भारतीय संघीय व्यवस्था के आधारभूत तत्व
(Main Elements of Indian Federal System)
सत्ता की शक्तियों के वितरण तथा स्तरों के आधार पर अपनायी जानी वाली शासन प्रणाली ही संघवाद है । इस प्रणाली के अंतर्गत शासन का संचालन केन्द्र तथा उसकी विभिन्न इकाईयों के माध्यम से होता है । संघीय शासन का निर्माण भी प्रायः दो प्रकार से होता है । प्रथम पूर्व में अनेक संप्रभु इकाईयों का आपस में एक हो जाना और द्वितीय , एक बड़ी राजनीतिक इकाई को शासन की कार्यकुशलता की दृष्टि से अलग अलग इकाईयों में विभाजित कर देना । पहली प्रक्रिया का सबसे प्रमुख उदाहरण अमेरिका है जबकि दूसरे का भारत । वर्तमान में अमेरिका , ऑस्ट्रेलिया , स्विट्जरलैण्ड , रुस , कनाडा तथा भारत जैसे देश सफल संघीय देश माने जाते हैं ।
भारत में संविधान के तहत संघीय शासन की स्थापना की गयी है । यद्यपि ‘ संघवाद ‘ के स्थान पर ” राज्यों का संघ” शब्द का प्रयोग किया गया है । संविधान लागू होने पर भारत में एक केन्द्रीय सत्ता और 14 राज्यों / प्रान्तों की सत्ता स्थापित कर संघीय ढाँचे को मूर्त रूप दिया गया । वर्तमान में भारत में 28 राज्य और 8 केन्द्र शासित प्रदेश हैं ।
विषय-सूची
भारतीय संघीय व्यवस्था के प्रमुख तत्व (Main Elements of Indian Federal System)
- शासन शक्तियों का स्पष्ट विभाजन
संविधान की सातवीं अनुसूची के अन्तर्गत अनुच्छेद 246 केन्द्र और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन सूची पद्धति के माध्यम से किया गया है । संघीय सूची के 97 विषयों पर केन्द्र को विधि निर्माण का अधिकार है । राज्य सूची के 66 विषयों पर राज्यों को विधि निर्माण का अधिकार है जबकि समवर्ती सूची के 47 विषयों पर केन्द्र तथा राज्य दोनों कानून बना सकते हैं । परन्तु केन्द्र और राज्यों के बीच संघर्ष की स्थिति में केन्द्रीय कानून ही अन्तिम रूप से मान्य होगा । इसके अतिरिक्त समस्त अवशिष्ट शक्तियाँ केन्द्र को प्रदान की गई है । केन्द्र की इस मजबूत स्थिति के कारण ही विशेषज्ञ भारत को केन्द्रीय वर्चस्व वाला संघवाद मानते हैं ।
- निष्पक्ष व स्वतंत्र न्यायपालिका
किसी भी संघीय व्यवस्था के लिए एक स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका का होना अत्यावश्यक है । इसी से ‘ विधि का शासन ‘ स्थापित होता है और केन्द्र तथा राज्यों के बीच विवादों का संविधान के प्रावधानों के अनुसार समाधान किया जा सकता है । ऐसे अनेक अवसर भारत में आए जब न्यायपालिका ने राज्यों के बीच तथा केन्द्र और राज्यों के बीच संवैधानिक स्थिति को स्पष्ट कर संघीय ढाँचे की रक्षा की है । सभी राज्यों के शीर्ष पर सर्वोच्च न्यायालय को पदस्थ किया गया है ।
संविधान की सर्वोच्चता भारतीय संघवाद के अन्तर्गत संविधान की सर्वोच्चता को स्थापित किया गया है । केन्द्र तथा राज्य दोनों ही संविधान से ही अपनी शक्ति प्राप्त करते हैं । अमेरिकी संघवाद के विपरीत भारतीय विविधता के कारण ही सम्पूर्ण देश के लिए केवल एक ही संविधान की व्यवस्था की गई है। इकाईयों को अलग से संविधान ( जम्मू कश्मीर राज्य को छोड़कर कर ) बनाने का अधिकार प्राप्त नहीं है ।
- एकल नागरिकता
पारम्परिक संघीय व्यवस्थाओं के विपरीत भारतीय संघवाद में सम्पूर्ण देश के लिए एकल नागरिकता का ही प्रावधान है। ऐसा भारत की विशाल बहुलता के कारण भावी विखण्डनकारी संभावना को रोकने के लिए किया गया था।
- केन्द्रीय व्यवस्थापिका में राज्यों का सदन- राज्यसभा
भारतीय संघवाद को सुदृढ़ करने के लिए ही केन्द्रीय व्यवस्थापिका अर्थात् संसद के उच्च सदन राज्यसभा को राज्य की प्रतिनिध्यात्मक संस्था के रूप में स्थापित किया गया है । यद्यपि अमेरिकी संघीय व्यवस्था के विपरीत राज्य सभा में राज्यों को एक समान प्रतिनिधित्व प्रदान नहीं किया गया है , वरन् जनसंख्या के अनुपात में सदस्य संख्या निर्धारित की गई है ।
- राज्यपाल का पद
राज्यपाल भारतीय संघीय व्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण अंग है । राज्यपाल केन्द्र द्वारा नियुक्त होकर राज्य में केन्द्र के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता है । यद्यपि व्यावहारिक अनुभव के आधार पर राज्यपाल का पद केन्द्र और राज्यों के मध्य विवाद का सबसे बड़ा मुद्दा बन गया है। परन्तु केन्द्र राज्य संघर्ष के रूप में उसकी अपनी उपयोगिता है।
- एकात्मकता का प्रभुत्व
भारतीय संघीय व्यवस्था मूल रूप से केन्द्रीकृत अर्थात् एकात्मक प्रभुत्व वाली व्यवस्था ही मानी जा सकती है। भारत की एकता और अखण्डता को सुरक्षित रखने के लिए केन्द्र को मजबूत बनाना स्वाभाविक ही था। यद्यपि कुछ वामपंथ समर्थक राजनैतिक दल तथा विघटनकारी विचारधाऐं इस एकात्मक प्रवृति का विरोध करती हैं। यथार्थ में संविधान में अनेक प्रावधानों के माध्यम से केन्द्र को निर्णायक -भूमिका प्राप्त है ।
संविधान संशोधन , राज्यों के निर्माण – पुनर्सीमांकन , आपातकालीन परिस्थितियों , आर्थिक अधिकारों आदि संदर्भों में केन्द्र की स्थिति अत्यन्त मजबूत और निर्णायक रखी गई है । विभिन्न उदाहरण भी यह स्पष्ट करते हैं कि सशक्त केन्द्र वाले भारतीय संघवाद ने वस्तुत : भारत की एकता व अखण्डता को कायम रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है ।
एकात्मक लक्षण (Unitary Features)
संघात्मक व्यवस्था के होते हुए भी भारतीय संविधान को पूर्ण संघीय नहीं माना गया है क्योंकि भारतीय संविधान में कुछ ऐसे प्रावधान है जो एकात्मक होने के साक्षात् प्रमाण । वे विशेषताएँ जो भारतीय संविधान को एकात्मक रूप देती है , वे निम्नलिखित है:-
- एक संविधान
भारत में केन्द्र तथा राज्यों के लिए एक ही संविधान है , अपवाद जम्मू – कश्मीर राज्य है । अमेरीका तथा स्विट्जरलैण्ड आदि देशों में संघात्मक प्रणाली है तथा वहाँ राज्यों के अपने पृथक् संविधान हैं , जबकि भारत में समस्त देश के लिए एक ही संविधान हैं , जिसमें केन्द्र तथा राज्यों के शासन की व्यवस्था के सम्बन्ध में प्रावधान है ।
- अवशिष्ट शक्ति
भारतीय संविधान ने अनुच्छेद 248 के अनुसार अवशिष्ट शक्तियाँ केन्द्र सरकार को प्रदान की है । अवशिष्ट शक्ति का अर्थ किसी ऐसे विषय से जो तीनों में से किसी भी सूची में अंकित नहीं हैं । यह व्यवस्था कनाडा के संविधान में उपलब्ध है ।
- संविधान संशोधन
संविधान के संशोधन करने के सम्बन्ध में केन्द्र को राज्यों की अपेक्षा अधिक अधिकार प्राप्त है । संविधान के अधिकांश भाग को संसद साधारण बहुमत से निश्चित विधि द्वारा परिवर्तित कर सकती है । संविधान का बहुत कम भाग ऐसा है जिसमें संशोधन के लिए कम से कम आधे राज्यों के विधानमंडलों का समर्थन आवश्यक है । अतः संविधान संशोधन में भी केन्द्र सरकार की श्रेष्ठता है जो कि एकात्मक प्रणाली का मुख्य लक्षण है ।
- शक्तियाँ का विभाजन
संविधान में शक्तियों का विभाजन केन्द्र के पक्ष में है । संघ सूची में राज्य सूची की अपेक्षा बहुत महत्त्वपूर्ण विषय अंकित किए गए हैं । इसके अतिरिक्त संघ सूची के विषयों की कुल संख्या 97 है । जब कि राज्य सूची में कम महत्त्व वाले 66 विषय अंकित किए गए । इसके अतिरिक्त समवर्ती सूची में कुल 47 विषय अंकित है । संघ सूची में अंकित विषयों पर केन्द्र अथवा संसद कानून बनाती है । राज्य सूची में अंकित विषयों पर राज्य विधानमंडल कानून बनाता है । किन्तु कुछ विशेष अवस्थाओं में संसद भी राज्य सूची में अंकित विषयों पर कानून बना सकती है ।
समवर्ती सूची में अंकित विषयों पर दोनों यानी केन्द्र तथा राज्य सरकारें कानून बना सकती है । परन्तु यदि राज्य सरकार द्वारा निर्मित कानून केन्द्रीय कानून का विरोध करता है तो राज्य सरकार द्वारा निर्मित कानून उस सीमा तक रद्द कर दिया जाता है जिस सीमा तक वह केन्द्र सरकार के कानून का विरोध करता है और तब केन्द्र का कानून लागू कर दिया जाता है। अतः शक्तियों का यह विभाजन केन्द्र को शक्तिशाली बनाता है जो कि एकात्मक सरकार का मुख्य लक्षण है।
- आपात शक्ति
प्रायः संघात्मक संविधान को एकात्मक रूप देने के लिए संशोधन करना आवश्यक होता है। परन्तु भारतीय संविधान की विशेषता है कि संशोधन किए बिना इसको एकात्मक रूप दिया जा सकता है ।
संविधान के अनुच्छेद 352, 356 तथा 360 के अनुसार राष्ट्रपति आपात स्थिति की घोषणा कर सकता है।
अनुच्छेद 352 के अनुसार यदि राष्ट्रपति को विश्वास हो जाए कि युद्ध, बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह के कारण भारत की सुरक्षा खतरे में है तो समस्त देश में या देश के किसी एक भाग में वह आपात स्थिति की घोषणा कर सकता है।
अनुच्छेद 356 के अनुसार यदि राष्ट्रपति को राज्य के राज्यापाल या किसी अन्य साधन द्वारा सूचना मिलने पर विश्वास हो जाए कि उस राज्य में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है, जिसमें राज्य का शासन संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता है तो राष्ट्रपति आपातकाल की घोषणा कर सकता है।
अनुच्छेद 360 के अनुसार यदि राष्ट्रपति को विश्वास हो जाए की ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है जिसके कारण भारत या इसके किसी भाग की वित्तीय स्थिरता संकट में है तो वह उस समय वित्तीय संकट की घोषणा कर सकता है।
- राज्यसभा में राज्यों का असमान प्रतिनिधित्व
संघीय प्रणाली में दूसरा सदन प्रायः समानता के आधार पर राज्यों का प्रतिनिधित्व करता है। जिस प्रकार अमेरीका के द्वितीय सदन सीनेट में प्रत्येक राज्य दो – दो प्रतिनिधि भेजता है परन्तु भारत की राज्यसभा में राज्यों का प्रतिनिधित्व समानता के आधार पर नहीं बल्कि जनसंख्या के आधार पर दिया गया है जो संघात्मक प्रणाली के सिद्धान्तों के विरुद्ध है।
- एकल नागरिकता
अमेरीका तथा स्विट्जरलैण्ड के संविधानों में दोहरी नागरिकता की प्रथा है। प्रत्येक व्यक्ति संघ का नागरिक होने के साथ – साथ अपने राज्य का भी नागरिक होता है। उस राज्य की ओर से उसको कुछ विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं । भारतीय संविधान में दोहरी नागरिकता की प्रथा नहीं है । अपितु सभी व्यक्ति भारत के ही नागरिक है तथा सभी को समानता के आधार पर संविधान की ओर से अधिकार प्राप्त है ।
- प्रारम्भिक बातों में एकरूपता
कुछ प्रारम्भिक बातों की एकरूपता भारतीय संविधान की मुख्य विशेषता है जैसे – समस्त देश के लिए एक ही प्रकार के दीवानी तथा फौजदारी कानून का प्रबन्ध किया गया है । समस्त देश के लिए एक ही चुनाव आयोग है। अखिल भारतीय सेवाओं के सदस्य केन्द्र तथा राज्यों में शासन का प्रबन्ध करते हैं। जबकि इन सेवाओं के अधिकारियों की नियुक्ति केन्द्र सरकार द्वारा की जाती है। परन्तु वे राज्य सरकारों के उच्च पदों पर कार्य करते हैं। इन बातों से संविधान का एकात्मकता की ओर झुकाव प्रतीत होता है।
- एकल संगठित न्याय व्यवस्था
अमेरीका तथा आस्ट्रेलिया में राज्यों की न्याय प्रणाली केन्द्रीय न्याय प्रणाली से पृथक् है। परन्तु भारत में प्रत्येक न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय के अधीन कार्य करता है । राज्यों के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। इसी प्रकार राज्यों के छोटे न्यायालय के अधीन होते हैं। इन छोटे न्यायालयों के निर्णय के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। अतः एकल संगठित उच्च न्यायालय प्रणाली संघात्मक राज्य का नहीं बल्कि एकात्मक राज्य का लक्षण माना जाता है।
- राज्यों को पृथक होने का अधिकार नहीं
भारत संघ के राज्यों को संघ से पृथक् होने का अधिकार नहीं है । इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि 1963 में संविधान के 16 वें संशोधन द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि संघ से पृथक् होने के पक्षपोषण को वाक् स्वातंत्र्य संरक्षण प्राप्त नहीं होगा । सीमाओं में परिवर्तन हेतु राज्यों की सहमति अनिवार्य नहीं अमेरीकी संविधान के विपरीत भारतीय संविधान के अनुसार संघीय संसद राज्यों की सहमति के बिना भी राज्यों का पुनर्गठन अथवा उनकी सीमाओं में परिवर्तन कर सकती है। ऐसा विधान की सामान्य प्रक्रिया के अनुसार साधारण बहुमत से किया जा सकता है।
अनुच्छेद 7 के अनुसार इसके लिए संसद को प्रभावित राज्य के विधानमण्डल की सहमति प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं है। केवल संसद को सिफारिश करने के प्रयोजन हेतु राष्ट्रपति के लिए यह आवश्यक है कि वे प्रभावित राज्य के विधानमण्डल के विचार ज्ञात कर लें। यह बाध्यता भी पूर्णतः आज्ञापरक नहीं है। प्रभावित राज्य द्वारा अपने विचार अभिव्यक्त करने हेतु राष्ट्रपति द्वारा समय सीमा का निर्धारण किया जा सकता है। इस प्रकार भारत संघ में राज्य उस प्रकार अविनाशी नहीं हैं, जिस प्रकार अमेरीका में हैं।
- लोक सेवाओं का विभाजन नहीं –
अमेरीका में संघ एव राज्य दोनों के अपने – अपने प्रशासनिक पदाधिकारी होते हैं, जो उनकी स्वयं की विधियों एवं कृत्यों का प्रशासन करते हैं किन्तु भारत में लोक सेवकों के मध्य इस प्रकार का विभाजन नहीं है। अधिकांश लोक सेवकों का नियोजन राज्यो द्वारा किया जाता है। किन्तु वे अपने – अपने राज्यों पर लागू होने वाली संघ एव राज्य दोनों द्वारा निर्मित विधियों के प्रशासन करते हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 312 के अन्तर्गत अखिल भारतीय सेवाओं के सृजन से सम्बन्धित प्रावधान किए गए है।
भारतीय संघवाद की प्रवृत्तियाँ (Tendencies of Indian Federalism)
भारतीय संघवाद, संविधानविद् के . सी . व्हीयर के शब्दों में ‘ अर्द्धसंघीय ‘ है। ग्रेनविले ऑस्टिन ने इसे सहयोगी संघवाद कहा है। भीमराव अम्बेडकर ने इसे कठोर संघीय ढाँचा मानने से इन्कार किया है। मोरिस जोन्स ने इसे सौदेबाजी वाला संघवाद माना है। परन्तु यह सत्य है कि भारतीय संघवाद विशुद्ध सैद्धान्तिक संघवाद नहीं है और विशिष्ट बहुलवादी परिस्थितियों में इसे एकात्मक शक्ति प्रदान की गई है। केन्द्र को अत्यधिक शक्तिशाली बनाया गया है। विधायी कार्यकारी और न्यायिक – आपातकालीन सभी क्षेत्रों में अन्तिम व निर्णायक भूमिका केन्द्र की ही रखी गई है। अखिल भारतीय सेवाएँ, आपातकालीन उपबंध (धारा 352, 356, 360), वित्त आयोग इत्यादि संस्थागत रूप से केन्द्रीकरण के माध्यम रहे है। किन्तु ये सेवाएँ संघ एवं राज्य दोनों के लिए सामान्य है।
संघ द्वारा नियुक्त भारतीय प्रशासनिक सेवा के सदस्य या तो संघ के किसी विभाग (जैसे – गृह अथवा प्रतिरक्षा) के अधीन नियोजित किए जा सकते हैं अथवा किसी राज्य सरकार के अधीन । लोक सेवकों की सेवाएँ अन्तरणीय होती है। संघ के अधीन नियोजित किए जाने पर भी वे प्रश्नगत विषय पर लागू होने वाली संघ एवं राज्य दोनों द्वारा निर्मित विधियों का प्रशासन करते हैं । राज्यों के अधीन सेवा करते हुए भी अखिल भारतीय सेवा के सदस्य को केवल संघीय सरकार द्वारा ही पद से हटाया जा सकता है । राज्य सरकार इस प्रयोजनार्थ अनुषंगी कार्यवाही शुरु करने हेतु सक्षम है । इस एकात्मक आत्मा वाले संघवाद का दूसरा पहलू यह भी है कि राज्यों को अनेक संस्थाओं के माध्यम से उचित महत्त्व और भागीदारी प्रदान की गई है ।
राष्ट्रीय विकास परिषद् , अन्तर्राज्यीय परिषद् (अनुच्छेद 263) क्षेत्रीय परिषदे, नीति आयोग इत्यादि महत्त्वपूर्ण संस्थाओं से संघवादी स्वरूप में राज्य की भागीदारी को सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया है ।
महत्त्वपूर्ण बिन्दु
- शासन की शक्तियों का केन्द्र व राज्यों में विभाजन संघवाद की प्रवृत्ति है ।
- भारतीय संघ को अर्द्धसंघात्मक व सहयोगी संघवाद के नाम से भी जाना जाता है ।
- भारत में वर्तमान में 28 राज्य व 8 केन्द्र शासित प्रदेश है।
- भारत में संविधान की सर्वोच्चता को महत्त्व दिया गया है।
- संघ व राज्यों के आपसी सम्बन्धों के अध्ययन हेतु सरकारिया आयोग गठित किया गया।
- संविधान के अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत राज्यों में केन्द्र द्वारा राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है ।
अभ्यास प्रश्न
प्रश्न 1. वर्तमान में हमारे देश में कितने राज्य है?
( अ ) 28 ( ब ) 30 ( स ) 35 ( द ) 29
प्रश्न 2. संघ सूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार है-
( अ ) केन्द्र सरकार ( ब ) राज्य सरकार ( स ) पंचायत को ( द ) उच्च न्यायालय
प्रश्न 3. संविधान का कौनसा उपबन्ध आपातकाल की व्यवस्था देता है?
( अ ) 263 (ब) 352 ( स ) 366 ( द ) 74
प्रश्न 4. संसद में राज्यों का प्रतिनिधित्व कौनसा सदन करता है ?
प्रश्न 5.केन्द्र व राज्यों के मध्य विवादों का निपटारा कौनसी संस्था करती है ?
प्रश्न 6.एकल नागरिकता क्या है ?
प्रश्न 7. “ विधि के शासन ” से आप क्या समझते हैं ?
प्रश्न 8. सरकारिया आयोग का सम्बन्ध किससे था ?
प्रश्न 9.भारतीय संघीय व्यवस्था की विशेषताओं पर व्याख्यात्मक लेख लिखिए ।
प्रश्न 10. भारत के संघवाद की नवीन प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिए ।
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