राजस्थान की चित्रकला शैलियाँ

राजस्थान की चित्रकला शैलियाँ

  • राजस्थानी चित्रकला शैली का प्रारंभ 15 वीं से 16 वी शताब्दी के मध्य माना जाता है।
  • राजस्थानी चित्रकला में चटकीले भड़कीले रंगों का प्रयोग किया गया है । विशेषतः पीले व लाल रंग का सर्वाधिक प्रयोग हुआ है। 
  • राजस्थान की चित्रकला शैली में अजंता व मुग़ल शैली का सम्मिलित मिश्रण पाया जाता है।
  • मुगल प्रभाव के फलस्वरूप राजस्थानी चित्रकला में व्यक्ति चित्र बनाने की परम्परा शुरू हुई, जिन्हें सबीह कहा गया। इस प्रकार के चित्र जयपुर शैली में सबसे अधिक बनाये गये है । 
  • राजस्थान की चित्रकला शैली पर गुजरात तथा कश्मीर की शैलियों का प्रभाव रहा है।
  • राजस्थानी चित्र शैली विशुद्ध रूप से भारतीय है ऐसा मत विलियम लारेन्स ने प्रकट किया।
  • राजस्थानी चित्रकला शैलियों की मूल शैली सनवाड़ शैली है। 
  • सर्वप्रथम आनन्द कुमार स्वामी ने सन 1916 ई. में अपनी पुस्तक राजपुताना पेन्टिग्स में राजस्थानी चित्रकला का वैज्ञानिक वर्गीकरण प्रस्तुत किया। 
  • राजस्थान में प्राचीनतम चित्रण के अवशेष कोटा के आसपास चंबल नदी के किनारे की चट्टानों पर मुकन्दरा एवं दर्रा की पहाड़ियों, आलनियां नदी के किनार की चट्टानों आदि स्थानों पर मिले हैं। 
  • राजस्थान में उपलब्ध सर्वाधिक प्राचिनतम चित्रित ग्रंथ जैसलमेर भंडार में 1060 ई. के ‘ओध निर्युक्ति वृत्ति’ एवं ‘ दस वैकालिका सूत्र चूर्णी’ मिले हैं। इन चित्रों को भारतीय कला का दीपस्तंभ माना जाता है।
  • राजस्थान की चित्रकला में पट चित्र बनाये गये। इस प्रकार के चित्र अधिकतर कृष्ण-भक्ति से सम्बंधित है।
  • यहाँ के चित्र प्राकृतिक अलंकरणों से सुसज्जित है।
  • राजस्थानी चित्र कला को राजपूत चित्रकला शैली भी कहा जाता है।

राजस्थानी चित्रकला के विषय


  1. पशु-पक्षियों का चित्रण
  2. शिकारी दृश्य
  3. दरबार के दृश्य 
  4.  नारी सौन्दर्य
  5. धार्मिक ग्रन्थों का चित्रण आदि

भित्ति चित्र व भूमि चित्र


✍️ आकारद चित्र

      भरतपुर जिले के दर, कोटा जिले के दर्रा व आलणियाँ, जयपुर जिले के बैराठ आदि स्थानों के शैलाश्रयों में आदि मानव द्वारा उकेरे गये रेखांकित चित्र मिले है।

✍️ भराड़ी

     भील युवती के विवाह पर घर की भीत यानी दीवार पर भराड़ी का बड़ा ही आकर्षक और मांगलिक चित्र बनाया जाता है। भराड़ी भीलों की लोक देवी है जो गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर रहे लाडा-लाड़ी (वर-वधू) के जीवन को सब प्रकार से भरा पूरा रखती है।

✍️ सांझी

       लोक चित्रकला में गोबर से बनाया गया पूजा स्थल, चबूतरे अथवा आँगन पर बनाने की परम्परा। संझपा कोट, सांझी का एक रूप है।

✍️ मांडणा

      मांडणा कबशाब्दिक अर्थ / उद्देश्य अलंकृत करना होता है। यह अर्मूत व ज्यामितीय शैली का अपूर्व मिश्रण होता है, स्त्री के हृदय में छिपी भावनाओं, आकांक्षाओं व भय को भी दर्शाता है।


कागज पर निर्मित चित्र


✍️ पाने

        कागज पर बने विभिन्न देवी-देवताओं के चित्र जो शुभ, समृद्ध व प्रसन्नता के घोतक है। श्रीनाथ जी के पाने सर्वाधिक कलात्मक होते है जिन पर 24 श्रृंगारों का चित्रण पाया जाता है।


लकड़ी पर निर्मित चित्र


✍️ कावड़ 

       मंदिरनुमा लाल रंग की काष्ठाकृति होती है जिसमे कई द्वार होते है, सभी कपाटो पर राम, सीता, लक्ष्मण, विष्णुजी व पौराणिक कथाओं के चित्र अंकित रहते है, कथावाचक के साथ-साथ ये कपाट भी खुल जाते है। चारण जाति के लोगो द्वारा बनाया जाता है। 

✍️ खिलौनें

      चित्तोडगढ़ का बस्सी नामक स्थान कलात्मक वस्तुओं (खिलौनों) के लिये प्रसिद्ध है। इसके अलावा खिलौनों के लिए उदयपुर भी प्रसिद्ध है।


मानव शरीर पर निर्मित चित्र


✍️ गोदना (टेटू )

       निम्न जाति के स्त्री-पुरुषों में प्रचलित, इनमें सुई, बबूल के कांटे या किसी तेज औजार से चमड़ी को खोदकर उसमें काला रंग भरकर पक्का निशान बनाया जाता है। गोदना सौन्दर्य का प्रतीक है।

✍️ मेहन्दी

       मेहन्दी का हरा रंग कुशलता व समृद्धि का तथा लाल रंग प्रेम का प्रतीक है। मेहन्दी से हथेली का अलंकरण बनाया जाता है।

✍️ महावर (मेहन्दी )

      राजस्थान की मांगलिक लोक कला है जो सौभाग्य या सुहाग का चिन्ह मानी जाती है। सोजत (पाली) की मेहन्दी विश्व प्रसिद्ध है।


कपड़े पर निर्मित चित्र


✍️ वातिक

      कपड़े पर मोम की परत चढ़ाकर चित्र बनाना।

✍️ पिछवाई

      मंदिरों में श्रीकृष्ण की प्रतिमा के पीछे दिवार को कपड़े से ढ़ककर उस पर सुन्दर चित्रकारी करना। यह वल्लभ सम्प्रदाय के मंदिरों में विशेष रूप से प्रचलित है। 


राजस्थानी चित्रकला की विभिन्न पद्धतियाँ


👉 जलरंग पद्धति

      इसमें मुख्यतः कागज का प्रयोग होता है। इस चित्रण में सेबल की तुलिका श्रेष्ठ मानी जाती है।

👉 वाश पद्धति

     इस पद्धति में केवल पारदर्शक रंगों का प्रयोग किया जाता है। इस पद्धति में चित्रतल में आवश्यकतानुसार रंग लगाने के बाद पानी की वाश लगाई जाती है।

👉 पेस्टल पद्धति

       पेस्टल सर्वशुद्ध और साधारण चित्रण माध्यम है। इसमें रंग बहुत समय तक खराब नहीं होती।

👉 टेम्परा पद्धति

         गाढ़े अपारदर्शक रंगों के प्रयोग को टेम्परा जाता है। इसमें माध्यम के रूप में किसी पायस का उपयोग किया जाता है। पायस जलीय तरल में तेलीय अथवा मोम पदार्थ का मिश्रण होता है।

👉 तैलरंग विधि

      तेल चित्रण के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की भूमिका का प्रयोग किया जाता है। जैसे- कैनवास काष्ठ फलक, मौनोसाईट/ हार्ड बोर्ड, गैसों, भित्ति इत्यादि ।


राजस्थान की चित्र शैलियां


✍️ भौगौलिक आधार पर राजस्थानी चित्रकला शैली को चार भागों में बांटा गया है। जिन्हें स्कूल कहा जाता है।

1. मेवाड़ स्कूल     – उदयपुर शैली, नाथद्वारा शैली, चावण्ड शैली, देवगढ़ शैली, शाहपुरा शैली।

2. मारवाड़ स्कूल  – जोधपुर शैली, बीकानेर शैली, जैसलमेर शैली, नागौर शैली, किशनगढ़ शैली।

3. ढुढाड़ स्कूल     – जयपुर शैली, आमेर शैली, उनियारा शैली, शेखावटी शैली, अलवर शैली।

4. हाडौती स्कूल  – कोटा शैली, बुंदी शैली, झालावाड़ शैली। 

✍️शैलियों की पृष्ठभूमि का रंग

  • हरा                –       जयपुर की अलवर शैली 
  • गुलाबी / श्वेत    –       किशनगढ शैली
  • नीला              –       कोटा शैली
  • सुनहरी            –      बूंदी शैली
  • पीला              –       जोधपुर व बीकानेर शैली
  • लाल               –      मेवाड़ शैली

✍️ पशु तथा पक्षी

  • हाथी व चकोर        –       मेवाड़ शैली
  • चील/कौआ व ऊंट   –       जोधपुर तथा बीकानेर शैली
  • हिरण/शेर व बत्तख  –       कोटा तथा बूंदी शैली  
  • अश्व व मोर            –      जयपुर व अलवर शैली 
  • गाय व मोर            –      नाथद्वारा शैली

✍️ वृक्ष

  • पीपल / बरगद         –        जयपुर तथा अलवर शैली
  • खजूर                    –        कोटा तथा बूंदी शैली
  • आम                     –        जोधपुर तथा बीकानेर शैली
  • कदम्ब                   –        मेवाड़ शैली
  • केला                     –        नाथद्वारा शैली

✍️ नयन / आंखे

  • खंजर समान         –       बीकानेर शैली
  • मृग समान            –       मेवाड शैली 
  • आम्रपर्ण              –       कोटा व बूंदी शैली
  • मीन कृतः             –       जयपुर व अलवर शैली
  • कमान जैसी          –       किशनगढ़ शैली 
  • बादाम जैसी          –       जोधपुर शैली

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