औरंगजेब के समय में जब मुगल साम्राज्य का गौरव अपने चरमोत्कर्ष पर था, शिवाजी के नेतृत्व में मराठों के उत्थान ने उसे गहरा आघात पहुँचाया। औरंगजेब को अपने शासन के अन्तिम वर्ष दक्कन में मराठों के साथ भीषण संघर्ष में बिताने पड़े। मराठों के विरूद्ध चलने वाले यह दीर्घ संघर्ष अन्ततः मुगल साम्राज्य के पतन का कारण सिद्ध हुआ। पानीपत के तृतीय युद्ध में अपनी पराजय के पहले तक मराठे दुर्जेय बने रहे।
मराठों के इतिहास को अच्छी तरह समझने के लिए इसे दो चरणों में बाँटा जा सकता है। प्रथम चरण 17 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर औरंगजेब की मृत्य तक था। इसमें शिवाजी, शंभाजी, राजाराम और ताराबाई का काल आता है। जबकि दूसरा चरण उत्तरवर्ती मुगलकाल था, इसमें पेशवा वास्तविक शासक बन गए और मराठा साम्राज्य पेशवाओं के नेतृत्व में मराठा सरदारों का संघ बन गया। धीरे-धीरे मराठा नरेश या छत्रपति पूरी तरह पृष्ठभूमि में चले गए और अब वे केवल नाममात्र के ही नरेश रह गए। इसी दौरान मराठा क्षेत्र दक्षिण के अलावा कटक से अटक तक फैल गया। इस प्रकार मराठा महान मुगलों और ब्रिटिश सत्ता के भारत में उदय के बीच सेतु के रूप में उदित हुए। 17 वीं सदी के उत्तरार्द्ध में मराठों के उत्थान के कारणों पर विद्वानों ने अनेक व्याख्याएँ दी हैं। परन्तु इतिहासकारों ने मराठा इतिहास को उस क्षेत्र की भौगोलिक परिस्थितियों, औरंगजेब की हिन्दू विरोधी नीतियों और उनके परिणामस्वरूप हिन्दू जागरण, भक्ति आंदोलन के मराठा संतों का धार्मिक आंदोलन, जिसने मराठों के गौरव को जगाने के साथ ही घृणित जाति प्रथा पर भी वार किया और सर्वोपरि शिवाजी के चमत्कारी व्यक्तित्व के परिप्रेक्ष्य में देखा है।
महाराष्ट्र की ऊबड-खाबड़ भौगोलिक स्थिति और वहाँ की जलवायु ने मराठों को दृढ़ परिश्रमी और लड़ाकू जाति बनाया तथा बाद में यही उनकी पहचान बन गई। महादेव गोविन्द रानाडे ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘राइज ऑफ द मराठा पॉवर‘ में इस भौगोलिक स्थिति को दर्शाया है। रानाडे के अनुसार ऐसी भौगोलिक स्थिति के कारण ही यहाँ के लोगों में स्वतंत्रता की भावना इस सीमा तक विकसित हुई कि कोई भी शासक अधिक समय तक मराठों पर शासन नहीं कर सका।
जदुनाथ सरकार, जी.एस. सरदेसाई और एम.जी. रानाडे जैसे इतिहासकारों की धारणा है कि मराठा उत्थान औरंगजेब की हिन्दू विरोधी नीति का परिणाम था। शिवाजी ने ‘हिन्दू पादशाही‘ अंगीकार की, गाय और ब्राह्मणों की रक्षा का व्रत लिया और ‘हिन्दुत्व धर्मोद्धारक‘ की पदवी धारण की, किन्तु सतीशचंद्र ने इसका सफलतापूर्वक खण्डन किया है।
भक्ति आंदोलन के संतों जैसे ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम और रामदास की शिक्षाओं ने मराठा राज्य के उदय में सहयोग दिया। ये सन्त जाति प्रथा का विरोध करते थे और स्थानीय मराठी भाषा में उपदेश देते थे। शिवाजी के गुरु समर्थ गुरु रामदास (1608- 1682 ई.) ने अपनी पुस्तक दासबोध में कर्मदर्शन का उपदेश दिया और शिवाजी के पुत्र शंभाजी को मराठों को संगठित करने और महाराष्ट्र धर्म का प्रचार करने के लिये प्रोत्साहित किया। महाराष्ट्र धर्म से उनका अभिप्राय एक ऐसे उदात्त धर्म से था, जो जातिगत भेद-भाव से मुक्त था, जिसने स्त्रियों की दशा में सुधार किया, कर्मकाण्ड की अपेक्षा भक्ति को प्रधानता दी, तथा बहुदेववाद के अतिचार को नियंत्रित किया। समर्थ गुरु रामदास ने इस सद्विचार को अपनी पुस्तक ‘आनन्दवन भुवन‘ में व्यक्त किया। इससे एक विशिष्ट मराठा पहचान उभर कर सामने आयी, जिसने यहाँ के लोगों को एकता एवं राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित किया।
दक्षिण की तत्कालीन राजनीतिक स्थिति भी मराठों के उत्थान में सहायक हुई। अहमदनगर राज्य के बिखराव और अकबर की मृत्यु के पश्चात् दक्षिण में मुगल साम्राज्य के विस्तार की धीमी गति ने मराठों के महत्वाकांक्षी सैन्य अभियानों को प्रोत्साहित किया। इस समय तक मराठे अनुभवी लड़ाकू जाति के रूप में ख्याति प्राप्त कर चुके थे। दक्षिणी सल्तनतों एवं मुगलों, दोनों ही पक्षों की ओर से वे सफलतापूर्वक युद्ध कर चुके थे। उनके पास आवश्यक सैन्य प्रशिक्षण और अनुभव तो था ही, जब समय आया तो उन्होंने इसका उपयोग अपने राज्य की स्थापना के लिए किया। अन्त में, शिवाजी का चमत्कारी व्यक्तित्व मराठा राज्य के उदय में प्रधान कारण बना। उनमें मराठा समाज के विभिन्न तत्वों को एक करने की अद्भुत क्षमता थी। वे एक कुशल सेनानायक थे। अन्य मराठा प्रमुखों, दक्षिणी सल्तनतों और मुगलों के विरुद्ध सैन्य सफलताओं ने शिवाजी को उनके जीवन काल में ही एक गाथा पुस्तक बना दिया था। इस प्रकार मराठा राज्य के उदय में अनेक तत्व उत्तरदायी थे।
विषय-सूची
मराठों का प्रारम्भिक इतिहास
शिवाजी के आदि पूर्वज मेवाड़ के सिसौदिया वंश के थे। उल्लेख मिलता है कि जिस समय (1303 ई. में) अलाउद्दीन खिलजी ने मेवाड़ पर आक्रमण किया था। उस समय सज्जन सिंह (सुजान सिंह) महाराष्ट्र चले आये।
सज्जन सिंह – 5वीं पीढ़ी – उग्रसेन – दो पुत्र (1. कर्ण सिंह 2. शुभकरण)
शुभकरण के वंशज भोंसले कहलाए। शुभकरण का पौत्र बालाजी भोंसले था। उसके दो पुत्र मालोजी और विठोजी थे। इन दोनों भाइयों ने जीवन-यापन के लिए बेरुल (या इलौरा) में कृषि करना प्रारम्भ किया। कृषि से जीवन-यापन न हो पाने के कारण ये दोनों भाई लखूजी जाधव (सिंघखेड का जागीरदार) के अंगरक्षक बन गये। 15 मार्च, 1590 ई. को मालोजी को एक पुत्र हुआ जिसका नाम शाहजी रखा गया। मालोजी ने लखुजी जाधव की नौकरी छोड़ दी और अहमदनगर के सुल्तान के यहाँ नौकरी कर ली। इन्हें बेरुल तथा आस-पास की पटेलाई मिल गई। मालोजी ने कुछ घोड़े तथा सैनिक रख लिए अहमद नगर के वजीर मलिक अम्बर ने इनको सेना में भर्ती कर लिया तथा इन्हें पूना सुपा की जागीर दे दी, जिसकी आय सिंधखेड़ की जागीर से अधिक थी। 5 नवम्बर 1605 ई. को शाहजी का विवाह जीजाबाई के साथ हो गया। जीजाबाई लखुजी जाधव की पुत्री थी। 1620 ई. में मालोजी की मृत्यु हो गई और शाहजी उत्तराधिकारी हुए। 1620 ई. में लखुजी जाधव की मलिक अम्बर से वैमनस्यता हो गई जिससे लखूजी जहाँगीर की सेवा में चले गये। इस प्रकार जहाँगीर के समय में मराठे पहली बार मुगलों की सेवा में (1620 ई.) गये। जहाँगीर ने ही इन्हें सर्वप्रथम उमरा वर्ग में शामिल किया।
भातवाड़ी (मरवाड़ी) का युद्ध (1624 ई.)
यह युद्ध मुगलों और अहमदनगर के बीच हुआ। मुगलों की तरफ से परवेज, महावत खाँ और बीजापुर की सेना ने भाग लिया जबकि अहमदनगर की तरफ मलिक अम्बर और शाह जी थे। इस युद्ध में अहमदनगर की सेना विजयी रही। इस युद्ध में लखुजी जाधव मुगलों की तरफ थे जबकि शाहजी अहमदनगर की तरफ। शाहजी की कीर्ति को बढ़ता हुआ देखकर मलिक अम्बर इनसे ईर्ष्या करने लगा। शाहजी सन् 1625 ई. में अहमदनगर छोड़कर बीजापुर की सेवा में चले गए। यहाँ पर शाहजी सन् 1625 ई. से 1629 ई. तक रहे। 1629 ई. में शाहजी भोंसले पुनः अहमदनगर की सेवा में आ गए। 1630 ई. में अहमदनगर के सुल्तान ने लखुजी जाधव (जो पुनः अहमदनगर आ गए थे) की हत्या करवा दी। 1630 ई. में शाहजहाँ के समय में शाह जी भोंसले मुगलों की सेवा में चले गये। वे दो वर्ष तक वहाँ रहे। इन्हें शाहजहाँ ने 5000 का मनसब प्रदान किया। 1632 ई. में ये पुनः अहमदनगर आ गए। 1632 ई. में अहमदनगर के सुल्तान मुर्तजा प्रथम की हत्या हो गई। शाहजी भोंसले ने मुर्तजा प्रथम के पुत्र मुर्तजा द्वितीय को सुल्तान घोषित किया जो केवल 10 वर्ष का बालक था और शासन की बागडोर स्वयं अपने हाथों में ले ली। शाहगढ़ को नए सुल्तान की राजधानी बनाई। 1634-36 ई. के बीच शाहजी का मुगलों से संघर्ष हुआ। शाहजी पराजित हुए और शाहजहाँ से समझौता कर लिया तथा अहमदनगर के समस्त किले शाहजहाँ को दे दिए। इस प्रकार अहमदनगर मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया। शाहजी, बीजापुर के सुल्तान की सेवा में पहुँच गये। शाहजी ने कर्नाटक अभियान किया तथा 1637 ई. में इक्केरी (कर्नाटक में एक स्थान) की विजय , 1639 ई. में शीरा तथा 1640 ई. में बंगलौर की विजय की। बीजापुर के सुल्तान ने इन्हें कनार्टक में 4 लाख की जागीर प्रदान की और बंगलौर का अधीनस्थ शासक नियुक्त कर दिया। 1648 ई. में बीजापुर के सुल्तान ने शाहजी को बन्दी बनाया तथा 1649 ई. में रिहा कर दिया। 1663 ई. में शाहजी ने बेदनूर क्षेत्र की विजय की। यहाँ से वापस लौटते समय वसवपट्टन नामक स्थान पर हिरण-आखेट करते समय ये घोड़े से गिर गए तथा उनहें गहरी चोट आई। इसी चोट की वजह से जनवरी, 1664 ई. में शाहजी की मृत्यु हो गई।
छत्रपति शिवाजी (1627-80 ई.)
20 अप्रैल, 1627 ई. को शिवनेर के किले में शिवाजी का जन्म हुआ। ‘शिवनेरी देवी‘ के नाम पर इनका नाम शिवाजी रखा गया। इनकी माता का नाम जीजाबाई तथा पिता का नाम शाहजी था। शिवाजी भोंसले वंश के थे और उनके पितामह मालोजी अहमदनगर के निजामशाही राज्य मे एक प्रतिष्ठित पद पर थे। शिवाजी की माँ जीजाबाई निजामशाही सरदार और देवगिरि के यादवों के वंशज लाखूजी जाधवराव की पुत्री थीं। शिवाजी के एक बड़े भाई “शम्भा जी” थे जो शाहजी के साथ बंगलौर की जागीर में रहते थे। 1654 ई. में शम्भाजी ने पोलीगर में अप्पा खाँ से युद्ध किया। इस युद्ध में शम्भा जी की मृत्यु हो गई। अफजल खाँ ने संदेश मिलने के बावजूद भी जानबूझ कर सेना नहीं भेजी थी। यहीं पर शाहजी ने कहा था कि “अफजल खाँ मनुष्य नहीं विषैला सर्प है।” शाहजी ने एक दूसरी शादी “तुकोबाई मोहिते” से की जो कर्नाटक में ही रहती थीं। इनसे एक पुत्र व्यंकोजी (एकोजी) उत्पन्न हुए।
दादाजी कोंडदेव शिवाजी के संरक्षक थे जो पूना-सूपा जागीर की देख-रेख में थे और शाहजी भोंसले के मित्र थे। शिवाजी के ऊपर समर्थ गुरु रामदास का अत्यधिक प्रभाव था। शिवाजी का विवाह साईबाई के साथ हुआ। 1640-42 ई तक शिवाजी कर्नाटक में अपने पिता के साथ रहे। 1645 ई. में शिवाजी ने रायरी पहाड़ी पर स्थित रायरेश्वर महादेव मंदिर में ‘दादजी पंत‘ की साक्षी में देश की स्वतंत्रता, हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना और अपने धर्म की रक्षा के लिए तन-मन-धन अर्पण करने की कसम खाई। शिवाजी के प्रारम्भिक सैनिक अभियान बीजापुर के आदिलशाही राज्य के विरुद्ध शुरू हुए। 1643 ई. में शिवाजी ने सर्वप्रथम सिंहगढ़ का किला जीता। 1646 ई. में इन्होंने तोरण तथा मुरुम्बगढ़ (राजगढ़) के किलों पर अधिकार कर लिया। 1647 ई. में शिवाजी ने कोण्डाना की विजय की। इसी विजय के बाद बीजापुर के सुल्तान ने शाहजी को बन्दी बना लिया। 1647 ई. में ही शिवाजी ने चाकन की विजय की। 1648 ई. में दबीरपंत की सलाह पर इन्होने कोण्डाना का किला छोड़ दिया जिससे शाहजी को मुक्त कराया जा सके। 1654 ई. में शिवाजी ने ‘पुरंदर’ का किला जीता। यहाँ का किलेदार “नीलोजी नीलकंठ” था। इन्होंने अपनी अधीनता में नीलोजी नीलकंठ को किलेदार बनाया। पहले यह बीजापुर के अधीन था। 1656 ई. में जावली विजय की। जावली एक मराठा सरदार चन्द्रराम मोरे के अधिकार में था जो शिवाजी के विरुद्ध बीजापुर राज्य से मिला हुआ था। शिवाजी के विश्वासपात्र ने कृष्णराव मोरे की हत्या कर दी और जावली पर शिवाजी ने अधिकार कर लिया। 1656 ई. में शिवाजी ने जुन्नार किले की विजय की। यहाँ से इन्हें बहुत अधिक धन प्राप्त हुआ। 1657 ई. में शिवाजी का पहली बार मुगलों (औरंगजेब) से मुकाबला हुआ, जब अहमदनगर तथा जुन्नार पर उन्होंने आक्रमण किया। इस संघर्ष में शिवाजी को पीछे हटना पड़ा। 1657 ई. में कोंकण क्षेत्र की विजय की। यहाँ के मुख्य किले कल्याण, भिवण्डी और माहुली पर अधिकार कर लिया। कोंकण क्षेत्र में ही ‘जंजीरा’ में सीदियों का राज्य था। कई वर्षों तक संघर्ष करने के बाद शिवाजी कोंकण प्रदेश पर तो अपना अधिकार रख सकें, परन्तु जंजीरा के सीदियों को अपने आधिपत्य में लेने में असफल रहे।
अफजल खाँ से संघर्ष (1659 ई.)
औरंगजेब के उत्तर चले जाने के बाद बीजापुर को मुगलों का भय नहीं रहा। अतएव शिवाजी के विरुद्ध कार्यवाही करने की ठानी। 1659 ई. में बीजापुर राज्य ने अपने एक प्रख्यात सरदार अफजलखाँ को शिवाजी को कैद करने या मार डालने के लिए भेजा। उसने अपने दूत कृष्ण जी भास्कर को शिवाजी के पास भेजा तथा मिलने की इच्छा जाहिर की। वार्ता के लिए स्थान प्रतापगढ़ का जंगल चुना गया। शिवाजी ने अफजल खाँ पर विश्वास नही किया और धूर्तता का जवाब धूर्तता से देने का निश्चय किया। उन्होंने मोरो पिंगले और नेताजी पालकर के नेतृत्व में पहले ही मराठा सेना को जंगलों में छिपे रहने को कहा और गोपीनाथ को दूत बनाकर अफजल खाँ के पास भेजा। शिवाजी ने अपने अंगरक्षकों के रूप में जीवमहल और शम्भूजी कावजी को लिया। अफलजखाँ सशस्त्र आया और उसके साथ दो अंगरक्षक आए, जिनमें एक प्रख्यात तलवारबाज ‘सैयद बाँदा‘ था। अफजल खाँ ने गले मिलने के बहाने शिवाजी की हत्या करने का प्रयास किया। शिवाजी के कवच ने उनकी रक्षा की और उन्होंने अपने बघनख एवं कटार से उसे मार डाला। अफजल खाँ के मरते ही तैयार खड़ी मराठा सेना मुसलमान सेना पर टूट पड़ी और निर्दयता से संहार किया।
शाइस्ता खाँ से संघर्ष (1663 ई.)
1660 ई. में औरंगजेब ने अपने मामा शाइस्ता खाँ को दक्षिण का सूबेदार नियुक्त किया और शिवाजी को खत्म करने का आदेश दिया। शाइस्ता खाँ ने बीजापुर राज्य से मिलकर मराठों के विरुद्ध कुछ युद्धों में सफलता प्राप्त की। उसने शिवाजी से पूना, चाकन और कल्याण सहित बहुत कुछ स्थानों और किलों को जीतने में सफलता पाई। किन्तु शिवाजी युद्ध करते रहे। 1663 ई. में शाइस्ता खाँ ने वर्षा ऋतु पूना में बिताने की योजना बनाई। 15 अप्रैल, 1663 ई. को शिवाजी रात्रि के समय पूना में घुसे और शाइस्ता खाँ के निवास स्थान पर आक्रमण कर दिया। इस संघर्ष में शाइस्ता खाँ का अंगूठा कट गया और उसका पुत्र फतेह खाँ मार डाला गया। इस प्रकार यह आक्रमण पूर्ण सफल हुआ और इससे शिवाजी का सम्मान और भी बढ़ गया। इस घटना से दक्कन में मुगलों की प्रतिष्ठा को गहरा आघात पहुँचा। शाइस्ता खाँ को वापस बुला लिया गया तथा औरंगजेब के पुत्र मुअज्जम को दक्कन का वायसराय नियुक्त किया गया।
सूरत की प्रथम लूट (8 जनवरी, 1664 ई.)
शिवाजी को सूरत की लूट में करीब 1 करोड़ रुपये प्राप्त हुए। शिवाजी ने अंग्रेजों और डचों की कोठियों से कोई छेड़छाड़ नहीं की। इस समय सूरत की अंग्रेजी कोठी का अध्यक्ष सर जार्ज आक्साइडन था। शाइस्ता खाँ के बाद राजा जयसिंह को असीम अधिकारों के साथ दक्षिण का सूबेदार नियुक्त किया गया। शिवाजी को संधि के लिए बाध्य होना पड़ा। तीन दिनों तक वार्ता के बाद पुरंदर की संधि हो गई।
पुरंदर की संधि (22 जून, 1665 ई.)
शिवाजी के खिलाफ औरंगजेब ने अपने प्रसिद्ध सेनानायक ‘आमेर‘ के ‘मिर्जा राजा जयसिंह‘ को दक्षिण में नियुक्त किया। राजा जयसिंह ने बीजापुर के सुल्तान से सन्धि करके ‘पुरन्दर के किले’ को जीतने की योजना बनाई। इस योजना के प्रथम चरण में ‘सासबाद’ को अपना प्रधान स्थान बनाते हुए जयसिंह ने 24 अप्रैल, 1665 को ‘वज्रगढ़ का किला‘ कब्जा लिया। शिवाजी को अपना पलड़ा झुकता दिखा और पुरन्दर के किले को बचा पाने में अपने को असमर्थ पाया। फलतः उसने महाराज जयसिंह से संधि की पेशकश की। इसी के परिणामस्वरूप 22 जून, 1665 को शिवाजी और जयसिंह के मध्य एक समझौता हुआ जिसे ‘पुरन्दर की संधि कहते हैं। इस सन्धि में निम्न शर्तें थीं’-
(1) शिवाजी ने मुगलों को अपने 23 किले और उनसे लगे प्रदेश सौंप दिये, जिनकी आय 4 लाख हूण प्रतिवर्ष थी।
(2) रायगढ़ और उसके आसपास के 12 किले तथा उनसे लगी भूमि शिवाजी के अधिकार में रहे, जिनकी आय 1 लाख हूण प्रतिवर्ष थी।
(3) शिवाजी ने मुगल सम्राट औरंगजेब की सेवा में अपने पुत्र शम्भाजी को भेजना स्वीकारा तथा मुगलों ने उसे 5000 का मनसब और जागीर देना स्वीकार किया।
(4) शिवाजी ने दक्कन में मुगल सेना के सैन्य अभियान में सहायता देना स्वीकारा।
(5) शिवाजी को कोंकण की तराई की भूमि और बालाघाट एवं बीजापुर की ऊँची भूमि की जागीर और मुगल शाही फरमान दिया जाय, तो वह मुगल दरबार को 40 लाख हूण 13 वर्षों की वार्षिक किस्तों में देगा। (बाद में जोड़ा गया।)
मई 1666 में वह अपने पुत्र शम्भाजी और कुछ चुने हुए मराठा सिपाहियों के साथ मुगल दरबार में उपस्थित हुए, तो वहाँ उनके साथ औरंगजेब ने तृतीय श्रेणी के मनसबदारों जैसा व्यवहार किया। इससे क्रुद्ध होकर शिवाजी ने सिंहासन की ओर पीठ कर ली और उद्दण्डता के साथ चल दिये जिसके परिणामस्वरूप औरंगजेब ने शिवाजी और उसके पुत्र शम्भाजी को ‘जयपुर भवन‘ में कैद कर दिया। शिवाजी अपने पुत्र शम्भाजी के साथ 13 अगस्त, 1666 को बहँगी में रखी हुई दो टोकरियों में बैठकर निकल गये और 22 सितम्बर, 1666 को रायगढ़ पहुँच गये।
औरंगजेब ने शाहजादा मुअज्म के द्वारा की गई संधि की सिफारिश को स्वीकार करते हुए शिवाजी को ‘राजा‘ की उपाधि प्रदान की।
शिवाजी ने अगले तीन वर्ष (1667-69) का उपयोग राज्य को सुदृढ़ और सुव्यवस्थित करने में किया। 1670 में उसने ‘पुरन्दर की संधि‘ का उल्लंघन करते हुए मुगलों को दिये 23 किलों में से अनेक किले पुनः जीत लिये। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण किला ‘कोंडाना का किला‘ था, जिसे तानाजी मलुसरे ने जीता था। इस किले का नाम उन्हीं के नाम पर शिवाजी ने ‘सिंहगढ़‘ रख दिया।
सूरत की दूसरी लूट (1670 ई.)
13 अक्टूबर, 1670 को शिवाजी ने सूरत पर धावा बोलकर दूसरी बार नगर को लूटा। इस लूट में शिवाजी को लगभग 66 लाख रु. की सम्पत्ति प्राप्त हुई। इसमें एक सोने की पालकी भी थी जो किसी ने औरंगजेब को भेंट देने के लिए बनवायी थी।
इसके बाद उन्होंने बरार, बगलाना और खान देश को भी जीता। शिवाजी ने घोषणा कर दी कि “महाराष्ट्र उनका है, मुगलों का नहीं।” साथ ही दक्षिण के मुगल प्रदेशों से भी ‘चौथ’ और ‘सरदेशमुखी’ लेना प्रारम्भ कर दिया।
वाणी डिंडोरी का युद्ध
इस युद्ध का वास्तविक स्थान कंचन-मंचन का दर्रा था। सूरत से लूट कर वापस आते समय शिवाजी का मुगल सेना से सामना हुआ। मुगल सेना का नेतृत्व दाऊद खाँ और इखलास खाँ कर रहे थे। इस युद्ध में शिवाजी लूट के माल के साथ अपने सुरक्षित स्थान पर पहुँचने में सफल हुए।
शिवाजी ने 1671 ई. में सल्हेर के दुर्ग की विजय की। यहाँ का किलेदार फतेहउल्ला खाँ था। बुन्देलखण्ड से छत्रसाल बुन्देला शिवाजी से मिलने रायगढ़ गया। शिवाजी ने 1673 ई. में पन्हाला दुर्ग की विजय की। यहाँ का किलेदार बाबू खाँ युद्ध में मारा गया।
शिवाजी का राज्याभिषेक (6 जून 1674 ई.)
शिवाजी का राज्याभिषेक 1674 ई. में रायगढ़ में हुआ। अपना राज्याभिषेक कराने के लिए शिवाजी ने काशी के प्रसिद्ध विद्वान विश्वेशर भट्ट अर्थात् गाग भट्ट को बुलाया। विश्वेश्वर भट्ट ने “कायस्थ धर्म प्रतीप” नामक ग्रंथ की रचना की है। सर जदुनाथ सरकार उल्लेख करते हैं कि शिवाजी के राज्याभिषेक में 11 हजार ब्राह्मण अपने परिवार के साथ लगभग 50 हजार की संख्या में पहुँचे और 4 महीने तक आतिथ्य स्वीकार किया। पहले यज्ञोपवीत हुआ, तुलादान हुआ तथा पुनर्विवाह किया गया। इस अवसर पर “हेनरी आक्साइडन” उपस्थित था। डच रिकार्ड के अनुसार शिवाजी का वजन तुलादान के समय 160 पौंड था जबकि अंग्रेजी रिकार्ड के अनुसार 150 पौंड। इनकी दूसरी पत्नी सोयराबाई के साथ इस अवसर पर पुनः विवाह किया गया तथा सोयराबाई को “राजमहिषी” घोषित किया गया। शिवाजी ने राज्याभिषेक के अवसर पर एक नया संवत् चलाया। सोने और तांबे के सिक्के भी जारी किए। इन सिक्कों में ‘श्री शिवा छत्रपति’ उत्कीर्ण कराया। 17 जून, 1674 ई. को इनकी माता जीजाबाई का देहान्त हो गया। परिणामस्वरूप, शिवाजी का दूसरी बार राज्याभिषेक हुआ। दूसरा राज्याभिषेक 24 सितम्बर, 1674 ई. को तांत्रिक तरीके से सम्पन्न हुआ। इसे निश्चलपुरी गोसाई नामक तांत्रिक ने सम्पन्न कराया।
कर्नाटक अभियान (1676-78 ई.)
यह शिवाजी का अन्तिम अभियान था। येलवर्गा बिजय 1677 ई. में की गई। यहाँ का किलेदार हुसैन खाँ भियाडा था। जिजी का किला 1678 ई. में विजित किया गया। यहां का किलेदार अब्दुल्ला हब्शी था। इसको शिवाजी ने कूटनीति से पराजित किया। जिंजी की विजय शिवाजी की अन्तिम विजय थी।
शिवाजी के जीवन में अन्तिम दो वर्ष दुःखद थे। दिसम्बर, 1678 ई. में उनका पुत्र शम्भा जी पत्नी येशुबाई के साथ निकल भागा और दक्कन में मुगल सूबेदार दिलेर खाँ से जाकर मिल गया। लगभग एक वर्ष बाद ही वह मराठा राज्य में वापस लौटा। इन सब कारणों से 1680 ई. में शिवाजी बीमार पड़ गए। 3 अप्रैल, 1680 ई. को अत्यधिक ज्वर के कारण उनकी मृत्यु हो गई। इनका अन्तिम संस्कार सोयराबाई से उत्पन्न बेटा राजाराम ने सम्पन्न किया। इनकी मृत्यु के समय सम्भाजी पन्हाला के किले में कैद था। शिवाजी के सात पत्नियाँ थीं। उनकी एक अन्य पत्नी पुतलीबाई उनकी मृत्यु के बाद सती हो गयी।
शिवाजी का प्रशासन
शिवाजी के राजत्व का आदर्श प्राचीन हिन्दू सिद्धान्तों पर आधारित था। भारतीय शास्त्रीय दृष्टिकोण से शिवाजी अच्छे राजा थे और अपने राज्य के सर्वोच्च अधिकारी थे। ‘छत्रपति‘ उनकी उपाधि थी। राजा समस्त प्रशासन की धुरी था। राज्य के सम्पूर्ण अधिकार व शक्तियाँ उसके हाथों में केन्द्रित थीं।
उनका साम्राज्य दो भागों में विभक्त था स्वराज यानि अपना राज्य अथवा मुल्क-ए-कादिम और भूमि का वह अनिश्चित क्षेत्र जो वैधानिक रूप से मुगल साम्राज्य के अन्तर्गत आता था, लेकिन जिससे चौथ वसूल की जाती थी पर वह शिवाजी के प्रशासन की सीमा में नहीं था। शिवाजी के स्वराज में महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु के काफी बड़े क्षेत्र सम्मिलित थे। रघुनाथ पण्डित हनुमन्ते के निरीक्षण में चुने हुए विशेषज्ञों द्वारा राज व्यवहार कोरा नामक शासकीय शब्दावली का शब्दकोश तैयार कराया गया।
राजा मध्य-युग के अन्य शासकों की भाँति शिवाजी एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-सम्पन्न निरंकुश शासक थे। राज्य की सम्पूर्ण शक्तियाँ उनमें केन्द्रित थीं। वही राज्य के अंतिम कानून-निर्माता, प्रशासकीय प्रधान, न्यायाधीश और सेनापति थे। इतिहासकार रानाडे के शब्दों में शिवाजी नैपोलियन की भाँति ‘एक महान् संगठनकर्ता और असैनिक प्रशासन के निर्माणकर्ता थे।‘ शिवाजी के शासन की एक विशेषता यह भी रही कि उन्होंने मराठी को शासन की भाषा बनाया और उसकी प्रगति के लिए रघुनाथ पंडित हनुमन्ते के सभापत्वि में विद्वानों की एक समिति की नियुक्ति करके उससे एक शब्दकोष – राज्य-व्यवहार-कोष-लिखवाया।
अष्टप्रधान परिषद्
प्रशासन में शिवाजी की सहायता और परामर्श के लिए 8 मंत्रियों की एक परिषद थी। इसे अष्टप्रधान परिषद् कहा जाता था। अष्टप्रधान परिषद् का प्रत्येक मंत्री अपने विभाग का प्रमुख था। वह शिवाजी द्वारा नियुक्त होता था। अपने कार्यों के लिए वह शिवाजी के प्रति उत्तरदायी था। अष्टप्रधान परिषद् के मंत्रियों को शिवाजी ने पृथक् कोई विशेष स्वतंत्र अधिकार नहीं दिये थे। ये मंत्री शिवाजी के उच्च सचिव के समान थे। मंत्रियों से परामर्श लेने के लिए शिवाजी बाध्य नहीं थे। शिवाजी ने किसी भी मंत्री के पद को आनुवंशिक नहीं होने दिया।
(1) पेशवा अथवा मुख्य प्रधान – इसका कार्य सम्पूर्ण राज्य के शासन की देखभाल करना था। यह राजा की अनुपस्थिति में उसके कार्यों की देखभाल भी करता था। सभी सरकारी दस्तावेजों पर राजा के हस्ताक्षर के बाद पेशवा की मुहर एवं हस्ताक्षर आवश्यक था।
(2) अमात्य अथवा मजमुआदर – यह राज्य के अर्थमंत्री था। राज्य की आय और व्यय की देखभाल करना तथा राजा को उससे अवगत कराना इसका कार्य था। शिवाजी के अमात्य रामचन्द्र पंत थे।
(3) मंत्री (वाकयानवीस) – यह दरबारी लेखक के रूप में राजा के दैनिक कार्यों को लेखबद्ध करता था। राजा की सुरक्षा की व्यवस्था करना तथा गुप्तचर एवं सूचना विभाग के कार्यों की देखभाल करना भी इसका कार्य था। इसका कार्य आज के गृहमंत्री के समान था।
(4) सुमंत (दबीर) – यह राज्य का विदेश मंत्री था।
(5) सचिव (शुरुनवीस या चिटनिस) – यह पत्राचार विभाग से सम्बन्धित था। यह राज्य के सचिवालय का प्रभारी अधिकारी था। सरकारी दस्तावेजों को तैयार करना इसका मुख्य कार्य था।
(6) सेनापति (सर-ए-नौबत) – सेना की भर्ती, संगठन, उनकी आवश्यकता की पूर्ति करना इसका प्रमुख कार्य था।
(7) न्यायाधीश – यह राजा के बाद राज्य का मुख्य न्यायाधीश था। दीवानी एवं फौजदारी मुकदमों का हिन्दू कानून के आधार पर न्याय करना इसका प्रमुख कार्य था।
(8) पंडितराव (सद्र) – धार्मिक मामलों में यह राजा का मुख्य सलाहकार था। समारोह या त्यौहारों में जिसमें राजा भाग लेता था, उसमें यह मुख्य पुजारी के रूप में होता था। राजा की तरफ से ब्राह्मणों को दान देना, धार्मिक कार्यों को निश्चित करना तथा प्रजा के नैतिक चरित्र को सुधारना इसका कार्य था।
सेनापति के अतिरिक्त प्रायः सभी मंत्री ब्राह्मण होते थे और न्यायाधीशों तथा पंडितराव को छोड़कर सभी को अवसर पड़ने पर सेनाओं का नेतृत्व करना पड़ता था। विभागीय दायित्वों के निष्पादन के साथ- साथ तीन मंत्रियों-पेशवा, सचिव तथा मंत्री को बड़े प्रान्तों का प्रभारी बनाया जाता था। प्रत्येक मंत्री के अधीन आठ अधिकारियों का कार्यालय होता था जो उनके आधिकारिक कार्यों के निष्पादन में सहयोग करते थे, इनमें – दीवान (सचिव), मजमुआदर (लेखा परीक्षक तथा लेखाकार), फड़नवीस (उपलेखा परीक्षक), सेबनिस या दफ्तरदार (कार्यालय प्रभारी) कारखानिस (रसद अधिकारी), चिटनिस (पत्राचार लिपिक), जमादार (खजांची) तथा पोटनिस (रोकड़िया) होता थे।
प्रान्तीय प्रशासन
शिवाजी द्वारा संगठित किया हुआ साम्राज्य तीन प्रांतों में विभक्त था। उनमें से प्रत्येक में एक प्रांतपति अथवा सूबेदार की नियुक्ति की गयी थी। उत्तरी प्रांत में डाँग, बागलाना, कोली प्रदेश, दक्षिणी सूरत, उत्तरी बम्बई का कोंकण प्रदेश और पूना की ओर का दक्षिणी पठार सम्मिलित था। यहाँ त्रिम्बक पिंगले की नियुक्ति की गयी थी। दक्षिणी प्रांत में दक्षिणी बम्बई का कोंकण प्रदेश, सामन्तवाड़ी और उत्तरी कनारा का समुद्र तट सम्मिलित था। यह प्रांत अन्नाजी दत्तो की अधीनता में था। दक्षिण-पूर्वी प्रांत में सतारा और कोल्हापुर के जिले तथा कर्नाटक में तुंगभद्रा के पश्चिम में बेलगाँव, धारवार और कोसल के जिले थे। यह प्रांत दत्तोजी पंत के अधिकार में था।
बाद में शिवाजी ने अपने मराठा राज्य को प्रशासन की दृष्टि से 5 भागों में विभाजित था। इन्हें प्रान्त या सरसूबा कहा जाता था। शिवाजी अपने क्षेत्र को स्वराज नाम से पुकारते थे। प्रान्त के सर्वोच्च अधिकारी को सरे-कारकुन या मुख्य देशाधिकारी या सर-सुबेदार के नाम से जाना जाता था। इसकी नियुक्ति स्वयं शिवाजी करते थे। शिवाजी के समय में मराठा राज्य इस प्रकार बँटा हुआ था-
(1) उत्तरी प्रान्त – इसमें बम्बई के उत्तर में सूरत व सल्हेर दुर्ग से लेकर पूना तक का भाग सम्मिलित था। यह प्रांत पेशवा मोरो त्रयम्बक पिंगले के अधीन था।
(2) दक्षिण-पश्चिमी प्रान्त – इस प्रान्त में दक्षिणी कोंकण प्रदेश या समुद्री तट सम्मिलित था। यह क्षेत्र अन्ना जी दत्तों के अधीन था।
(3) दक्षिण पूर्वी प्रान्त – इस क्षेत्र में सतारा, सांगली, कोल्हापुर आदि क्षेत्र शामिल थे। यह क्षेत्र दत्तो जी पन्त के अधीन था।
(4) दक्षिण प्रान्त – इसमें जिंजी और उसके आस-पास का प्रदेश सम्मिलित था। यह क्षेत्र रघुनाथ पन्त हनुमन्तै के अधीन था।
प्रत्येक प्रान्त महालों में विभक्त था। यहां का अधिकारी सरहवलदार होता था। महालों को तर्फी में बाँटा गया था जो हवलदार नामक अधिकारी के अधीन था। इसके अधीन कारकुन नामक अधिकारी होते थे। गाँव सबसे छोटा इकाई थी। पटेल या पाटिल इसके मुखिया होते थे।
एम.जी. रानाडे ने शिवाजी के असैनिक शासन-प्रबन्ध की विशेषता को निम्नलिखित विशेषताओं के कारण शासन-व्यवस्थाओं से पृथक माना है-
(1) किलों के शासन-प्रबन्ध को विशेष महत्त्व देना।
(2) शासन में ब्राह्मण, प्रभु, मराठा आदि सभी जातियों को सम्मिलित करके उनमें संतुलन बनाये रखने का प्रयत्न करना।
(3) अष्ट-प्रधान का निर्माण जिसके प्रत्येक सदस्य को पृथक-पृथक कार्य किया गया था तथा जिनमें से प्रत्येक राजा और अपने साथियों के प्रति अपने कार्यों के लिए उत्तरदायी था।
(4) शासन में सैनिक अधिकारियों की तुलना में असैनिक अधिकारियों को अधिक श्रेष्ठता प्रदान करना।
(5) लगान-व्यवस्था में किसानों से सीधा सम्पर्क स्थापित करना।
(6) किसी भी एक पद को एक ही परिवार तक सीमित न करना अथवा उस पद को पैतृक पद न बनाना।
भू-राजस्व व्यवस्था
शिवाजी की भू-राजस्व व्यवस्था मलिक अम्बर की भू-राजस्व व्यवस्था पर आधारित थी। शिवाजी ने अन्ना जी दत्ता के अधीन भूमि की विस्तृत माप करवायी। माप का आधार जरीब थी। जिसे ‘काठी‘ कहा जाता था। यह काठी 5 हाथ और 5 मुट्ठी लम्बी होती थी। 20 काठी लम्बी व 20 काठी चौड़ी भूमि को 1 वर्ग या बीघा कहा जाता था। 120 बीघे को चावर कहा जाता था। उपज के आधार पर भूमि को उत्तम, मध्यम एवं निम्न तीन श्रेणियों में बाँटा गया। प्रारम्भ में उपज के आधार पर उपज का 1/३ भाग भूमिकर निर्धारित किया गया। बाद में जब शिवाजी ने अन्य स्थानीय करों व चुंगियों को समाप्त कर दिया तब भूमि-कर बढ़ाकर 2/5 यानि 40 प्रतिशत भाग कर दिया। बंजर भूमि पर भूमि कर नहीं लिया जाता था। भूमि-कर जहाँ पर उद्यान भूमि या नकदी फसल उत्पन्न होने वाली भूमि थी, नकद निश्चित किया गया। अन्य स्थानों में नकद अथवा उपज के रूप में कर चुकाया जा सकता था। कर वसूली का आधार रैय्यतवाड़ी व्यवस्था थी, परन्तु शिवाजी जमींदारी ‘देशमुखी व्यवस्था‘ को समाप्त नहीं कर पाए, न ही अधिकारियों को मोकासा जागीरें देना बन्द किया।
अर्थव्यवस्था और लगान व्यवस्था
मुद्रा, व्यापारिक-कर और भूमि से लगान शिवाजी की आय के स्थायी साधन थे। परन्तु ये उनकी सेना और शासन के व्यय के लिए पर्याप्त न थे। इस कारण शिवाजी ने अपनी आय का मुख्य साधन ‘चौथ‘ और ‘सरदेशमुखी‘ को बनाया था। ये ‘कर’ पड़ौसी राज्यों की सीमाओं और नगरों से अथवा अपने प्रभाव-क्षेत्र के नागरिकों से वसूल किये जाते थे। ‘चौथ‘ उस प्रदेश की वार्षिक आय का एक-चौथाई भाग और ‘सरदेशमुखी‘ उस प्रदेश की आय का 1/10वाँ भाग होता था। शिवाजी इन प्रदेशों के शासन का उत्तरदायित्व अपने ऊपर नहीं लेते थे और न ये प्रदेश उनके राज्य की सीमाओं के अन्तर्गत आते थे। इन करों की वसूली शक्ति के आधार पर की जाती थी और इनका मुख्य लक्ष्य अपने शत्रु-राज्यों की सम्पत्ति से अपनी सेना और शासन के व्यय को पूरा करना था।
लगान-व्यवस्था के लिए शिवाजी का राज्य 16 प्रांतों में बाँटा गया था। प्रांतों को ‘तर्फ‘ और ‘कौजों‘ में बांटा गया था। ‘तर्फ‘ का प्रधान कारकुन कहलाता था और प्रांत का अधिकारी सूबेदार होता था। कभी-कभी कई प्रांतों की देखभाल के लिए एक सूबेदार की नियुक्ति भी की जाती थी। यद्यपि गाँव के प्राचीन पैतृक अधिकारी पाटिल और जिले के देशमुख अथवा देशपाण्डे पहले की भाँति अपने अधिकारों का उपयोग करते रहे परन्तु शिवाजी ने लगान की देखभाल के लिए नवीन अधिकारियों की नियुक्ति भी की थी।
अन्य राजस्व
चौथ – भूमिकर के अतिरिक्त शिवाजी की आय का एक अन्य स्रोत ‘चौथ’ थी। यह पड़ोसी राज्यों से वसूल की जाती थी। इसकी मात्रा राज्य की आय की एक चौथाई 1/4 होती थी। इस कर के बदले में पड़ोसी राज्यों को शिवाजी के आक्रमण तथा लूटपाट से बचने का आश्वासन प्राप्त हो जाता था।
सैन्य-प्रशासन
शिवाजी की सेना अत्यंत संगठित और नियमित थी। सेना में भर्ती होने वाले व्यक्तियों को शिवाजी स्वयं भी देखते थे। प्रत्येक नये सैनिक को अपनी जमानत किसी एक अन्य सैनिक से दिलानी पड़ती थी। सैनिक और अधिकारियों को अधिकांशतया नकद वेतन दिया जाता था।
शिवाजी की सैनिक-व्यवस्था में किलों की व्यवस्था एक प्रमुख स्थान रखती थी। शिवाजी के राज्य में प्रायः 250 किले थे जो उनकी सुरक्षा ओर आक्रमणकारी नीति के मुख्य आधार थे। प्रत्येक किले में तीन प्रमुख अधिकारी होते थे-एक ‘ हवलदार‘, एक ‘सबनिस‘ और एक ‘सर-ए-नौबत‘।
किले की रक्षा और प्रशासन तीनों का संयुक्त उत्तरदायित्व था। ‘हवलदार‘ तथा ‘सर-ए-नौबत‘ मराठा होते थे जबकि ‘सबनिय‘ ब्राह्मण होता था। इनके अलावा किले की रसद और सैनिक-सामग्री की देखभाल के लिए एक अन्य अधिकारी होता था जिसे ‘कारखाना-नयोग‘ कहते थे। वह आय और व्यय का पूर्ण विवरण रखता था। ‘सर-ए-नौवत’ पर रात में किले की सुरक्षा और प्रहरियों की देखभाल का दायित्व था। ‘सबनिस’ किले के असैनिक शासन की देखभाल करता था।
शिवाजी के सैन्य प्रशासन में दुर्ग, तोपखाना, नौ-सेना, घुड़सवार सेना एवं पैदल सेना सम्मिलित थी।
दुर्ग – सैन्य प्रशासन में दुर्गों का काफी महत्व था। शिवाजी के पास लगभग 250 दुर्ग थे। इसकी देख-रेख के लिए विभिन्न अधिकारियों को नियुक्ति की जाती थी-
हवलदार – किले की सुरक्षा व्यवस्था का उत्तरदायित्व इसी का होता था। यह मराठा जाति का होता था।
सूबेदार – यह किले के नागरिक प्रशासन का कार्य देखता था। यह ब्राह्मण जाति का होता था।
कारकुन – यह किले के गोदाम का अधिकारी होता था जो कायस्थ जाति का होता था।
इस प्रकार दुर्ग में विभिन्न जातियों के अधिकारियों की नियुक्ति करके सन्तुलन स्थापित किया गया था।
तोपखाना – शिवाजी के पास एक छोटा तोपखाना था, जिसमें लगभग 200 तोपें थीं। ये तोपें फ्रांसीसियों, पर्तुगालियों तथा अंग्रेजों से खरीदी गयी थीं।
नौसेना – शिवाजी के पास नौसेना भी थी। कोंकण प्रदेश को जीतने के पश्चात् जंजीरा के सीदियों के आक्रमण से अपने समुद्र-तट की रक्षा के लिए उन्हें इसका निर्माण करना आवश्यक हो गया था। सभासद के अनुसार शिवाजी की नौ-सेना में विभिन्न प्रकार के 400 जहाज थे। यह जल-बेड़ा दो भागों में विभक्त था। दरिया सारंग और माई नायक इनमें से प्रत्येक एक भाग का प्रधान था। कुछ वर्षों के पश्चात् शिवाजी को दो अन्य योग्य व्यक्तियों ‘मिसरी‘ और ‘दौलत खाँ‘ की सेवाएँ भी प्राप्त हो गयी थीं। खण्डेरी के द्वीप को सीदी और अंग्रेजों के संयुक्त आक्रमण से बचाने में सफलता पायी। इसके अतिरिक्त शिवाजी ने एक बड़ी व्यापारिक नौ-सेना का भी निर्माण किया था। डॉ. एस.एन. सेन ने लिखा है-“अपने तत्कालीन शासकों से भिन्न उस महान् मराठा ने यह समझ लिया था कि बिना एक शक्तिशाली व्यापारिक नौ-शक्ति के एक शक्तिशाली नौ-सेना का निर्माण असंभव था।” सूरत की अंग्रेज फैक्ट्री के प्रधान ने टिप्पणी की थी कि “एक अंग्रेजी जहाज अपने को बिना किसी खतरे में डाले हुए उनके एक सौ जहाजों को नष्ट कर देगा।” इस कारण शिवाजी की नौ-सेना का मुख्य कार्य अपने समुद्र तट की रक्षा करना, अपने तट पर आये हुए जहाजों से व्यापारिक कर लेना और समुद्र तट पर टूटे हुए जहाजों के सामान को अपने अधिकार में करने तक सीमित था। कोलाबा, कल्याण और भिवण्डी नगरों में नौ-सैनिक अड्डे थे।
अश्वारोही सेना – शिवाजी की अश्वारोही सेना के संगठन को पाग कहा जाता था। इसमें दो प्रकार के सैनिक होते थे- बरगीर एवं सिलेदार।
बरगीर को राज्य की ओर से घोड़े एवं शस्त्र प्राप्त होते थे जबकि सिलेदार इसका प्रबन्ध स्वयं करते थे।
घुड़सवारों की टुकड़ी की न्यूनतम इकाई 25 बरगीर की थी। इसका अधिकारी हवलदार होता था। 5 हवलदारों के ऊपर एक जुमलादार तथा 10 जुमलादारों के ऊपर एक हजारी होता था। 5 एक हजारी को एक पंच हजारी अधिकारी के अधीन रखा जाता था तथा सभी पंच हजारी घुड़सवार सेना के सर-ए-नौबत नामक अधिकारी के अधीन होती थी।
पैदल सेना – पैदल सेना को ‘पाइक‘ कहा जाता था। इसकी सबसे छोटी इकाई 10 सैनिकों की थी, जिसका अधिकारी ‘नायक‘ होता था। 10 नायकों पर एक हवलदार होता था। 3 हवलदारों पर एक जुमलादार तथा 10 जुमलादारों पर एक हजारी होता था। इसका सबसे बड़ा पद सात हजारी का होता था। पैदल सेना का सबसे बड़ा अधिकारी सर- ए-नौबत होता था।
शिवाजी के जीवन के अन्तिम समय में उनकी सेना में 29 सेनापतियों के अधीन 45000 बरगीर अश्वारोही तथा 31 सेनापतियों के अधीन 60000 सिलेदार अश्वारोही, लगभग एक लाख पैदल सेना, 1208 हाथी तथा 3000 ऊँट थे। सेना में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही होते थे। शिवाजी बहुत अनुशासन प्रिय थे। युद्ध में ब्राह्मणों, स्त्रियों आदि का सम्मान किया जाता था। राज्य के सैनिक अभियानों के समय परिवार के सदस्यों को साथ रखना मना था।
न्याय प्रशासन
शिवाजी की न्याय व्यवस्था निष्पक्षता पर आधारित थी। शिवाजी स्वयं सर्वोच्च न्यायालय के समान थे। वे न्यायधीश एवं पंडितराव की सहायता से निर्णय देते थे। शिवाजी का यह न्यायालय ‘धर्म सभा‘ या ‘हुजूर-हाजिर मजलिस‘ कहा जाता था। शिवाजी के नीचे न्यायाधीश का न्यायालय होता था। प्रान्तीय एवं महाल स्तर पर न्याय के लिए ‘मजलिस‘ हुआ करती थी जिसे ‘सभा‘ कहा जाता था। गाँवों में न्याय कार्य करने के लिए पंचायतों की व्यवस्था की गई थी। धर्मशास्त्र के सिद्धान्तों के आधार पर निर्णय दिया जाता था।
धार्मिक नीति
शिवाजी धर्म-सहिष्णु थे। शिवाजी एक सुसंस्कृत हिन्दू थे। समर्थ गुरु रामदास उनके आध्यात्मिक और धार्मिक गुरु थे। यह कहना तो उचित नहीं है कि गुरु रामदास ने शिवाजी के राजनीतिक उद्देश्यों के निर्माण में प्रमुख भाग लिया था परन्तु यह कहना सत्य है कि शिवाजी पर गुरु रामदास का प्रभाव धर्म और सदाचार का था और वे शिवाजी को प्रेरणा प्रदान करने वाली शक्ति थे। शिवाजी ने हिन्दुओं, ब्राह्मणों और गौरक्षा की दुहाई देते हुए भी अन्य धर्मों के प्रति पूर्ण सहिष्णुता का व्यवहार किया था। इस्लाम के साथ उनका व्यवहार बहुत उदार रहा। उन्होंने कभी मस्जिदों को तोड़ा नहीं, कुरान का अपमान नहीं किया। मुसलमान स्त्रियों और बच्चों के प्रति भी सम्मानपूर्ण व्यवहार किया। उनकी सेना एवं नौ-सेना में भी मुसलमानों को बड़े पद दिए गए थे। प्रसिद्ध इतिहासकार खाफी खाँ ने भी, जो उनका कटु आलोचक था, उनकी धार्मिक नीति की प्रशंसा की है।
इस प्रकार शिवाजी का शासन प्रबन्ध श्रेष्ठ था। सर जदुनाथ सरकार ने इसे ‘मध्ययुगीन राजतंत्र की एक अनोखी घटना’ बताया है। हालाँकि अंग्रेज इतिहासकार स्मिथ शिवाजी के राज्य को डाकू राज्य कहता है जो उचित नहीं है। औरंगजेब शिवाजी को ‘पहाड़ी चूहा‘ कहकर पुकारता था, परन्तु प्रसिद्ध मराठा इतिहासकार सर जदुनाथ सरकार ने लिखा है- ‘मैं उन्हें हिन्दू जाति द्वारा उत्पन्न किया हुआ अन्तिम महान क्रियात्मक व्यक्ति एवं राष्ट्र निर्माता मानता हूँ।’ उन्होंने आगे लिखा है- ‘शिवाजी ने यह प्रमाणित करके दिखा दिया कि हिन्दुत्व का वृक्ष वास्तव में मरा नहीं है, अपितु वह सदियों की राजनीतिक दासता, शासन से पृथकता और कानूनी अत्याचार के पश्चात भी पुनः उठ सकता है। उसमें नवीन पत्ते और शाखाएँ आ सकती हैं और वह एक बार फिर आकाश में सिर उठा सकता है।
शिवाजी का मूल्यांकन
सरदेसाई के अनुसार – “निस्सन्देह, शिवाजी का व्यक्तित्व अपने ही युग का नहीं बल्कि सम्पूर्ण आधुनिक युग का भी असाधारण व्यक्तित्व है। अन्धकार के बीच में वह एक ऐसे नक्षत्र के समान चमकते हैं जो अपने समय से बहुत आगे थे।” शिवाजी का चरित्र और व्यक्तित्व मराठा इतिहासकार के इस कथन की पुष्टि करता है। शिवाजी का चरित्र प्रत्येक प्रकार से आदर्श माना जा सकता है। वह एक अच्छे पत्र, वफादार मित्र, पत्नीप्रिय पति और प्रिय पिता थे। वह अपनी माता का अत्यधिक सम्मान करते थे। उनके चरित्र के विकास में उनकी माता का बहुत बड़ा हाथ रहा। दयालुता, सहिष्णुता, सद्व्यवहार, साहस, शौर्य, दृढ़ निश्चय, पवित्र विचार आदि सभी गुण उनमें थे।
शिवाजी एक महान् शासक प्रबन्धक थे। असैनिक और सैनिक दोनों ही प्रकार की शासन-व्यवस्था में उन्होंने अद्भुत योग्यता का परिचय दिया। परन्तु इनसे भी अधिक शिवाजी की महानता एक राष्ट्र-निर्माता के रूप में है। शिवाजी का महानतम कार्य हिन्दू-मराठा-राष्ट्र का निर्माण करना और उनकी महानतम देन उसको स्वतंत्रता की भावना प्रदान करना था। शिवाजी ने एक स्वतंत्र हिन्दू-राज्य की स्थापना का विचार किया।
शिवाजी के उत्तराधिकारी
21 अप्रैल, 1680 ई. को उत्तराधिकारी का उल्लंघन करते हुए राजाराम का राज्याभिषेक किया गया। कुछ समय बाद शम्भाजी का राज्याभिषेक हुआ।
शम्भाजी (1680-89 ई.)
शिवाजी की मृत्यु के बाद नवगठित मराठा साम्राज्य में आन्तरिक फूट पड़ गई। शिवाजी की दो पत्नियों से उत्पन्न दो पुत्रों शम्भाजी एवं राजाराम के बीच उत्तराधिकार का विवाद उठ खड़ा हुआ। अन्ततः राजाराम को गद्दी से उतारकर शम्भाजी (शम्भूजी) 20 जुलाई, 1680 ई. को सिंहासनारूढ़ हुए। उनकी माँ का नाम सईबाई था। इनका जन्म 1657 ई. में हुआ था। केशव भट्ट और उमाजी पंडित इनके गुरु थे। इनका विवाह येसूबाई के साथ हुआ जिससे एक पुत्र शाहू उत्पन्न हुआ। शिवाजी की मृत्यु के समय ये पन्हाला के किले में कैद थे, बाद में इनहें छोड़ दिया गया। 16 जनवरी, 1681 ई. में इनका राज्याभिषेक हुआ, इन्होंने रायगढ को अपनी राजधानी बनाई। शम्भाजी के समय में लगातार षड़यंत्रों के कारण उनका सम्पूर्ण शासनकाल दुष्प्रभावित हुआ व उनके साथी उनका साथ छोड़ गये। उनके जागीरदारों में विद्रोह फैल गया। मराठा नायकों के प्रति अविश्वास के कारण उन्होंने उत्तर भारतीय ब्राह्मण कविकलश पर भरोसा किया और उसे प्रशासन का सर्वोच्च अधिकार सौंप दिया। इस प्रकार शम्भाजी के समय में अष्ट प्रधान में विघटन हो गया।
शम्भाजी का संघर्ष जंजीरा के सिद्दियों से हुआ, इनका पुर्तगालियों एवं अंग्रेजों से भी संघर्ष हुआ। औरंगजेब का पुत्र अकबर पाली नामक गाँव में 13 नवम्बर, 1681 ई. को शम्भाजी से मिला। शम्भाजी ने अकबर को संरक्षण प्रदान किया, अतः औरंगजेब इनसे रूष्ट हो गया। फरवरी, 1689 ई. में संगमेश्वर के पास नावडी गाँव में शम्भाजी और कवि कलश को मुगल सेनापति मुकर्रब खाँ ने बन्दी बना लिया और इन्हें बहादुरगढ़ लाया गया। पुनः 3 मार्च, 1689 ई. को बहादुरगढ़ से कोड़ेगाँव लाया गया और यहाँ पर 11 मार्च, 1689 ई. को शम्भाजी एवं कविकलश की हत्या कर दी गई। शम्भाजी की हत्या के बाद राजराम पुनः राजा हुआ।
राजाराम (1689-1700 ई.)
शम्भाजी की मृत्यु के समय उनका पुत्र शाहू केवल सात वर्ष का था। शिवाजी के छोटे पुत्र और शम्भा जी के सौतेले भाई राजाराम को, जिसे शम्भा जी ने बन्दी बना रखा था, मराठा मंत्रिपरिषद ने राजा घोषित किया और फरवरी, 1689 ई. में रायगढ़ में उनका राज्याभिषेक किया गया। लेकिन मुगलों के आक्रमण की आशंका से यह रायगढ़ से तुरन्त निकल पड़े। पन्हाला होते हुए उन्होंने जिंजी में शरण ली। 1689 ई. में औरंगजेब ने रायगढ़ पर अधिकार कर लिया तथा येसूबाई और शाहू को गिरफ्तार कर लिया। 1691 ई. में मुगलों ने जुल्फिकार खाँ के नेतृत्व में ‘जिंजी का घेरा’ डाल दिया। 8 वर्षों तक राजाराम जिंजी के किले में कैद रहा। 1698 ई. में राजाराम जिंजी से पलायन कर गये तथा सतारा के प्राकृतिक दुर्गों में अपनी राजधानी बनाई। 1700 ई. में सतारा में उनकी मृत्यु हो गई। इन्होंने एक नये पद ‘प्रतिनिधि‘ की नियुक्ति की। पदक्रम में पेशवा का पद प्रतिनिधि के बाद था। इस प्रकार शिवाजी के अष्टप्रधान में प्रतिनिधि सहित नौ मंत्री हो गये। राजाराम के जिंजी चले जाने के तत्काल बाद ही मुगलों ने जुल्फिकार खाँ के नेतृत्व में अक्टूबर, 1689 ई. में रायगढ़ पर अधिकार कर लिया। शम्भाजी के पुत्र शाहू सहित उनके परिवार के सभी सदस्य मुगलों के कब्जे में आ गये। यद्यपि शाहू को ‘राजा’ की उपाधि दी गई और एक मनसब भी दिया गया, फिर भी वह औरंगजेब की मृत्यु (1707 ई.) तक वस्तुतः मुगलों के अधीन कैदी ही बना रहा। इस प्रकार 1689 ई. के अन्त तक मराठा राज्य की स्थिति पूरी तरह बदल गई थी। परिस्थितियों में मुगलों से मुकाबला करने के लिए पेशवा, नीलकंठ मोरे, श्वार पिंगले, अमात्य रामचन्द्र, नीलकंठ बावडेकर, सचिव शंकर जी, मल्हार तथा प्रहलाद निराजी रावजी के रूप में चार कुशल मराठा सरदारों ने मुगलों प्राविरुद्ध संघर्ष करने का संकल्प लिया। अब तक गैर महत्त्वपूर्ण पदों के कार्यरत तीन अन्य व्यक्ति धनाजी जाधव, सन्ता जी घोर्पड़े तथा परशुराम त्रयम्बक अपनी योग्यताओं के बल पर आगे आए। रामचन्द्र बावडेकर को महाराष्ट्र में मराठा सेनानायकों तथा अन्य प्रशासनिक अधिकारियों को पूर्णरूप से नियंत्रित करने के लिए निरंकुश शासक के अधिकार प्रदान किए गए।
ताराबाई (1700-1707 ई.)
राजाराम की मृत्यु के बाद उसका अल्पवयस्क पुत्र शिवाजी द्वितीय शासक बना तथा राजाराम की पत्नी ताराबाई उसकी संरक्षिका बनी। ताराबाई के समय में मराठों का पुनः उत्कर्ष हुआ। 1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु हो गई तथा जुल्फिकार खाँ के कहने पर मुअज्जम ने शाहू जी को कैद से रिहा कर दिया।
शाहूजी (1707-1749 ई.)
ये शम्भाजी के पुत्र थे। मुअज्जम ने इन्हें 1707 ई. में छोड़ दिया। 1707 ई. में खेड़ नामक स्थान पर शाहूजी और ताराबाई की सेना में युद्ध हुआ। ताराबाई की पराजय हुई और वह भागकर दक्षिणी महाराष्ट्र पहुँच गयी। शाहूजी ने सतारा को अपनी राजधानी बनायी तथा यहीं पर 1708 ई. में अपना राज्याभिषेक कराया। इन्होंने एक नया पद ‘सेनाकर्ते‘ सेना को संगठित करने वाला का गठन किया तथा राज्याभिषेक के अवसर पर बालाजी विश्वनाथ को सेनाकर्ते के पद पर नियुक्त किया।
इस तरह अब मराठा राज्य दो भागों में बँट गया- उत्तर में सतारा राज्य जो शाहू के अधीन था तथा दक्षिण में कोल्हापुर राज्य जो शिवाजी द्वितीय के अधीन था। यह आपसी संघर्ष तब समाप्त हुआ जब शिवाजी द्वितीय की मृत्यु के बाद राजाराम की दूसरी पत्नी से उत्पन्न पुत्र शम्भाजी द्वितीय गद्दी पर बैठा। 1731 ई. में शम्भाजी द्वितीय के समय वारना की संधि के बाद यह संघर्ष समाप्त हुआ। इसमें यह व्यवस्था की गई कि शम्भाजी द्वितीय मराठा राज्य के दक्षिण भाग पर जिसकी राजधानी कोल्हापुर थी, शासन करें तथा उत्तरी भाग, जिसकी राजधानी सतारा थी, पर शाहू शासन करे।
शाहू के गर्दिश के दिनों में बालाजी विश्वनाथ ने उसका सर्वाधिक साथ दिया था। जनवरी, 1708 ई. में अपने सिंहासनारूढ़ होने के अवसर पर शाहू ने बालाजी विश्वनाथ को सेनाकर्ते (सेना के निर्माता) का पद प्रदान किया था। पेशवा के पद पर बालाजी की नियुक्ति के साथ ही यह पद वंशानुगत हो गया और बालाजी तथा उनके उत्तराधिकारी राज्य के वास्तविक शासक बन गए। 1714 ई. में राजाराम की दूसरी पत्नी राजसबाई ने ताराबाई और उसके पुत्र को कैद कर लिया और अपने पुत्र शम्भा जी द्वितीय के साथ कोल्हापुर में बस गई।
राजाराम द्वितीय (1749-1750 ई.)
शिवाजी द्वितीय के कोई पुत्र नहीं था। ताराबाई के कहने पर तथाकथित शिवाजी द्वितीय के पुत्र राजाराम द्वितीय को छत्रपति बनाया गया। 1750 ई. में बालाजी बाजीराव से राजाराम द्वितीय की ‘संगोला की सन्धि‘ हो गई। इस संधि के अनुसार मराठा संगठन का वास्तविक नेता पेशवा बन गया। अब छत्रपति नाम मात्र का प्रधान रह गया और सतारा के किले में बन्दी की तरह जीवन बिताता था।
पेशवाओं का इतिहास
पेशवाओं ने महाराष्ट्र को राजनीतिक स्थायित्व और शान्ति प्रदान की। अपनी योग्यता और शक्ति के बल पर उन्नति करते हुए वे स्वयं ही मराठा राज्य के सर्वेसर्वा बन गये। इनका राजनीतिक उत्थान अत्यन्त रोचक है।
बालाजी विश्वनाथ (1713-20 ई.)
बालाजी विश्वनाथ को ‘मराठा साम्राज्य का द्वितीय संस्थापक‘ माना जाता है। ये 1699 ई. से 1708 ई. तक मराठा सेनापति धनाजी जादव की सेवा में रहे। 1708 ई. में धनाजी जादव की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र चन्द्रसेन जादव के ताराबाई के पक्ष में मिल जाने पर बालाजी विश्वनाथ को शाहू की सेवा में आने का अवसर प्राप्त हुआ। 1708 ई. में शाहू ने इन्हें सेनाकर्ते का पद प्रदान किया। 1713 ई. में शाहू ने इन्हें पेशवा नियुक्त किया। बालाजी विश्वनाथ की मुख्य सफलता 1719 ई. में मुगल बादशाह की ओर से सैय्यद हुसैन अली द्वारा मराठों से की गयी सन्धि थी। इस सन्धि के अनुसार-
(1) मुगल बादशाह (रफी-उद्-दरजात) ने शाहू को महाराष्ट्र और शाहू द्वारा विजित प्रदेशों का स्वामी मान लिया।
(2) दक्षिण भारत के 6 सूबों से चौथ और सरदेशमुखी वसूल करने की अनुमति दे दी गई। इसके बदले में शाहू ने अवसर पड़ने पर मुगलों को 15000 घुड़सवार सैनिकों की सहायता देने और मुगल बादशाह को प्रतिवर्ष 10 लाख रुपये देना स्वीकार किया।
रिचर्ड टेम्पल ने इस सन्धि को मराठों का ‘मैग्नाकार्टा‘ कहा है।
हुसैन अली के साथ विश्वनाथ खाण्डेराव धामादे के नेतृत्व में मराठा सैनिक दिल्ली गये, फर्रुखसियर को सिंहासन से हटाने में भाग लिया और उसकी जगह रफीउद्-दरजात को शासक बनाया तथा उसी से इस सन्धि पर हस्ताक्षर करवा लिया गया। यह दिल्ली की संधि के नाम से प्रसिद्ध है। बालाजी विश्वनाथ को राज्य के ‘वित्तीय संसाधनों के निपुण प्रबधंक‘ होने का श्रेय प्रदान किया जाता है। उन्होंने कूटनीति, युद्ध तथा संधि इन सभी उपायों का सहारा लेकर उन सरदारों का दमन किया जो मराठा क्षेत्र में उत्पात मचा रहे थे। ये सरदार थे- कृष्णराव खातलकर, धनाजी थोरठ, साहूजी निम्बालकर, उदयजी चह्वान आदि। कुछ को उसने कूटनीति द्वारा अपने पक्ष में कर लिया जैसे परशुराम प्रतिनिधि तथा कान्होजी आंग्रे । आंग्रे को मराठा नौसेना के प्रमुख सरेखेल का पद सौंपा गया। 30 जनवरी, 1715 ई. में आंग्रे द्वारा पराजित जंजीरा के सिद्दी तथा आंग्रे के मध्य बालाजी के प्रयासों से एक संधि हुई जिसके अन्तर्गत उन्होंने मराठा क्षेत्र पर लूट-खसोट बंद कर दी। स्मरण रहे कि जंजीरा के सिद्दी शिवाजी की कोंकण नीति में हमेशा से बाधक रहे थे तथा मराठा राज्य में बराबर लूटमार व अत्याचार करते रहे थे।
बाजीराव प्रथम (1720-40 ई.)
बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र बाजीराव प्रथम पेशवा बना। बाजीराव के सम्मुख बहुत से कठिन कार्य थे। स्वराज का एक भाग जंजीरा के सिद्दियों (सीडियों) के अधीन था। शिवाजी के वंशज कोल्हापुर के शम्भूजी, शाह की सर्वोच्च सत्ता को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे तथा अन्य मराठा सरदार स्वायत्तता प्राप्त करना चाहते थे। बाजीराव प्रथम अपनी योग्यता तथा सुझबूझ के बल पर इन कठिनाइयों पर विजय पाने में सफल रहा। मुगल साम्राज्य के प्रति अपनी नीति की घोषणा करते हुए उसने कहा- ‘हमें इस जर्जर वृक्ष के तने पर प्रहार करना चाहिए, शाखाएँ तो स्वयं ही गिर जायेंगी।’ वाजीराव ने हिन्दूपद पादशाही के आदर्श का प्रचार किया और इसे लोकप्रिय बनाया।
निजाम से सम्बन्ध – निजामुल्मुल्क आसफजहाँ जो दक्कन के स्वतंत्र हैदराबाद राज्य का संस्थापक था ने कोल्हापुर गुट को प्रोत्साहित कर मराठों के बीच फूट डलवाने का प्रयत्न किया। बाजीराव ने 7 मार्च, 1728 ई. को पालखेड के समीप निजाम को पराजित किया तथा उसमें मुंशी शिवगाँव की सन्धि की। इस सन्धि के भुसार निजाम ने शाहू को चौथ तथा सरदेशमुखी देना, शम्भाजी को सहायता न देना, विजित प्रदेश लौटाना तथा बन्दी छोड़ देना स्वीकार किया।
निजाम की पराजय से दक्कन में मराठों को सर्वोच्चता स्थापित हो गई। शम्भूजी के षड्यन्त्र भी असफल हो गए और अन्त में उसने अप्रैल 1731 ई. में ‘वारना की सन्धि‘ से शाह की अधीनता स्वीकार कर ली।
गुजरात विजय – गुजरात से भी मराठे चौथ और सरदेशमुखी वसूल करते थे। शाहू ने गुजरात से कर वसूलने का भार मराठा सेनापति त्र्यम्बक राव दाभादे को दे दिया। परन्तु दाभादे इससे सन्तुष्ट न था और वह मालवा तथा गुजरात की संयुक्त चौथ पर अधिकार चाहता था। उसने निजाम से मित्रता भी कर ली। अतः दाभादे के प्रभाव को रोकने के लिए 1731 ई. में बाजीराव ने त्र्यम्बक राव के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही आरम्भ कर दी। डभोई के युद्ध में त्र्यम्बक राव मारा गया और उनके स्थान पर ‘पिलाजी गायकवाड़’ का अधिकार गुजरात में स्थापित किया गया। अन्त में, 1738 ई. में गुजरात मराठा राज्य में मिला लिया गया।
मालवा विजय – मालवा उत्तर भारत तथा दक्कन को जोड़ने वाली एक कड़ी के रूप में था। दक्कन तथा गुजरात को जाने वाले व्यापार मार्ग यहाँ से गुजरते थे। बालाजी विश्वनाथ ने 1719 ई. में मालवा से चौथ प्राप्त करने का असफल प्रयास किया था। 1728 ई. में मालवा पर आक्रमण किया गया। यहाँ के सूबेदार गिरधर बहादुर को ‘अमझेरा के युद्ध‘ में पराजित किया गया। ऊदाजी पवार तथा मल्हारराव होल्कर ने आक्रमणों से मुगल सत्ता की जड़ें उखाड़ डाली। सवाई जयसिंह, मुहम्मद खाँ बंगश जैसे मुगल सूबेदार मराठों के आक्रमणों को रोकने में असफल रहे। 17 नवम्बर 1734 ई. को पिल्लैजी जादव ने वजीरेआजम कमरुद्दीन खाँ को पराजित किया। 1735 ई. तक मालवा पर मुगलों की सत्ता लुप्तप्रायः हो गयी।
बुन्देलखण्ड की विजय – बुन्देले राजपूतों के एक कुल थे। वे मालवा के पूर्व में यमुना तथा नर्मदा के बीच पहाड़ी प्रदेश में राज्य करते थे। बुन्देलखण्ड इलाहाबाद की सूबेदारी में था। जब मुहम्मद खाँ बंगश इलाहाबाद का सूबेदार नियुक्त हुआ तो उसने बुन्देलों को समाप्त करने की ठानी, उसने जैतपुर जीत भी लिया। बुन्देल नरेश छत्रसाल ने मराठों से सहायता माँगी। 1728 ई. में मराठों ने बुन्देलखण्ड के सभी विजित प्रदेशों को मुगलों से वापस छीन लिया। छत्रसाल ने पेशवा की शान में एक दरबार का आयोजन किया, दरबार में एक मुस्लिम नर्तकी मस्तानी को पेश किया तथा काल्पी सागर, झाँसी तथा हृदयनगर पेशवा को निजी जागीर के रूप में भेंट किया।
दिल्ली पर आक्रमण तथा भोपाल का युद्ध – बाजीराव 29 मार्च, 1737 ई. को दिल्ली पहुँचा। वहाँ केवल 3 दिन ठहरा। 31 मार्च को मालवा की सूबेदारी तथा 13 लाख की वार्षिक नकद धनराशि की अदायगी का आश्वासन दिए जानेपर वह वहाँ से हट गया। 1737 ई. में ही मुगल बादशाह ने निजाम को मराठों के विरुद्ध भेजा। बाजीराव ने भोपाल के निकट निजाम को घेर लिया और ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि उसे बिना युद्ध के 7 जुलाई 1738 ई. को ‘दुरई सराय की संधि‘ के लिए विवश होना पड़ा। इस संधि की शर्त पूर्णतः मराठों के अनुकूल थीं। निजाम ने संपूर्ण मालवा प्रदेश तथा नर्मदा से चंबल के इलाके की पूरी सत्ता मराठों को सौंप दी। इन शर्तों को बादशाह से मंजूर कराने तथा 50 लाख रुपये की अदायगी का वायदा भी किया। इस प्रकार मालवा प्रदेश एक प्रकार से मुगल साम्राज्य से छिन गया।
बसीन की विजय– 1739 ई. में मराठों ने चिमनाजी के नेतृत्व में पुर्तगालियों से उत्तरी क्षेत्र में स्थित उनकी राजधानी बसीन छीन ली। यूरोपीय शक्ति के विरुद्ध यह मराठों की महानतम विजय थी। इस क्षेत्र से प्राप्त राजस्व की राशि ढाई लाख रुपये प्रतिवर्ष थी।
बसीन विजय के पश्चात् पेशवा के निजामुलमुल्क के पुत्र तथा नायक नासिरजंग के खिलाफ अभियान किया क्योंकि उसने निजाम के साथ हुई संधि के दावों को स्वीकार नहीं किया था। 7 मार्च 1740 को नासिरजंग को ‘मुंगी पैठन की संधि‘ के लिए विवश होना पड़ा। दोनों ही पक्षों ने एक-दूसरे के अधिकृत प्रदेश पर अधिकार न करने व शांति का बर्ताव करने का वदा किया। इसी कालावधि में रानोजी सिंधिया ने मालवा के सिंधिया वंश की स्थापना की। इसकी प्रारम्भिक राजधानी उज्जैन थी, बाद में यह ग्वालियर में स्थानांतरित हो गई। मालवा के एक भाग का अधिकार मल्हार राव होल्कर को सौंपा गया। इन्होंने इन्दौर के होल्कर राजवंश की स्थापना की। पिलाजी गायकवाड़ गुजरात में स्थापित हुए और बडौदा को इन्होंने अपनी राजधानी बनाई। नागपुर के भोंसले वंश ने शाहू के साथ सगोत्र सम्बन्ध होने का दावा किया।
बालाजी बाजीराव (1740-61 ई.)
पेशवा बाजीराव का 40 वर्ष की अल्पायु में ही निधन हो गया। उनके बाद उनका पुत्र बालाजी बाजीराव (नाना साहब के नाम से प्रसिद्ध) गद्दी पर बैठा। वह अपने पूरे पेशवा काल में अपने चचेरे भाई सदाशिव राव भाऊ के परामर्श और मार्ग निर्देशन पर निर्भर रहा। पिता के समान वह भी 20 वर्ष की आयु में पेशवा बना था। इन्होंने 1750 ई. में मराठा शासक राजाराम द्वितीय से संगौला समझौता करके राज्य के सम्पूर्ण अधिकार स्वयं ले लिए। इनके काल में मराठा राज्य का सर्वाधिक प्रसार हुआ।
‘मालवा और बुन्देलखण्ड में मराठा शक्ति – मराठे पहले से ही मालवा से चौथ लेते थे, परन्तु उनका नियंत्रण संपूर्ण नहीं था। जयसिंह की मध्यस्थता से 5 जुलाई, 1741 ई. को मुगल सम्राट ने एक फरमान कुरा राजकुमार अहमद को मालवा का सूबेदार नियुक्त कर दिया तथा पेशवा को नायब सूबेदार। इस प्रकार मालवा का प्रशासन फौजदारी न्याय सहित मराठों के हाथ में आ गया। मराठों ने 1742 ई. में ओरछा के बुन्देला सरदार को परास्त कर झाँसी पर अधिकार कर लिया तथा झाँसी बुन्देलखण्ड में मराठा उपनिवेश बन गया।
पूर्व तथा दक्षिण में मराठा प्रसार– तंजौर के मराठा सरदार कर्नाटक के नवाब दोस्त अली से अप्रसन्न थे। बुराई से रघूजी भोंसले ने कर्नाटक के विरुद्ध एक अभियान भेजा ताकि दोस्त अली पर काबू पाया जा सके। युद्ध में दोस्त अली मारा गया तथा उसके पुत्र ने सन्धि कर ली। मराठों ने त्रिचनापल्ली का घेरा डालकर दोस्त अली के जामाता चाँदा (चन्दा) साहिब को बन्दी बनाकर सतारा भेज दिया। इसके पश्चात् रघुजी ने पूर्व में बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा से चौथ माँगी और अपने वित्त मंत्री भास्कर पंत को इस उद्देश्य से भेजा। नवाब अलीवर्दी खाँ ने भास्कर राव को धोखे से 1744 ई. में मरवा दिया। फलस्वरूप रघुजी भोंसले ने बंगाल पर आक्रमण किया तथा लूटपाट की। अलवर्दी खाँ को बाध्य होकर 1751 ई. में उड़ीसा मराठों को देना पड़ा तथा बंगाल एवं बिहार से चौथ के रूप में 12 लाख रुपया वार्षिक देना स्वीकार किया।
निजाम से युद्ध – 1745 ई. में निजामुलमुल्क आसफजाह की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारियों में गृह-युद्ध छिड़ गया और पेशवा को खानदेश तथा बराड़ में अपना अधिकार स्थापित करने का अवसर मिल गया। अन्ततः 1752 ई. की झलकी की सन्धि द्वारा निजाम ने बराड़ का आधा भाग मराठों को दे दिया। सितम्बर, 1757 ई. में पुनः युद्ध छिड़ गया और जनवरी, 1760 ई. में हुए उदगीर के युद्ध में निजाम की करारी पराजय हुई। मराठों ने 60 लाख रु. वार्षिक कर के प्रदेश जिसमें अहमदनगर, दौलताबाद, बुरहानपुर तथा बीजापुर नगर सम्मिलित थे, प्राप्त कर लिए।
मराठों का पंजाब तथा दिल्ली में उलझना – 1757 ई. में रघुनाथ राव एक सेना के साथ दिल्ली पहुँचा। मुगल बादशाह ने मराठों से सन्धि कर ली और उसके सहयोग से अहमदशाह अब्दाली के प्रतिनिधि नजीबुद्दौला को मीरबक्शी के पद से हटा दिया। मार्च, 1758 ई. में रघुनाथ राव पंजाब की ओर बढ़ा और अब्दाली के पुत्र राजकुमार तैमूर को पंजाब से निकाल दिया। मराठे इसके बाद अटक तक पहुँच गए। उन्होंने अदीनाबेग खाँ को 75 लाख रु. वार्षिक कर के बदले पंजाब का गवर्नर नियुक्त कर दिया। अदीना बेग की मृत्यु के पश्चात साबाजी सिन्धिया ने यह पद सँभाल लिया।
अहमदशाह अब्दाली ने मराठों की इस चुनौती को स्वीकार किया। नजीबुद्दौला और बंगाल के पठानों ने अब्दाली को प्रेरित किया कि वह दिल्ली से काफिरों को निकाल दे। नजीबुद्दौला ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला, रुहेला सरदार हाफिज रहमत खाँ, सादुल्ला खाँ तथा दुन्दी खाँ का समर्थन भी दिलवाया। दूसरी ओर गाजीउद्दीन ने ३० नवम्बर, 1759 ई. को सम्राट आलमगीर द्वितीय का वध कर दिया। इस कारण अब्दाली, गाजीउद्दीन को दण्ड देना चाहता था। सिडनी ओवन के अनुसार अहमदशाह अब्दाली एक कट्टर मुस्लिम होने के कारण मराठों के अपने सहधर्मियों के विरुद्ध अभियानों का विरोधी था। अतएव उसने युद्ध का निश्चय किया, फलस्वरूप पानीपत का तृतीय युद्ध हुआ।
पानीपत का तृतीय युद्ध (14 जनवरी, 1761 ई.)
बालाजी बाजीराव के समय की यह प्रमुख घटना है। यह युद्ध मराठों और अफगानिस्तान के शासक अहमदशाह अब्दाली के मध्य हुआ। इस युद्ध में अहमदशाह अब्दाली विजित हुआ और मराठे पराजित हुए।
1759 ई. के अन्तिम दिनों में अब्दाली ने सिन्धु नदी पार की तथा पंजाब को जीत लिया। साबाजी तथा दत्ता जी सिन्धिया उसे रोकने में असमर्थ रहे और दिल्ली की ओर लौट गये। दिल्ली के उत्तर में लगभग 10 मील दूर बराड़ी घाट के छोटे से युद्ध में दत्ता जी मारे गये। जनकोजी सिंधिया तथा मल्हार राव होल्कर भी अब्दाली को रोकने में असमर्थ रहे।
पेशवा बालाजी बाजीराव ने सदाशिवराव भाऊ को दिल्ली भेजा। भाऊ ने 22 अगस्त, 1760 ई. को दिल्ली पर अधिकार कर लिया। 14 जनवरी, 1761 ई. को पानीपत के मैदान में दोनों पक्षों के बीच युद्ध हुआ। मराठे पराजित हुए। प्रसिद्ध इतिहासकार जे.एन. सरकार के अनुसार महाराष्ट्र में संभवतः ही कोई परिवार ऐसा होगा जिसने कोई न कोई सम्बन्धी न खोया हो तथा कुछ परिवारों का तो सर्वनाश ही हो गया। इस युद्ध में नजीबुद्दौला ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला, रुहेला सरदार हाफिज रहमत खाँ और सादुल्ला खाँ से अब्दाली को समर्थन दिलवाया। जाटों (सूरजमल), राजपूतों एवं सिक्खों ने भी मराठों का साथ नहीं दिया। मल्हारराव होल्कर युद्ध से भाग गया। युद्ध में पेशवा का पुत्र विश्वासराव, सदाशिव राव भाऊ, जसवन्त राव पवार, तुकोजी सिंधिया, पिल्लैजी जादव जैसे 27 महान सरदार, सैकड़ों की संख्या में छोटे सरकार तथा 28,000 मराठा सिपाही काम आए, पानीपत में युद्ध में हार के कारण मराठों की प्रतिष्ठा को भारी क्षति हुई। इब्राहिम खाँ गार्दी का भारी तोपखाना इस युद्ध में उपयोगी सिद्ध नहीं हुआ जब कि अब्दाली की ऊँटों पर रखी घूमने वाली तोपों ने मराठों का सर्वनाश कर दिया। मल्हारराव होल्कर युद्ध के बीच में ही भाग निकला। इब्राहिम खाँ गार्दी ने मराठा तोपखाने का नेतृत्व किया। गार्दी हैदराबाद के निजाम की सेना में बुस्सी के अधीन लड़ने के पश्चिमी तरीकों से प्रशिक्षित हुआ था। इस युद्ध में पराजय को बालाजी बाजीराव सहन नहीं कर सका और 1761 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। पेशवा को सूचना व्यापारियों द्वारा मिली कि ‘युद्ध में दो मोती विलीन हो गये।’
पानीपत के युद्ध का राजनीतिक महत्व – पानीपत के युद्ध के प्रभाव पर इतिहासकारों में मतभेद है। मराठा इतिहासकार के अनुसार मराठों ने 75000 सैनिकों के अतिरिक्त राजनीतिक महत्व का कुछ नहीं खोया। अब्दाली को भी इससे कोई विशेष लाभ नहीं हुआ। जी.एस. सरदेसाई लिखते हैं, ‘युद्धस्थल में मराठों के सैन्य बल की इतनी अधिक क्षति हुई, इसके अतिरिक्त इस युद्ध ने कुछ भी निर्णय नहीं किया।’ एक अन्य लेखक सिडनी ओवन ने इस युद्ध के विषय में लिखा है ‘इससे मराठा शक्ति, कुछ काल के लिए चूर-चूर हो गयी। यद्यपि यह बहुमुखी दैत्य मरा तो नहीं, परन्तु इतनी भली-भाँति कुचला गया कि यह लगभग सोया रहा तथा जब यह जागा तो अंग्रेज इससे निपटने के लिए तैयार थे तथा अन्त में इसे जीतने तथा समाप्त करने में सफल हुए। पानीपत के तृतीय युद्ध के प्रत्यक्षदर्शी काशीराज पंडित के शब्दों में “पानीपत का तृतीय युद्ध मराठों के लिए प्रलयकारी सिद्ध हुआ।” श्री आर.बी. सरदेसाई लिखते हैं कि “पानीपत के तृतीय युद्ध ने यह निश्चित नहीं किया कि भारत पर कौन शासन करेगा, बल्कि यह निश्चित किया कि भारत पर कौन शासन नहीं करेगा अर्थात् अब मराठे शासन नहीं करेंगे।” अप्रत्यक्ष रूप से पानीपत के युद्ध ने भारत में सर्वोच्चता के संघर्ष के लिए अन्य प्रतिद्वन्द्वी ला खड़ा किया। वास्तव में यह इस युद्ध का सीधा परिणाम था। अतएव इसने भारतीय इतिहास को एक नया मोड़ दे दिया। मराठों की पराजय सिक्ख राज्य के उदय में सहायक बनी।
माधवराव (1761-72 ई.)
पानीपत की हार के बाद माधवराव ने मराठों की खोयी हुई प्रतिष्ठा को पुनः बहाल करने का प्रयत्न किया। उसने हैदराबाद के निजाम और मैसूर के हैदरअली को चौथ देने के लिए बाध्य किया। इससे दक्षिण भारत में मराठों के सम्मान को पुनः स्थापित करने में सहायता मिली। इसी के काल में मुगल बादशाह शाहआलम द्वितीय 1772 ई. में अंग्रेजों के संरक्षण को छोड़कर इलाहाबाद से दिल्ली आ गया और मराठों की संरक्षिता स्वीकार कर ली। माधवराव का अपने चाचा रघुनाथराव से मतभेद हो गया क्योंकि 1765 ई. में रघुनाथराव ने मराठा साम्राज्य के विभाजन की माँग की। माधवराव इसी बीच 1772 ई. में क्षयरोग से मर गया। इसकी मृत्यु के साथ ही मराठा साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हो गया। माधवराव अन्तिम महान पेशवा थे। उनकी मृत्यु के बाद मराठा राज्य गहरे संकट में आ गया। इतिहासकार ग्रांट डफ ने लिखा है कि ‘पेशवा की इतनी शीघ्र मृत्यु पानीपत के युद्ध क्षेत्र में मराठों की पराजय से कहीं अधिक घातक थी।’
नारायणराव (1772-73 ई.)
माधवराव की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई नारायणराव पेशवा बना लेकिन 1773 ई. में उसके चाचा रघुनाथराव ने पेशवा बनने के लिए नारायणराव की हत्या कर दी।
माधव नारायणराव (1774-95 ई.)
नारायणराव की मृत्यु के बाद जन्मा उसका पुत्र माधव नारायणराव पेशवा बना। नाना फड़नवीस के नेतृत्व में मराठा सरदारों ने मराठा राज्य की देखभाल के लिए ‘बारा भाई कौसिल‘ की नियुक्ति की। प्रमुख मराठा सरदारों की इस चुनौती का सामना करने में अपने को असमर्थ पाकर रघुनाथराव पूना से भागने पर मजबूर हो गया और बम्बई जाकर नाना फड़नवीस के विरुद्ध अंग्रेजों से सहायता माँगी। उसके इस दुर्भाग्यपूर्ण प्रयास ने आंग्ल-मराठा युद्ध की भूमिका तैयार कर दी।
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