मौर्यकाल में कला, संस्कृति व वास्तुकला

मौर्यकालीन कला, संस्कृति व वास्तुकला

            मौर्यकाल में शांति, सम्पन्नता, वैभव व एक केन्द्रीय शासन व्यवस्था व राजकीय संरक्षण ने कला को प्रोत्साहित किया। कला व वास्तुकला का प्रथम संगठित रूप सर्वप्रथम मौर्यकाल में ही दिखाई देता है। मौर्यकाल में ही सर्वप्रथम बड़े पैमाने पर कला के क्षेत्र में पाषाण (पत्थर) का प्रयोग प्रारम्भ हुआ। जिसके परिणामस्वरूप उसकी कलाकृतियाँ चिरस्थायी बनी। मौर्य सम्राट अशोक ने ही लकडी के स्थान पर पत्थर का भवन निर्माण हेतु प्रयोग कराया। मौर्ययुगीन कला को दो भागों में बाँट सकते हैं-

(1) राजकीय या दरबारी कला          (2) लोक कला

(1) राजकीय या दरबारी कला :-

          मौर्यकाल में नगर निर्माण एवं राजप्रसाद निर्माण के क्षेत्र में वास्तुकला का विकास हुआ। अशोक को नगर निर्माण कला में अत्यधिक रुचि थी। श्रीनगर (कश्मीर), ललित पाटन (नेपाल), अशोक द्वारा बसाये नगर थे। इन नगरों में सुसज्जित भवन, ऊँची चारदीवारी, बुर्ज, चारों ओर गहरी खाई होना उल्लेखनीय है। जैसे – राजप्रासाद, स्तम्भ, गुहाविहार, स्तूप आदि।

(2) लोककला :-

        इसके अंतर्गत स्वतंत्र कलाकारों द्वारा लोकरुचि की वस्तुओं का निर्माण किया जाता था। जैसे मिट्टी की मूर्तियाँ, यक्ष-यक्षिणी की मूर्तियाँ आदि।

(1) राजकीय कला –

      कौटिल्य कृत अर्थशास्त्र के अनुसार दुर्ग विधान में वास्तुकला के अंतर्गत नगर के चारों ओर गहरी खाई, ऊँचे चबूतरे पर बना राजप्रासाद, बुर्ज और द्वार आदि आते है। मैगस्थनीज ने अपने ग्रंथ ‘इण्डिका’ में पाटिलीपुत्र नगर और राजप्रसाद का वर्णन किया है। उसके अनुसार पाटलीपुत्र एक बहुत ही विशाल नगरी थी, जो गंगा व सोन नदियों के संगम पर स्थित थी। इसको लैटिन भाषा में पोलिब्रोथा कहा है। नगर के चारों ओर एक लकड़ी की चार दीवारी थी जिसमें बाण चलाने के लिए छिद्र बनाये गये थे। इस प्राचीर में 64 द्वार तथा 570 बुर्ज थे। चारों ओर 185 मीटर चौडी और लगभग 30 हाथ गहरी थी जो सुरक्षा एवं गंदे पानी की निकासी के काम आती थी। आधुनिक पटना शहर के निकट बुलन्दीबाग से परकोटे के अवशेष तथा कुम्रहार (पटना) से 80 स्तम्भों वाले विशाल राजभवन के अवशेष उपलब्ध हुए हैं। यह राजप्रसाद चौथी शताब्दी ई. में भी ज्यों का त्यों विद्यमान था क्योंकि चीनी यात्री फाह्यान ने इसकी अत्यन्त भावपूर्ण शब्दों में प्रशंसा की।

फाहियान के अनुसार – ‘इसे संसार के मनुष्य नहीं बना सकते अपितु यह देवताओं द्वारा बनाया गया लगता है।

एरियन के अनुसार – ‘इसमें भारत का महानतम नरेश निवास करता है। यह कारीगरी का एक आश्चर्यजनक नमूना है।’ ‘सूसा’ एवं ‘एकबतना’ से भी सुन्दर है।

 स्तम्भ –

           मौर्यकालीन कला के सर्वोत्कृष्ट नमूने अशोक द्वारा निर्मित एकाश्मक पत्थरों (एक ही पत्थर) से बने स्तम्भ हैं। जो कि उसने धम्मप्रचार व राजाज्ञाओं को आम जनता तक पहुँचाने हेतु देश के विभिन्न भागों में स्थापित किये थे। ये स्तम्भ लेख युक्त व लेख विहीन दोनों हैं। ये स्तम्भ मथुरा और चुनार की पहाडियों से लाकर लाल बलुए पत्थर से बनाये गये हैं। ये 35 से 50 फीट लम्बे हैं। इनका वजन लगभग 50 टन है। इन स्तम्भों पर चमकदार पालिश की गयी है। ये स्तम्भ अशोक की लाट के नाम से भी प्रसिद्ध है।

  • अशोक के स्तम्भ और ईरानी स्तम्भों में विभेद अथवा अंतर –

अशोक कालीन स्तम्भ

1. अशोक के स्तम्भ बिना आधार के भूमि पर टिकाये गये है।

2. अशोक के स्तम्भ नीचे से ऊपर की ओर क्रमशः पतले है।

3. अशोक के स्तम्भ एक ही पत्थर से निर्मित है।

4. अशोक के स्तम्भों के शीर्ष पर पशु आकृति है।

5. अशोक के स्तम्भ सपाट है।

6. अशोक के स्तम्भ स्वतंत्र रूप से स्थापित किये गये है।

ईरानी स्तम्भ

1. ईरानी स्तम्भ को चौकी पर टिकाया गया है।

2. ईरानी स्तम्भ ऊपर से नीचे तक एक समान है।

3. ईरानी स्तम्भों को कई टुकड़ों को जोड़कर बनाया गया है।

4. ईरानी स्तम्भों के शीर्ष पर मानव आकृति है।

5. ईरानी स्तम्भ गड़ारीदार है।

6. ईरानी स्तम्भों को विशाल भवनों में लगाया गया था।

           इतिहासकार वी.ए. स्मिथ ने  सारनाथ स्तम्भ की प्रशंसा करते हुए कहा है कि इस स्तम्भ में जिस प्रकार की कला का प्रदर्शन (पशुओं का चित्रण) है, विश्व में कहीं भी इतनी सुन्दर कला का प्रदर्शन नहीं है। सारनाथ में सिंहों के नीचे चार पशु दौड़ती हुई मुद्रा में दर्शाए गए हैं- हाथी, घोड़ा, बैल एवं सिंह तथा बीच में एक चक्र है। कुल चार पशु एवं चक्र चौकी को आवृत्त किये हैं। इस चक्र में मूलतः 32 तिलियाँ थीं। ये चारों पशु चार दिग्पाल प्रतीत होते हैं। इसी कला परम्परा को दीर्घनिकाय में चक्ररत्न कहा है। चौकी के ऊपर चार सिंह चार दिशाओं में मुख किये बैठे हैं जो सम्राट अशोक की शक्ति को इंगित करते हैं। भारत सरकार ने सारनाथ के स्तम्भ शीर्ष को राष्ट्रीय चिह्न स्वीकार किया है। साँची के स्तम्भ में भी चार सिंह पीठ सटाए हुए बैठे हैं लेकिन साँची के स्तम्भ में सिंहों के नीचे ‘हंस दाना चुगते हुए’ दर्शाये गये हैं।

स्तूप

         महात्मा बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद उनकी अस्थियों को आठ भागों में बाँटा गया तथा उन पर समाधियों का निर्माण किया गया, सामान्यतया इन्हें ही स्तूप कहा जाता है। स्तूप का शाब्दिक अर्थ है-‘किसी वस्तु का ढेर अथवा थूहा’ स्तूप का प्रारम्भिक उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। स्तूप का विकास सम्भवतया मिट्टी के ऐसे चबूतरे से हुआ जिसका निर्माण मृतक की चिता के ऊपर रखने अथवा मृतक की चुनी हुई अस्थियों को रखने के लिए किया जाता था।

स्तूपों को मुख्यतः चार भागों में बाँटा जा सकता है-

(1) शारीरिक स्तूप प्रधान स्तूप होते थे जिनमें बुद्ध के शरीर

(2) पारिभौगिक स्तूप- इसमें बुद्ध द्वारा उपयोग में लाई गयी विविध धातु, केश, दंत आदि को रखा जाता था। वस्तुओं जैसे भिक्षा पात्र, चीर, संघाटी, पादुका आदि को रखा जाता था।

(3) उद्देशिका स्तूप – ऐसे स्तूप होते थे जिनका संबंध बुद्ध के जीवन से जुड़ी घटनाओं की स्मृति से जुड़े स्थानों से था।

(4) पूजार्थक/संकल्पित स्तूप – ऐसे स्तूप होते थे जिनका निर्माण बुद्ध की श्रद्धा से वशीभूत धनवान व्यक्ति द्वारा तीर्थ स्थानों पर होता था।

स्तूप के विभिन्न हिस्से निम्न प्रकार होते थे –

(1) मेधि – वह चबूतरा जिस पर स्तूप का मुख्य हिस्सा आधारित होता था।

(2) अण्ड – स्तूप का अर्द्ध गोलाकार हिस्सा होता था।

(3) हर्मिका – स्तूप के शिखर पर अस्थि की रक्षा के लिए।

(4) छत्र – धार्मिक चिह्न का प्रतीक होता था।

(5) यष्टि – छत्र को सहारा देने के लिए होता था।

(6) वेदिका – इसका निर्माण स्तूप की सुरक्षा के लिए होता था।

(7) प्रदक्षिणापथ – स्तूप तथा वेदिका के मध्य परिक्रमा करने के लिए जो खाली स्थान होता था, उसे प्रदक्षिणा-पथ कहा जाता था। वेदिका के चारों दिशाओं में प्रवेश द्वार होते थे।

(8) सोपान – मेधि पर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ होती थी।

          बौद्ध परम्पराओं के अनुसार अशोक ने 84000 स्तूपों का निर्माण करवाया था। जैसे ‘भरहुत का स्तूप’ जो दूसरा सबसे प्राचीन स्तूप है, जिसकी खोज 1873 ई. में अलेक्जेंडर कनिंधम ने की थी। दूसरी शताब्दी ई. पूर्व में निर्मित यह स्तूप सतना – (म.प्र) में स्थित है। साँची – स्तूप; स्तूपों में सबसे विशाल और श्रेष्ठ है यह रायसेन जिले (म.प्र.) – में स्थित है। अमरावती स्तूप आंध्रप्रदेश के गुंटूर जिले में स्थित है इसे – दूसरी शताब्दी ई. पूर्व में बनवाया गया। मौर्यकालीन स्तूप मुख्यतः ईंटों के बने होते थे।

          नोट – सबसे प्राचीन स्तूप पिपरहवा है जो अशोक से भी प्राचीन है।  चैत्यगृह का भी बौद्ध उपासकों के लिए बड़ा महत्व था। बौद्ध धर्म में मूर्तिपूजा का विधान न होने से चैत्य गृह का निर्माण कर उनकी बुद्ध के प्रतीक के रूप में पूजा की जाती थी। चैत्य का अर्थ एक ‘पवित्र कक्ष’ होता था जिसके मध्य में एक छोटा स्तूप होता था जिसे दागोब के नाम से जाना जाता था जिसकी पूजा की जाती थी। लगभग 200 ई.पू. में निर्मित भाजा का चैत्य (महाराष्ट्र) सर्वाधिक प्राचीन माना गया है।

विहार –

             बौद्ध धर्म में विहार का निर्माण आवासीय उद्देश्य से किया जाता था। जहाँ बौद्ध संघ निवास करता था अर्थात् ये एक प्रकार के मठ थे। गुफाएँ – चट्टानों को काटकर गुफाएँ बनाने की कला का जन्म मौर्यकाल में हुआ। मौर्यकाल में अशोक ने पहाड़ों को काटकर बराबर की पहाडियों में आजीवकों के निवास हेतु चार गुफाओं का निर्माण करवाया जिनके नाम थे – कर्ण, चौपार, सुदामा और विश्वझौंपड़ी। इसी प्रकार अशोक के पौत्र दशरथ ने नागार्जुनी पहाड़ियों में तीन गुफाओं गोपी, वदधिक और वहियक का निर्माण साधुओं के लिए करवाया। इनकी दीवारों पर चमकीली पालिश की जाती थी। इस प्रकार साधुओं के लिए गुफा निर्माण की परम्परा हमें सर्वप्रथम मौर्यकाल में ही दिखाई देती है।

नोट – कर्ण, चौपार व सुदामा गुफा अशोक के 12वें व 19वें वर्ष में बनाई गई थी, अत्यन्त प्रसिद्ध है। ये सभी गुफाएँ गया (बिहार) के पास स्थित है। इनमें सुदामा गुफा सबसे प्राचीन है। गोपी गुफा एक सुरंग जैसी गुफा है। इसकी छत मेहराबदार है।

(2) लोक कला-

           मौर्यकालीन कलाकारों ने सामाजिक व धार्मिक जीवन से संबंधित लोक रुचि की वस्तुओं का भी निर्माण किया। पाषाण या मिट्टी से निर्मित ये कलाकृतियाँ आम जीवन की झाँकी प्रस्तुत करती हैं। इनकी चमकदार पालिश से इन्हें मौर्य युग का माना जाता है। इनमें यक्ष-यक्षिणी, गन्धर्व, पशु-पक्षी एवं देवमूर्तियाँ हैं। मूर्तियों की शैली लोक जीवन का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करती हैं, ये विशालकाय मूर्तियों खुले आकाश के नीचे स्थापित की जाती थीं। ये मूर्तियाँ विशिष्ट पालिश, मुख मुद्रा, वस्त्राभूषण, अंग-प्रत्यंग की सुडौलता एवं लालित्य से युक्त है।

1. विदिशा से प्राप्त यक्ष-प्रतिमा

2. मथुरा से प्राप्त यक्ष-प्रतिमा

3. बेसनगर (विदिशा) से प्राप्त यक्षी की प्रतिमा

4. मथुरा स्थित परखम ग्राम से प्राप्त यक्ष-प्रतिमा (मणिभद्र)

5. मथुरा स्थित बडोदा गाँव से प्राप्त यक्ष-प्रतिमा

6. ग्वालियर स्थित प‌द्मावती से प्राप्त यक्ष- प्रतिमा

7. वाणरासी स्थित राजघाट से प्राप्त यक्ष-प्रतिमा

8. पटना से प्राप्त दो यक्ष-प्रतिमाएँ

            मृणमूर्तियाँ भी मिली हैं जिनसे उस युग के वस्त्रों एवं आभूषणों की जानकारी मिलती है। पटना के बुलन्दीबाग से एक नर्तकी की मूर्ति तथा रथ का एक पहिया मिला हे, जिसमें 24 आरियाँ हैं। ये मूर्तियाँ विशालकाय होती थी तथा मांसपेशियों की बलिष्ठता व दृढ़ता उनमें जीवन्त रूप में व्यक्त हुई है। वस्तुतः ये सच्चे रूप में लोकधर्म का प्रतिनिधित्व करती हैं।

संस्कृत साहित्य एवं विज्ञान –

         मौर्य युग में ‘संस्कृत’ एवं ‘पालि’ भाषाएँ प्रचलन में थीं। संस्कृत साहित्य के सृजन की भाषा थी जबकि पालि जनसामान्य की भाषा थी। सम्राट अशोक ने पाली भाषा को राजकीय भाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया। मौर्यकाल को साहित्य सृजन का काल कहा जाता है। चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रधानमंत्री कौटिल्य जिसके अन्य नाम ‘विष्णुगुप्त’ और ‘चाणक्य’ हैं ने ‘अर्थशास्त्र’ नामक राजनीति विषय पर प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की। कौटिल्य को भारत का मैकियावली भी कहा जाता है। अर्थशास्त्र में कुल 15 अधिकरण, 180 प्रकरण तथा 6000 श्लोक है। यह पुस्तक अन्य ‘पुरुष शैली’ में लिखी गयी है। डॉ. शाम शास्त्री ने सर्वप्रथम 1905 ई. में इसे प्रकाशित करवाया। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में न तो किसी मौर्य शासक का वर्णन है और न ही मौर्यों की राजधानी पाटलिपुत्र (प्राचीन नाम कुसुमपुर)। का इसमें सैन्य प्रशासन एवं नगर प्रशासन का भी वर्णन नहीं मिलता है। अर्थशास्त्र गद्य व पद्म दोनों में लिखित है।

        कात्यायन पाणिनीय व्याकरण पर भाष्य इसी काल का है। पतंजलि के महाभाष्य द्वारा इस युग की साहित्यिक समृद्धि पर प्रकाश पड़ता है। महाभाष्य में वररुचि द्वारा लिखी ‘वररुचम काव्य’ का उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त भद्रबाहु का कल्पसूत्र, गृह्य एवं धर्मसूत्र आदि संस्कृत ग्रंथ भी मौर्य युग में लिखे गये। पाणिनी की अष्टाध्यायी पर वात्स्यायन के ‘वार्तिक’ भी इसी युग के माने जाते हैं। सुबन्धु नामक ब्राह्मण मंत्री (बिन्दुसारकालीन) ने ‘वासवदत्ता’ की रचना की। बौद्ध साहित्य सृजन हेतु मौर्यकाल महत्वपूर्ण है। बौद्ध त्रिपिटक साहित्य का संकलन, मोगलिपुत्ततिस्य का कथावत्थु आदि इसी काल की देन है। जैन साहित्य में आचारांगसूत्र, समवायांगसूत्र, भगवतीसूत्र, उपासकदशांग, प्रश्नव्याकरण जैसे ग्रंथ मौर्य युगीन के ही माने जाते हैं।

         नोट – मेगस्थनीज यूनानी सेल्यूकस का राजदूत था जो चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में 304 ई.पू. से 299 ई. पू. के बीच रहा। उसके ग्रंथ इण्डिका से चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रशासन की विश्वसनीय जानकारी प्राप्त होती है। यद्यपि यह ग्रंथ अपने मूल रूप में उपलब्ध नहीं है। डॉ. स्वानवेक ने सर्वप्रथम 1846 ई. में इसे संग्रहित करके प्रकाशित किया था। मैगस्थनीज ने इण्डिका में लिखा है कि भारत में दास प्रथा नहीं थी। तथा भारत में अकाल नहीं पड़ते थे। इसमें पाटलीपुत्र के प्रशासन का विशद् वर्णन मिलता है।

            मैगस्थनीज ने चन्द्रगुप्त का नाम ‘सैन्ड्रोकोट्टस’ के रूप में वर्णित किया है। इसके अनुसार शासक के चारों ओर सशस्त्र महिलाएँ अंगरक्षक के रूप में रहती थीं। मैगस्थनीज के अनुसार राजा भू राजस्व का 1/4 भाग लेता था जबकि कौटिल्य भू राजस्व की मात्रा 1/6 भाग बताता है। इसने उत्तरापथ का वर्णन किया है, जिसे ब्रिटिश गवर्नर जनरल ऑकलैण्ड ने जी.टी. रोड कहा है। उसने सोने की प्रसिद्ध खान का स्थान दर्दिस्तान (कश्मीर) बताया है।

मैगस्थनीज ने भारतीय समाज को सात वर्गों में बाँटा है- (1) दार्शनिक (2) किसान (3) पशुपालक (4) कारीगर (5) सैनिक (6) निरीक्षक (7) सभासद।

मौर्य साम्राज्य के विषय में जानकारी प्राप्त करने के प्रमुख स्त्रोत

(1) कौटिल्य का अर्थशास्त्र

(2) मैगस्थनीज की इण्डिका

(3) प्लिनी की नेचुरल हिस्ट्री (प्राकृतिक इतिहास)

(4) जस्टिन की कृति ‘सार संग्रह’

(5) रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख

(6) विशाखदत्त की मुद्राराक्षस

(7) बौद्ध एवं जैन ग्रंथ

(8) अशोक के अभिलेख

(१) क्षेमेन्द्रकृत वृहत्कथामंजरी

(10) सोमदेव कृत कथासरित्सागर आदि।

प्रमुख मौर्य शासक

  1. चन्द्रगुप्तमौर्य    प्रारम्भ में ब्राह्मण धर्मानुयायी  + (बाद में जैन धर्म उपासक)
  2. बिन्दुसार        (आजीवक धर्म उपासक)
  3. अशोक          (बौद्ध धर्म उपासक)
  4. कुणाल          (संभवतः बौद्ध)
  5. सम्प्रति          (जैन धर्म उपासक)
  6. दशरथ           (आजीवक धर्म उपासक)
  7. बृहद्रथ

विज्ञान

            भारत में शहरी तत्व प्रमुखतः मौर्य काल में प्रकट हुए थे। इस काल में कस्बों तथा नगरों का निर्माण नियोजन के आधार पर किया जाता था। नगरों तथा कस्बों की नींव भूभौतिक पर्यावरण, जल के प्राकृतिक स्त्रोत की उपलब्धता, यातायात के साधन को ध्यान में रखते हुए तथा सभी महत्वपूर्ण तत्वों जैसे युद्ध के दौरान सुरक्षा आदि को ध्यान में रखकर रखी जाती थी। इंजीनियर समय-समय पर वर्ग, घन, वृत तथा शासकीय आवश्यकताओं के अनुसार भवन निर्माण करते थे। इस युग में भूगोल, भू विज्ञान, ज्यामिति, धातुओं का ज्ञान तथा अन्य प्रौद्योगिकी के पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं।

           मौर्यकाल में आहत सिक्कों, उत्तरी काले रंग के बर्तनों, पक्की ईंट संरचनाओं, खपरैल, छल्लेदार कुओं तथा लौहे के औजारों का पर्याप्त विकास हुआ था। इस युग में वस्त्र निर्माण की तकनीक अत्यधिक समुन्नत थी जिसके कारण काशी, वंग, मालव, पुण्ड्र, कलिंग सूती वस्त्र के लिए, काशी तथा पुण्ड्र, रेशमी वस्त्र के लिए तथा वंग का मलमल विश्व विख्यात था। मौर्यकालीन नगरों की प्रसिद्धि तकनीकी, कला तथा शिल्प की उत्तमता के कारण हुई एवं इस प्रकार के 18 संघ अस्तित्व में आये। श्रेणी न्यायालय का प्रधान महाश्रेष्ठि कहलाता था।

           कौटिल्य का अर्थशास्त्र शासनकला पर अपूर्व ग्रंथ है। इस मौर्यकालीन ग्रंथ के मूल में संभवतया और बातें जोड़ दी गयी हैं, क्योंकि इसमें 300 ई.पू. के अर्थशास्त्र तथा प्रौद्योगिकी का हवाला है। यह भूमि और सागर, संचार, कृषि और सिंचाई, खनिज और खनन, पौधों और औषध यंत्रों पर ज्ञान का भण्डार है। युद्ध की कलाओं और वास्तुशिल्प के यंत्रों का उल्लेख है। यंत्रों को दो भागों में बाँटा गया है- (1) चल (2) अचल

          युद्ध में हाथियों की भूमिका, प्रक्षेपात्र, अग्निनभ, फेंक कर मारने के लिए गुलेल का प्रयोग, प्रयुक्त ज्वलनशील सामग्रियों की रचना विधि का स्पष्ट उल्लेख है। खेती की उन्नती के लिए सिंचाई की नहर प्रणाली और बड़े-बड़े कृत्रिम जलागार की चर्चा है जैसे- सौराष्ट्र की सुदर्शन झील।

मौर्य युग में बौद्ध धर्म के प्रचार के साथ-साथ अस्पतालों क प्रसार होने लगा। मौर्य सम्राट अशोक के द्वितीय शिलालेख से सामाजिक चिकित्सा का प्रारंभ प्रकट होता है।

(1) अंकन पद्धति (2) दाशमिक पद्धति तथा (3) शून्य का प्रयोग

गणित के क्षेत्र में प्राचीन भारतीयों ने तीन विशिष्ट योगदान दिए| भारतीय अंकन पद्धति को अरबों ने पश्चिमी दुनिया में फैलाया किन भारतीयों देशों में इस अंकमाला का प्रचार होने के सदियों पहले है भारत में इसका प्रयोग अशोक के अभिलेखों में पाया जाता है, जो ईसा पूर्व तीसरी सदी में लिखे गये।

मौर्य काल में भारतीयों को समुद्र यात्रा का ज्ञान था और उन्होंने जहाज बनाने की कला में भी योगदान दिया था। मौर्यों के पास एक समुन्नत नौ सेना थी जिसके अध्यक्ष को ‘नवाध्यक्ष’ कहा जाता था। साथ ही अशोक द्वारा धम्म प्रचार के लिए विभिन्न देशों में प्रचारक भेजने से भी समुद्र यात्रा की उन्नत दशा के पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं।

अशोक के अभिलेख

         अशोक का इतिहास मुख्यतः उसके अभिलेखों से ही ज्ञात होता है। अभी तक उसके 40 से अधिक अभिलेख प्राप्त हो चुके हैं। प्रसिद्ध इतिहासकार डी.आर. भण्डारकर महोदय ने केवल अभिलेखों के आधार पर ही अशोक का इतिहास लिखने का प्रयास किया है।

सर्वप्रथम 1837 ई. में जेम्स प्रिंसेप ने अशोक के दिल्ली-टोपरा अभिलेख को पढ़ने में सफलता पायी जबकि सबसे पहले 1750 में टीफैन्थलर महोदय द्वारा खोजा गया अभिलेख दिल्ली-मेरठ अभिलेख था। अशोक के अभिलेखों का विभाजन निम्नलिखित वर्गों में किया जा सकता है-

1. शिलालेख – इसे वृहशिलालेख एवं लघुशिलालेख दो वर्गों में बाँटा जाता है।

2. स्तम्भ लेख – इसका भी विभाजन दीर्घ स्तम्भ लेख एवं लघु स्तम्भ लेख में किया जाता है।

3. गुहालेख – ये गुफाओं में उत्कीर्ण लेख है।

इन सभी अभिलेखों की भाषा प्राकृत है जबकि ये ब्राह्मी, खरोष्ठी, अरेमाइक एवं यूनानी लिपियों में लिखे गये हैं। लघुशिलालेख, स्तम्भलेख (दीर्घ एवं लघु) एवं गुहालेखों की लिपियाँ केवल ब्राह्मी हैं। भारत के बाहर पाए गए कुछ शिलालेखों की लिपियाँ ही खरोष्ठी, अरमाइक एवं यूनानी है, उदाहरण-

1. शाहबाजगढ़ी (पेशावर जिला, पाकिस्तान) खरोष्ठी लिपि

2. मानसेहरा (हजारा जिला पाकिस्तान)- खरोष्ठी लिपि

3. तक्षशिला अभिलेख – अरेमाइक लिपि

4. शा ए कुना (कंधार) शिलालेख – यूनानी तथा अरेमाइक लिपि (द्विभाषिक लेख एवं द्विलिपि)

5. लघमान (काबुल) अभिलेख आरमेइक लिपि।

शिलालेख

        इसे दीर्घ शिलालेख एवं लघुशिलालेख दो वर्गों में बाँटा जाता है-

• दीर्घ शिलालेख

        वह 14 विभिन्न लेखों का एक समूह है जो 8 भिन्न-भिन्न स्थानों से प्राप्त हुए हैं। चौदह लेखों का उल्लेख मिलने के कारण इन्हें चतुर्दश शिलालेख भी कहा जाता है। इन शिलालेखों में प्रशासनिक एवं धम्म से सम्बन्धित अनेक बातों का उल्लेख है। ये निम्न स्थानों से प्राप्त हुए हैं-

(1) शाहबाजगढ़ी (पाकिस्तान के पेशावर जिले में स्थित)

(2) मानसेहरा (पाकिस्तान के हजारा जिले में स्थित)

(3) कालसी (उत्तराखण्ड के देहरादून जिले में स्थित)

(4) गिरनार (काठियावाड़ में जूनागढ़ के समीप स्थित गिरनार की पहाड़ी)

(5) धौली (उड़ीसा के पुरी जिले में स्थित एक गाँव)

(6) जौगढ़ (उड़ीसा के गंजाम जिले में स्थित)

(7) एर्रगुडि (आन्ध्रप्रदेश के कुर्नूल जिले में स्थित)

(8) सोपारा (महाराष्ट्र प्रान्त के थाना जिले में स्थित)

धौली तथा जौगढ़ के शिलालेखों पर 11वें, 12वें तथा 13वें शिलालेख उत्कीर्ण नहीं किये गये हैं। उनके स्थान पर दो अन्य लेख खुदे हुए हैं जिन्हें ‘पृथक कलिंग प्रज्ञापन’ कहा गया है।

अशोक के दीर्घ शिलालेखों पर कुल 1 से 14 लेख खुदे हुए हैं जो निम्नलिखित हैं –

(1)प्रथम शिलालेख – 1. जीव हत्या/पशुबलि का निषेध किया है। 2. सभी मनुष्य मेरी संतान हैं तथा 3. उत्सव (समाज) का निषेध वर्णित है।

(2) द्वितीय शिलालेख – अशोक द्वारा अपने विजित राज्य एवं प्रत्यन्त (सीमान्त) राज्यों-चोल, पाण्ड्य, सतियपुत्त, चेर (केरलपुत्र), ताम्रपर्णी प्रदेश (श्रीलंका) तथा अन्तियोक, यवनराज व अन्य पड़ोसी राज्यों में मनुष्य व पशु चिकित्सा का वर्णन मिलता है।

(3) तीसरा शिलालेख – प्रादेशिक, रज्जुक और युक्त द्वारा प्रति पाँचवे वर्ष राज्य का दौरा करने का उल्लेख है, जिससे वे प्रजा में धर्म की और अन्य कार्यों की शिक्षा दे सकें।

(4) चौथा शिलालेख – प्रजा में देव विमानों, दिव्य दृश्यों के प्रदर्शनों, जीवित प्राणियों के वध और हिंसा का त्याग, ब्राह्मणों और श्रमणों का आदर एवं माता-पिता की अज्ञापालन का उपदेश दिया है।

(5) पाँचवाँ शिलालेख – अशोक द्वारा राज्याभिषेक के 14वें वर्ष धम्ममहापात्र नामक अधिकारियों की नियुक्ति एवं कार्यों तथा मौयकालीन समाज एवं वर्णव्यवस्था का उल्लेख है।

(6) छठा शिलालेख – तीव्र गति से कार्य सम्पादन हेतु अशोक कहता है सब जगह प्रतिवेदक मुझे प्रजा के हाल से परिचित रखें। मैं प्रजा का कार्य सभी जगह करता हूँ।

7) सातवाँ शिलालेख – सभी सम्प्रदाय के लोग सब जगह निवास करें क्योंकि सभी संयम और चित्त की शुद्धि चाहते हैं।

( 8) आठवाँ शिलालेख – अशोक ने अपने अभिषेक के 10वें वर्ष में धम्मयात्रा का प्रारम्भ किया और सर्वप्रथम बोधगया की यात्रा की।

(9) नवाँ शिलालेख – इसमें धम्म रूपी मंगलाचार, दासों एवं सेवकों के प्रति शिष्ट व्यवहार, गुरुजनों का आदर, प्राणियों के प्रति संयमपूर्ण व्यवहार, ब्राह्मणों एवं श्रमणों को दान देना आदि शामिल है।

(10) दसवाँ शिलालेख – इसमें अशोक ने यश एवं कीर्ति के स्थान पर धम्म का पालन करने पर बल दिया है।

(11) ग्यारहवाँ शिलालेख वर्णन किया है। इसमें धम्म विजय की विशेषताओं का

(12) बारहवाँ शिलालेख इमसें धार्मिक सहिष्णुता की नीति का उल्लेख किया है।

(13) तेरहवाँ शिलालेख इसमें कलिंग युद्ध का वर्णन है।

पाँच सीमान्त यूनानी राजाओं के नाम जहाँ अशोक ने अपने धर्म प्रचारक भेजे थे-

(i) अन्तियोक (सीरियाई नरेश)

(ii) तुरमय (मिश्र का टॉलमी द्वितीय फिलाडेल्फस)

(iii) अंतेकिन (मेसीडोनिया का एण्टिगोनस गोनेट्स)

(iv) मग (एपिरस का अलेक्जेण्डर)

(v) अलिकसुन्दर (सीरीन का मैगास)

आटविक राज्यों- कम्बोजों, नाभकों, भोजों, नामपंक्तियों, पितनिकों, आंध्रों और पारिदों का उल्लेख मिलता है।

(14) प्रथम पृथक लेख

          इसमें निष्पक्षता से न्याय करने को कहा तक्षशिला में तीन-तीन वर्ष बाद महामात्य गया है उज्जैन तथा दौरे पर जाने का उल्लेख है।

(15) द्वितीय पृथक लेख इसमें सीमान्त अविजित जातियों को अशोक से नहीं डरने की बात कही है।

• लघु शिलालेख –

         अशोक का व्यक्तिगत शिलालेख है। यह शिलालेख 14 शिलालेखों के मुख्य वर्ग में सम्मिलित नहीं हैं। इस कारण इन्हें लघु शिलालेख कहा गया है। लघु शिलालेख के व्यक्तिगत जीवन की जानकारी मिलती है। लघु शिलालेख निम्नलिखित स्थानों से प्राप्त हुए हैं-

(1) रूपनाथ (मध्यप्रदेश के जबलपुर जिले में)

(2) गुजर्रा (मध्यप्रदेश के दतिया जिले में)

(3) सहसाराम (बिहार के शाहाबाद जिले में)

(4) भाबू या बैराठ (राजस्थान के जयपुर जिले में)

(5) मास्की (कर्नाटक के रायचूर जिले में)

(6) ब्रह्मगिरि (कर्नाटक के चित्तलदुर्ग जिले में)

(7) सिद्धपुर (कर्नाटक में)

(8) जटिंगरामेश्वर (कर्नाटक में)

(9) एर्रगुडि (आन्ध्र के कर्नूल जिले में)

(10) गोविमठ (कर्नाटक के कोपबल नामक स्थान से)

(11) पालकिगुण्डु (कर्नाटक)

(12) अहरौरा (उत्तरप्रदेश के मिर्जापुर जिले में)

(14) सारोमारो (शहडौल, मध्यप्रदेश)

(15) नेटूर (मैसूर कर्नाटक)

(16) उदे गोलम (बेल्लारी, कर्नाटक)

(17) पनगुडरिया (सिहोर, मध्यप्रदेश)

(18) सन्नाती (गुलबर्गा, कर्नाटक)

अशोक के लघुशिलेखों में कुछ प्रमुख वर्णन निम्नलिखित हैं- मास्की अभिलेख इसमें अशोक ने अपने को ‘बुद्ध शाक्य’ कहा है। इसी अभिलेख में उसका अशोक नाम भी मिलता है।

भाबू या बैराठ अभिलेख इसमें अशोक का नाम प्रियदर्शी मिलता है तथा इस अभिलेख में बौद्ध धर्म के त्रिरत्न बुद्ध, धम्म तथा संघ का उल्लेख है।

नेटूर एवं उदैगोलम् – इनमें अशोक का नाम मिलता है।

गुजर्रा – इसमें भी अशोक का नाम लिता है।

एर्रगुडि – इस अभिलेख के लिखने की शैली अन्य अभिलेखों के विपरीत बाएँ से दाएँ एवं दाएँ से बाएँ (बूस्ट्रोफेडन) हैं।

स्तम्भ लेख

          इसमें मुख्य रूप से धम्म एवं प्रशासनिक बातों का उल्लेख है। इसे भी दो वर्गों बृहद एवं लघु स्तम्भ लेखों में बाँटा जाता है।

वृहदस्तम्भ लेख – इन लेखों की संख्या 7 है, जो 6 भिन्न- भिन्न स्थानों में पाषाण स्तम्भों पर उत्कीर्ण पाए गए हैं।

(1) दिल्ली मेरठ – यह पहले मेरठ में था तथा बाद में फिरोज तुगलक द्वारा दिल्ली में लाया गया। इस स्तम्भ लेख की खोज सर्वप्रथम 1750 ई. में टीफैनथेलर ने की।

(2) दिल्ली-टोपरा – यह अभिलेख प्रारम्भ में हरियाणा के अम्बाला जिले में टोपरा नामक गाँव में था। फिरोज तुगलक द्वारा यह दिल्ली लाया गया। यह एक मात्र ऐसा स्तम्भ लेख है जिस पर अशोक के सातों स्तम्भलेख उत्कीर्ण हैं, जबकि शेष स्तम्भों पर केवल 6 लेख ही उत्कीर्ण मिलते हैं। यह अशोक का अन्तिम अभिलेख है।

(3) लौरिया-अरराज बिहार के चम्पारन जिले में स्थित ।

(4) लौरिया-नन्दनगढ़ बिहार के चम्पारन जिले में स्थित।

(5) रामपुरवा बिहार के चम्पारन जिले में स्थित।

(6) प्रयाग यह पहले कौशम्बी में था। अकबर के शासनकाल में जहाँगीर द्वारा इलाहाबाद के किले में रखा गया।

वृहद् स्तम्भ लेखों के ऊपर खुदे सातों लेख निम्नलिखित हैं-

प्रथम लेख – अशोक कहता है कि यह धम्म लेख मैंने राज्यभिषेक के 26 वर्ष बाद लिखवाया है। इसमें उसने कहा है कि मेरे सभी कर्मचारी धम्म का पालन करते हैं और व्यक्तियों के मन को जीत लेते हैं। धम्म के अनुसार शासन करना, धम्म के अनुसार प्रजा को सुख देना और धर्म के साथ साम्राज्य की रक्षा करना मेरा सिद्धान्त है।

द्वितीय लेख – सत्यता, पवित्रता, मृदुता और साधुता। इसमें धम्म क्या है ? इसके बारे में बताया गया है। स्वयं अशोक प्रश्न करता है ‘कियं च धम्मे” स्वयं इसका उत्तर देता है’ अपासिनावे, बहकयाने, दया, दाने, सचे, सोचए, मादवे, सा च ।’ अर्थात पाप से दूर रहना, अत्यधिक कल्याण करना, दया दान करना |इसी लेख में ब्राह्मणों, श्रमणों और भृत्यों के प्रति उचित व्यवहा का भी उल्लेख है।

तृतीय लेख – इसमें अशोक ने मन, वचन, कर्म और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने को कहा है। इसे अशोक अपने अभिलेख में निज्झति प्राप्मात्मपरीक्षण) कहता है। इसी स्तम्भ में उसने बताया है कि पा क्या है? चण्डता, निष्ठठुरता, क्रोध, अहंकार, ईर्ष्या आदि।

चतुर्थ लेख –  इसमें अशोक कहता है कि मेरे रज्जूक लाखों व्यकि चतुर्थ लेख नियुक्त हैं। न्याय और दण्ड के अधिकार में मैंने उन्हें पो स्वतंत्रता दी है जिससे वे निश्चय एवं निर्भयता से अपने कर्तव्य का पालन कर सकें। इसी में अशोक ने यह कहा है कि आज से यह आज्ञा है कि जिन लोगों को मौत की सजा दी गयी है। उन्हें तीन दिन की मोहलत दी जाए।

पाँचवाँ लेख – इसमें अशोक कहता है कि मैंने अपने राज्याभिषेक के 26 वर्ष बाद विभिन्न प्रकार के प्राणियों का वध करना वर्जित कर दिया है।

छठाँ लेख – इसमें अशोक कहता है कि मैं सब सम्प्रदायों का अनेक – प्रकार से सत्कार करता हूँ और स्वयं उनसे भेंट करना सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण मानता हूँ।

सातवाँ लेख – यह केवल दिल्ली-टोपरा अभिलेख में मिलता है। इसमें अशोक ने धम्म की वृद्धि हेतु किए गए कार्य का उल्लेख किया है। इसी में अशोक के लोक कल्याण कार्यों का भी वर्णन मिलता है, जैसे – आम के बाग लगवाना, कुएँ खुदवाना, सराय बनवाना आदि।

लघु स्तम्भ लेख – लघु स्तम्भ लेखों पर अशोक की राजघोषणाएँ खुदी हैं। ये निम्नलिखित स्थानों से मिलते है-

1.साँची लघु स्तम्भ – लेख यह मध्यप्रदेश के रायसीन जिले में स्थित है। इस लघु स्तम्भ लेख में अशोक अपने महामात्रों को संघ भेद रोकने का आदेश देता है।

2. सारनाथ लघु स्तम्भ लेख – यह उत्तरप्रदेश के वाराणसी जनपद में स्थित है। इस स्तम्भ लेख में भी अशोक अपने महामात्रओं को संध भेद रोकने का आदेश देता है।

3.कौशम्बी स्तम्भ लेख  – यह इलाहाबाद के समीप स्थित है। कौशम्बी तथा प्रयाग के स्तम्भों में अशोक की रानी कारूवाको द्वारा दान दिए जाने का उल्लेख है। इसी में उसके एक मात्र पुत्र (अभिलेखों में) तीवर का उल्लेख है। इसे “रानी का अभिलेख” भी कहा जाता है।

4.रूम्मिनदेई स्तम्भ लेख – यह नेपाल की तराई में स्थित है। इस अभिलेख से पता चलता है कि अशोक अपने राज्याभिषेक के 20वें वर्ष यहाँ आया और उसने यहाँ धार्मिक कर ‘बलि’ को माफ कर दिया तथा भूमिकर घटाकर 1/8 भाग कर दिया। अतः इसे “आर्थिक अभिलेख” भी कहा जा सकता है। यह अभिलेख अशोक का सबसे छोटा अभिलेख माना जाता है।

5.निग्लीवा या निगालि सागर स्तम्भ लेख – यह नेपाल की तराई में स्थित है। इस अभिलेख से पता चलता है कि अशोक अपने राज्याभिषेक के 12वें वर्ष निगालि सागर आया तथा यहाँ कनकमुनि के स्तूप का संवर्द्धन किया।

गुहा लेख

      अशोक ने बिहार के बाराबर की पहाडी में अपने राज्याभिषेक के 12वें और 19वें वर्ष क्रमशः दो गुफाओं सुदामा गुफा और कर्ण चौपर गुफा आजीवक सम्प्रदाय को दान में दिया। बाराबर पहाड़ी का आधुनिक नाम खल्वितक पर्वत है। अशोक ने अपने राज्याभिषेक के 12 वें वर्ष एक अन्य गुफा विश्वझोपड़ी गुफा का भी निर्माण करवाया।

अशोक के पौत्र दशरथ ने नागार्जुनी पहाड़ी में आजीवक सम्प्रदाय के लिए तीन गुफाएँ गोपी, लोमश ऋषि गुफा एवं वडथिका गुफा का निर्माण करवाया। इन गुहा लेखों की भाषा प्राकृत एवं लिपि ब्राह्मी है।

मौर्यकालीन अन्य अभिलेख

(1) पानगोरारिया गुहालेख – यह गुहालेख मध्यप्रदेश के सिहोर जिले से प्राप्त हुआ है। इसमें अशोक को महाराजकुमार कहा गया है।

(2) लम्पक अभिलेख – आधुनिक लघमान (काबुल) से यह अभिलेख प्राप्त हुआ। यह सीरियाई भाषा में लिखा गया।

(3) महास्थान अभिलेख – यह पश्चिम बंगाल के बोगरा जिले में प्राप्त हुआ है। मौर्य काल में महास्थान क्षेत्र ‘पुण्ड्रनगर’ क्षेत्र कहलाता था। इस अभिलेख में इस क्षेत्र में महामात्यों द्वारा अकाल के समय लोगों की सहायता करने का उल्लेख है।

(4) सोहगोरा ताम्रपत्र लेख – यह गोरखपुर जिले में है। प्राप्त अभिलेखों में यह प्रथम ताम्र अभिलेख है। इसमें भी अकाल के समय राज्य द्वारा अनाज वितरण की व्यवस्था का वर्णन है।


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