कार्ल रिटर का भूगोल में योगदान

कार्ल रिटर का भूगोल में योगदान

विषय-सूची

✍️ कार्ल रिटर का जीवन परिचय

       कार्ल रिटर ने भूगोल को आधुनिक स्वरूप प्रदान किया। कार्ल रिटर का जन्म 1779 में प्रशिया शिक्षा केन्द्र श्नेपफेन्थल के निकट मेग्डेलबर्ग में हुआ। अलेक्जेन्डर-वान-हम्बोल्ट के समकालीन विद्वानों में से एक तथा विविध रुचि रखने वाला विद्वान कार्ल रिटर को भी आधुनिक भूगोल का संस्थापक माना जाता है। रिटर ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा सन् 1785 में श्नेपफेन्थल में शुरू की। यहाँ की शिक्षा रूसो एवं पेस्टोलोजी विचारधाराओं पर आधारित थी जिसका प्रमुख उद्देश्य प्रकृति के प्रति रुचि पैदा करना था। इस व्यवस्था में चारों ओर के क्षेत्रों का भ्रमण कराकर क्षेत्रीय सम्बन्धों को विशेष महत्त्व दिया जाता था, जो एक भूगोलवेत्ता के रूप में बहुत महत्त्वपूर्ण थी। इसके उपरान्त रिटर ने 17 वर्ष की आयु में हैले विश्वविद्यालय में प्रवेश लेकर गणित, दर्शनशास्त्र, इतिहास तथा प्रकृति विज्ञान आदि का अध्ययन किया।

✍️ कार्ल रिटर की यात्रायें तथा अध्यापन कार्य 

         रिटर ने हैले विश्वविद्यालय में 2 वर्ष तक शिक्षा प्राप्त करके 1798 में फ्रैंकफर्ट नगर के हालवेग परिवार में व्यक्तिगत (प्राइवेट) अध्यापक बनकर बच्चों को शिक्षा देना प्रारम्भ किया जहाँ वह सन् 1818 तक रहा था। इस 20 साल की अवधि में उसने यूरोपीय देशों की यात्रायें कीं। सन् 1804 में यूरोप पर एक “भौगोलिक ऐतिहासिक तथा सांख्यिकीय चित्रण’ नामक पुस्तक प्रकाशित की।

       रिटर अपनी कक्षाओं के व्याख्यानों में दृढ़तापूर्वक यह कहा करता था कि भूगोल स्थानों, नदियों, पर्वतों, यात्रा मार्गों का शुष्क शब्दकोश मात्र नहीं है वरन् यह एक ऐसा महत्त्वपूर्ण विषय है जो मानव और प्रकृति के अन्तर्सम्बन्धों की व्याख्या करता है। उसने ‘अनेकता में एकता’ की अवधारणा विकसित की। रिटर मुख्य रूप से मानव भूगोल से सम्बन्धित रहा था। उसका विश्वास था, कि पृथ्वी और उसके निवासी एक-दूसरे के साथ निकटता का सम्बन्ध रखते हैं और एक को दूसरे के बिना सही रूप में प्रदर्शित नहीं किया जा सकता। अतः इतिहास व भूगोल हमेशा अवियोज्य हैं। भूमि वहाँ के निवासियों को और निवासी भूमि को प्रभावित करते हैं।

      कार्ल रिटर ने भूगोल को ‘अर्डकुण्डे’ अथवा भूविज्ञान घोषित किया था, जिसमें स्थानीय दशाओं, सामयिक और औपचारिक व भौतिक विषमताओं के सन्दर्भ में स्थानों की विशेषताओं को सम्मिलित किया जाता है। प्रथम विशेषता में वह पृथ्वी के प्राकृतिक विभान का वर्णन करता है। दूसरे में जल, सागर, वायुमण्डल और मानव जीवन के आधार को सम्मिलित करता है। प्रकृति-विज्ञान के भौगोलिक पक्ष के रूप में पार्थिव अवस्थाओं का वर्णन किया गया था। 

✍️ कार्ल रिटर के प्रमुख ग्रन्थ

       रिटर ने अपने जीवन में अनेक पुस्तकें, मानचित्र तथा शोधपत्र प्रकाशित किये थे उनमें मुख्य निम्नलिखित हैं

1. यूरोप का भौगोलिक, ऐतिहासिक तथा सांख्यिकीय चित्रण, 1804

2. यूरोप के प्राकृतिक संसाधनों के छः मानचित्र, 1806

3. यूरोप के भूगोल का दूसरा खण्ड, 1807 

4. भौगोलिक ग्रन्थ ‘अर्डकुण्डे’ का प्रथम खण्ड, 1817

5. अर्डकुण्डे का द्वितीय खण्ड ‘एशिया महाद्वीप’ 1818

6. अर्डकुण्डे का छः खण्डों में वृहदाकार प्रकाशन (20000 पृष्ठ), 1833

7. अर्डकुण्डे के 19 प्रन्थों का प्रकाशन, 1859

8. काला तथा केस्पियन सागर के मध्यवर्ती प्रदेशों का मानव स्थानान्तरण। 

       उपर्युक्त प्रन्थों में रिटर ने अपनी यात्राओं का वर्णन भी किया। विश्वविद्यालय स्तर पर उसने ग्रीक और लैटिन भाषाओं को चुना और व्यापक रूप से इतिहास और भूगोल का अध्ययन किया।

✍️ कार्ल रिटर की विचारधारा 

       रिटर की भौगोलिक विचारधारा हम्बोल्ट से प्रभावित हुई जिसे स्वयं रिटर ने स्वीकार किया, लेकिन रिटर ने भूगोल की प्रादेशिक विधि को अपनाया जिसमें भौतिक तथा मानवीय कारकों के संश्लेषण पर बल दिया जाता है। इन दोनों की विचारधारा में समानता होते हुए भी अन्तर था। रिटर का आनुभाविक शोध में विश्वास था। रिटर हम्बोल्ट की भाँति अज्ञेयवादी नहीं था वरन् वह धर्मशास्त्री और उसका ईश्वर में दृढ़ विश्वास था। रिटर की विचारधारा के प्रमुख तथ्य निम्नलिखित थे :-

(1). विकासवादी विचारक 

       रिटर विकासवादी विचारधारा के भूगोलवेत्ता रहे हैं, जिन्हें समझने के लिए उनके समस्त लेखों एवं प्रन्थों का अध्ययन आवश्यक है।

(2). ज्यूने का प्रभाव 

          रिटर ने गरेर तथा होम्मेयर की शुद्ध भूगोल को अस्वीकार करते हुए उसे अवैज्ञानिक बतलाया है। इस सम्बन्ध में रिटर ने बताया है कि “Reine Geography is nothing more than a General description of terrain.” इनके विचार ज्यूने से मिलते-जुलते थे जो किसी क्षेत्र की भू-रचना, जलवायु, पादपों तथा मनुष्यों में अन्तर्सम्बन्ध मानता था।

(3). नियतिवादी 

           रिटर पर्यावरण निश्चयवाद को मानता था अर्थात् पर्यावरण का मनुष्य पर प्रभाव पड़ता है। उसने मानव तथा प्रकृति की परस्पर प्रतिक्रिया को प्रधानता देते हुए बताया कि यूरोप की कटी-फटी समुद्र तट रेखा का महत्त्व यूरोप के इतिहास पर परिलक्षित होता है। समुद्र तट के निवासियों पर भी समुद्र का गहरा प्रभाव देखा जा सकता है।

(4). मानव केन्द्रित भूगोल 

         रिटर का भूगोल मानव केन्द्रित भूगोल था। रिटर के अनुसार भूगोल का उद्देश्य मानव केन्द्रित दृष्टिकोण से पृथ्वी तल का अध्ययन करना तथा उसमें मानव एवं प्रकृति को अन्तर्सम्बन्धित करना है। रिटर के अनुसार केवल पृथ्वी तल का अध्ययन व वर्णन करना ही भूगोल का उद्देश्य नहीं वरन् पृथ्वी पर मानवीय क्रियाओं का वर्णन विशेष महत्त्व रखत है। रिटर ने भूगोल के अध्ययन में अन्तर्वस्तु व उद्देश्य के सम्बन्ध में साकल्यवादी दृष्टिकोण अपनाया और समस्त अध्ययन मानव पर केन्द्रित किया था और उसी पर समाप्त होता था। रिटर मुख्य रूप से मानव भूगोल से सम्बन्धित रहा था। उसका विश्वास था जैसा बहत बाद में वाईडल-डी-ब्लाश ने व्यक्त किया था कि पृथ्वी और उसके निवासी एक-दूसरे के साथ निकट का सम्बन्ध रखते हैं और एक को दूसरे के बिना सही रूप में प्रदर्शित नहीं किया जा सकता।

(5). सम्पूर्ण की संकल्पना

       रिटर की ग्रन्थमाला ‘अर्डकुण्डे’ का मुख्य उद्देश्य प्रादेशिक व्यक्तित्व तथा पूर्णता की संकल्पना को स्पष्ट करना था। रिटर ने भूगोल के लिए ‘अर्डकुण्डे’ शब्द का प्रयोग किया था। उनके कथन “Form an Individual fact Towards Whole.” में प्रकृति एवं मानवीय तथ्यों को सम्बद्धपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करना पुष्ट हुआ है। रिटर ने भूगोल को अर्डकुण्डे अथवा भूविज्ञान घोषित किया था, जिसमें स्थानीय दशाओं, सामयिक और औपचारिक और भौतिक विशेषताओं के सन्दर्भ में स्थानों की विशेषताओं को सम्मिलित किया जाता है। वे कहते थे कि केवल प्राकृतिक तथ्य या मानवीय पक्ष भूगोल का निर्माण नहीं कर सकता। अतः सम्पूर्णता के लिए विभिन्न शक्तियों का संयोजन आवश्यक है। उदाहरणार्थ अर्डकुण्डे के प्रथम खण्ड में अफ्रीका को चार भागों में विभाजित करके उनके उपप्रदेश बनाये तथा प्रत्येक का पूर्ण वर्णन किया है। इसके उपरान्त उन सभी उपप्रदेशों तथा प्रदेशों को पुनः एकत्रित करके सम्पूर्ण अफ्रीका महाद्वीप का एक व्यक्तिगत पूर्ण रूप में वर्णन किया है। अतः रिटर महादेय ने व्यक्तित्व वाली भौगोलिक इकाइयों के पारस्परिक सम्बन्धों की व्याख्या करके अन्ततः पृथ्वी की एकता को स्पष्ट करना ही भूगोल का उद्देश्य माना है।

(6). क्षेत्रीय सम्बन्ध का सिद्धान्त

      रिटर ने पृथ्वी तथा उसके निवासियों में व्याप्त घनिष्ठ पारस्परिक सम्बन्ध माने हैं। उन्होंने बताया कि दोनों में किसी एक को भी इन सम्बन्धों के बिना अलग से प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। अतः रिटर भी हम्बोल्ट की तरह प्रकृति की एकता में विश्वास रखते थे। रिटर के अनुसार क्षेत्रीय घटकों की स्थानिक व्यवस्था में सम्बद्धता होती है। क्षेत्रीय घटक इतने अन्तर्सम्बन्धित होते हैं कि वे क्षेत्र को एक अलग इकाई के समान अद्वितीयता प्रदान करते हैं।

(7). भूगोल अर्डकुण्डे का पर्याय 

      रिटर ने भूगोल के लिए ‘अर्डकुण्डे’ शब्द का प्रयोग किया था। रिटर ने अपनी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पुस्तक भी अर्डकुण्डे नाम से प्रस्तुत की थी। ‘अर्डकुण्डे’ एक व्याप्त जर्मन शब्द है जो पृथ्वी के विज्ञान के लिए पृथ्वी और इतिहास के सन्दर्भ में प्रयुक्त किया जाता है।’ रिटर ने कहा था कि “पृथ्वी और उसके निवासियों में निकटतम व्युत्क्रम सम्बन्ध स्थापित है और एक के बिना दूसरे को उसके समस्त सम्बन्धों में सही प्रकार से प्रस्तुत नहीं किया जा सकता।” उन्होंने पृथ्वी का सर्वाधिक पूर्ण तथा ब्रह्माण्डीय दृश्य अपनाकर उसे मधुर इकाई के रूप में संगठित करके, उसमें सम्पूर्ण ग्लोब का वर्णन तथा मानव व उसके सृष्टिकर्त्ता के सम्बन्धों का विवेचन आवश्यक माना है।

(8). ईश्वर उद्देश्यवादी विचारधारा 

         रिटर का ईश्वरीय विचारधारा की दृष्टि से भूगोल में महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनका मानना था कि पृथ्वी की रचना ईश्वर ने सोद्देश्यपूर्वक की है जो कदापि अर्थहीन नहीं है बल्कि पृथ्वी मानव की शिक्षण भूमि है जिसके प्रांगण में मानव का पोषण होता है। पृथ्वी पर मानव को प्रकाश होता है। अर्थात् रिटर का मानना है कि ईश्वर ने पृथ्वी की रचना किसी उद्देश्य से की है जिस पर मानव आश्रित है जिस पर मानव का भरण-पोषण होता है। उनके अनुसार पृथ्वी पर महाद्वीपों की संरचना, उच्चावच तथा स्वरूप आकस्मिक न होकर कुछ नियमों के आधार पर निर्धारित हुआ है तथा यह मानव विकास में योगदान देने में बाध्य है। अर्थात् ईश्वर का यह उद्देश्य था कि विभिन्न मानव वर्गों को विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक वातावरण प्रदान किये जाएँ जहाँ वातावरण के द्वारा उनकी सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक प्रगति का स्वरूप निर्धारित हो सके। रिटर के अनुसार महाद्वीपों की संरचना, भौगोलिक विशेषताओं, धरातल, जलवायु आदि में स्थानिक भिन्नता ईश्वर का ही परिणाम है जो कि ईश्वर ने उद्देश्यपूर्वक की है अर्थात् मानव के ऐतिहासिक व सांस्कृतिक विकास के लिए मानव को विभिन्न प्रकार के पर्यावरण प्राप्त हो सके।

(9). प्रादेशिक अध्ययन

      रिटर ने भौगोलिक अध्ययन में प्रादेशिक अध्ययन को विशेष महत्त्व दिया है। रिटर तुलनात्मक प्रादेशिक भूगोल का संस्थापक रहा था। रिटर ने विभिन्न देशों का भ्रमण किया तथा वहाँ की भौगोलिक पर्यावरणीय, धरातलीय आदि विशेषताओं का अध्ययन किया। यद्यपि उनकी रचना ‘योरोप’ क्रममबद्ध प्रणाली पर आधारित थी, लेकिन इसके उपरान्त उन्होंने सभी कृतियों एवं लेखों में प्रादेशिक प्रणाली को अपनाया। उन्होंने पृथ्वी तल को प्राकृतिक प्रदेशों में विभाजित करके उनका वर्णन किया है। लेकिन पृथ्वी के प्रादेशिक अध्ययन के लिए राजनैतिक सीमाओं को अस्वीकार करते हुए प्राकृतिक प्रदेशों को आधार माना है। प्रादेशिक अध्ययन के लिए रिटर ने ‘लैण्डरकुण्डे’ शब्द का प्रयोग किया है, जिसका अर्थ ‘प्राकृतिक प्रदेश’ होता है। रिटर की प्रादेशिक विचारधारा में महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इन्होंने प्रादेशिक अध्ययन के लिए राजनैतिक सीमाओं के स्थान पर प्राकृतिक प्रदेशों को आधार माना है।

(10). भूगोल आनुभाविक विज्ञान के रूप में

     रिटर ने भूगोल को एक विवेकी सिद्धान्त या प्राथमिक सिद्धान्त से निगमनिक की अपेक्षा आनुभविक विज्ञान माना। वे भूगोल को अन्य विज्ञानों की तरह केवल सिद्धान्तों पर आधारित न मानकर एक आनुभाविक विज्ञान मानते हैं जो प्रेक्षणों तथा परिणाम पर आधारित है। 

(11). स्थल का चित्रण

        रिटर का उद्देश्य समस्त स्थल भाग का सजीव चित्रण प्रस्तुत करना था। इसके लिए स्थल के प्राकृतिक तथा कृषि उत्पादनों, प्राकृतिक तथा मानवीय लक्षणों को अलग-अलग तथा सम्बद्धतापूर्ण के रूप में इस तरह प्रस्तुत करें कि मानव तथा प्रकृति के सम्बन्ध में सबसे महत्त्वपूर्ण आंकलन स्वयं प्रत्यक्ष हो जाये जिससे उसकी परस्पर तुलना की जा सके।

(12). अनेकता में एकता सिद्धान्त

          अनेकता में एकता का सिद्धान्त रिटर के द्वारा प्रतिपादित किया गया। उसके अनुसार आवास के घटकों जिसमें मनुष्य अपने सांस्कृतिक पर्यावरण का निर्माण करता है, में जैविक और अजैविक एकता पाई जाती है। इस प्रकार की पद्धति में किसी एक क्षेत्रीय इकाई के भूगोल को समझने के लिए पर्यावरण के समस्त भौतिक और सांस्कृतिक घटकों पर एक साथ विचार किया जाता है और अन्तर्सम्बन्ध स्थापित किया जाता है। यह प्रादेशिक उपागम है। अनेकता में एकता से तात्पर्य है कि प्रत्येक प्राकृतिक सीमा से घिरा क्षेत्र जलवायु, उत्पादन, सभ्यता, जनसंख्या और इतिहास के सन्दर्भ में एक इकाई होता है। अर्थात् एक निश्चित प्राकृतिक सीमा के भीतर निवास करने वाले निवासियों की जलवायु, सभ्यता, जनसंख्या आदि के सम्बन्ध में एकता पाई जाती है। 

          रिटर के कार्यों का महत्त्व इसमें नहीं है कि उसने महाद्वीपों का वर्णन किया वरन् पृथ्वी के धरातल पर विभिन्न स्तर पर पार्थिव तथ्यों के प्रादेशिक सम्बन्धों की संकल्पना के नियन्त्रण करने वाले नियमों के तंत्र से इनके निष्कर्ष निकालने की उसमें योग्यता थी। रिटर की पद्धति को निगमनात्मक कहा जा सकता है।

रिटर के प्रमुख भौगोलिक विचारों को संक्षेप में निम्न प्रकार से दिया जा सकता है

1. रिटर ने भूगोल को एक विवेक सिद्धान्त तथा प्राकृतिक सिद्धान्त से निगमनिक की अपेक्षा आनुभविक विज्ञान माना।

2. रिटर ने माना कि स्थानिक क्षेत्र व्यवस्था में सम्बद्धता होती है। क्षेत्रीय घटक इतने अन्तर्सम्बन्धित होते हैं कि ये क्षेत्र को एक अलग इकाई के समान अद्वितीयता प्रदान करते हैं। 

3. सीमा रेखायें चाहे वह जलीय अथवा शुष्क हों उनका उद्देश्य किसी क्षेत्र के भूगोल की अन्तर्वस्तु को समझने के माध्य होते हैं।

4. रिटर के अनुसार भूगोल पृथ्वी तल पर पाये जाने वाले पदार्थों, जो किसी क्षेत्र में एक साथ पाये जाते हैं का सम्बन्ध पृथ्वी के किसी क्षेत्र में एक साथ पाये जाने वाला पदार्थ से होता है। उसने क्षेत्रों का अध्ययन संश्लेषित अथवा उसकी पूर्णता में किया।

5. रिटर ने भूगोल के अध्ययन में अन्तर्वस्तु और उद्देश्य के सम्बन्ध में साकल्यवादी दृष्टिकोण अपनाया और समस्त अध्ययन मानव पर केन्द्रित किया था और उसी पर समाप्त होता था।

6. रिटर का विश्वास था कि पृथ्वी जीव से रचित हुई है यहाँ तक कि उसके छोटे ब्यौरे में ईश्वरीय उद्देश्य के साथ मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनुकूल बनाता है। वह अपने उद्देश्य में आदर्शवादी था। 

       कार्ल रिटर ने अनेक प्रेरणादायी विचार प्रस्तुत किये। उसने स्थल और जल गोलार्द्ध, स्थल और जल के गर्म और ठण्डे होने की दर में अन्तर, उत्तरी और दक्षिणी गोलार्द्ध में जल और स्थल भागों के अनुपात में अन्तर के विचार पर बल दिया था। रिटर ने दृढ़तापूर्वक कहा था कि महाद्वीपों में अन्तर पाये जाते हैं। सभी महाद्वीपों की तट रेखा की अपेक्षा अफ्रीका की तटरेखा छोटी व सममित है और इसके भीतरी भाग का सम्पर्क समुद्र से बहुत कम है, जबकि एशिया में सागरीय प्रवेशिकायें अधिक हैं, आन्तरिक भाग से समुद्र का सम्पर्क कम है और यूरोप इन सबसे अत्यधिक भिन्न है। उसकी तुलनात्मक दृष्टि से समुद्र की अधिक लम्बाई उससे भीतरी भाग में पहुँच सुगम है। उसने प्रत्येक अफ्रीका महाद्वीप काले निवासियों का और अमेरिका लाल लोगों का महाद्वीप है। इस अतिरेक सामान्यीकरण ने भूगोल- विश्व में अनेक कठिनाइयाँ उत्पन्न कर दीं। 

      भूगोल में सार्वभौम और प्रादेशिक नियमों के बारे में उसका विचार था, “पृथ्वी से उसके नियमों के बारे में जानकारी प्राप्त करनी चाहिए।” संक्षेप में रिटर का मूल विषय था कि भौतिक पर्यावरण मानव विकास के मार्ग को निश्चित करने में सक्षम है। रिटर के द्वारा ‘जीव का विकास’ पुस्तक भी प्रकाशित की गई। 

✍️ कार्ल रिटर की कार्य प्रणाली

        रिटर की कार्य प्रणाली के मुख्य बिन्दु निम्नलिखित हैं

(1). आनुभाविक विधि

      रिटर भूगोल को एक आनुभाविक विज्ञान बताते हुए भौगोलिक अध्ययन के लिए आनुभाविक विधि का प्रयोग किया। इस सम्बन्ध में रिटर ने फार्स्टर का अनुसरण करते हुए निरीक्षण पद्धति अपनाने पर बल दिया। रिटर ‘आर्मचेयर भूगोलवेत्ता’ का विरोधी था। उसने सावधानीपूर्वक शुद्ध प्रेक्षण कर उन्हें एकत्रित करके उनसे सत्य का निश्चय करने की विधि को अपनाया। उन्होंने अपने ग्रन्थ भू-विज्ञान में लिखा है, “मेरा मुख्य उद्देश्य केवल अपने पूर्ववर्ती लोगों की अपेक्षा अधिक मात्रा में तथ्य एकत्रित करना नहीं वरन प्रकृति की भिन्नता में निहित सामान्य नियमों को पता करना है। इन नियमों का सम्बन्ध प्रत्येक तथ्य से क्रमशः मिलाना है। विशुद्ध ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ग्लोब पर दृष्टव्य बाह्य विविधता एवं असम्बद्धता में अन्तर्निहित पूर्ण एकता एवं लयबद्धता जो मनुष्य एवं प्रकृति के पारस्परिक अन्तर्सम्बन्ध में मूर्तिमान होते हैं, का उद्घाटन करना मेरा उद्देश्य है। “

(2). तुलनात्मक विधि

     रिटर ने भूगोल के विविध तथ्यों के कारण सम्बन्धों को समझने के लिए तुलनात्मक विधि को महत्त्वपूर्ण माना है। इसलिए उन्होंने अपने ग्रन्थ ‘अर्डकुण्डे’ का उपशीर्षक ‘सामान्य तुलनात्मक भूगोल’ रखा था। रिटर के अनुसार “वह समस्त भौगोलिक विवरण जो वर्णन तक सीमित न रहकर उसके सामने आगे तक अग्रसर होता है, वह तुलनात्मक दृष्टिकोण कहलाता है।”

(3). प्रादेशिक वर्णन विधि

     रिटर ने प्राकृतिक प्रदेशों को अपने वर्णन का प्रमुख आधार माना है।

(4). विश्लेषण तथा संश्लेषण विधि

     रिटर ने प्रेक्षणों का विश्लेषण करके उसके तथ्यों की तुलना करने के बाद विभिन्न अंगों को एकत्रित करके उनके संश्लेषण द्वारा क्षेत्रों के सभी तथ्यों के सम्मिलित तथा सम्बद्ध रूप को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।

(5). मानचित्रण विधि

      रिटर ने भौगोलिक वर्णनों के लिए मानचित्रण विधि को एक प्रमुख विधि माना है। उसने यूरोप के आर्थिक तथा प्राकृतिक तथ्यों को छः मानचित्रों की सहायता से प्रस्तुत किया था।

        इस प्रकार रिटर की भौगोलिक विचारधारा का संक्षिप्त उल्लेख करने के बाद हम कह सकते हैं कि कार्ल रिटर एक बहुत बड़ा निर्माणकर्ता था। उसने 18वीं सदी के भूगोलवेत्ताओं के बिखरे ज्ञान का संश्लेषण करके उसे सर्वमान्य भौगोलिक स्वरूप प्रदान किया। उन्होंने आनुभाविक तथा तुलनात्मक विधि की सहायता से मानव तथा पर्यावरण के पारस्परिक सम्बन्धों का विश्लेषण करने की विधि का विकास किया। रिटर महोदय ने अपने ग्रन्थ ‘लेण्डरकुण्डे’ में प्रादेशिक आधार को संगठित किया।


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