शन – इसके प्रवर्तक महर्षि पतंजलि हैं। इनका ग्रंथ योग इस दर्शन का आधार ग्रंथ है। इस दर्शन के अनुसार मोक्ष ध्यान और शारीरिक साधना से मिलता है।
(3). न्याय दर्शन – इसके प्रवर्तक गौतम हैं। इसका विकास तर्कशास्त्र के रूप में हुआ है। न्याय का शाब्दिक अर्थ तर्क या निर्णय है। गौतम का प्रसिद्ध ग्रंथ न्यायसूत्र है।
(4). वैशेषिक दर्शन – कणाद, परमाणुवाद की स्थापना, जैन दर्शन के समान है। इसके प्रवर्तक महर्षि कणाद हैं। यह दर्शन भौतिक तत्वों के विवेचन का महत्व देता है। वैशेषिक दर्शन ने परमाणुवाद की स्थापना की। इसी दर्शन ने भारत में भौतिक शास्त्र का प्रारम्भ किया। यह दर्शन भी जैन दर्शन से साम्यता रखता है।
(5). मीमांसा – इसके प्रणेता जैमिनी हैं। मीमांसा का मूल अर्थ है- तर्क करने और अर्थ लगाने की कला। मीमांसा का मुख्य उद्देश्य वैदिक कर्मकाण्डों की उपयोगिता को सिद्ध करना है।
रसायन क्रियाओं से धातु पिघलाने, ढालने की तकनीक प्रचलित थी। विभिन्न धातुओं के मिश्रण की तकनीक से इस युग के वैज्ञानिक परिचित थे। गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय बना मेहरौली का लौह स्तम्भ इसका स्पष्ट प्रमाण है कि उस पर इस पर इतने वर्ष पूर्व की गई पॉलिस के कारण आज तक जंग नहीं लगा है, यह गुप्तकालीन उच्च तकनीक का ही उदाहरण है।
(6). वेदान्त – वेदान्त का अर्थ है वेद का अन्त। ईसा पूर्व दूसरी शदी में संकलित बादरायण व्यास का ब्रह्मसूत्र इस दर्शन का मूल ग्रंथ है। बाद में इस पर भाष्य लिखे गये, पहला शंकर द्वारा नौवीं सदी में और दूसरा रामानुज द्वारा बारहवीं सदी में। शंकर ब्रह्म को निर्गुण बताते हैं किन्तु रामानुज सगुण। कर्मवाद भी वेदान्त के साथ जुड़ गया। इसका अर्थ है कि मनुष्य को पूर्वजन्म में किए गए कर्मों का परिणाम भुगतना पड़ता है।
भारत के उपर्युक्त षड्दर्शन आस्तिकवादी माने जाते हैं। वेदों को मानने वाले को आस्तिक तथा न मानने वालों को नास्तिक कहा जाता है।
भौतिकवादी दर्शन
चार्वाक अथवा लोकायत यह प्रमुख भौतिकवादी दर्शन है। लोकायत का अर्थ है सामान्य लोगों से प्राप्त विचार। इसमें लोक अर्थात् दुनिया के साथ गहरे लगाव को महत्त्व दिया गया है और परलोक में अविश्वास व्यक्त किया गया है। यह दर्शन मोक्ष की कामना का विरोधी था। यह दर्शन किसी दैवी या अलौकिक शक्ति में विश्वास नहीं करता था। यह नास्तिक दर्शन की श्रेणी में आता है। चार्वाक के संस्थापक बृहस्पति माने जाते हैं।
आजीवक सम्प्रदाय – इस धर्म के उदय में नन्दवक्ष नामक भिक्षु का प्रधान हाथ था। वैसे मक्खलिगोशाल आजीवक सम्प्रदाय के प्रवर्तक और उन्नायक थे। वे बुद्ध एवं महावीर के समकालीन थे। सुमंगल-वासिनी नामक ग्रंथ से विदित होता है कि वे दास पुत्र थे। उनका नाम मक्खलिगोशाल इसलिये पड़ा कि उनके पिता गोशाला में नियुक्त किये गये थे और वहीं गोशाल का जन्म हुआ था। गोशाल ने आजीवक सम्प्रदाय की स्थापना की जिसका अर्थ था जीविका के लिए भिक्षु बनना। उनकी मृत्यु बुद्ध के एक वर्ष पहले 484 ई. पू. में लगभग हुई थी। आजीवक भाग्यवाद या नियतिवाद में विश्वास करते थे। वे नग्न रहा करते थे और एकान्त वास करते थे। आजीवक भिक्षुओं का जीवन कठोर आचार और नियम से बंधा हुआ था। वे जैन दिगम्बरों के समान निर्वस्त्र रहते थे। गोशाल का प्रमुख प्रचार केन्द्र श्रावस्ती था। उन्होंने सर्वप्रथम मागधी प्राकृत भाषा में उपदेश दिये। बुद्ध को आजीवक भिक्षुओं से घृणा थी। महावीर से भी उनका मतभेद था। ऐसा माना जाता है कि महावीर की मन्त्रशक्ति के कारण गोशाल की मृत्यु हो गयी।
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