मुगलकालीन स्थापत्य कला एवं संस्कृति

मुगलकालीन स्थापत्य कला

मुगलकाल को उसकी बहुमुखी सांस्कृतिक गतिविधियों के कारण भारतीय इतिहास का द्वितीय क्लासिकी युगकहा गया है। मुगलकालीन स्थापत्य मध्य एशिया की इस्लामी और भारतीय कला का मिश्रित रूप है, जिसमें फारस, मध्य एशिया, तुर्की, गुजरात, बंगाल एवं जौनपुर आदि स्थानों की परम्पराओं का अद्भुत मिश्रण मिलता है। इस काल में स्थापत्य की मुख्यतम् विशेषता – संगमरमर के पत्थरों पर हीरे-जवाहरात से की गयी जड़ावट ‘पित्रादुरा‘ एवं महलों तथा बिलास भवनों में बहते पानी का उपयोग है। अकबर के समय में इस्लामी और हिन्दू-कला के मिश्रण से जिस स्थापत्य कला का विकास हुआ उसे राष्ट्रीय स्थापत्य कला स्वीकार किया जा सकता है। इस कला में इस्लामी कला से गोल गुम्बद, ऊँची, ऊँची मीनों और मेहराव, छतें, खम्भें और नुकीली मेहराबें ली गयी थीं। आरम्भ में लाल पत्थर का प्रयोग किया गया तथा इमारतों को विशाल एवं मजबूत बनाने पर बल दिया गया लेकिन बाद मे इन इमारतों में सफेद संगमरमर के प्रयोग को सम्मिलित किया गया तथा उन्हें नक्काशी, सोने- चाँदी के पानी के प्रयोग और रंगीन बेल-बूटों आदि के द्वारा अत्यधिक सुन्दर बनाने का प्रयत्न किया गया। यह सभी कुछ मिलाकर मुगल- स्थापत्य कला श्रेष्ठ बनी और इस समय में भव्य इमारतों का निर्माण हुआ। इस काल में स्थापत्य की शुरूआत बाबर ने समय से होता है, उसने पानीपत के निकट काबुली-बाग में एक मस्जिद 1529 ई. में बनवायी। इसके अतिरिक्त बाबर ने रूहेलखण्ड में सम्भल की जामी मस्जिद तथा आगरा में लोदी किले के भीतर एक मस्जिद बनवायी एवं ज्यामितीय विधि पर आधारित एक उद्यान आगरा में लगवाया। जिसे नूर अफगान नाम दिया गया।

         हुमायूँ ने 1533 ई. में दिल्ली में दीनपनाह (विश्व का शरण स्थल) नामक एक नगर का निर्माण करवाया। ‘दीनपनाह’ नामक उसका महल शेरशाह द्वारा नष्ट कर दिया गया। जो आज ‘पुराने किले’ के नाम से विख्यात है। इसके अतिरिक्त हुमायूँ ने हिसार जिले में ‘फतेहाबाद’ नामक स्थान पर फारसी शैली में एक मस्जिद का निर्माण करवाया। शेरशाह ने दिल्ली पर अधिकार करने के बाद शेरगढ़या दिल्ली-शेरशाही नामक नये नगर की नींव डाली। यद्यपि इसके अवशेषों के रूप में अब ‘लाल दरवाजा’ और ‘खूनी दरवाजा’ ही देखने को मिलती है। 1524 ई. में शेरशाह ने दिल्ली के पुराने किले के अन्दर किला-ए-कुहना नामक मस्जिद का निर्माण करवाया और उसी परिसर में शेर मण्डल नामक एक अष्टभुजाकर तीन मंजिला मण्डप का निर्माण करवाया। किन्तु शेरशाह की सबसे महत्वपूर्ण कृति बिहार के सासाराम आधुनिक रोहतास जिला नामक स्थान पर झील के बीच में एक ऊँचे चबूतरे पर स्थित उसका मकबरा है। जिसमें भारतीय एवं इस्लामी निर्माण कला का अद्भुत सम्मिश्रण देखने को मिलता है।

         धर्म की सत्यता को जानने की उत्सुकता से 1575 ई. में अकबर ने फतेहपुर सीकरी में इबादतखाना बनवाया। प्रत्येक बृहस्पतिवार की रात को इस हाल में धार्मिक विद्वान दस्तूरजी मेहरजी को अकबर ने ‘इबादतखाने’ में वाद-विवाद के लिए आमंत्रित किया। साधारणतया शेरशाह की धार्मिक नीति हिन्दुओं के प्रति असहिष्णुता की न थी। जून, 1579 में अकबर ने मजहर तथा खुतावा पढ़ा। अबुल फजल के पिता शेख मुबारक ने इसे तैयार किया था। इसके द्वारा ‘भारत’ में इस्लाम धर्म से सम्बन्धित विवादों के बारे में निर्णय करने का अधिकार अकबर को दिया।

अकबर कालीन इमारतें

          अकबर के शासन काल में बनी पहली इमारत दिल्ली में बना हुमायूँ का मकबरा है। यद्यपि इसके निर्माण में उसका कोई हाथ नहीं था। हुमायूँ के बने उद्यान के मध्य एक ऊँचे चबूतरे पर स्थित है। यह चार बाग पद्धति में बना प्रथम स्थापत्य स्मारक था।

अकबर कालीन प्रमुख इमारतें

          इमारत                            –                  वास्तुकार

हुमायूँ का मकबरा                     –        मीरक मिर्जा गयास

आगरे का किला                       –        कासिम खाँ

फतेहपुर सीकरी                       –        बहाउद्दीन

ताजमहल                                –        उस्ताद ईसा खाँ एवं उस्ताद अहमद लाहौरी

दिल्ली का लाल किला              –        हमीद एवं अहमद

हुमायूँ का मकबरा : विशिष्ट तथ्य

         मकबरे का निर्माण 1565 ई० में हुमायूँ की विधवा बेगा बेगम (हाजी बेगम) ने शुरू करवाया। दोहरी गुम्बद वाला यह भारत का पहला मकबरा है। चारबाग पद्धति का प्रयोग पहलीबार हुमायूँ के मकबरे में हुआ वैसे भारत में पहला बाग युक्त मकबरा सिंकदर लोदी का मकबरा था। इस मकबरे को ताजमहल का पूर्वगामी माना जाता है। हुमायूँ के मकबरे में दफनाये गये मुगल घरानों के लोग इस प्रकार हैं- बेगाबेगम, हमीदाबानू बेगम, हुमायूँ की छोटी बेगम, दारा शिकोह, जहाँदारशाह, फर्रुखरसियर, रफीउदरजात, रफीउ‌द्दौला और आलमगीर द्वितीय। दिल्ली के अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर और उसके तीन शहजादों को अंग्रेज लेफ्टीनेंट हडसन ने 1857 ई० में हुमायूँ के मकबरे से गिरफ्तार किया था। इस मकबरे का निर्माण अकबर की सौतेली माँ हाजी बेगम ने फारसी वास्तुकर मीरक मिर्जा गयास की देख रेख में करवाया था। इस मकबरे की योजना फारसी मॉडल एवं वास्तुकला की पंचरथ रचना से ली गयी थी। इस मकबरे की विशेषता संगमरमर से निर्मित इसका विशाल गुम्बद एवं द्विगुम्बदीय प्रणाली थी। यह मुगलकालीन एकमात्र मकबरा है जिसमें मुगलवंश के सर्वाधिक लोग दफनाये गये हैं। इस मकबरे को ताजमहल का पूर्वगामी कहा गया है।

         अकबर के काल में फारसी शैली का हिन्दू एवं बौद्ध शैलियों के साथ समिश्रण हुआ। अकबर की अधिकांश इमारतों में लाल बलुआ पत्थर का प्रयोग मिलता है। अकबर कालीन इमारतों में मेहराबी और शहतीरी शैली का समान अनुपात में प्रयोग मिलता है। अकबर कालीन इमारतों को सुविधानुसार दो भागों में बाँटा जा सकता है।

(1) आगरा में निर्मित इमारतें – अकबर कालीन आगरे में बनी इमारतों में बहुत थोड़ी ही बची हुई हैं जिनमें अकबरी महल और जहाँगीरी महल प्रमुख है। अकबर ने (1565-73 ई०) अपनी राजधानी आगरा में एक किला बनवाया। आगरे के दुर्ग में निर्मित जहाँगीरी महल की नकल ग्वालियर के मानसिंह महल से ली गयी है। इस महल में हिन्दू और इस्लामी परम्पराओं का समावेश मिलता है। अकबर कालीन इमारतों में गुम्बदों के प्रयोग से बचने का प्रयास किया गया है।

(2) अकबर कालीन फतेहपुर सीकरी में निर्मित इमारतें – अकबर ने 1570-71 ई० में फतेहपुर सीकरी को अपनी राजधानी बनाया और वहाँ पर अनेक भवनों का निर्माण करवाया। वहाँ की इमारतों में दीवाने- आम, दिवाने-खास, पंचमहल, तुर्की सुल्ताना का महल, खास-महल, जोधाबाई महल, मरियम-महल, बीरबल-महल, हिरन-महल, जामा- मस्जिद, हाथी पोल, बुलन्द दरवाजा और शेख सलीम चिश्ती का मकबरा प्रमुख है। जिन्हें दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है- धार्मिक और लौकिक।

फतेहपुर सीकरी स्थित पंचमहल

         फतेहपुर सीकरी के भवनों की मुख्य विशेषता चापाकार एवं धरणिक शैलियों का समन्वय है। दीवाने आम और दीवाने खास लौकिक प्रयोग के लिए ये बनाये गये थे। दीवाने आम एक आयताकार प्रांगण था। इसी में बादशाह का सिंहासन रखा रहता था। इसकी मुख्य विशेषता खम्भे पर निकली हुई बरामदे की छत थी। दीवाने खास एक घनाकार आयोजन था। इसके निर्माण में बौद्ध एवं हिन्दू वास्तुकला की झलक मिलती है। राजपूत रानी जोधाबाई का महल फतेहपुर सीकरी का सबसे बड़ा महल था। इस पर उत्कीर्ण अलंकरणों की प्रेरणा दक्षिण के मंदिरों की वास्तुकला से लिया गया है। इस पर गुजराती शैली का व्यापक प्रभाव दिखाई देता है। यह फतेहपुर सीकरी का सर्वोतम महल था। तुर्की सुल्ताना का महल इतना सुन्दर है। कि पर्सी ब्राउन ने उसे स्थापत्य कला का मोतीकहा है।

पंचमहल या हवामहल – यह पिरामिड के आकार का पाँच मंजिला भवन था। यह नालन्दा के बौद्ध विहारों की प्रेरणा पर आधारित था।

जामा मस्जिद – फतेहपुर सीकरी की सबसे प्रभावोत्मपादक इमारत थी। इसे फतेहपुर का गौरव कहा जाता है। संगमरमर की निर्मित इस मस्जिद को फर्ग्यूसन ने पत्थर में रूमानी कथा के रूप में प्रशंसित किया।

फतेहपुर सीकरी बुलंद दरवाजा – अपनी गुजरात विजय की स्मृति में अकबर ने इस मस्जिद (जामा मस्जिद) के दक्षिणी द्वार पर 134 फीट ऊँचा एक बुलन्द दरवाजा बनवाया। जिसके निर्माण में लाल बलुआ पत्थर का प्रयोग किया गया है। यह ईरान से ली गयी अर्द्ध गुम्बदीय शैली में बना है।

        1585 ई० में अकबर फतेहपुर सीकरी के स्थान पर लाहौर में निवास करने लगा और वहाँ पर उसने लाहौर के किले का निर्माण करवाया। फतेहपुर सौकरी में स्थित शेख सलीम चिश्ती की दरगाह के प्रांगण में स्थित इस्लाम शाह (शेख सलीम चिश्ती के पौत्र) के मकबरे की यह विशेषता है इसमें पहली बार वर्गाकार मेहराब का प्रयोग देखने को मिलता है। अपने शासनकाल के अन्तिम समय में अकबर ने इलाहाबाद में 40 स्तम्भों वाले एक विशाल किले का निर्माण करवाया। अबुलफजल ने अकबर की स्थापत्य कला में अभिरूचि की प्रशंसा करते हुए कहा है कि- उसने आलीशान इमारतों की योजना बनाई तथा अपने मस्तिष्क एवं हृदय की रचना को पत्थर एवं मिट्टी की पोशाक पहनायी। इसके अतिरिक्त अकबर ने अनेक इमारतों का निर्माण करवाया जिसमें तुर्की सुल्ताना का महल, खास महल, मरियम-महल, बीरबल महल आदि प्रमुख है। मरियम महल से मुगल चित्रकारी के विषय में जानकारी मिलती है।

        फर्ग्युसन ने ठीक ही कहा है कि फतेहपुर सीकरी किसी महान व्यक्ति के मस्तिष्क का प्रतिबिम्ब है। इतिहासकार स्मिथ ने लिखा है। ‘फतेहपुर सीकरी के समान न तो उससे पहले ही कुछ बन सका और न उसके बाद कुछ बनना सम्भव है। यह पत्थरों में ढाला गया एक रोमान्स है।’

जहाँगीर

        जहाँगीर ने वास्तुकला की अपेक्षा चित्रकला को अधिक प्रश्रय दिया। फलस्वरूप उसके समय में बहुत ही कम इमारतों का निर्माण हुआ आगरा के पास सिकन्दरा में स्थित अकबर का मकबरा (जिसके निर्माण की योजना अकबर ने बनायी थी किन्तु निर्माण जहाँगीर ने 1613 ई० में करवाया था। इस पाँच मंजिले पिरामिड के आकार के मकबरे की सबसे ऊपरी मंजिल पूर्णतः संगमरमर की बनी है। इस मकबरे की उल्लेखनीय विशेषता इसका गुम्बद विहीन होना एवं बलुआ पत्थर से बना मकबरे का दरवाजा एवं संगमरमर की बनी चार सुन्दर मीनारें हैं। जो इससे पूर्व देखने को नहीं मिलती है। सबसे ऊपर की मंजिल में संगमरमर से बनी हुई दीवारों से घिरा एक आँगन है। जिसमें फारसी में अकबर के शासन की प्रशंसा में लिखे गये 36 दोहे है। इस इमारत के ऊपर कोई गुम्बद नहीं है। अकबर के मकबरे की योजना सरल और सादी होते हुए भी बहुत प्रभावशाली है। हावेल ने लिख है, ‘अकबर का मकबरा भारत के महान् शासक के लिए उपयुक्त मकराबर है।’ इसे इस्लामी, हिन्दू ईसाई और इनसे भी अधिक बौद्ध-कला का एक मिश्रित स्वरूप माना जा सकता है। यह पूरा मकबरा सुव्यवस्थित उद्यान के बीच विशाल चबूतरे पर स्थित है। जहाँगीर के समय की सबसे उल्लेखनीय इमारत आगरा में बना ऐत्मादुदौला का मकबरा है। यह चतुर्भजाकार मकबरा बेदाग सफेद संगमरमर का बना है। ऐसा पहला मकबरा है, जिसमें बड़े पैमाने पर संगमरमर का प्रयोग किया गया है, तथा अलंकरण के लिए इस्लामिक भवनों में पहली बार पित्रा दुरा (फूलों वाली आकृतियों में कीमती पत्थरों एवं बहुमूल्य रत्नों की जड़ावट) का प्रयोग मिलता है। यद्यपि इस प्रणाली का प्रयोग इससे पूर्व ही उदयपुर के गोल मण्डल में 1600 ई० में किया जा चुका था। इसे नूरजहाँ ने अपने पिता एत्मातुद्दौला की कब्र पर बनवाया था। मकबरे का मुख्य भाग पूर्णतया सफेद संगमरमर का बना हुआ है। ओर इस ढंग से बनी हुई यह पहली मुगल इमारत है। इसमें अधिकतम पच्चीकारी की गयी है और संगमरमर के अतिरिक्त अन्य कीमती पत्थरों का भी प्रयोग किया गया है। दो मंजिल की यह इमारत एक विस्तृत बागीचे के मध्य बनी हुई है। यह मकबरा अकबर और शाहजाँह के समय के मध्य की कड़ी है। यह इतना सुन्दर है कि अनेक व्यक्ति इसे मुगल इमारतों में ताजमहल के बाद दूसरा स्थान प्रदान करते हैं। पर्सी ब्राउन ने इसे ‘अपनी तहर की इमारतों में सबसे अधिक पूर्ण’ माना है। जहाँगीर के शासन काल की अन्य इमारत लाहौर में रावी नदी के तट पर स्थित शहादरा में बना उसका मकबरा है। जिसके अधिकांश भाग का निर्माण जहाँगीर की मृत्यु के बाद नूरजहाँ ने करवाया था। जहाँगीर के शासन काल के अन्तिम या शाहजहाँ के शासन काल के प्रारम्भिक दिनों निर्मित दिल्ली में अब्दुर्रहीम खानखाना का मकबरा जो न्यूनाधिक रूप से हुमायूँ के मकबरे का प्रतिकृति है। पर कुछ मामलों में इससे ताजमहल का पूर्वाभास होता है। जहाँगीर ने कश्मीर में प्रसिद्ध शालीमार बाग की स्थापना की और उसी ने शेख सलीम चिश्ती के मकबरे में लाल बलुआ पत्थर के स्थान पर संगमरमर लगवाया था।

शाहजहाँ

         शाहजहाँ का काल मुगल वास्तुकला का स्वर्ण युग माना जाता है। इसके अतिरिक्त यह काल संगमरमर के प्रयोग का चरमोत्कर्ष काल माना जाता है। इस काल में संगमरमर राजस्थान के मकराना नामक स्थान से मिलता था, जो वृत्ताकार कटाई के लिए अधिक उपयुक्त होता था। इस काल की प्रमुख विशेषताएँ नक्काशी युक्त या पर्णिला मेहराबें तथा बंगाली शैली में मुड़े हए कंगूरे तथा जंगलें के खम्भे आदि थी। शाहजहाँ के समय में मुगल स्थापत्य कला अपनी श्रेष्ठता पर पहुँच गयी। सफेद संगमरमर और अन्य कीमती पत्थरों का प्रयोग, अधिकतम पच्चीकारी, कीमती रंगों का प्रयोग आदि उसके समय की कला की विशेषता बन गये। उसकी इमारतों से ऐसा प्रतीत होता है मानों जौहरी और चित्रकार के कार्यों को पत्थरों में जड़ दिया गया हो। शाहजहाँ को स्थापत्य कला का शौक था। उसने न केवल नवीन इमारतों का निर्माण कराया बल्कि आगरा और लाहौर के किलों में उसने अकबर द्वारा बनवायी गयी इमारतों को तुड़वाकर नवीन इमारतें भी बनवायीं।

शाहजहाँ कालीन आगरे में निर्मित इमारतें

         आर्शीवादी लाल श्रीवास्तव ने शाहजहाँ के शासन काल को वास्तुकला की दृष्टि से स्वर्ण काल कहा। आगरे के किले में स्थित दीवाने आम (1627 ई०) संगमरमर से बनी शाहजहाँ के काल की पहली इमारत थी। इसके अतिरिक्त दीवाने खास (1637 ई०) तथा मोती मस्जिद (1654 ई०) संगमरमर से निर्मित अन्य प्रसिद्ध इमारतें थी। इसके अतिरिक्त शीश महल, खास महल, आगरे के किले में बने नगीना मस्जिद एवं मुसम्मन बुर्ज, मच्छी-भवन, शीशमहल, खास महल, अंगूरीबाग, झरोखा दर्शन का स्थान, शाह बुर्ज आदि पत्थरों से निर्मित अन्य प्रमुख इमारते हैं। मोती मस्जिद अपनी पवित्रता एवं चारुता के लिए अत्यधिक प्रसिद्ध थी। यह आगरे की सभी इमारतों में सबसे सुन्दर और आकर्षक है। यह शुद्ध सफेद संगमरमर से निर्मित है। शाहजहाँ के काल की एक अन्य इमारत आगरे की जामी मस्जिद थी जिसे मस्जिदे जहाँनामा कहा जाता था। इसे शाहजहाँ की बड़ी पुत्री जहाँआरा ने बनवाया था।

ताजमहल

        शाहजहाँ कालीन वास्तुकला का चरम दृष्टान्त आगरे में यमुना नदी के तट पर निर्मित उसकी प्रिय पत्नी मुमताज महल का मकबरा है (ताजमहल) है। जो 22 वर्षों में 9 करोड़ रूपये की लागत से तैयार किया गया है। इसका मुख्य स्थापत्यकार उस्ताद अहमद लाहौरी था, जिसे शाहजहाँ ने “नादिर उल असरार” की उपाधि प्रदान की थी और इसका प्रधान मिस्त्री या निर्माता उस्ताद ईसा था। लेनपूल ने ताजमहल के बारे में लिखा है कि – “ताजमहल संगमरमर के रूप में वह स्वप्न है, जिसकी योजना ईश्वर ने तैयार की तथा निर्माण स्वर्णकारों ने किया।” इसी प्रकार हावेल ने इसे ‘भारतीय नारित्व की साकार प्रतिमा’ कहा है। उसने कहा है कि यह एक ऐसा महान आदर्श विचार है, जो स्थापत्य कला से नहीं, बल्कि मूर्तिकला से सम्बन्धित है। ताजमहल में फारसी एवं भारतीय नहीं, बल्कि प्रभुत समन्वय मिलता है। इसी कारण स्मिथ महोदय ने इसे “यूरोपीय एवं एशियाई प्रतिभा के सम्मिश्रण की उपज” बताया है। यह मकबरा दिल्ली में स्थित हुमायूँ के मकबरे से प्रेरित था।

दिल्ली की इमारतें –

 लाल किला

        1638 ई० में शाहजहाँ ने दिल्ली में यमुना नदी के किनारे अपनी नयी राजधानी शाहजहाँनाबाद का निर्माण प्रारम्भ किया जो 1648 ई० में जाकर पूरा हुआ और इसी समय मुगल राजधानी दिल्ली स्थानान्तरित हुई। शाहजहाँ ने अपनी नवीन राजधानी (1648 ई०) दिल्ली (शाहजहाँनाबाद) में एक चतुर्भुज आकार का किला बनवाया। जो लाल बलुआ पत्थर से निर्मित होने के कारण लाल किले के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसका निर्माण कार्य 1648 ई० में पूर्ण हुआ। 1 करोड़ की लागत से बनने वाला लाल किला हमीद अहमद नामक शिल्पकार की देखरेख में सम्पन्न हुआ था। इस किले के पश्चिमी द्वार का नाम लाहोरी दरवाजा एवं दक्षिणी द्वार का नाम दिल्ली दरवाजा है। दिल्ली के किले में निर्मित दीवाने आम की विशेषता थी इसके पीछे की दीवार में बना एक कोष्ठ जहाँ पर विश्व प्रसिद्ध तख्ते ताउस रखा जाता था। कोष्ठ में बने कुछ चित्रों पर यूरोपीय शिल्कला का प्रभाव दिखता है। इसके अतिरिक्त दीवाने आम में स्थित रंगमहल की जाली में न्याय की तराजू में भी यूरोपीय प्रभाव दिखाई देता है। कोष्ठ में बने कुछ चित्रों का विषय फ्लोरेंस नाइटिंगेल से सम्बन्धित है।

दीवाने खास – दिल्ली के लाल किले में स्थित दीवाने खास की एक विशेषता है- इसके अन्दर की छत चाँदी की बनी है, तथा उस पर सोने, संगमरमर तथा बहुमूल्य पत्थर की मिली जुली सजावट की गयी है। जो उस पर खुदे अभिलेख को चरितार्थ करती है। शाहजहाँ ने दिल्ली के लाल किले के पास जामा मस्जिद (1648 ई०) का निर्माण करवाया। इसमें शाहजहाँनी शैली में फूलदार अलंकरण की मेहराबें बनी है। जामा मस्जिद की मुख्य विशेषता इसका विशाल द्वार, ऊँची मीनारे तथा गुम्बद है।

औरंगजेब

          औरंगजेब को ललित कलाओं में कोई रुचि नहीं थी फिर भी उसके काल में कुछ इमारते बनी। औरंगजेब कालीन प्रमुख इमारतों में दिल्ली के लाल किले में स्थित मोती मस्जिद (पूर्ण संगमरमर), लाहौर की बादशाही मस्जिद (1674 ई०) तथा रबिया बीबी का मकबरा प्रमुख है। औरंगजेब ने अपनी प्रिय पत्नी रबिया दुर्रानी की याद में 1678 ई० में औरंगाबाद में एक मकबरा बनवाया। जो बीबी का मकबरा नाम से प्रसिद्ध है। इसे ताजमहल की घटिया नकल माना जाता है। इसे दक्षिण का ताजमहल भी कहा जाता है।

जहाँआरा की कब्र – यह कब्र शेख निजामुद्दीन औलिया के मकबरे के दक्षिण में जालीदार संगमरमर के पत्थरों सहित एक बिना छत का घेरा है। इस कब्र के खोखले ऊपरी भाग पर घास रहती है। जहांआरा के मकबरे पर एक मर्मस्पर्शी लेख खुदा है जिसका अर्थ है “सिवाय हरी घास के मेरी कब्र को किसी भी चीज से न ढका जाए, क्योंकि केवल घास ही इस दीन की कब्र ढकने के लिए काफी है।” जहाँआरा के मकबरे के समान एक छोटे अहाते में मुहम्मद शाह का मकबरा है। इसी अहाते में अकबर द्वितीय का पुत्र मिर्जा जहांगीर भी दफनाया गया है।

दरगाह कुतुब साहिब – ख्वाजा कुतबुद्दीन बख्तियार काकी (कुतुब साहिब) की कब्र जो दिल्ली में स्थित है के पश्चिमी दीवार में औरंगजेब ने रंगीन टाइल जड़वाया। इस कब्र के आस-पास का क्षेत्र कालांतर में कब्रिस्तान में परिवर्तित हो गया। कुतुब साहिब के अहाते में दफनाये गये अन्य प्रमुख लोगों में शामिल हैं- बहादुरशाह प्रथम (1702-12) शाहआलम द्वितीय (1759-1806) अकबर द्वितीय (1806-37)। उल्लेखनीय बात यह है कि बहादुरशाह द्वितीय ने भी अपने लिये यहां कब्र बनवायी थी लेकिन रंगून निर्वासित हो जाने के कारण उनकी कब्र खाली ही पड़ी रही।

मुगल चित्रकला

           हिन्दू-काल में भारत में चित्रकला में बहुत उन्नत थी तथा हिन्दू और बौद्ध धर्म के विदेशी प्रचार के कारण उसने एशिया के विभिन्न देशों की चित्रकला को प्रभावित किया था। मुगल-चित्रकला का जो स्वरूप बना वह फारस और भारतीय चित्रकला का मिश्रित स्वरूप था। बाबर और हुमायूँ का इसी फारसी चित्रकला से सम्पर्क हुआ और उन्होंने उसे भारत में लाने का प्रयत्न किया। फारस का प्रसिद्ध चित्रकार बिहजाद (पूर्व का रैफेल) संभवतः बाबर के समय भारत आया था। क्योंकि तुजुके – बाबरी में एकमात्र चित्रकार बिहजाद का ही नाम मिलता है। इसे बाबर ने अग्रणी चित्रकार कहा है। मुगल चित्रकला की नींव हुमायूँ के शासन काल में पड़ी। अपने निर्वासन के दौरान उसने मीर सैय्यद अली और अब्दुस्समद नामक दो फारसी चित्रकारों की सेवाएँ प्राप्त की। जिन्होनें मुगल चित्रकला का शुभारम्भ किया। मीर सैय्यद अली हेरात के प्रसिद्ध चित्रकार बिहजाद (जिसे पूर्व की रैफेल कहा जाता है) का शिष्य था। अब्दुस्समद ने जो कृतियाँ तैयार की उसमें से कुछ जहाँगीर द्वारा तैयार की गयी गुलशन चित्रावली में संकलित है। अकबर ने मुगल चित्रकारी को एक सुव्यवस्थित रूप दिया उसने चित्रकारी के लिए एक अलग विभाग खोला। आइने अकबरी में मीर सैय्यद अली और अब्दुस्समद के अलावा 15 प्रसिद्ध चित्रकारों के नाम प्राप्त होते हैं। जिनमें कम से कम तेरह हिन्दू चित्रकार थे। अकबर कालीन प्रमुख चित्रकारों में- दसवन्त, बसावन, महेश, लाला मुकन्द, सावलदास तथा अब्दुस्समद प्रमुख थे। मुगल चित्रशाला में मुगल चित्रकला शैली में चित्रित सबसे प्रारम्भिक और महत्वपूर्ण मुगलकालीन चित्रसंग्रह हम्जनामा है जो दास्ताने अमीर हम्जा के नाम से भी प्रसिद्ध है। इस पाण्डुलिपि में करीब 1200 चित्रों का संग्रह है। इस कृति मैं लाल, पीले, कासनी ओर काले रंगों के छपाके मिलते हैं। हम्जनामा को पूर्ण कराने के लिए मीर सैय्यद अली को पर्यवेक्षक नियुक्त किया गया था। हम्जनामा पाण्डुलिपि के चित्रों की विशेषताएँ- विदेशी या विजातीय पेड़ पौधों और उनके रंग बिरंगे फूल पत्तों, स्थापत्य अलंकरण की बारीकियों, साजो सामान के साथ-साथ स्त्री आकृतियों एवं आलंकारिक तत्वों के रूप में विशिष्ट राजस्थानी या उत्तर भारतीय चित्रकला के लक्षण यत्र तत्र मिलते हैं। मुल्ला अलाउद्दीन कजवीनी ने अपने ग्रन्थ नफाइसुल मासिर में हम्जनामा को हुमायूँ के मस्तिष्क की उपज बताया है।

          अकबर के शासन कला में रज्मनामा नामक एक और पाण्डुलिपि तैयार की गयी। जिसमें दसवन्त (एक कहार का बेटा) द्वारा बनाये गये चित्र मिलते हैं। इस विख्यात चित्रकार के चित्र रज्मनामा के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं मिलते हैं। अकबर ने दसवन्त को अपने समय का प्रथम अग्रणी चित्रकार तथा उसकी कृति रज्मनामा को मुगल चित्रकला के इतिहास में मील का एक पत्थर कहा है। अब्दुस्समद के राजदरबारी पुत्र मुहम्मद शरीफ ने रज्मनामा के चित्रण कार्य का पर्यवेक्षण किया था। अबुल फजल द्वारा उल्लेखित चित्रकारों में फारुख वेग (फारुख कलमाक) को छोड़कर अन्य सभी चित्रकारों ने इस महत्वपूर्ण पाण्डुलिपि को तैयार करने में सहयोग दिया था। दसवंत बाद में मानसिक रूप से विक्षिप्त हो गया था और उसने 1584 ई० में आत्म हत्या कर ली थी। इसकी दो अन्यकृति मिलती है- खानदाने तैमूरिया एवं तूतीनामाबसावन अकबर के समय का सर्वोत्कृष्ट चित्रकार था क्योंकि वह चित्रकला के सभी क्षेत्रों रेखांकन, रंगों के प्रयोग, छवि चित्रकारी तथा भू दृश्यों के चित्रण में सिद्धहस्त था। बसावन की सर्वोत्कृष्ट कृति है- एक कृशकाय (दुबले पतले) घोड़े के साथ एक मजनूँ को निर्जन क्षेत्र में भटकता हुआ चित्र। रज्मनामा के अतिरिक्त प्रमुख चित्रित पाण्डुलिपि है- रामायण एवं अकबरनामा। अकबरनामा के चित्रों में यथार्थता एवं विश्वसनीयता कि जो स्वानुभूत भावना दृष्टिगोचर होती है वह अन्यत्र कम ही मिलती है। इसके चित्रों में पेड़-पौधों वन्यजीवों और भू दृश्यों का जीवन्त चित्रण मिलता है। अकबर के समय में पहली बार भित्ति चित्रकारी शुरूआत हुई। अकबर के दरबार में में प्रायः 100 अच्छे चित्रकार थे जिनमें से 17 को दरबार में प्रमुख स्थान प्राप्त था। इनमें विदेशी फारसी चित्रकार भी थे परन्तु हिन्दू-चित्रकारों की संख्या अधिक थी। फारसी- चित्रकारों में अब्दुल समद, मीर सैयद अली, फर्रुखबेग, जमशेद आदि मुख्य थे। और हिन्दू-चित्रकारों में दसवन्त, बसावन, साँवलदास, ताराचन्द, जगन्नाथ, लाल मुकुन्द, हरिवंश आदि प्रमुख माने जाते है। इस प्रकार अकबर ने मुगल चित्रकला शैली को भारत में स्थापित किया। उसके प्रगति की और एक राष्ट्रीय चित्रकला शैली का विकास पूर्ण हुआ।

        जहाँगीर का काल मुगल चित्रकला के चरमोत्कर्ष का काल था। जहाँगीर चित्रकला का शौकीन और पारखी था। जहाँगीर ने अपनी आत्मकथा तुजुके-जहाँगीर में लिखा है। ‘कला में मेरी रुचि और ज्ञान इस सीमा तक पहुँच गया है। कि यदि मेरे सम्मुख किसी भी मृत अथवा जीवित चित्रकार की कलाकृति प्रस्तुत की जाती है। और मुझे इस चित्रकार का नाम नहीं बताया जाता है। तो मैं तुरन्त बता देता हूँ कि यह अमुक व्यक्ति के द्वारा किया गया कार्य है। यदि एक चित्र में विभिन्न कलाकारों के द्वारा विभिन्न आकृतियाँ बनाई गयी हो तो मैं यह बता सकता हूँ कि अमुक आकृति अमुक चित्रकार ने बनाई है।’ जहाँगीर ने हेरात के एक प्रसिद्ध चित्रकार आकारिजा के नेतृत्व में आगरा में एक चित्रणशाला की स्थापना की। जहाँगीर के काल में हस्तलिखित ग्रन्थों की विषय वस्तु को चित्रकारी के लिए प्रयोग की पद्धति को समाप्त करके उसके स्थान पर छवि चित्र, प्राकृतिक दृश्यों एवं व्यक्तियों के जीवन से सम्बन्धित चित्रण की परम्परा की शुरूआत हुई। जहाँगीर के काल के प्रमुख चित्रकारों में फारुखबेग, बिसनदास, उस्ताद मंसूर, दौलत, मनोहर तथा अबुल हसन थे। फारुख बेग जो अकबर के समय मुगल चित्रणशाला में प्रवेश किया था। जहाँगीर के समय उसने (फारुख बेग) बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह का चित्र बनाया था। दौलत, फारुख बेग का शिष्य था। उसने बादशाह जहाँगीर के कहने पर अपने साथी चित्रकारों – बिसनदास, गोवर्धन एवं अबुल हसन आदि का सामूहिक चित्र बनाया, और साथ ही अपना भी एक छवि चित्र बनाया। मनोहर, बसावन का पुत्र और अपने समय का एक प्रसिद्ध चित्रकार था। उसने अनेक प्रसिद्ध छवि चित्रों का निर्माण किया। ध्यातव्य है कि तुजुके जहाँगीरी में मनोहर का नाम नहीं मिलता है। मनोहर ने अनेक शहजादों, अमीरों एवं विदेशी राजदूतों के सामूहिक छवि चित्र बनाया था। जहाँगीर ने अपने अग्रणी चित्रकार बिसनदास को अपने दूत खान आलम के साथ फारस के शाह के दरबार में चित्र बनाकर लाने के लिए भेजा था और उसने शाह उनके अमीरों तथा उनके परिजनों के अनेक छवि चित्र बनाकर लाया था। जहाँगीर के समय के सर्वोत्कृष्ट चित्रकार- उस्ताद मंसूर और अबुल हसन थे। बादशाह ने उन दोनों को क्रमशः नादिर उल असर (उस्ताद मंसूर को) और नादिर उद् जमा (अबुल हसन) की उपाधि दी थी। उस्ताद मंसूर प्रसिद्ध पक्षी विशेषज्ञ चित्रकार था जबकि अबुल हसन को व्यक्ति चित्रों में महारथ हासिल थी। उस्ताद मंसूर दुर्लभ पशुओं, विरले पक्षियों और अनोखें पुष्पों के अनेक चित्र बनाये। उसकी महत्वपूर्ण कृतियों में- साइबेरिया का एक बिरला सारस तथा बंगाल का एक अनोखा पुष्प विशेष रूप से उल्लेखनीय है। अबुल हसन आकारिजा का पुत्र था। वह बादशाह की छाया में ही रहकर बड़ा हुआ था, उसने 13 वर्ष की आयु में ही (1600 ई०) में सबसे पहले ट्यूडर के सन्त जान पॉल के तस्वीर की एक नकल बनाई थी। अबुल हसन की सर्वाधिक प्रमुख विशेषता थी- उसकी रंग योजना जो अत्यन्त प्रभावशाली, चिन्ताकर्षक एवं चटकदार होती थी। अबुल हसन ने तुजुके जहाँगीरी के मुख पृष्ठ के लिए चित्र बनाया था। लन्दन की एक लाइब्रेरी में एक अद्भुत चित्र उलब्ध है, जिसमें एक चिनार के पेड़ पर असंख्य गिलहरियाँ अनेक प्रकार की मुद्राओं में चित्रित है। ‘यह चित्र संभवतः अबुल हसन का माना जाता है किन्तु यदि पृष्ठ भाग पर अंकित नामों का प्रभाव माना जाये तो इसे मंसूर एवं अबुल हसन की संयुक्त कृति मानना पड़ेगा।’ आग रजा, मुहम्मद नादिर, मुहम्मद मुराद, बिशनदास, मनोहर, माधव, तुलसी, गोवर्धन आदि उसके दरबारके प्रमुख चित्रकार थे।

         शाहजहाँ को चित्रकला की अपेक्षा स्थापत्य में अधिक रुचि थी, फिर भी उसने चित्रकला को प्रश्रय दिया। शाहजहाँ के समय आकृति चित्रण और रंग सामंजस्य में कमी आ गयी थी। उसके काल में रेखांकन और वार्डर बनाने में उन्नति हुई। शाहजहाँ देवीय संरक्षण में अपने चित्र बनवाना अधिक पसन्द करता था। उसके समय के प्रसिद्ध चित्रकार फकीर उल्ला, मीर हाशिम, मुरार, हुनर मुहम्मद नादिर, अनूप और चित्रा प्रमुख थे। शाहजहाँ का एक विख्यात चित्र भारतीय संग्रहालय में उपलब्ध है, जिसमें शाहजहाँ को सूफी नृत्य करते हुए दिखाया गया है।

         औरंगजेब ने चित्रकला को इस्लाम विरूद्ध मानकर बन्द करवा दिया था। किन्तु अपने शासन काल के अन्तिम वर्षों में उसने चित्रकारी में कुछ रूचि ली जिसके परिणामस्वरूप उसके कुछ लघु चित्र शिकार खेलते हुए, दरबार लगाते हुए तथा युद्ध करते हुए प्राप्त होते हैं। औरंगजेब के बाद मुगल चित्रकार अन्यत्र जाकर बस गये, जहाँ पर अनेक क्षेत्रीय चित्रकला शैलियों का विकास हुआ। मनूची ने लिखा है कि औरंगजेब की आज्ञा से अकबर के मकबरे वाले चित्रों को चूने से पोत दिया गया था। अकबर के काल में चित्रकला की सबसे बड़ी विशेषता ईरानी शैली के सपाट प्रभाव के स्थान पर भारतीय वृत्ताकार शैली का प्रभाव पड़ा, जिससे चित्रों में त्रिविमीय प्रभाव आ गया। जहाँगीर के काल में शिकार, युद्ध तथा राजदरबार के दृश्यों (अकबर कालीन) के अलावा व्यक्ति चित्रों (छवि चित्रों) तथा प्राकृतिक दृश्यों (पशु पक्षी आदि) के चित्रों को बनाने में विशेष प्रगति हुई। मुगल कालीन चित्रकारों ने मुस्लिम धार्मिक गाथाओं पर चित्र बनाने में संकोच किया, परन्तु हिन्दू पौराणिक गाथाओं और ईसाई धर्म की कहानियों से सम्बन्धित विषयों पर चित्र बनाया गया।

          अकबर ने चित्रकला की प्रशंसा करते हुए कहा है कि चित्रकार के पास ईश्वर को पहचानने का एक विचित्र साधन होता है। मुगल चित्रकला के नमूनें बहुत बड़ी संख्या में निम्न जगह उपलब्ध है ब्रिटिश म्यूजियम, सवाई मानसिंह संग्रहालय जयपुर, भारतीय संग्रहालय कलकत्ता, अमेरिका और यूरोप के विभिन्न संग्रहालय है। पर्सी ब्राउन ने कहा है कि जहाँगीर के साथ ही मुगल चित्रकला की वास्तविक आत्मा पतनोन्मुख हो गयी।

मुगल कालीन प्रमुख चित्रकार

हुमायूँ कालीन चित्रकार – मीर सैय्यद अली और अब्दुस्समद

अकबर कालीन चित्रकार – अग्रणी चित्रकार- दसवन्त,सर्वोत्कृष्ट चित्रकार – बसावन

जहाँगीर कालीन चित्रकार- अग्रणी चित्रकार- बिसनदास,सर्वोत्कृष्ट चित्रकार- उस्ताद मंसूर (पशु पक्षी विशेषज्ञ चित्रकार) एवं उपाधि (नादिर उल असर) अबुल हसन (व्यक्ति चित्र में सिद्धहसत, उपाधि नादिर उल जमाँ)

मुगलकाल के कुछ प्रसिद्ध चित्र

चित्र                                          –                  चित्रकार

  1. एक कृशकाय घोड़े के साथ मजनूँ का निर्जन वन स्थान में भटकता चित्र – बसावन (अकबर)
  2. साईबेरिया का एक दुर्लभ सारस            –        उस्ताद मंसूर (जहाँगीर)
  3. बंगाल का एक अनोखा पुष्प                 –        उस्ताद मंसूर (जहाँगीर)
  4. तुजुके-जहाँगीरी के मुखपृष्ठ के लिए चित्र-       अबुल हसन (जहाँगीर)
  5. ड्यूटर के सन्तपॉल का चित्र                  –        अबुल हसन (जहाँगीर)
  6. बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह का चित्र-       फारूख बेग (जहाँगीर)

मुगल कालीन कुछ विशिष्ट चित्र

        लन्दन की लाइब्ररी में एक चित्र उपलब्ध है, जिसमें एक चिनार के पेड़ पर असंख्य गिलहरियाँ अनेक मुद्राओं में चित्रित है इसे अबुल हसन की कृति माना जाता है किन्तु पृष्ठ भाग पर अबुल हसन एवं मंसूर दोनों का नाम अंकित होने के कारण इसे दोनों को संयुक्त कृति माना जाता है। जहाँगीर कालीन एक प्रसिद्ध चित्रकार मनोहर का नाम तुजुके जहाँगीरी में नहीं मिलता है। मुगल काल में यूरोपीय चित्रों के महत्वपूर्ण ब्योरों का अध्ययन कर उन्हें अपने चित्रों में संजोने वाले महत्वपूर्ण चित्रकारों में शामिल थे- बसावन, केशवदास, मिशकिन, दौलत, अबुल हसन आदि। यूरोपीय प्रभाव वाले चित्रकारों में संभवतः मिशकिन सर्वश्रेष्ठ था।

मुगल कालीन संगीत कला

        मुगलकाल में हिन्दू और मुस्लिम दोनों के सहयोग से संगीत कला की उन्नति हुई। यद्यपि बाबर एवं हुमायूँ ने भी संगीत को प्रोत्साहन दिया है। किन्तु यह अकबर के ही काल में अपने शिखर पर पहुँची।

अकबर

       अबुल फजल के अनुसार अकबर के दरबार में 36 गायकों को राज्याश्रय प्राप्त था। किन्तु उनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध तानसेन एवं बाजबहादुर ही थे। अकबर स्वयं ही बहुत अच्छा नगाड़ा बजाता था। तानसेन अकबर के नवरत्नों में से एक था, जिसे अकबर ने रीवां के राजा रामचन्द्र से प्राप्त किया था। अकबर ने तानसेन को कण्ठाभरणवाणी बिलास की उपाधि प्रदान की थी। तानसेन के गुरु का नाम हरिदास था। जो वृन्दावन में निवास करते थे। तानसेन के बारे में अबु ल फजल ने कहा है कि तानसेन के समान गायक पिछले हजार वर्षों से भारत में नहीं हुआ। अकबर के समय ध्रुपद गायन की चार शैलियाँ प्रचलित थी नोहार वाणी, खण्डारवाणी, गोहरवाणी या गौरीरवाणी और डागुरवाणी। कालान्तर में ध्रुपद का स्थान ख्याल गायन शैली ने ले लिया। अकबर के समय के प्रसिद्ध संगीतज्ञ बाज बहादुर (मालवा का शासक) को अकबर ने 2000 का मनसबदार बनाया था। अबुल फजल ने उसके बारे में लिखा है कि वह संगीत विज्ञान एवं हिन्दी गीतों में अपने समय का सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति था। अकबर के काल के प्रमुख संगीतज्ञ थे- तानसेन, बाजबहादुर, बैजबख्श, गोपाल, हरिदास, रामदास, सुजान खाँ, मियाँ चाँद तथा मियाँ लाल एवं बैजूबावरा (दरबार से सम्बन्धित नहीं ) प्रमुख थे। सूरदास का दरबार से अप्रत्यक्ष सम्बन्ध था।

जहाँगीर

      जहाँगीर के काल के प्रमुख संगीतज्ञों में तानसेन के पुत्र बिलास खाँ, छतर खाँ, मक्खू तथा हमजान प्रमुख थे। जहाँगीर ने एक गजल गायक शौकी को आनन्द खाँ की उपाधि दी थी।

शाहजहाँ

       शाहजहाँ अत्यन्त रसिक एवं संगीत मर्मज्ञ था। कहा जाता है कि उसके दीवाने खास में प्रतिदिन वाद्य वादन और संगीत हुआ करता था। और वह स्वयं भी बहुत अच्छा गायक था। शाहजहाँ के काल के प्रमुख संगीतज्ञ- लाल खाँ, खुशहाल खाँ और और बिसराम खाँ थे। शाहजहाँ ने लाल खाँ (बिलास खाँ के दामाद) को गुनसमुन्दर (गुण समुद्र) की उपाधि दी थी। शाहजहाँ की संगीत प्रियता का प्रमाण इस बात से होता है कि एक बार उसके दरबारी गायक खुशहाल खाँ और बिसराम खाँ ने शाहजहाँ को टोड़ी राग गाकर ऐसा मन्त्र मुग्ध कर दिया कि उसने मुर्शिद खाँ को औरंगजेब के साथ दक्षिण भेजने के आज्ञा पत्र पर बिना पढ़े ही हस्ताक्षर कर दिया। यद्यपि बाद में दण्डस्वरूप दोनों को दरबार के आनुवंशिक अधिकार से वंचित कर दिया।

औरंगजेब

         औरंगजेब ने संगीत को इस्लाम विरोधी मानकर पाबन्दी लगा दी थी। किन्तु उसी के काल में फारसी भाषा में भारतीय शास्त्रीय संगीत पर सर्वाधिक पुस्तकें लिखी गयी। औरंगजेब के काल में संगीत पर पाबन्दी होने के कारण एक बार जब संगीत प्रेमी ‘तबला’ और तानपूरे का जनाजा निकाल रहे थे, तब उसने कहा था कि संगीत की मौत हो गयी और आदेश दिया कि इसकी कब्र इतनी गहरी दफनाना, ताकि आवाज आसानी से बाहर न निकल सके। औरंगजेब स्वयं एक कुशल वीणावादक था। उसी के काल में फकीरुल्लाह ने मानकुतूहल का अनुवाद रागदर्पण नाम से करके औरंगजेब को अर्पित किया था। औरंगजेब के काल के प्रमुख संगीतज्ञ रसबैन खाँ, सूखीसेन, कलावन्त, हयात सरसनैन, और किरपा थे। मिर्जा रोशन जमीर ने अहोवल के संगीत परिजात का अनुवाद औरंगजेब के राज्याश्रय में ही रहकर किया था। मुस्तइद खाँ की मआसिरे आलमगीरी में उल्लिखित है कि औरंगजेब ने प्रसिद्ध संगीतज्ञ मिर्जा मुकर्रर खाँ सफवी के प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहा है कि- संगीत तो मुबह है अर्थात् न तो अच्छा है और न ही बुरा। औरंगजेब आगे फिर कहता है कि मैं संगीत को उसके साज (विशेष रूप से पखावज) के बिना नहीं सुन सकता, और उस पर पाबन्दी है, इसलिए मैंने गाना भी छोड़ दिया।

         मुगल काल में संगीत का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विकास 18वीं शताब्दी में मुगल बादशाह मुहम्मद शाह (1729-48 ई०) के समय में हुआ था। उसके दरबार में नेमत खां, सदारंग तथा उसके भतीजे अदारंग ने संगीत को विकास की पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया।

        मुगल बादशाह मुहम्मदशाह रंगीले के समय संगीत की ख्याल शैली लोकप्रिय हुई। इसी सदी के पूर्वार्द्ध में सितार और तबला दो संगीत बाध्यों का निर्माण हुआ। मुगल काल में दक्षिणी भारत में विजयनगर राज्य के राजा सदाशिवराव के मंत्री रामराय का नाम उल्लेखनीय है। जिसने एक संगीत ग्रंथ स्वरमेल-कला-निधि की रचना की थी। इसी समय खानदेश के शासक बुरहानखाँ फारुखी के संरक्षण में ‘षड्रागचन्द्रोदय‘ की रचना पुण्डरीक विठ्ठल ने की।

मुगल कालीन शिक्षा

         सल्तनत में शिक्षा हेतु ना तो पृथक विभाग था, ना ही शिक्षा की कोई व्यवस्थित योजना थी। ‘सदो’ द्वारा दान के रूप में शिक्षा संस्थाओं को आर्थिक सहायता देने की परिपाटी थी। मुगल बादशाहों ने शिक्षा के महत्व को समझा था और विद्वानों को संरक्षण प्रदान किया। मुगल काल में दिल्ली, आगरा, फतेहपुर सीकरी, लखनऊ, अम्बाला, ग्वालियर, कश्मीर, इलाहाबाद, लाहौर, जौनपुर, स्यालकोट आदि मुस्लिम शिक्षा के केन्द्र थे। मदरसों और मकतबों में फारसी भाषा में शिक्षा प्रदान की जाती थी। विद्यार्थियों को तीन प्रकार की उपाधियाँ दी जाती थी। तर्क और दर्शन के विद्यार्थी को ‘फाजिलधार्मिक शिक्षा विद्यार्थीयों को ‘आलिम‘ और साहित्य के विद्यार्थियों को ‘काबिल‘ की उपाधि प्रदान की जाती थी।

          हिन्दुओं की शिक्षा के लिए पाठशाला और विद्यापीठ थी। जहाँ संस्कृत भाषा और साहित्य शिक्षा के मुख्य विषय थे। हिन्दू शिक्षा में मुसलमानी शिक्षा की अपेक्षा धर्म शिक्षा का अभाव था। बनारस, मथुरा, इलाहाबाद, अयोध्या, नदिया, मिथिला, श्रीनगर आदि हिन्दुओं की शिक्षा के केन्द्र थे। पाठशालाओं में लड़के और लड़कियाँ साथ-साथ शिक्षा प्राप्त करते थे।

        स्त्री शिक्षा प्राय नाममात्र के लिए थी। विभिन्न तकनीकी, औद्योगिक और व्यावसायिक शिक्षा की ओर ध्यान नहीं दिया गया था। मुगल शासकों ने शिक्षा का पोषण किया। मुगल काल में मकतब (प्राइमरी शिक्षा) और मदरसों की व्यवस्था होती थी, जहाँ शिक्षा दी जाती थी। बाबर के समय में एक विभाग शुहरते आम होता था, तो स्कूल एवं कालेजों की व्यवस्था करता था। हुमायूँ ज्योतिष एवं भूगोल का अच्छा ज्ञाता था। उसने माहम अनगा (अकबर की धाय माँ) के सहयोग से दिल्ली में मरदसा-ए-बेगम की स्थापना की थी। हुमायूँ के बारे में कहा जाता है कि वह सदैव अपने साथ एक चुना हुआ पुस्तकालय लेकर चलता था।

          अकबर स्वयं अशिक्षित था, किन्तु उसने शिक्षा के विकास के लिए फतेहपुर सीकरी, आगरा एवं लाहौर आदि अनेक स्थानों पर मकतब एवं मदरसों का निर्माण करवा कर शिक्षा को प्रोत्साहन दिया। जहाँगीर ने एक महत्त्वपूर्ण घोषणा की थी, जिसके अनुसार किसी सम्पन्न व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर राज्य उसकी सम्पत्ति लेकर मदरसों एवं मठों का निर्माण एवं मरम्मत करायेगा। अकबर के काल में फारसी को बहुत प्रश्रय मिला था, जिससे फारसी के अलावा स्थानीय भाषा (हिन्दवी) में कागजात रखना बन्द कर दिया गया। शाहजहाँ ने दिल्ली में एक नये कालेज का निर्माण करवाया तथा दारूल बर्का नामक कालेज की मरम्मत करवायी।

       मुगल राजपरिवार का सर्वाधिक विद्वान शाहजादा दाराशिकोह था, वह हमेशा विद्वानों एवं सन्तों का आदर करता था। उसकी बड़ी बहन जहाँआरा भी एक विद्वान और विद्वानों का आदर करने वाली महिला थी। औरंगजेब के समय में मकतबों एवं मदरसों को सहायता दी जाती थी किन्तु उसने हिन्दू पाठशालाओं को बन्द करवाने का प्रयत्न किया। औरंगजेब की निर्वासित पुत्री जेबुन्निसा ने दिल्ली में बैतुल उल उलूम नामक एक स्कूल खुलवाया। जिसमें अभिजात वर्ग के साथ साथ मध्य के लोग भी पढ़ सकते थे। मकतबों एवं मदरसों में फारसी भाषा के माध्यम वर्ग से शिक्षा दी जाती थी। विभिन्न मदरसों में भिन्न भिन्न शिक्षा दी जाती थी जैसे लखनऊ फरहंगी महल मदरसा न्याय की शिक्षा के लिए तथा स्यालकोट मदरसा व्याकरण की शिक्षा के लिए प्रसिद्ध था। मुगल काल में विद्यार्थियों को तीन प्रकार की उपाधियाँ दी जाती थी- धर्म और दर्शन के विद्यार्थी को फाजिल, धार्मिक शिक्षा के विद्यार्थियों आमिल तथा साहित्य के विद्यार्थियों को काबिल। ट्रेबर्नियर ने शिक्षा के क्षेत्र में बनारस की बहुत प्रशंसा की है।

मुगल कालीन साहित्य

बाबर

      बाबर साहित्य में बहुत रूचि लेता था। उसने तुर्की भाषा में अपनी आत्मकथा- तुजुके बाबरी‘ (बाबरनामा) लिखा। बाबरनामा का तीन बार फारसी अनुवाद हुआ। बाबरनामा में भारत की तत्कालीन राजनीतिक दशा, भारतीयों के तत्कालीन जीवन स्तर, फसलों तथा फूलों का विस्तृत वर्णन मिलता है। बाबर ने एक नई काव्य शैली मुबइयान को प्रारम्भ किया। बाबर ने कविताओं का संग्रह दीवान (तुर्की भाषा) नाम से करवाया, बहुत प्रसिद्ध हुआ।

हुमायूँ

        हुमायूँ के शासन काल में मिर्जा हैदर दोगलत (जो हुमायूँ की शाही फौज कमाण्डर था) ने तारीखे रशीदी नामक फारसी ग्रन्थ लिखा। जिसमें मध्य एशिया के तुर्कों का इतिहास एवं हुमायूँ के काल का विस्तार से वर्णन मिलता है।

हुमायूँनामा – हुमायूँ की बहन गुलबदन बेगम द्वारा लिखित इस ग्रन्थ के एक खण्ड में बाबर का इतिहास तथा दूसरे खण्ड में हुमायूँ का इतिहास मिलता है।

तजकिरात उल-वाकयातजौहर आफतावची द्वारा लिखित इस ग्रन्थ में हुमायूँ के जीवन के उतार चढ़ाव का वर्णन मिलता है।

वाकयात ए मुश्ताकी रिजकुल्लाह मुस्ताकी द्वारा लिखित यह ऐसी पहली पुस्तक है, जिससे लोदी एवं सूरकाल के विषय में जानकारी मिलती है।

अकबर

       अबुल फजल अकबर के दरबार के 59 श्रेष्ठ कवियों का उल्लेख करता है इसमें फैजी, नजीरी, अब्दुरहीम खानखाना, उत्बी (उर्फी) एवं गिजाली एवं अबुल फजल आदि प्रमुख थे। अकबर ने भारत में दरबारी इतिहास लेखन की परम्परा की शुरूआत की। अकबर कालीन साहित्य को सुविधानुसार तीन भागों में बाँटा जा सकता है। 1. ऐतिहासिक पुस्तकें 2. अनुवाद 3. काव्य एवं पद्म।

(1) ऐतिहासिक पुस्तकें

1. नफाइस-उल-मासिरमीर अलाउद्दौला कजवीनी द्वारा लिखित अकबर के समय की प्रथम ऐतिहासिक पुस्तक है। जिसमें 1565 ई० से 1575 ई० तक घटनाओं का विवरण मिलता है।

2. अकबरनामा अबुल फजल द्वारा 7 वर्षों में लिखी गयी (1591 ई०) यह पुस्तक तीन जिल्दों में बँटी है। इसकी आखिरी जिल्द आइने अकबरी है। आइने अकबरी पुनः 5 भागों में बँटी है। यह पुस्तक अकबर कालीन शासन प्रणाली तथा मुगल आर्थिक जीवन का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। इसके अन्तिम भाग में अबुल फजल की जीवन वर्णित है।

3. मुन्तखाब-उल-तवारीखबदायूँनी द्वारा अकबर के शासन काल 1590 ई० में प्रारम्भ इस पुस्तक को हिन्दुस्तान का आम इतिहास माना जाता है। बदायूँनी अकबर की धार्मिक नीतियों का कट्टर विरोधी था, उसने अकबर की इस्लाम विरोधी नीतियों की एक लम्बी सूची तैयार की थी।

       अकबर के शासन काल की अन्य प्रमुख ऐतिहासिक पुस्तकें है- मुल्ला दाउद की तारीखे अल्फी, निजामुद्दीन अहमद का तबकाते अकबरी, फैजी सरहिन्दी का अकबरनामा तथा अब्दुल बाकी की मआसिरे रहीमी आदि।

(2) अनुवाद

         अकबर का राजकवि फैजी (अबुल फजल का भाई) अपने समय का श्रेष्ठ कवि था। अकबर ने उसी के अधीन एक अनुवाद विभाग की स्थापना की थी। अकबर के आदेश से महाभारत के विभिन्न भागों का फारसी में अनुवाद किया गया तथा उसका संकलन रज्मनामा नाम से किया गया। अकबर के शासनकाल बदायूँनी ने रामायण का, राजा टोडरमल ने भागवत पुराण का, इब्राहीम सरहिन्दी ने अथर्ववेद की, फैजी ने गणित की एक पुस्तक लीलावती का, मुकम्मल खाँ गुजराती ने ज्योतिष शास्त्र की एक पुस्तक तजक का-जहाँन ए जफर नाम से, अब्दुर्रहीम खान खाना ने तुजुके बाबरी, पायन्दा खाँ ने तुजुके बाबरी तथा मौलाना शाह मुहम्मद शाहावादी ने कश्मीर के इतिहास (राजतरंगिणी) का फारसी में अनुवाद किया। इसके अतिरिक्त सिंहासन बत्तीसी तथा पंचतंत्र का कलीला एवं दिमना नाम से तथा अबुल फजल ने कालिया दमन का अयोरे ए दानिश, यार ए दानिश नाम से अनुवाद किया गया। अकबर के ही काल में संभवतः कुरान का पहली बार अनुवाद हुआ।

(3) काव्य या पद्य

        अकबर कालीन पद्यकारों में सबसे विख्यात गिजाली थे। उसके बाद अबुल फजल का भाई फैजी थी। अन्य प्रसिद्ध कवियों में निशापुर का मुहम्मद हुसैन नजीरी था, जो बहुत अच्छी गजलें लिखता था, शीराज का सैय्यद जमालुद्दीन उर्फी (उत्बी) अपने समय में कसीदों का विख्यात लेखक था।

       जहाँगीर के शासन काल में विद्वानों की एक विस्तृत सूची मोतमिद खाँ बख्शी द्वारा लिखित इकबालनामा ए जहाँगीरी में मिलता है। जहाँगीर के शासनकाल में फारसी भाषा में लिखी गयी ऐतिहासिक पुस्तकों में जहाँगीर द्वारा लिखित स्वयं की आत्मकथा (तुजुके जहाँगीरी), मौतमिद खाँ द्वारा लिखित इकबालनामा ए जहाँगीरी तथ ख्वाजा कामगार द्वारा लिखित मआसिरे जहाँगीरी प्रमुख है। तुजुके जहाँगीरी (जहाँगीर की आत्मकथा) -यद्यपि इसे जहाँगीर ने शुरू किया लेकिन अपने शासनकाल के 16 वर्षों तक कार्य करने के बाद बन्द कर दिया। तत्पश्चात् उसे मौतमिद खाँ ने शुरू किया किन्तु अन्तिम रूप से इस पुस्तक को मुहम्मद हादी ने पूरा किया।

        शाहजहाँ के समय में भी अनेक ऐतिहासिक पुस्तकें लिखी गयी, जिसमें उसके दरबारी इतिहासकार अब्दुल हमीद लाहौरी का पादशाहनामा, मुहम्मद सादिक का पादशाहनामा, इनायत खाँ का शाहजहाँनामा तथा मुहम्मद सालेह-अमले सालेह प्रमुख है। मुहम्मद अमीन कजवीनी शाहजहाँ के समय का प्रथम सरकारी इतिहासकार था। जिसने अपनी पुस्तक में शाहजहाँ के शासनकाल के प्रथम 10 वर्षों का जिक्र किया है।

        दाराशिकोह ने अनेक ग्रन्थों भगवत गीता एवं योग वाशिष्ठ का स्वयं अपनी देख रेख में फारसी में अनुवाद कराया। दारा का सबसे महत्वपूर्ण कार्य वेदों का संकलन था, जिसे उसने ईश्वरीय कृति माना है। इसके अतिरिक्त उसने स्वयं तथा काशी के पण्डितों का सहायता से बावन उपनिषदों का सिर्र ए अकबर नाम से फारसी में अनुवाद कराया।

         औरंगजेब अपने साम्राज्य में इतिहास लेखन के विरूद्ध था। इसीलिए खफी खाँ को मुन्तखब उल तवारीख (औरंगजेब के शासन काल का आलोचनात्मक वर्णन) की रचना गुप्त रूप से करना पड़ा। फिर भी औरंगजेब के समय में अनेक ऐतिहासिक पुस्तकें फारसी भाषा में लिखी गयी। जिनमें खफी खाँ का मुन्तखब-उल-तवारीख, मिर्जा मुहम्मद काजिम का आलमगीरनामा, मुहम्मद साकी का मआसिरे आलमगीरी, सुजान राय का- खुलासत-उल-तवारीख, ईश्वरदास का फुतूहाते-आलमगिरी, भीमसेन बुरहानपुरी का नुस्खा ए दिलकुशाँ आदि प्रमुख हैं। औरंगजेब के काल में मुहम्मद साकी द्वारा लिखी गयी मआसिरे आलमगीरी को डॉ० जदुनाथ सरकार ने मुगलराज्य का गजेटियर कहा है। औरंगजेब ने अनेक अरबी ग्रन्थों की सहायता से फारसी में एक न्याय और कानून की पुस्तक फतवा ए आलमगीरी संकलन करवाया। इसे भारत में रचित मुस्लिम कानून का सबसे बड़ा डाइजेस्ट माना गया है।

संस्कृत साहित्य

         अकबर के शासन काल में प्रसिद्ध जैन विद्वान पद्मशंकर ने सर्वप्रथम फारसी-संस्कृत का एक शब्दकोष- फारसी प्रकाश नाम से तैयार किया। अकबर ने अपने शासन काल में इस्लाम के प्रति हिन्दुओं में भाई-चारा तथा श्रद्धा जागृत करने के लिए संस्कृत में अल्लोपनिषद् नामक एक छोटा उपनिषद लिखवाया। दरभंगा के महेश ठाकुर ने संस्कृत में अकबर के शासनकाल का इतिहास लिखा। इसके अतिरिक्त शाहजहाँ के दरबारी कवि पण्डित जगन्नाथ ने रसगंगाधर एवं गंगालहरी की रचना की।

हिन्दी साहित्य

            मुगलकाल हिन्दी साहित्य का उत्कृष्ट काल था जिसमें मलिक मुहम्मद जायसी, तुलसीदास, अब्दुर्रहीम खानखाना तथा बीरबल अकबर के काल के प्रसिद्ध कवि थे। अकबर ने बीरबल को कविप्रिय (कविराय) की उपाधि प्रदान की तथा नरहरि चक्रवर्ती को महापात्रकी उपाधि दी थी। अकबर के समय में तुलसीदास जी ने रामचरित मानस नामक ग्रन्थ रचना की। रामचरित मानस को जॉर्ज ग्रियर्सन ने उचित ही हिन्दुस्तान के करोड़ लोगों की एक मात्र बाइबिल बताया है। जहाँगीर के समय में सूरदास (अष्टछाप के सर्वश्रेष्ठ कवि) ने सूरसागर रचना की। बूटा या वृक्षराज नामक हिन्दी कवि जहाँगीर का विशेष कृपापात्र था जहाँगीर के समय के सर्वश्रेष्ठ कवि केशवदास थे। आचार्य बिहारी को जयसिंह ने संरक्षण दिया था।

          मुगल काल में गुजराती, मराठी तथा बंगला में भी कविताओं एवं ग्रन्थों की रचना हुई। बंगला में कृष्णदास कविराज ने चैतन्य चरितामृत की रचना की। वैष्णव सन्त चैतन्य की जीवनी है। एक अन्य बंगाली लेखक मुकुन्द राम चक्रवर्ती ने कवि कंकण चण्ड नामक ग्रन्थ की रचना की, जिसे बंगाल में आज भी वैसी ही लोकप्रियता प्राप्त है, जैसे उत्तरी भारत में रामचरित मानस को प्राप्त है। इसी कारण प्रोफेसर क्रावेल ने मुकुन्द राम चक्रवर्ती को बंगाल का कैब कहा है। अकबर के दरबार के प्रसिद्ध ग्रन्थकर्ताओ (जिसकी एक सूची आइने अकबरी में मिलती है) में सबसे प्रमुख कश्मीर का मुहम्मद हुसैन था। जिसे अकबर ने जरीकलम की उपाधि दी थी। तुलसीदास जी ने 25 ग्रन्थों की रचना की

जिनमें रामचरित मानस और विनय पत्रिका प्रमुख है। सुरदास जी कृष्ण-भक्त थे। उन्होंने सूरसागर में जिन पदों संग्रह किया है। वह भक्तिरस की श्रेष्ठतम रचनाएँ मानी गयी है। जहाँगीर का भाई दानियाल हिन्दी में कविता करता था। शाहजहाँ के काल में हिन्दी की पर्याप्त प्रगति हुई। सुन्दर कविराय जिन्होंने सुन्दर श्रृंगार लिखा, सेनापति जिन्होंने ‘कवित्त रत्नाकर’ लिखा, कवीन्द्र आचार्य जिन्होंने ‘कवीन्द्र कल्पतरु’ नामक कविता को मिश्रित अवधी और ब्रजभाषा में लिखा तथा शिरोमणि मिश्र, बनारसीदास, भूषण, मतिराम, वेदांगराय, हरीनाथ आदि हिन्दी के विद्वान शाहजहाँ से संरक्षण प्राप्त किये हुए थे।

उर्दू साहित्य

           उर्दू का जन्म सल्तनत काल में ही हो चुका था। प्रारम्भ में इसे जबान ए हिन्दवी कहा जाता था। अमीर खुसरो पहला विद्वान था। जिसने उर्दू को अपनी कविताओं का माध्यम बनाया था। सर्वप्रथम दक्षिण के सुल्तानों ने इस भाषा को प्रोत्साहन दिया था। मुगल बादशाहों में मुहम्मद शाह (1719-48) पहला बादशाह था, जिसे उसने प्रश्रय दिया था और इसके प्रोत्साहन के लिए दक्षिण के कवि वली को बुलाया था। कालान्तर में उर्दू को रेख्ता भी कहा जाने लगा।

मुगलकाल के प्रमुख कलाकार/व्यक्तित्व

कलाकार/व्यक्ति              –        उपाधि

बिहजाद                           –        पूर्व का राफेल        

उस्ताद मंसूर                    –        नादिर-उल-असरार

उस्ताद अहमद लाहौरी      –        नादिर-उल-अस्त्र

अबुल हसन                     –        नादिर-उद्-जमा

मुल्ला मुहम्मद                  –        जरी कलम

हुसैन कश्मीरी                  –        शीरी कलम

ख्वाजा अब्दुरस्समद         –        जगत् गुरु

हीरविजय सूरि                 –        युग प्रधान

जिनचन्द्र सूरि                   –        कण्ठाभरण

लाल खाँ (संगीतज्ञ)           –        वाणी विलास

तानसेन                           –        गुण समुद्र

मुहम्मद हाशिम                 –        खफी खाँ

बीरबल                            –        कवि प्रिय (कविराय)

नरहरि चक्रवर्ती                –        महापात्र



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