राजपूत कालीन राजनीति, समाज और संस्कृति

उत्तर भारत की राजनीतिक स्थिति

पाँचवी शताब्दी के अन्त अथवा छठी शताब्दी के पूर्वाद्ध में गुप्त साम्राज्य का पतन हो गया था। विदेशों से बर्बर हूणों के होने वाले आक्रमण तथा आन्तरिक विघटन गुप्त साम्राज्य के पतन के मुख्य कारण थे जिसके परिणामस्वरूप गुप्त साम्राज्य के प्रान्तीय शासकों ने अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर उत्तर भारत के विभिन्न भागों में अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिए। गुप्त साम्राज्य के पतन के साथ ही मगध साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र जो छठी शताब्दी ई०पू० से छठी शताब्दी ई० तक उत्तर भारत की राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्रबिन्दु रहा था, का गौरव भी नष्ट हो गया। पाटलिपुत्र के स्थान पर अब कन्नौज के रूप में उत्तरी भारत के एक नवीन राजनीतिक केन्द्र का उदय हुआ। डॉ० ईश्वरी प्रसाद ने इस काल को भारत के राज्यों के अन्दर राज्य का काल कहा है। इस काल के दौरान दूसरा महत्वपूर्ण परिवर्तन जो हुआ, वह था सामन्तवाद का उत्कर्ष, जिसने भारतीय इतिहास को प्राचीन से मध्यकाल में रूपान्तरित किया। इस समय उत्तर भारत के अधिकांश राजवंश राजपूत थे इसलिए इस युग के इतिहास को राजपूत युगीन इतिहास भी कहा जाता है। इन राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में भिन्न भिन्न मत प्रचलित है। कुछ विद्वान इसे भारत में रहने वाली एक जाति मानते हैं, तो कुछ अन्य इन्हें विदेशियों की सन्तान मानते हैं।

       कुछ विद्वान राजपूतों को आबू पर्वत पर वशिष्ठ के अग्निकुण्ड से उत्पन्न हुआ मानते हैं। यह सिद्धान्त चन्दरबरदाई के पृथ्वीराज रासो पर आधारित है तथा प्रतिहार, चालुक्य, चौहान और परमार राजपूतों का जन्म इससे माना जाता है। कर्नल टॉड के अनुसार राजपूत शक, कुषाण तथा हूण आदि विदेशी जातियों की सन्तान थे। डॉ० ईश्वरी प्रसाद तथा डी० आर० भण्डारकर भी राजपूतों को विदेशी मानते हैं। वी०डी० चट्टोपाध्याय के अनुसार राजपूत सामाजिक आर्थिक प्रक्रिया की उपज थे। जी० एच० ओझा, सी०वी० वैद्य तथा अन्य कई इतिहासकार यही मानते हैं कि राजपूत प्राचीन क्षत्रियों की ही सन्तान हैं। कनिंघम ने राजपूतों को यू ची (कुषाण) जाति का वंशज माना है। स्मिथ महोदय ने यह तर्क प्रस्तुत किया है कि राजपूत प्राचीन आदिम जातियों गोंड, खरवार, भर आदि के वंशज थे।

गुर्जर प्रतिहार

          अग्निकुल के राजपूतों में सर्वाधिक प्रसिद्ध प्रतिहार वंश था जो गुर्जरी की शाखा से सम्बन्धित होने के कारण इतिहास में गुर्जर प्रतिहार कहा जाता है। पुलकेशिन द्वितीय के ऐहोल प्रशस्ति में गुर्जर जाति का उल्लेख सर्वप्रथम हुआ है। इस वंश की स्थापना हरिश्चन्द्र नामक राजा ने की किन्तु वंश का वास्तविक प्रथम महत्वपूर्ण शासक नागभट्ट प्रथम था। वत्सराज के समय से ही कन्नौज के लिए त्रिपक्षीय संघर्ष शुरू हुआ।

           नागभट्ट प्रथम (730-756 ई०) ने अरबों से लोहा लिया और पश्चिमी भारत में एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना की थी। ग्वालियर प्रशस्ति में उसे म्लेच्छों का नाशक बताया गया है। इस वंश का चौथा शासक वत्सराज था। वह एक शक्तिशाली शासक था। जिसे प्रतिहार साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जा सकता है। उसने पाल शासक धर्मपाल को पराजित किया किन्तु राष्ट्रकूट शासक ध्रुव से पराजित हुआ। वत्सराज के बाद उसका पुत्र नागभट्ट द्वितीय गद्दी पर बैठा। उसने कन्नौज पर अधिकार करके उसे प्रतिहार साम्राज्य की राजधानी बनाया।

          मिहिर भोज प्रथम (836-885 ई०) इस वंश का सर्वाधिक महत्वपूर्ण शासक था। लेखों के अतिरिक्त कल्हण तथा अरब यात्री सुलेमान के विवरणों से भी हमें उसके काल की घटनाओं की जानकारी मिलती है। इसका नाम दंत कथाओं में भी प्रसिद्ध है। भोज को अपने समय के दो प्रबल शक्तियों- पाल नरेश देवपाल तथा राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव से पराजित होना पड़ा। भोज के प्रारम्भिक जीवन की साहसपूर्ण कार्य अपने खोये हुए साम्राज्य की क्रमशः पुनर्विजय और अंतिम रूप से कन्नौज की पुनः प्राप्ति (पुनः प्रतिहारों की राजधानी बनी) ने तत्कालीन लोगों की कल्पना को प्रभावित किया।

             भोज वैष्णव धर्मानुयायी था। उसने आदिवराह तथा प्रभास जैसी उपाधियाँ धारण की जो उसके द्वारा चलाए गये चाँदी के द्रम्म सिक्कों पर भी अंकित है। उसने राष्ट्रकूट शासक कृष्ण द्वितीय को हराकर मालवा प्राप्त किया। मालवा और गुजरात पर प्रभुत्व करना राष्ट्रकूटों का वास्तविक उद्देश्य था।

             मिहिर भोज के पश्चात् उसका पुत्र महेन्द्र पाल प्रथम (885-910 ई०) शासन किया। लेखों में उसे परम भट्टारक, महाराजाधिराज, परमेश्वर कहा गया है। उसने राष्ट्रकूट शासक इन्द्र तृतीय को पराजित किया, किन्तु कश्मीरी शासक से युद्ध में पराजित होना पड़ा। उसकी राजसभा में प्रसिद्ध विद्वान राजशेखर निवास करते थे जो उसके राजगुरु थे। राजशेखर ने कर्पूर मंजरी, काव्य मीमांसा, विद्धशालभंजिका, बालभारत, बालरामायण, भुवनकोश तथा हरविलास जैसे प्रसिद्ध जैन ग्रन्थों की रचना की। महेन्द्र पाल प्रथम के शासन काल में राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दोनों दृष्टियों से प्रतिहार साम्राज्य की अभूतपूर्व प्रगति हुई।

           महीपाल (914-943 ई०) एक कुशल एवं प्रतापी शासक था। इसके शासन काल में बगदाद निवासी अल मसूदी (915-916 ई०) गुजरात आया था। अल मसूदी गुर्जर प्रतिहार को अल गुजर (गूर्जर का अप्रभ्रंश) और राजा को बौरा कहकर पुकारता है जो सम्भवतः आदि वराह का अशुद्ध उच्चारण है। महीपाल का शासन काल शांति एवं समृद्धि का काल रहा है। राजशेखर उसे आर्यावर्त्त का महाराजाधिराज कहता है। राजशेखर को महेन्द्र पाल प्रथम तथा महीपाल दोनों ने संरक्षण प्रदान किया था। महीपाल के समय में ही गुर्जर साम्राज्य का विघटन प्रारम्भ हो गया था। महीपाल के बाद महेन्द्रपाल द्वितीय, देवपाल, विनायक पाल द्वितीय, महीपाल द्वितीय तथा विजयपाल जैसे कमजोर शासकों के समय प्रतिहार साम्राज्य के टूटने की गति और भी तेज हो गयी।

         963 ई० राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय ने उत्तरी भारत पर आक्रमण कर प्रतिहार राजा को पराजित किया। इसके पश्चात् शीघ्र ही प्रतिहार साम्राज्य का विघटन आरम्भ हो गया। प्रतिहारों के सामन्त गुजरात के चालुक्य, जेजाकभुक्ति के चन्देल, ग्वालियर के कच्छपघात, मध्यभारत के कलचुरी, मालवा के परमार, दक्षिण भारत के गुहिल तथा शाकम्भरी के चौहान (चाहमान) आदि स्वतंत्र हो गये।

         1018 ई० में महमूद गजनवी ने कमजोर गुर्जर शासक राज्यपाल को हटाकर अपने अधीन कर लिया। राज्यपाल के पुत्र त्रिलोचन पाल भी 1019 ई० में महमूद गजनवी से पराजित हुआ। इसके उपरान्त प्रतिहारों का अन्त हो गया। ह्वेनसांग ने गुर्जर राज्य को पश्चिमी भारत का दूसरा सबसे बड़ा राज्य कहता है। गुर्जर प्रतिहारों ने विदेशियों के आक्रमण के संकट के समय भारत के द्वारपाल की भूमिका निभाई। प्रतिहार शासकों के पास भारत में सर्वोत्तम अश्वारोही सैनिक थे। उन दिनों मध्य एशिया और अरब से घोड़ों का आयात भारतीय व्यापार का एक महत्वपूर्ण अंग था। इस वंश का अंतिम शासक यशपाल (1036 ई०) था।

गहड़वाल वंश

          गहड़वालों का मूल निवास स्थान विन्ध्याचल का पर्वतीय वन प्रान्त माना जाता है। लगभग 1080 से 1085 ई० के मध्य चन्द्रदेव ने गहड़वाल राजवंश की नींव कन्नौज में रखी। दिल्ली के तोमरों ने भी उसकी अधीनता स्वीकार की। चन्द्रदेव के पुत्र मदनपाल (1104-1114 ई०) को तुर्क आक्रमणकारियों ने कन्नौज पर आक्रमण करके उसे बन्दी बना लिया। उसके पुत्र गोविन्द चन्द्र ने कड़े संघर्ष के बाद उसे मुक्त कराया।

       गोविन्द चन्द्र (1114 से 1155 ई०) इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था। उसने आधुनिक पश्चिमी बिहार से लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक का समस्त भाग अपने अधीन करके कन्नौज के प्राचीन गौरव को पुनः स्थापित किया। उसने पालों से मगध जीता तथा मालवा पर अधिकार किया। गोविन्द चन्द्र स्वयं बड़ा विद्वान था। उसे उसके लेखों में विविध-विद्याविचार-वाचस्पति कहा गया है। गोविन्द चन्द्र का शांति एवं युद्ध मंत्री लक्ष्मीधर भी शास्त्रों का प्रकाण्ड पंडित था उसने कृत्य- कल्पतरु नामक ग्रन्थ की रचना की जिससे तत्कालीन राजनीति, समाज एवं संस्कृति पर सुन्दर प्रकाश पड़ता है। गोविन्द चन्द्र के पश्चात् उसका पुत्र विजयचन्द्र (1155-1170 ई०) शासक हुआ। इसके शासन काल में सेन वंशी शासक लक्ष्मण सेन ने आक्रमण किया किन्तु वह युद्ध में पराजित हुआ। विजय चन्द्र के शासन काल में ही गहड़वालों की स्थिति कमजोर होनी प्रारम्भ हो गई। दिल्ली का प्रदेश गहड़वालों के हाथ से निकल कर चौहान नरेशों के अधिकार में चला गया। जयचन्द्र (1170-1194 ई०) इस वंश का अंतिम शक्तिशाली शासक था। भारतीय लोक साहित्य तथा कथाओं में वह राजा जयचन्द्र के नाम से विख्यात था। उसका समकालीन दिल्ली तथा अजमेर का चौहान नरेश पृथ्वीराज तृतीय था। आख्यानों के अनुसार जयचन्द्र की पुत्री संयोगिता का अपहरण पृथ्वीराज तृतीय ने किया था। जयचन्द्र ने देवगिरि के यादवों, गुजरात के सोलंकियों और तुर्कों को कई बार हराया। अपनी विजय के उपलक्ष्य में उसने राजसूय यज्ञ भी किया था। 1194 ई० में चन्दावर के युद्ध में मुहम्मद गोरी द्वारा वह पराजित हुआ तथा मार डाला गया। पूर्व की ओर विस्तार के प्रयास में जयचन्द्र को लक्ष्मणसेन द्वारा भी पराजित होना पड़ा था। जयचन्द्र ने संस्कृत के प्रख्यात कवि श्रीहर्ष को संरक्षण प्रदान किया जिसने नैषधचरित एवं खण्डनखाद्य की रचना की।

दिल्ली का चौहान वंश

    चौहान वंश की अनेक शाखाओं में से सातवीं शताब्दी में वासुदेव द्वारा स्थापित शाकम्भरी (अजमेर के निकट) के चौहान राज्य का इतिहास में विशेष स्थान है। इस वंश के प्रारम्भिक इतिहास तथा वंशावली का ज्ञान हमें विग्रहराज द्वितीय के हर्ष (सीकर, राजस्थान) प्रस्तर अभिलेख तथा सोमेश्वर के समय के विजौलिया प्रस्तर लेख से होता है। इस वंश के प्रारम्भिक नरेश कन्नौज के प्रतिहार शासकों के सामन्त थे। दसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में वाक्यतिराज प्रथम ने प्रतिहारों से अपने को स्वतंत्र कर लिया। उसके पुत्र सिद्धराज ने अपने राज्य का विस्तार करके महाराजाधिराज की उपाधि धारण की। सिद्धराज का उत्तराधिकारी विग्रहराज द्वितीय हुआ। हर्ष के लेख में कहा गया है कि उसने अपने राजवंश की लक्ष्मी का उद्धार किया था। उसने चालुक्य शासक मूलराज प्रथम को पराजित किया तथा भृगु कच्छ में आशापुरा देवी मंदिर का निर्माण करवाया। विग्रहराज तृतीय के समय परमारों के साथ चौहानों की मित्रता स्थापित हुई तथा परमार वंश की कन्या राजदेवी का विवाह उसके साथ सम्पन्न हुआ।

        पृथ्वीराज प्रथम के बाद उसका पुत्र अजयराज (12 वीं शताब्दी) शासक बना। वह एक महान निर्माता था उसने अजमेर नगर की स्थापना की तथा उसे अपनी राजधानी बनाई। अजयराज का उत्तराधिकारी अर्णोराज (1133-1155 ई०) एक महत्वपूर्ण शासक था। इसने अजमेर के निकट सुल्तान महमूद की सेना को पराजित किया। अर्णोराज का पुत्र विग्रहराज चतुर्थ अथवा बीसलदेव (1158-1163 ई०) चौहान वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था। विग्रहराज की सबसे बड़ी सफलता तोमरों की स्वाधीनता समाप्त करके उसे अपना सामन्त बनाना था। बीसलदेव विजेता होने के साथ-साथ एक यशस्वी कवि और लेखक भी था। उसने हरिकेलि नामक एक संस्कृत नाटक की रचना की। इस नाटक के कुछ अंश अढ़ाई दिन का झोंपड़ा नामक मस्जिद की दीवारों पर उत्कीर्ण किये गये हैं। उसके दरबार में सोमदेव निवास करता था जिसे ललित विग्रहराज नामक एक ग्रन्थ की रचना की। 1177 ई० में सोमेश्वर का पुत्र इतिहास प्रसिद्ध पृथ्वीराज तृतीय शासक हुआ। कथाओं में उसे रायपिथौरा कहा गया है। इसने बुन्देल खण्ड के चन्देल शासक परमर्दिदेव को 1182 ई० में एक रात्रि अभियान में पराजित किया। इसमें परमर्दिदेव के आल्हा उदल नामक लोकप्रसिद्ध सेनानायकों ने भयंकर युद्ध किया।

       1186 ई० में पृथ्वीराज तृतीय ने गुजरात के चालुक्य शासक भीम द्वितीय पर आक्रमण किया। सम्भवतः परमार राजकुमारी से विवाह के प्रश्न पर भीम द्वितीय से उसका युद्ध हुआ था। 1191 ई० में मुहम्मद गोरी तथा पृथ्वीराज तृतीय के बीच तराइन का प्रथम युद्ध हुआ जिसमें मुहम्मद गोरी पराजित हुआ। अगले ही वर्ष 1192 ई० में मुहम्मद गोरी व पृथ्वीराज चौहान के बीच तराइन का द्वितीय युद्ध हुआ जिसमें पृथ्वीराज पराजित हुआ तथा उसे बन्दी बना लिया गया। कुछ समय में उसकी हत्या कर दी गई। तराइन के द्वितीय युद्ध से भारतीय इतिहास में एक युगान्तकारी परिवर्तन हुआ। इसके बाद ही भारत में तुर्की राज्य की स्थापना हुई। पृथ्वीराज की मृत्यु के बाद गोरी ने उसके लड़के गोविन्द को अपनी अधीनता में अजमेर का शासक बनाया। किन्तु कुछ समय बाद विद्रोह हो गया। 1192 ई० में कुतुबुद्दीन ऐबक ने चौहानों का दमन करते हुए दिल्ली पर अपना अधिकार स्थापित किया।

         पृथ्वीराज तृतीय के राजकवि चन्द्रबरदाई ने पृथ्वीराजरासो नामक अपभ्रंश महाकाव्य और जयानक ने पृथ्वीराज-विजय नामक संस्कृत काव्य की रचना की। अन्य रचनाओं में नयनचन्द्र का हम्मीर महाकाव्य है जो चौहान वंश के इतिहास तथा परम्पराओं का विवरण देता है।

जेजाक भुक्ति के चन्देल

       आज के बुन्देल खण्ड क्षेत्र में ही चन्देलों का उदय हुआ था तथा खजुराहो उनकी राजधानी थी। चन्देल प्रतिहारों के सामन्त थे। इस वंश का प्रथम शासक नुत्रुक था। उसके पौत्र जयसिंह अथवा जेजा के नाम पर यह प्रदेश जेजाकभुक्ति कहलाया। यशोवर्मन एक साम्राज्यवादी शासक था। उसने मालवा, चेदि और मद्यकोशल पर आक्रमण करके अपने राज्य का पर्याप्त विस्तार किया। यशोवर्मन ने खजुराहो के प्रसिद्ध विष्णु मंदिर (चतुर्भुज मंदिर) का निर्माण करवाया, इसके अतिरिक्त उसने एक विशाल जलाशय का भी निर्माण करवाया।

        यशोधर्मन का पुत्र धंग (950-1008 ई०) इस वंश का प्रसिद्ध शासक था। प्रतिहारों से पूर्ण स्वतंत्रता का वास्तविक श्रेय (वास्तविक स्वाधीनता का जन्मदाता) उसी (धंग) को दिया जाता है। धंग ने कालिंजर पर अपना अधिकार सुदृढ़ करके उसे अपनी राजधानी बनायी। ग्वालियर की विजय धंग की सबसे महत्वपूर्ण सफलता थी। धंग ने भटिण्डा के शाही शासक जयपाल को सुबुक्तगीन के विरुद्ध सैनिक सहायता भेजी तथा उसके विरुद्ध बने हिन्दू राजाओं के संघ में सम्मिलित हुआ। धंग ने ब्राह्मणों को भूमि दान में दिया तथा उन्हें उच्च प्रशासनिक पदों पर नियुक्त किया। धंग एक महान निर्माता भी था जिसने खजुराहों में अनेक भव्य मंदिरो का निर्माण करवाया। इनमें जिननाथ, विश्वनाथ, वैद्यनाथ आदि मंदिर उल्लेखनीय है। धंग के बाद उसका पुत्र गंड राजा हुआ। उसने भी 1008 ई० में महमूद गजनवी का सामना करने के लिए जयपाल के पुत्र आनन्दपाल द्वारा बनाए हुए संघ में भाग लिया।

       विद्याधर (1019-1029 ई०) चन्देल शासकों में सर्वाधिक शक्तिशाली था। मुसलमान लेखक उसका नाम नन्द तथा विदा नाम से करते हैं। विद्याधर ने 1019 ई० गुर्जर प्रतिहार शासक राज्यपाल का वध कर दिया क्योंकि वह महमूद गजनवी से युद्ध करने के स्थान पर भाग खड़ा हुआ था। विद्याधर ने मालवा के परमार शासक भोज तथा कलचुरि शासक गांगेय देव को पराजित कर उसे अपने अधीन किया। उसका शासन काल चन्देल साम्राज्य के चरमोत्कर्ष को व्यक्त करता है।

          चन्देल वंश का अंतिम शक्तिशाली शासक परमर्दिदेव अथवा परमल था। 1182 ई० में पृथ्वीराज ने इसे पराजित कर महोबा पर तथा 1203 ई० में कुतुबुद्दीन ऐबक ने कालिंजर पर अधिकार कर लिया। चन्देल शासक उच्च कोटि के निर्माता थे उन्होंने बहुत से मंदिर, झीलें तथा नगरों का निर्माण कराया।

मालवा के परमार

          दसवीं शताब्दी के आरम्भ में मालवा में प्रतिहारों का आधिपत्य नष्ट हो गया तथा वहाँ पर परमार शक्ति का उदय हुआ। इस वंश का प्रथम स्वतंत्र एवं शक्तिशाली शासक सीयक अथवा श्रीहर्ष था। राष्ट्रकूटों से इसका संघर्ष हुआ और खोट्टिग को हराकर सीयक ने विपुल सम्पत्ति लूटी। परमारों की प्रारम्भिक राजधानी उज्जैन थी बाद में धारा बनी। परमार वंश का प्रारम्भिक इतिहास ज्ञात करने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण ‘उदयपुर प्रशस्ति’ तथा साहित्यिक स्रोतों में नवसाहसाङ्कचरित है।

           वास्तव में मालवा में परमारों की शक्ति का उत्कर्ष वाक्यपति मुंज (972-994 ई०) के समय में प्रारम्भ हुआ। उसने त्रिपुरी के कलचुरी तथा चालुक्य नरेश तैलप द्वितीय को पराजित किया। मुंज कला एवं साहित्य का महान संरक्षक था। उसने अनेक कृत्रिम झीलों का निर्माण करवाया। जिसमें धारा में निर्मित मुंजसागर झील उसकी स्मृति में आज तक परिरक्षित रखा हुआ है। वह एक महान प्रतिभा सम्पन्न कवि एवं विद्वानों का एक उदार संरक्षक था उसके दरबार में पद्मगुप्त, धनंजय, (दशरूप के लेखक) धनिक तथा हलायुध आदि विद्वान थे। मुंज ने चालुक्य नरेश तैलप द्वितीय को छः बार पराजित किया किन्तु सातवें युद्ध के दौरान तैलप द्वितीय ने उसे बंदी बना लिया और उसकी हत्या कर डाली। मुंज की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई सिन्धुराज शासक बना। पद्म गुप्त द्वारा लिखित नवसाहसांकचरिम् में इसी परमार नरेश के जीवन चरित का वर्णन किया गया है। पद्मगुप्त तथा सिन्धुराज मुंज का राजकवि था।

     भोज (1000-1005 ई०) – इस वंश का सबसे लोक प्रसिद्ध राजा हुआ। उसकी गणना भारत के महानतम् विद्वान नरेशों के रूप में की जाती है। उसके समय में राजनीतिक एवं सांस्कृतिक दोनों दृष्टियों से परमार राज्य की अभूतपूर्व प्रगति हुई। भोज ने अपने अनेक समकालीन नरेशों जैसे कल्याणी के चालुक्यों एवं अन्हिलवाड़ के चालुक्यों को पराजित किया किन्तु चन्देल शासक विद्याधर के हाथों पराजित हुआ। भोज के शासन के अंतिम वर्ष में गुजरात के चालुक्य नरेश भीम प्रथम तथा कलचुरि नरेश लक्ष्मीकर्ण ने एक संघ बनाकर मालवा पर आक्रमण किया तथा उसकी राजधानी धारा को खूब लूटा। इसी युद्ध के दौरान भोज की मृत्यु हो गई। 1008 ई० में महमूद गजनवी के विरुद्ध शाही शासक आनन्द पाल को उज्जैन के शासक भोज ने सैनिक सहायता दी थी। भोज ने प्राचीन राजधानी उज्जैन को छोड़कर धारा को अपनी राजधानी बनाई। भोज अपनी विद्वता के कारण कविराज उपाधि से प्रख्यात था। कहा जाता है कि उसने विविध विषयों- चिकित्साशास्त्र, खगोलशास्त्र, धर्म, व्याकरण, स्थापत्यशास्त्र आदि पर बीस से अधिक ग्रन्थों की रचना की। उसके द्वारा लिखित ग्रन्थों में चिकित्साशास्त्र पर आयुर्वेद सर्वस्व एवं स्थापत्यशास्त्र पर ‘समरांगणसूत्रधार‘ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त सरस्वती कठांभरण, सिद्धान्त संग्रह, योग सूत्र वृत्ति, राजमार्तण्ड, विद्याविनोद, युक्ति-कल्पतरु, चारुचर्चा, आदित्य प्रताप सिद्धान्त आदि प्रमुख हैं। भोज ने धारा नगरी का विस्तार किया और वहाँ भोजशाला के रूप में प्रख्यात एक महाविद्यालय की स्थापना कर उसमें वाग्देवी की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा की। इस भोजशाला की दीवारों के प्रस्तर खण्डों पर आज भी संस्कृत श्लोक अभिलिखित है। अपने नाम पर उसने भोजपुर नगर बसाया तथा एक बहुत बड़े भोजसर नामक तालाब को निर्मित करवाया। आइने अकबरी में प्राप्त उल्लेख के आधार पर भोज की राजसभा में पाँच सौ विद्वान थे। परमार भोज की मृत्यु पर पण्डितों को महान दुख हुआ था। उसकी मृत्यु पर यह कहावत प्रचलित हो गई कि अद्य धारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती (विद्या और विद्वान दोनों निराश्रित हो गये)। मेरुतुंग के प्रबन्ध चिन्तामणि से पता चलता है कि भोज ने चालुक्य नरेश भीम पर आक्रमण कर उसकी राजधानी अन्हिलवाड़ को लूटा। परमारों की कल्याणी के चालुक्यों से शत्रुता का उल्लेख भोज चरित में हुआ है। 1305 ई० में अलाउद्दीन खिलजी ने मालवा को अपने सल्तनत में मिला लिया।

गुजरात (अन्हिलवाड़) के चालुक्य

         चालुक्य अथवा सोलंकी अग्निकुल से उत्पन्न राजपूतों में से एक थे। प्राचीन ग्रन्थ कुमारपालचरित एवं वर्णरत्नाकर आदि में परम्परागत 36 राजपूत कुलों की सूची मिलती है। गुजरात के चालुक्य वंश का संस्थापक मूलराज प्रथम था। उसने गुजरात के एक बड़े भाग को जीतकर अन्हिलवाड़ को अपनी राजधानी बनाई। इस वंश के शासक जैन धर्म के पोषक एवं संरक्षक थे।

     भीम प्रथम (1022-1064 ई०) – इस वंश का सबसे शक्तिशाली शासक था। इसके शासन काल में गुजरात पर महमूद गजनवी का आक्रमण (1025 ई०) हुआ। उसने सोमनाथ के मंदिर को लूटा तथा उसे विनष्ट किया। भीमदेव प्रथम ने सोमनाथ मंदिर को जो पहले लकड़ी और फिर ईंटों द्वारा निर्मित था के स्थान पर पत्थर द्वारा निर्माण कराया। कहा जाता है कि भीम प्रथम ने गजनवी द्वारा विनष्ट सोमनाथ के मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया परन्तु एक अन्य परम्परा के अनुसार इस मंदिर का पुनर्निर्माण कुमार पाल ने करवाया। जयसिंह सिद्धराज (1094-1153 ई०) की उपाधि धारण करके शासक बना। उसने मालवा के परमार यशोवर्मन को युद्ध में पराजित कर उसे बन्दी बना लिया। मालवा विजयोपरान्त उसने अवन्तिनाथ की उपाधि धारण की। सिद्धराज पराक्रमी तथा वीर होने के साथ ही साथ विद्वानों का आश्रयदाता भी था। प्रसिद्ध जैन आचार्य हेमचन्द्र उसके दरबार में थे। कोई पुत्र न होने के कारण सिद्धराज ने अपने मंत्री उदयन के लड़के वाहड़ को अपना उत्तराधिकारी बनाया। सिद्धराज विभिन्न धर्मों एवं सम्प्रदायों के लोगों के साथ धर्म एवं दर्शन पर चर्चाएँ किया करता था। आबू पर्वत पर उसने (सिद्धराज) एक मण्डप का निर्माण करवाया। जहाँ उसने हाथियों पर आरूढ़ अपने सात पूर्वजों की मूर्तियों को प्रतिष्ठापित किया।

        कुमारपाल (1153-1171 या 72 ई०) एक महत्वाकांक्षी शासक था। उसने अपने शासन काल के आरम्भ में ही अर्णोराज चौहान, विक्रमसिंह परमार तथा मालवा के शासक बल्लार के आक्रमणों को विफल करके अपनी योग्यता को प्रमाणित कर दिया। प्रसिद्ध जैन आचार्य हेमचन्द्र ने उसे जैन धर्म में दीक्षित किया था। इसके पश्चात् ‘परम अर्हत्‘ की उपाधि धारण की और सम्पूर्ण साम्राज्य में अहिंसा के सिद्धान्तों को क्रियान्वित किया। जैन परम्परा के अनुसार कुमारपाल ने अपने सम्पूर्ण साम्राज्य में पशु हत्या, मद्यपान एवं द्यूतक्रीड़ा पर प्रतिबन्ध लगा दिया। इस वंश का सबसे शक्तिशाली शासक था। कसाइयों को अपना व्यवसाय बन्द करने के लिए उन्हें तीन वर्ष की आय के बराबर धन देकर उसकी क्षतिपूर्ति की गई। कुमारपाल के शासन काल में संन्यासियों को मृगचर्म मिलना बन्द हो गया और शिकारी व्यवसाय विहीन हो गये। कुमारपाल जैन था पर उसने सोमनाथ के मंदिर का अंतिम रूप से पुनर्निर्माण करवाया तथा जैन आचार्य हेमचन्द्र के साथ सोमनाथ के मंदिर में शिव की अर्चना की। जयसिंह सूरि नामक कवि ने ‘कुमारपाल चरित‘ नामक काव्य में उसका यशोगान किया है। कुमारपाल के उत्तराधिकारी अजयपाल के शासनकाल (1172-1176 ई०) में शैवों एवं जैन धर्मावलम्बियों के मध्य गृह युद्ध आरम्भ हो गया। जिसके परिणाम स्वरूप अनेक जैन भिक्षुओं की हत्या कर दी गयी और अनेक जैन मंदिरों को नष्ट कर दिया गया। अजयपाल की मृत्यु के बाद मूलराज द्वितीय (1176-1178 ई०) गद्दी पर बैठा। उसने 1178 ई० में आबू पर्वत के निकट मुहम्मद गोरी को हराया।

          चालुक्य वंश का अंतिम महान शासक भीम द्वितीय (1178-1238 ई०) था। उसने चालुक्य राज्य की शक्ति एवं प्रतिष्ठा को पुनस्र्थापित किया। 1178 ई० में जब मुहम्मद गोरी ने गुजरात पर आक्रमण किया तो भीमदेव द्वितीय ने इस आक्रमण को विफल कर दिया। 1195 ई० में भीम ने कुतुबुद्दीन ऐबक की सेना को पराजित किया किन्तु पुनः 1195 ई० में कुतुबुद्दीन ऐबक ने गुजरात पर आक्रमण करके अन्हिलवाड़ पर अधिकार कर लिया। चालुक्यों के शासन काल में महिलाओं को उच्च पदों पर नियुक्त किया जाता था।

बंगाल के पाल एवं सेन वंश

      शशांक की मृत्यु के पश्चात् लगभग एक शताब्दी तक बंगाल में अराजकता और अव्यवस्था का वातावरण व्याप्त रहा। आठवीं शताब्दी के मध्य अशांति एवं अव्यवस्था को ऊबकर बंगाल के नागरिकों ने गोपाल नामक एक सुयोग्य सेनानायक को अपना राजा बनाया। पाल वंश की स्थापना बौद्ध धर्म के अनुयायी गोपाल (750-770 ई०) ने की थी। आठवीं शताब्दी में बंगाल में जो आन्तरिक अव्यवस्था फैली हुई थी उसे मत्स्यन्याय कहा गया है। एक लेख में कहा गया है कि मत्स्य न्याय से छुटकारा पाने के लिए प्रकृतियों (सामान्य जनता) ने गोपाल को लक्ष्मी की बाँह ग्रहण कराई (मत्स्य नयायामपोहितुं प्रकृतिभिर्लक्ष्याः करग्राहितः)।

       गोपाल के पश्चात् उसका पुत्र धर्मपाल (770-810 ई०) पाल वंश का राजा हुआ। उसने बंगाल को उत्तरी भारत के प्रमुख राज्यों की श्रेणी में स्थापित कर दिया। ग्यारहवीं शताब्दी में गुजराती कवि सोड्ढल ने धर्मपाल को उत्तरापथ स्वामी की उपाधि से सम्बोधित किया है। धर्मपाल एक उत्साही बौद्ध था उसके लेखों में उसे परम सौगात कहा गया है। उसने विक्रमशिला तथा सोमपुरी (पहाड़पुर) में प्रसिद्ध विहारों की स्थापना की। उसकी राजसभा में प्रसिद्ध बौद्ध लेखक हरिभद्र निवास करता था। धर्मपाल प्रतिहार शासक वत्सराज तथा राष्ट्रकूट शासक ध्रुव से पराजित हुआ था धर्मपाल ने कन्नौज पर अधिकार कर एक शानदार दरबार का आयोजन किया जिसमें पंजाब, पूर्वी राजस्थान आदि के अधीनस्थ राजा उपस्थित हुए थे।

        देवपाल (810-850 ई०) अपने पिता के समान ही एक योग्य एवं साम्राज्यवादी शासक था। उसे इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक माना गया है। पुरालेखीय अभिलेख बताते हैं कि उसने दूर – दूर तक विजयें प्राप्त की। बादल स्तम्भ पर उत्कीर्ण लेख इस बात का दावा करता है कि देवपाल ने उत्कलों की प्रजाति का सफाया कर दिया, हूणों का घमण्ड खण्डित किया और द्रविड़ तथा गुर्जर शासकों के मिथ्याभिमान को ध्वस्त कर दिया। अरब यात्री सुलेमान ने देवपाल को प्रतिहार राष्ट्रकूट शासकों से अधिक शक्तिशाली माना है। देवपाल ने सुमात्रा तथा जावा के शैलेन्द्र वंशी शासक बालपुत्रदेव द्वारा बनवाये गये बौद्ध विहार के अनुरक्षण के लिए पाँच गाँव अनुदान में प्रदान किये। अपने पिता की भाँति देवपाल भी बौद्ध मतानुयायी था लेखों में उसे भी परमसौगात कहा गया है। कुछ विद्वानों के अनुसार उसने ओदन्तपुरो (बिहार) के प्रसिद्ध बौद्धमठ का निर्माण करवाया था। देवदत्तपुरी उत्तराधिकारी विग्रहपाल (850-854 ई०) ने अपने पुत्र नारायणपाल के पक्ष में सिंहासन छोड़कर संन्यास ग्रहण कर लिया। नारायणपाल की सैनिक जीवन की अपेक्षा साधु जीवन व्यतीत करने में अधिक रुचि थी। उसने शिव के सम्मान में एक हजार मंदिर का निर्माण करवाया।

      महिपाल प्रथम (988-1038 ई०) ने पाल वंश की शक्ति तथा प्रतिष्ठा को पुनर्जीवित करके अपनी योग्यता प्रमाणित की। महिपाल प्रथम को पाल वंश का दूसरा संस्थापक माना जाता है। इसके काल में राजेन्द्र चोल ने बंगाल पर आक्रमण किया तथा पाल शासक महिपाल को पराजित किया। महिपाल ने बौद्ध भिक्षु अतिस के नेतृत्व में तिब्बत में एक धर्म प्रचारक मण्डल भेजा था। हिन्दू काव्य में दायभाग का जन्मदाता जीमूतवाहन को पाल शासकों का संरक्षण प्राप्त था महिपाल की मृत्यु के बाद पालवंश की अवनति आरम्भ हो गई। तारानाथ ने संध्याकर नन्दी द्वारा रचित रामपाल चरित के नायक रामपाल (1077-1120 ई०) को इस वंश का अंतिम शासक माना है। रामपाल के ही शासन काल में कैवर्तों का विद्रोह हुआ था जिसका उल्लेख रामपाल चरित में मिलता है। सुलेमान नामक अरबी व्यापरी ने भारत की यात्रा की थी। उसके द्वारा लिखे गये यात्रा वृतान्त में पाल शासकों के अधिक शक्तिशाली होने के तथ्य का प्रमाण मिलता है। उसने पाल साम्राज्य को रूहमा कहा है।

        पाल कलाकारों को कांस्य की मूर्तियाँ बनाने में महारत हासिल थी। बंगाल के पाल शासक बौद्ध धर्म (तांत्रिक) के अनुयायी थे। पाल राजाओं द्वारा बहुत बड़ी संख्या में हाथी रखे जाते थे। पाल राजाओं का शासन काल प्राचीन भारतीय इतिहास के उन राजवंशों में एक है जिन्होंने सबसे लम्बे समय तक राज्य किया। चार सौ वर्ष के उनके दीर्घ कालीन शासन में बंगाल का राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से अभूतपूर्व विकास हुआ। पाल शासकों के समय में संतरक्षित और दीपंकर नामक बौद्ध विद्वानों ने तिब्बत की यात्रा की तथा कालांतर में धर्मस्वामी नामक विद्वान तिब्बत से भारत आया।

सेन राजवंश

          पाल राजवंश के पतनोपरान्त बंगाल का शासन सूत्र सेन राजवंश के हाथों में आ गया। इस वंश की स्थापना सामन्त सेन ने की थी। विजयसेन (1095-1158 ई०) इस वंश का प्रथम महत्वपूर्ण शासक था। कवि धोयी द्वारा रचित देवपाड़ा प्रशस्ति लेख में विजयसेन की यशस्वी विजयों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि उसने नव्य एवं वीर (नोपल एवं मिथिला) को पराजित किया। कहा जाता है कि विजयसेन ने विजयपुरी तथा विक्रमपुर की स्थापना की। बल्लाल सेन (1158-1178 ई०) विजयसेन की मृत्यु के बाद बंगाल का शासक बना। इसे बंगाल में जाति प्रथा तथा कुलीन प्रथा को संगठित करने का श्रेय प्राप्त है। बल्लालसेन कुलीनवादके नाम से प्रसिद्ध एक सामाजिक आन्दोलन का प्रचलन कर्ता भी था। बल्लालसेन स्वयं विद्वान तथा विद्वानों का संरक्षक था। उसने दानसागर ग्रन्थ की रचना की थी तथा एक अन्य ग्रन्थ अद्भुत सागर की रचना को प्रारम्भ किया था किन्तु उसे पूर्ण नहीं कर पाया। बल्लाल सेन ने गौडेश्वर एवं निःशंक शंकर की उपाधि धारण की थी। बल्लाल सेन का उत्तराधिकारी उसका पुत्र लक्ष्मण सेन (1178-1205 ई०) हुआ। वह भी अपने पिता की भाँति एक प्रतापी राजा था। उसने बंगाल की प्राचीन राजधानी गौड़ के निकट ही एक अन्य राजधानी लक्ष्मणवती (लखनौती) की स्थापना की। 1202 ई० में मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी ने उसकी राजधानी लखनौती पर आक्रमण करके उस पर अधिकार कर लिया। लक्ष्मणसेन स्वयं विद्वान तथा विद्वानों का उदार संरक्षक था। उसने अपने पिता बल्लालसेन द्वारा प्रारम्भ किये गये अद्भुत सागर नामक ग्रन्थ की रचना को पूरा किया। उसके द्वारा विरचित कुछ कविताएँ हमें सदुक्तिकर्णामृत में प्राप्त होते हैं। जिसकी रचना उसके दरबारी कवि श्रीधरदास ने किया था। लक्ष्मण सेन की राजसभा में अनेक लब्ध-प्रतिष्ठ विद्वान तथा लेखक निवास करते थे। इसमें गीत गोविन्द के लेखक जयदेव, पवनदूत के लेखक धोयी, ब्राह्मण सर्वस्व के रचयिता हलायुध आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय है। हलायुध उसका प्रधान न्यायाधीश तथा मुख्यमंत्री था। लक्ष्मणसेन ने गहड़वाल शासक जयचन्द को पराजित किया था। लेखों में उसे परम भागवत की उपाधि प्रदान की गई है।

शाही वंश

        काबुल घाटी तथा गन्धार प्रदेश में स्थापित तुर्की शाही वंश के शासक लगर्तृमान को उसके ब्राह्मण मंत्री कल्लर ने गद्दी से हटाकर नवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हिन्दू शाही वंश की स्थापना की। जयपाल इस वंश का महत्त्वपूर्ण शासक था। 986-87 ई० में जयपाल ने गजनी पर आक्रमण किया किन्तु उसे पराजित होकर अपमानजनक सन्धि करनी पड़ी। 998 ई० में सुबुक्तगीन का पुत्र महमूद गजनवी, गजनी का शासक बना। 1001 ई० में महमूद गजनवी ने जयपाल को हटाकर उसका अपमान किया तथा उसके राज्य को लूटा। जयपाल अपमान न सह सका और उसने अग्नि में कूदकर आत्मदाह कर लिया। महमूद गजनवी ने जयपाल के पुत्र आनन्द पाल को भी दो बार पराजित किया। पराजय का सबसे बड़ा कारण राजनीतिक एकता का अभाव था। उत्तरी पश्चिमी भाग में यह भारत का पहला महत्वपूर्ण हिन्दू राज्य था। इसकी राजधानी उद्भाण्डपुर थी। यह राज्य मुस्लिम आक्रमण का प्रथम शिकार हुआ।

कश्मीर के राजवंश

       कश्मीर के हिन्दू राज्य का इतिहास कल्हण की राजतरंगिणी से ज्ञात होता है। कल्हण जाति का ब्राह्मण था। राजतरंगिणी की रचना उसने जयसिंह (1127-1159 ई०) के शासन काल में पूरी की थी। इसकी रचना महाभारत की शैली के आधार पर की गयी है।

कार्कोट वंश

      सातवीं शताब्दी में दुर्लभवर्धन नामक व्यक्ति ने कश्मीर में कार्कोट राजवंश की स्थापना की। कश्मीर के शासकों में ललितादित्य मुक्तापीड (724-760 ई०) सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था। वह एक साम्राज्यवादी शासक था। 733 ई० में उसने चीनी शासक के दरबार में एक दूत मण्डल भेजा था। ललितादित्य ने तिब्बतियों, कम्बोजों, तुर्कों आदि को पराजित किया। उसकी विजय ने कश्मीर राज्य को गुप्तों के बाद भारत का सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य बना दिया। विजेता होने के साथ-साथ ललितादित्य एक महान निर्माता भी था जिसने अनेक मंदिरों विहारों तथा अन्य भवनों का निर्माण करवाया। सूर्य का प्रसिद्ध मार्तण्ड मंदिर ललितादित्य के द्वारा बनवाया गया था। ललितादित्य ने कश्मीर में परिहासपुर नगर बसाया था। ललितादित्य की मृत्यु के बाद कार्कोट वंश की अवनति प्रारम्भ हो गई। इस वंश का अंतिम शक्तिशाली शासक जयापीड विनयादित्य (770-810 ई०) था। विनयादित्य विद्वानों का बड़ा आदर करता था। उसकी सभा को क्षीर, भट्ट, उ‌द्भट्ट, दामोदरगुप्त आदि विद्वान लेखक सुशोभित करते थे। उसने अपने राज्यकाल में साहित्य एवं कला को यथेष्ट प्रोत्साहन दिया।

उत्पल वंश

        कार्कोट वंश के बाद कश्मीर में उत्पल वंश का शासन स्थापित हुआ। इस वंश की स्थापना अवन्ति वर्मन ने की थी। अवन्ति वर्मन (855 ई०-883 ई०) एक लोकोपकारी शासक था जिसने कृषि की उन्नति के लिए नहरों का निर्माण करवाया। उसे अनेक नगरों की स्थापना का श्रेय भी प्राप्त हैं जिसमें अवन्तिपुर नगर प्रसिद्ध है। उसने साहित्य एवं कला को भी काफी प्रोत्साहन दिया। अवन्तिवर्मन अपने योग्य मंत्री सूर के साथ शासन किया। अवन्ति वर्मन की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारियों के मध्य गृह युद्ध हुआ जिसमें अवन्ति वर्मन का वैध उत्तराधिकारी शंकर वर्मन विजयी रहा।

         शंकर वर्मन (885-902 ई०) को लगातार युद्ध करने के कारण धन की कमी का सामना करना पड़ा। इस समस्या को हल करने के लिए व कमी को पूरा करने के लिये उसने जनता (प्रजा) पर कई प्रकार के कर लगाये जिसके कारण जनता की आर्थिक स्थिति दुष्प्रभावित हुई। युद्धों के कारण अपने रिक्त खजाने को भरने के लिए उसने मंदिरों की सम्पत्ति लूटी और राज्य द्वारा विद्या को प्रदान किये जाने वाले संरक्षण में भी कटौती कर दी। इन करों ने उसे प्रजा में अत्यन्त अलोकप्रिय बना दिया तथा उसे एक क्रूर तथा अत्याचारी शासक कहा जाने लगा।

       क्षेमेन्द्रगुप्त 950 ई० में गद्दी पर बैठा। इसका विवाह लोहार वंश की राजकुमारी दिद्दा से हुआ। क्षेमेन्द्रगुप्त के बाद कश्मीर की सत्ता व्यवहारिक रूप से रानी दिद्दा के हाथ में पचास वर्षों तक रही। वह एक महत्वाकांक्षी शासिका थी। दिद्दा की गणना कश्मीर एवं भारतीय इतिहास की प्रसिद्ध महिला शासकों में की जाती है। उसका नाम सिक्कों पर भी अभिलिखित किया गया है।

लोहार वंश

         इस वंश का संस्थापक संग्राम राज (1003-1028 ई०) था। संग्राम राज ने अपने मंत्री तुंग को भटिण्डा के शाही शासक त्रिलोचन पाल की ओर से महमूद गजनवी से लड़ने के लिए भेजा। लोहार वंश के राजाओं में हर्ष का नाम इस दृष्टि से उल्लेखनीय है कि वह स्वयं विद्वान, कवि एवं कई भाषाओं तथा विद्याओं का ज्ञाता था। कल्हण उसका आश्रित कवि था। हर्ष में सद्गुणों एवं दुर्गुणों का विचित्र सम्मिश्रण था। अपनी विद्वता के कारण वह दूसरे राज्यों में भी प्रसिद्ध हुआ। परन्तु शासक के रूप में वह क्रूर एवं अत्याचारी था। कल्हण उसके अत्याचारों का वर्णन करता है। हर्ष को कश्मीर का नीरों भी कहा जाता था। वह सामाजिक सुधारों एवं फैशन के नवीन मानदण्डों का संस्थापक था। फिजूलखर्ची तथा आन्तरिक विद्रोहों के कारण जब उसका खजाना खाली हो गया तो उसने राजकोष की पूर्ति के लिए मंदिरों को लूटा तथा अपनी प्रजा पर अनेक कर लगाये।

सामाजिक जीवन

         राजपूतयुगीन समाज वर्षों एवं जातियों के जटिल नियमों द्वारा शासित था। इस समय जाति-प्रथा की कठोरता बढ़ी तथा हिन्दू समाज की ग्रहणशीलता एवं सहिष्णुता कम हुई। परम्परागत चार वर्षों- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद के अतिरिक्त समाज में अनेक जातियाँ एवं उपजातियाँ पैदा हो गयी थीं। राजतरंगिणी में 64 उपजातियों का उल्लेख मिलता है। अनेक जातियाँ अछूत समझी जाती थीं जिन्हें गाँवों और नगरों के बाहर निवास करना पड़ता था। ब्राह्मणों का सदा की तरह इस युग में भी प्रतिष्ठित स्थान था। वे राजपूत शासकों के मन्त्री एवं सलाहकार नियुक्त किये जाते थे। अधिकांश ब्राह्मण अध्ययन, यज्ञ, तप आदि में अपना जीवन व्यतीत करते थे। उनके पास ज्ञान का अथाह भण्डार होता था। उनका जीवन अत्यन्त पवित्र था। वे माँस मदिरा का सेवन नहीं करते थे। क्षत्रिय जाति के लोग युद्ध तथा शासन का काम करते थे। इस काल के राजपूत उच्चकोटि के योद्धा होते थे। उनमें साहस, आत्मसम्मान, वीरता एवं स्वदेशभक्ति की भावनाएँ कूट कूट कर भरी थीं। वे अपने जीवन के अन्तिम क्षण तक प्रतिज्ञा का पालन करते तथा शरणागत की रक्षा करना, भले ही यह जघन्य अपराधी ही हो अपना परम कर्तव्य समझते थे। परन्तु इन गुणों के साथ-साथ उनमें मिथ्याभिमान, अहंकार, व्यक्तिगत द्वेष-भाव, संकीर्णता आदि दुर्गुण भी विद्यमान थे। वैश्य जाति के लोग व्यापार का काम करते तथा धन ब्याज पर उधार देते थे। शूद्र का कार्य – कृषि, शिल्पकारी तथा अन्य वर्णों की सेवा करना था। वैश्य तथा शूद्र जाति के लोगों को वेदाध्ययन एवं मन्त्रोच्चारण का अधिकार नहीं था। पूर्व – मध्यकालीन समाज में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ कि वैश्य वर्ण की सामाजिक स्थिति पतनोन्मुख हुई तथा उन्हें शूद्रों के साथ समेट लिया गया। इसका मुख्य कारण इस काल के प्रथम चरण (650-1000 ईस्वी) में व्यापार-वाणिज्य का ह्रास था। इसके विपरीत शूद्रों का सम्बन्ध कृषि के साथ जुड़ जाने से उनकी सामाजिक स्थिति पहले से बेहतर हो गयी। शूद्रों ने कृषक के रूप में वैश्यों का स्थान ग्रहण कर लिया। यही कारण है कि पूर्व मध्ययुग के कुछ लेखक वैश्यों का उल्लेख केवल व्यापारी के रूप में करते हैं। कुछ निम्न श्रेणी के वैश्य शूद्रों के साथ संयुक्त हो गये। किन्तु ग्यारहवीं शती में व्यापार-वाणिज्य की प्रगति होने पर वैश्यों की स्थिति में पुनः सुधार हुआ। कुछ वैश्य अत्यन्त समृद्ध हो गये तथा उनकी गणना सामन्तों और जमींदारों में की जाने लगी। इस सामाजिक परिवर्तन का प्रभाव वर्ण व्यवस्था पर पड़ा। ग्यारहवीं बारहवीं शताब्दी तक आते आते समाज में जाति प्रथा की रूढ़ियों के विरुद्ध आवाज उठाई गयी। जैन आचार्यों, शाक्त तान्त्रिक सम्प्रदाय के अनुयायियों तथा चार्वाक मत के पोषकों ने परम्परागत जाति प्रथा को चुनौती देते हुए कर्म की महत्ता का प्रतिपादन किया। बी० एन० एस० यादव के अनुसार जाति प्रथा के विरोध के पीछे निम्न वर्गों की आर्थिक स्थिति में सुधार होना भी एक महत्वपूर्ण कारण था।

         राजपूतकालीन समाज में महिलाओं को सम्मानित स्थान प्राप्त था। राजपूत नरेश अपनी पत्नियों से प्रेम करते थे तथा उनकी मान-मर्यादा एवं सतीत्व की रक्षा के लिये सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार रहते थे। राजपूत कुलों में विवाह स्वयंवर प्रथा द्वारा होते थे जिसमें कन्याएँ अपना वर स्वयं चुनती थीं। कभी कभी अन्तर्जातीय विवाह (अनुलोम) होते थे। पश्चिमी भारत में ब्राह्मण, क्षत्रिय कन्या के साथ विवाह करते थे। विवाह की उम्र क्रमशः कम होती जा रही थी। राजपूत युग में प्रायः बाल- विवाह का प्रचलन हो चुका था। कुलीन वर्ग के लोग कई पत्नियाँ रखते थे। समाज में जौहर तथा सती की प्रथाएँ प्रचलित थीं। जौहर के अन्तर्गत अपने को विदेशियों के हाथ से बचाने के लिए राजपूत महिलाएँ सामूहिक रूप से प्राणोत्सर्ग करती थीं जबकि सती प्रथा के अन्तर्गत पति की मृत्यु के बाद वे चिता बनाकर जल जाती थीं। समाज की उच्च वर्ग की महिलाओं में पर्दा प्रथा का प्रचार होता जा रहा था। विधवाओं को घृणा की दृष्टि से देखा जाता था तथा उनका दर्शन अशुभ माना जाने लगा उनके सिर के बाल कटा दिये जाते थे। बाल विवाह के प्रचलन के कारण लड़कियों की शिक्षा का हास होता जा रहा था। परन्तु शासक वर्ग की कन्याओं को कुछ प्रशासनिक एवं सैनिक शिक्षा दी जाती थी। चालुक्यवंशी विजयभट्टारिका (7वीं शताब्दी ईस्वी) तथा कश्मीर की दो महिलाओं- सुगन्धा तथा दिद्दा (10वीं शती) ने कुशलतापूर्वक प्रशासन का संचालन किया था। चालुक्य शासन में अनेक स्त्री गवर्नरों एवं पदाधिकारियों के नाम मिलते हैं। इस काल की कुछ महिलाएँ विदुषी भी होती थीं। राजशेखर की पत्नी अवन्तिसुन्दरी एक विदुषी थी। मण्डनमिश्र की पत्नी भारती ने शास्त्रार्थ में प्रख्यात दार्शनिक शंकराचार्य को पराजित किया था। इस काल के व्यवस्थाकारों ने स्त्री के सम्पत्ति-सम्बन्धी अधिकारों को मान्यता प्रदान कर दी थी। अल्बेरूनी के विवरण से पता चलता है कि स्त्रियाँ पर्याप्त शिक्षिता होती थीं तथा सार्वजनिक जीवन में सक्रिय भाग लेती थीं। कन्याएँ संस्कृत लिखना, पढ़ना तथा समझना जानती थीं और वे संगीत, नृत्य एवं वाद्य में निपुण थीं। राजपूतों को घुड़सवारी तथा हाथियों की सवारी का विशेष शौक था। वे आखेट में भी रुचि रखते थे। मदिरापान, द्यूतक्रीड़ा, अफीम सेवन आदि के दुर्व्यसन भी उनमें अत्यधिक प्रचलित थे।

साहित्य

        राजपूत राजाओं का शासन काल साहित्य की उन्नति के लिये विख्यात है। कुछ राजपूत नरेश स्वयं उच्चकोटि के विद्वान थे। इनमें परमारवंशी मुञ्ज तथा भोज का विशेष उल्लेख किया जा सकता है। मुञ्ज एक उच्चकोटि का कवि था जिसकी राजसभा में नवसाहसांकचरित के रचयिता पदमगुप्त तथा दशरूपक के रचयिता धनञ्जय निवास करते थे। भोज की विद्वता तथा काव्य-प्रतिभा तो लोक विख्यात ही है। उसने स्वयं ही चिकित्सा, ज्योतिष, व्याकरण, वास्तुकला आदि विविध विषयों पर अनेक ग्रन्थ लिखे थे। इनमें श्रृंगारप्रकाश, प्राकृत व्याकरण, सरस्वतीकण्ठाभरण, पातंजलयोगसूत्रवृत्ति, कूर्मशतक, चम्पूरामायण, श्रृंगारमंजरी, समरांगणसूत्रधार, युक्तिकल्पतरु, तत्त्व- प्रकाश, भुजबलनिबन्ध, राजमृगांक, नाममालिका तथा शब्दानुशासन उल्लेखनीय है। उसकी राजसभा विद्वानों एवं पण्डितों से परिपूर्ण थी। भोज के समय में धारा नगरी शिक्षा एवं साहित्य का प्रमुख केन्द्र थी। चौलुक्य नरेश कुमारपाल विद्वानों का महान संरक्षक था। उसने हजारों ग्रन्थों की प्रतिलिपियां तैयार करवायी तथा पुस्तकालयों की स्थापना करवायी। गुजरात तथा राजस्थान के समृद्ध वैश्यों ने भी विद्या को उदार संरक्षण दिया। पाटन, खम्भात, जैसलमेर आदि में प्रसिद्ध पुस्तकालयों की स्थापना करवायी गयी। राजपूत युग में संस्कृत तथा लोक-भाषा के अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन हुआ। इनमें राजशेखर की कर्पूरमंजरी, काव्यमीमांसा, बालरामायण, विद्धशालभंजिका, श्रीहर्ष का नैषधचरित, जयदेव का गीतगोविन्द, कल्हण का विक्रमाङ्कदेवचरित, सोमदेव का कथासरित्सागर तथा कल्हण की राजतरंगिणी आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। लोकभाषा के कवियों में चन्दबरदाई का नाम प्रसिद्ध है जो चौहान शासक पृथ्वीराज तृतीय का राजकवि था। उसने प्रसिद्ध काव्य पृथ्वीराजरासो लिखा जिसे हिन्दी भाषा का प्रथम महाकाव्य कहा जा सकता है। चन्देल नरेश परमर्दि के मंत्री वत्सराज ने छः नाटकों की रचना की थी। पश्चिमी चालुक्य नरेश सोमेश्वर कृत मानसोल्लास राजधर्म संबंधी विविध विषयों का सार-संग्रह है। लक्ष्मीधर (गाहड़वाल मंत्री) का कृत्यकल्पतरु धर्मशास्त्र प्रकृति का ग्रन्थ है। विधिशास्त्र के ग्रन्थों में विज्ञानेश्वर द्वारा याज्ञवल्क्य स्मृति पर लिखी गयी टीका मिताक्षरा तथा बंगाल के जीमूतवाहन द्वारा रचित दायभाग का उल्लेख किया जा सकता है जो बारहवीं शती की ही रचनाएँ हैं। हिन्दू विधि विषयक इनकी व्याख्याएँ शताब्दियों तक समाज को व्यवस्थित करती रहीं। शिल्पशास्त्र का सुप्रसिद्ध ग्रन्थ मानसार पूर्व मध्यकाल की ही कृति है। वास्तुशास्त्र पर अपराजितपृच्छा नामक ग्रन्थ की रचना गुजरात में 12वीं शताब्दी में की गयी थी। इस काल में अनेक प्रसिद्ध दार्शनिकों का आविर्भाव हुआ, जैसे कुमारिलभट्ट, मण्डन मिश्र, शंकराचार्य, रामानुजाचार्य आदि। इन्होंने अनेक दार्शनिक ग्रन्थों का प्रणयन किया।

कला और स्थापत्य

वास्तु कला : मन्दिर

       गुप्तकाल के पश्चात् समूचे भारत में मन्दिर निर्माण की परम्परा प्रारम्भ हो गयी। वास्तुशास्त्रों में मंदिर की उपमा मानव शरीर से देते हुए उसके आठ अंगों का विधान किया गया। ये इस प्रकार मिलते हैं-

1. आधार या चौकी (इसका एक अन्य नाम जगतीपीठ भी है)।

2. वेदिबन्ध (आधार के ऊपर का गोल अथवा चौकोर अंग)।

3. अन्तर पत्र (वेदिबन्ध के ऊपर की कल्पबल्ली या पत्रावली पट्टिका)।

4. जंघा (मंदिर का मध्यवर्ती धारण स्थल)।

5. वरंडिका (ऊपर का बरामदा)।

6. शुकनासिका (मंदिर के ऊपर का बाहर निकला हुआ भाग)।

7. कण्ठ या ग्रीवा (शिखर के ठीक नीचे का भाग)।

8. शिखर (शीर्ष भाग जिस पर खरबुजिया आकार का आमलक होता था)।

          मंदिर निर्माण के उपर्युक्त आठ अंग सम्पूर्ण देश में प्रचलित हो गये। प्रवेश द्वार (तोरण) को कई शाखाओं में विभाजित करने तथा उसे विविध प्रकार के अलंकरणों से सजाने की प्रथा भी प्रचलित हुई।

         सातवीं शती से सम्पूर्ण भारत में स्थापत्य कला में एक नया मोड़ आया तथा उत्तर, मध्य एवं दक्षिण की कलाकृतियाँ अपनी निजी विशेषताओं के साथ प्रस्तुत की गयीं। अनेक शास्त्रीय ग्रन्थों- मानसोल्लास मानसार, समरांगसूत्रधार, अपराजितपृच्छा, शिल्पप्रकाश, सुप्रभेदागम, कामिनिकागम आदि की रचना हुई तथा इनमें मंदिर वास्तु के मानक निर्धारित किये गये। इनके अनुपालन में कलाकारों ने अपनी कृतियाँ प्रस्तुत कीं। शिल्पग्रन्थों में स्थापत्य कला के क्षेत्र में तीन प्रकार के शिखरों का उल्लेख मिलता है जिनके आधार पर मंदिर निर्माण की तीन शैलियों का विकास हुआ-

1. नागर शैली

2. द्रविड़ शैली

3. बेसर शैली

        उपर्युक्त सभी नाम भौगोलिक आधार पर दिये गये प्रतीत होते हैं। नागर शैली उत्तर भारत की शैली थी जिसका विस्तार हिमालय से विन्ध्य पर्वत तक दिखाई पड़ता है। द्रविड़ शैली का प्रयोग कृष्णा नदी से कन्याकुमारी तक मिलता है। विन्ध्य तथा कृष्णा नदी के बीच के क्षेत्र में वेसर शैली प्रचलित हुई। चूँकि इस क्षेत्र में चालुक्य वंश का आधिपत्य रहा, अतः इस शैली को चालुक्य शैली भी कहा जाता है। वेसर का शाब्दिक अर्थ खच्चर होता है जिसमें घोड़े तथा गधे दोनों का मिला जुला रूप है। इसी प्रकार वेसर शैली के तत्व नागर तथा द्रविड़ दोनों से लिये गये थे। पी. के. आचार्य  वेसर का अर्थ नाक में पहना जाने वाला आभूषण मानते हुए यह प्रतिपादित करते हैं कि चूँकि इसका आकार आधार से शिखर तक वृत्त के आकार का गोल होता था, अतः इसकी संज्ञा वेसर हुई। इसी प्रकार वास्तुशास्त्र के अनुसार नागर मंदिर आधार से सर्वोच्च अंश तक चतुरस्र (चतुष्कोण या चौकोर) तथा द्रविड़ अष्ठकोण (अष्टास्र) होने चाहिए। किन्तु कुछ स्थानों पर उपर्युक्त मानक का उल्लंघन भी मिलता है। ऐसी स्थिति में मंदिर का प्रत्यक्ष आकार देखकर ही उसकी शैलीगत विशेषताएँ निर्धारित की जा सकती हैं। नागर तथा द्रविड़ शैलियों का मुख्य अन्तर शिखर संबंधी है जिसे विमान कहा जाता है। शिल्पशास्त्र के ग्रन्थों में विमान को सात तलों वाला बताया गया है। नागर शैली में आयताकार गर्भगृह के ऊपर ऊँची मीनार के समान गोल या चौकोर शिखर बनाये जाते थे जो त्रिकोण की भाँति ऊपर पतले होते थे। द्रविड़ शैली के शिखर वर्गाकार तथा अलंकृत गर्भगृह के ऊपर बनते थे। ये कई मंजिलों से युक्त पिरामिडाकार हैं। बाद में द्रविड़ मंदिरों को घेरने वाली प्राचीर में चार दिशाओं में विशाल तोरण द्वार बनाये गये। इनके ऊपर बहुमंजिले भवन बनने लगे जिन्हें देवी-देवताओं की प्रतिमाओं से अलंकृत किया गया। ये कभी कभी विमान से भी ऊँचे होते थे। तोरण द्वार पर बनी इन अलंकृत एवं बहुमंजिली रचनाओं को गोपुरम नाम दिया गया है।

          पूर्व मध्यकालीन उत्तर भारत में सर्वत्र नागर शैली के मंदिर बनाये गये। इनमें दो प्रमुख लक्षण हैं- अनुपस्थिका (योजना) तथा उत्थापन (ऊपर की दिशा में उत्कर्ष या ऊँचाई)। छठी शताब्दी के मंदिरों में स्वस्तिकाकार योजना सर्वत्र दिखाई देती है। अपनी ऊँचाई के क्रम में शिखर उत्तरोत्तर ऊपर की ओर पतला होता गया है। दोनों पार्थों में क्रमिक रूप से निकला हुआ बाहरी भाग होता है जिसे अस्र कहते हैं। इनकी ऊँचाई भी शिखर तक जाती है। आयताकार मंदिर के प्रत्येक ओर रथिका (प्रक्षेपण) तथा अस्रों का नियोजन होता है। शिखर पर आमलक स्थापित किया जाता है जो सम्पूर्ण रचना को अत्यन्त आकर्षक बनाता है।

         राजपूत शासक बड़े उत्साही निर्माता थे। अतः इस काल में अनेक भव्य मंदिर, मूर्तियों एवं सुदृढ़ दुर्गों का निर्माण किया गया। राजपूतकालीन मंदिरों के भव्य नमूने भुवनेश्वर, खजुराहो, आबू पर्वत (राजस्थान) तथा गुजरात से प्राप्त होते हैं। इनका विवरण इस प्रकार है- उड़ीसा के मंदिर नागर शैली का विकास अधिकतम निखरे रूप में उड़ीसा के मंदिरों में दिखाई देता है। यहाँ आठवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक अनेक मंदिरों का निर्माण हुआ। पहाड़ियों से घिरा होने के कारण यह प्रदेश अधिकांशतः विदेशी आक्रमणों से सुरक्षित रहा है और यही कारण है कि यहाँ पर निर्मित कुछ श्रेष्ठ मंदिर आज भी बचे हुए हैं। उड़ीसा के मंदिर मुख्यतः भुवनेश्वर, पुरी तथा कोणार्क में हैं जिनका निर्माण 8वीं से 13वीं शताब्दी के बीच हुआ। भुवनेश्वर के मंदिरों के मुख्य भाग के सम्मुख चौकोर कक्ष बनाया गया है। इसे ‘जगमोहन‘ (मुखमण्डय अथवा सभामण्डप) कहा जाता है। यहाँ उपासक एकत्रित होकर पूजा अर्चना करते थे। जगमोहन का शीर्ष भाग पिरामिडाकार होता था। इनके भीतरी भाग सादे हैं किन्तु बाहरी भाग को अनेक प्रकार की प्रतिमाओं तथा अलंकरणों से सजाया गया है। गर्भगृह की संज्ञा देउल थी। बड़े मंदिरों में जगमोहन के आगे एक या दो मण्डप और बनाये जाते थे जिन्हें नटमंदिर तथा भोगमंदिर कहते थे। शैली की दृष्टि से उड़ीसा के मंदिर तीन श्रेणियों – में विभाजित किये जा सकते हैं-

1. रेखा देउल- इसमें शिखर ऊँचे बनाये गये हैं।

2. पीढ़ा देउल- इसमें शिखर क्षितिजाकार पिरामिड प्रकार के हैं।

3. खाखर (खाखह) – इसमें गर्भगृह दीर्घाकार आयतनुमा होता है ताकि छत गजपृष्ठाकार बनती हैं।

        मंदिरों में स्तम्भों का बहुत कम प्रयोग किया गया है। इनके स्थान पर लोहे की शहतीरों का प्रयोग मिलता है। यह आश्चर्यजनक तथा प्राविधिक आविष्कार था। मंदिरों की भीतरी दीवारों पर खजुराहों के मंदिरों जैसा अलंकरण प्राप्त नहीं होता है।

उड़ीसा के प्रारम्भिक मंदिरों में भुवनेश्वर के परशुरामेश्वर मंदिर का उल्लेख किया जा सकता है जिसका निर्माण ईसा की सातवीं आठवीं शताब्दी के लगभग हुआ। यह बहुत बड़ा नहीं है तथा इसकी कुल ऊँचाई 44 फुट है। गर्भगृह 20 फुट के धरातल पर बना है। बड़ी बडी पाषाण शिलाओं को एक दूसरे पर रखकर बिना किसी जुड़ाई के इसे बनाया गया है। गर्भगृह के सामने लम्बा आयताकार मुखमण्डप है। इसके ऊपर ढालुओं छत है। मुखमण्डप में तीन द्वार बने हैं। गर्भगृह तथा मुखमण्डप में भव्य मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गयी हैं। परशुरामेश्वर मंदिर के पास ही मुक्तेश्वर नामक एक छोटा सा मंदिर है। मंदिर एक नीची कुर्सी पर बना है। गर्भगृह के ऊपर शिखर बड़ी सावधानी के साथ गोलाई में ढाला गया है। मंदिर के बाहरी भाग को व्यापक रूप से अलंकृत किया गया है। मुखमण्डप के ऊपर कलश है तथा छत के सामने के कोणों पर सिंह की सुन्दर मूर्तियाँ बैठाई गयी है। प्रवेश द्वार पर एक भव्यं तोरण है जो उड़ीसा के किसी अन्य मंदिर में देखने को नहीं मिलता। अर्धगोलाकार इस तोरण का निर्माण क्रमशः ऊपर उठते हुए कई खण्डों में किया गया है। शीर्ष पर दो नारी मूर्तियाँ हैं। ये दोनों प्रारम्भिक स्तर के मंदिर हैं। इनके बाद निर्मित मंदिर अपेक्षाकृत विशाल आकार प्रकार के हैं। इनमें भुवनेश्वर के तीन मंदिरों सिद्धेश्वर, केदारेश्वर, ब्रह्मेश्वर तथा राजारानी मंदिर का उल्लेख किया जा सकता है। भुवनेश्वर के मंदिरों में लिंगराज मंदिर उड़ीसा शैली का सबसे अच्छा उदाहरण है। इसका निर्माण दसवीं ग्यारहवीं शती में हुआ था। मंदिर ऊँची दीवारों से घिरे एक विशाल प्रांगण के बीच स्थित है। पूर्वी दीवार के बीच एक विशाल प्रवेश द्वार है जिसे चारों ओर कई छोटे छोटे मंदिर बने हुए हैं। इन सबमें लिंगराज का विशाल मंदिर उत्कृष्ट है। इसमें चार विशाल कक्ष है- देउल, जगमोहन, नटमण्डप तथा भोगमण्डप । इन्हें एक ही सीध एवं पंक्ति में बनाया गया है। मुख्य कक्ष (देउल या गर्भगृह) के ऊपर अत्यन्त ऊँचा शिखर बनाया गया है। इसकी गोलाकार चोटी के ऊपर पत्थर का आमलक तथा कलश रखा गया है। इस मंदिर का शिखर अपने पूर्ण रूप सुरक्षित है। यह लगभग 160 फुट ऊँचा है तथा इसके चारों कोनों पर दो पिच्छासिंह हैं। शिखर के बीच में ऐसी कटान है जो बाहरी दीवार में ताख बना देती है। उसमें सुन्दर आकृतियाँ बनी हई दिखाई देती हैं। सबसे ऊपर त्रिशूल स्थापित किया गया है। मंदिर का मुखमण्डप (जगमोहन) ऊपर काफी सुन्दर है। इसकी ऊँचाई सौ फुट के लगभग है। अलंकरण योजना गर्भगृह के ही समान है। नटमण्डप तथा भोगमण्डप को काला योजना निर्मित कर जगमोहन से जोड़ दिया गया। यह जुड़ाई इतनी बारीकी से की गयी है कि ये जगमोहन की बनावट से अलग नहीं लगते। उड़ीसा की के मंदिरों की भीतरी दीवार सादी तथा अलंकरण रहित है। प्रत्येक मण्डप में चार स्तम्भ ऊपरी भार को सम्हाले हुए हैं। किन्तु मंदिर की बाहरी दीवारों पर श्रृंगारिक दृश्यों का अंकन है जिनमें कुछ अत्यन्त अश्शीलता की कोटि में आते हैं। लिंगराज मंदिर उड़ीसा शैली के प्रौढ़ मंदिरों का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। लिंगराज मंदिर के ही अनुकरण पर बना भुवनेश्वर का अनन्तवासुदेव मंदिर है जो यहाँ का एकमात्र वैष्णव मंदिर है। भुवनेश्वर में कुल आठ हजार मंदिर थे जिनमें पाँच सौ की संख्या अब भी वर्तमान में है। सभी में लिंगराज, गौरव तथा विशिष्टता की दृष्टि से अनुपम है। लिंगराज मंदिर के अतिरिक्त पुरी का जगन्नाथ मंदिर तथा कोणार्क स्थित सूर्य मंदिर भी उड़ीसा शैली के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। जगन्नाथ मंदिर दोहरी दीवारों वाले प्रांगण में स्थित है। चारों दिशाओं में चार विशाल द्वार बने हैं। मंदिर का मुख्य द्वार पूर्व की ओर स्थित है तथा उसके सामने स्तम्भ हैं। मंदिर की 400 × 300 वर्ग फुट की परिधि में छोटे छोटे कई मंदिर बनाये गये हैं। पुरी का जगन्नाथ मंदिर हिन्दू धर्म के पवित्रतम तीर्थ स्थलों में गिना जाता है।

          पुरी से लगभग बीस मील की दूरी पर स्थित कोणार्क का सूर्य मंदिर वास्तु कला की एक अनुपम रचना है। इसका निर्माण गंगवंशी शासक नरसिंह प्रथम (1238-64 ई०) ने करवाया था। एक आयाताकार प्रांगण में यह मंदिर रथ के आकार पर बनाया गया है। इसका विशाल प्रांगण 865 x 540 के आकार का है। गर्भगृह तथा मुखमण्डप को इस तरह नियोजित किया गया है कि वे सूर्यरथ प्रतीत होते हैं। नीचे एक बहुत ऊँची कुर्सी है जिस पर सुन्दर अलंकरण मिलते हैं। उसके नीचे चारों ओर गज पंक्तियाँ उत्कीर्ण की गयी हैं। यह उकेरी अत्यन्त सूक्ष्मता एवं कुशलता के साथ हुई है। हाथियों की पंक्ति के ऊपर कुर्सी की चौड़ी पट्टी है जिसके अगल बगल पहिये बनाये गये हैं। इन पर भी सूक्ष्म ढंग से अलंकरण हुआ है। इसी के ऊपर गर्भगृह तथा मुखमण्डप अवस्थित है। गर्भगृह के उत्तर, दक्षिण और पश्चिम दीवारों में बने हुए ताखों में सूर्य की मूर्तियाँ हैं। मुखण्डप तीन तल्लों वाला है तथा इसकी छतें तिरछी तिकोने आकार की है। प्रत्येक तल के मध्य भाग को मूर्तियों से अलंकृत किया गया है। मंदिर का शिखर 225 फुट ऊँचा था जो कुछ समय पूर्व गिर गया किन्तु इसका बड़ा सभाभवन आज भी सुरक्षित है। सभाभवन तथा शिखर का निर्माण एक चौड़ी तथा ऊँची चौकी पर हुआ है जिसके चारों ओर बारह पहिये बनाये गये हैं। प्रवेशद्वार पर जाने के लिये सीढ़ियाँ बनायी गयी हैं। इसके दोनों ओर उछलती हुई अश्व प्रतिमाएँ उस रथ का आभास कराती हैं जिन पर चढ़कर भगवान सूर्य आकाश में विचरण करते हैं। मंदिर के बाहरी भाग पर विविध प्रकार की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण की गयी हैं। प्रतिमायें रथ के पहियों पर भी उत्कीर्ण हैं। कुछ मूर्तियाँ अत्यन्त अभील हैं जिन पर तांत्रिक विचारधारा का प्रभाव माना जा सकता है। संभोग तथा सौन्दर्य का मुक्त प्रदर्शन यहाँ दिखाई देता है। अनेक मूर्तियों के सुस्पष्ट श्रृंगारिक चित्रण के कारण इस मंदिर को काला पगोडा कहा गया है। बारह राशियों के प्रतीक इस मंदिर के आधारभूत बारह महाचक्र हैं तथा सूर्य के सात अश्वों के प्रतीक रूप में यहाँ सात अश्व प्रतिमाएँ बनायीं गयी थी।

गुजरात तथा राजस्थान के मंदिर (गुर्जर प्रतिहार स्थापत्य)

          प्रतिहार शासकों के निर्माण कार्यों का कुछ संकेत उनके लेखों में हुआ है। वाउक की जोधपुर प्रशस्ति से पता चलता है कि उसने वहाँ सिद्धेश्वर महादेव का मंदिर बनवाया था। इसी प्रकार मिहिरभोज की ग्वालियर प्रशस्ति से सूचित होता है कि उसने अपने अन्तःपुर में भगवान विष्णु के मंदिर का निर्माण करवाया था। इन उल्लेखों से प्रकट होता है कि प्रतिहार शासकों की निर्माण कार्यों में गहरी अभिरुचि थी।

         गुप्तोत्तर काल (आठवीं शती में राजस्थान) वास्तुकला की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध रहा। मंदिरों तथा भवनों के अवशेष जोधपुर के उत्तर पश्चिम में 56 किमी दूरी पर स्थित ओसियाँ नामक स्थान से प्राप्त होते हैं। प्राचीन मंदिरों में शिव, विष्णु, सूर्य, ब्रह्मा, अर्द्धनारीश्वर, हरिहर, नवग्रह, कृष्ण तथा महिषमर्दिनी दुर्गा के मंदिर उल्लेखनीय हैं। इन पर गुप्त स्थापत्य का प्रभाव है।

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        ओसियाँ के मंदिरों की दो कोटियाँ दिखाई देती हैं। प्रथम कोटि के मंदिर जिनकी संख्या लगभग बारह है, आठवीं नवीं शती में बनवाये गये थे। इनमें शिखरों का विकास दिखाई पड़ता है तथा स्थानीय लक्षणों का अभाव है। दूसरी कोटि के मंदिरों में स्थानीय विशेषतायें मुखर हो गयी हैं। प्रत्येक का आकार एक दूसरे से भिन्न है अर्थात् किन्हीं दो मंदिरों पर परस्पर समानता नहीं है। इसके निर्माण में मौलिकता है। तीन हरिहर मंदिर आकार तथा अलंकरण की दृष्टि से सुन्दर हैं। दो पंचायतन शैली में बने है। इनके शीर्ष पर आमलक बना हुआ है। नागभट्ट द्वितीय के समय झालरापाटन मंदिर का निर्माण हुआ। इसी प्रकार ओसियाँ ग्राम के भीतर तीर्थंकर महावीर का एक सुन्दर मंदिर है जिसे वत्सराज के समय (770-800 ई०) में बनवाया गया था। यह परकोटे के भीतर स्थित है। इसमें भव्य तोरण लगे हैं तथा स्तम्भों पर तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ खुदी हुई हैं।

       ओसियाँ के मंदिर यद्यपि छोटे हैं, फिर भी उनकी बनावट की स्पष्टता एवं अनुपात में आदर्श है। उनके शिखर उड़ीसा के प्रारम्भिक मंदिरों के शिखर जैसे हैं। स्तम्भों के निचले भाग पर ढलुआँ पीठासन है तथा इनके प्रत्येक भाग पर बारीक एवं सुन्दर नक्काशी की गयी है। गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर की गयी संगतराशी में सरलता एवं नवीनता दिखाई देती है।

        ओसियाँ के मंदिरों में सूर्य मंदिर सर्वाधिक उल्लेखनीय है। इस मंदिर की प्रमुख विशेषता इसके अग्रभाग में है। यह भी पंचायतन प्रकार है। मुख्य मंदिर के चारों ओर छोटे मंदिर हैं जिन्हें जोड़ते हुए अन्तराल बनाये गये हैं। शिखर का आकार तथा अलंकरण प्रशंसनीय है। स्तम्भों के आधार तथा शीर्ष पर मंगलकलश स्थापित है। यह ओसिया के मंदिरों का सिरमौर माना जाता है तथा अपनी भव्यता के लिये प्रसिद्ध है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह शिव को समर्पित था क्योंकि इसका ललाट बिम्ब उमामाहेश्वर के रूप में है। ओसियाँ के बाद के मंदिरों में सच्चिया माता तथा पिपला माता के मंदिरों का उल्लेख किया जा सकता है जिनमें राजपूताना शैली का क्रमिक विकास दिखाई देता है। सच्चिया माता को ही लेखों में सच्चिका देवी कहा गया है जो महिषमर्दिनी देवी का एक रूप है। मंदिर के केन्दीय मण्डप में अष्टकोणीय स्तम्भ है जो गुम्बदाकार छत का भार वहन करते हैं। पिपला माता मंदिर में तीस स्तम्भ हैं। ओसियाँ मंदिरों का प्रवेश द्वार सीधे गर्भगृह में खुलता था। अतः कलाकारों ने उनकी नक्काशी पर विशेष ध्यान दिया। गर्भगृह के द्वार पर प्रतीक मूर्तियाँ तथा पौराणिक कथाएँ उत्कीर्ण हैं। द्वार के ऊपरी चौखट पर नवग्रह (रवि, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु तथा केतु) की आकृतियाँ खुदी हुई हैं। दोनों पार्श्व चौखटों के ऊपरी कोने में गंगा यमुना की आकृतियाँ बनाई गयी हैं जो गुप्तकाल से किंचित भिन्न हैं। ऐसा लगता है कि उत्तर गुप्तकाल से देवी प्रतिमाओं को चौखट के निचले भाग से ऊपरी कोने में उत्कीर्ण करने की पद्धति अपनायी गयी।

        ओसिया के मंदिर मूर्तिकारी के लिये भी प्रसिद्ध हैं। सूर्य मंदिर के बाहर अर्धनारीश्वर शिव, सभामण्डप की छत में बंशी बजाते तथा गोवर्धन धारण किये हुए कृष्ण की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। गोवर्धन लीला की यह मूर्ति राजस्थानी कला की अनुपम कृति मानी जा सकती है। इसके अतिरिक्त विभिन्न मंदिरों में त्रिविक्रम विष्णु, नृसिंह तथा हरिहर की मूर्तियाँ भी मिलती है।

चालुक्य (सोलंकी) कालीन स्थापत्य

          चालुक्य शासक उत्साही निर्माता थे तथा उनके काल में अनेक मंदिर एवं धार्मिक स्मारक बनवाये गये। मंदिर निर्माण के पुनीत कार्य में उनके राज्यपालों, मंत्रियों एवं धनाढ्य व्यापारियों ने भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस प्रकार सम्पूर्ण समुदाय की कार्यनिष्ठा एवं प्रत्येक व्यक्ति की लगन के फलस्वरूप इस समय गुजरात के अन्हिलवाड तथा राजस्थान के आबू पर्वत पर कई भव्य मंदिरों का निर्माण करवाया गया। ये मुख्यतः जैन धर्म से सम्वन्धित हैं।

सोलंकी मंदिरों में तीन भाग दिखाई पड़ते हैं-

1.पीठ या आधार– इसके ऊपरी भाग पर पूरा निर्माण टिका हुआ है। इसमें कई ढलाइयाँ हैं जो विविध अलंकरणों से युक्त हैं। राक्षस (श्रृंगरहित सिर), गजपीठ, अश्व तथा मानव आकृतियाँ आदि उत्कीर्ण हैं।

2. मण्डोवर अर्थात् मध्यवर्ती भाग– यह पीठ तथा शिखर के मध्य होता था और मंदिर का प्रमुख भाग माना जाता था। इसकी लम्बवत् दीवारों में ताख बने हैं जिनमें देवी देवताओं, नर्त्तकियों आदि की आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं।

3. मीनार या शिखर – यह मंदिर का सबसे ऊपरी भाग है जो नागरशैली में है। इसके चारों ओर उरुशृंगों (गर्भगृह की मीनार पर चारों ओर बना शिखरनुमा आकार) का समूह बनाया गया है।

         मंदिरों का निर्माण ऊँचे चबूतरे पर किया जाता था। सामान्यतः उनमें एक देवालय तथा एक कक्ष मात्र होता था तथा प्रवेश द्वार पर बरसाती नहीं रहती थी। ऊपरी शिखर खजुराहो के समान अनेक छोटी छोटी मीनारों से सुसज्जित रहता था तथा छतें रोड़ादार गुम्बदों जैसी होती थीं। इन भीतरी छतों पर खोदकर चित्र बनाये जाते थे ताकि वे एक वास्तविक गुम्बद जैसे प्रतीत हो सकें।

           गुजरात के प्रमुख मंदिरों में मेहसाना जिले में स्थित मोडेहरा का सूर्य मंदिर उल्लेखनीय है। इसका निर्माण ग्यारहवीं शती में हुआ था। अब यह मंदिर नष्ट हो गया है, केवल इसके ध्वंसावशेष ही विद्यमान हैं। इनमें गर्भगृह, प्रदक्षिणापथ, मण्डप आदि हैं इसका निर्माण ऊँचे चबूतरे पर किया गया है। निर्माण में सुनहरे बलुए पत्थर लगे हैं। इसमें स्तम्भों पर आधारित खुला द्वार मण्डप हैं। इसके दन्तुरित मेहराब भव्य एवं सुन्दर हैं। पाटन स्थित सोमनाथ के मंदिर का भी उल्लेख किया जा सकता है जिसका पुननिर्माण इस काल में हुआ। इस वंश के शासक कर्ण ने अन्हिलवाड़ में कर्णमेरु नामक मंदिर बनवाया था। सिद्धपुर स्थित रुद्रमहाकाल का मंदिर भी वास्तु कला का सुन्दर उदाहरण है। गुजरात में अन्हिलवाड़ के निकट सुनक स्थित नीलकण्ठ महादेव मंदिर भी एक विशिष्ट रचना है। इसी का समकालीन काठियावाड़ का नवलखा मंदिर कलात्मक दृष्टि से उत्कृष्ट है।

              आबू पर्वत पर कई मंदिर प्राप्त होते हैं। यहाँ दो प्रसिद्ध संगमरमर के मंदिर हैं जिन्हें दिलवाड़ा कहा जाता है। सोलंकी नरेश भीमदेव प्रथम के मंत्री विमल शाह ने ग्यारहवीं शती में विमलशाही नामक मंदिर बनवाया था। अनुश्रुति के अनुसार विमलशाह ने पहले कुम्भेरिया में पार्श्वनाथ के 360 मंदिर बनवाये थे किन्तु उनकी इष्ट देवी अम्बा ने किसी बात से नाराज होकर पाँच मंदिरों के सिवाय सभी को जला दिया तथा विमलशाह को दिलवाड़ा में आदिनाथ का मंदिर बनवाने का आदेश स्वप्न में दिया। उसने परमार नरेश से 56 लाख रुपये में भूमि क्रय कर इस मंदिर का निर्माण करवाया था। यह 98 × 48 के क्षेत्रफल में फैला है तथा ऊँचे परकोटे से घिरा हुआ है। इसमें पचास से अधिक कक्ष बनाये गये हैं। मंदिर का प्रवेश द्वार गुम्बद वाले मण्डप से होकर बनाया गया है, जिसके सामने एक वर्गाकार भवन है, जिसमें छः स्तम्भ तथा दस गज प्रतिमाएँ हैं। इसके पीछे मध्य में बने मुख्य गर्भगृह में ध्यानमुद्रा में अवस्थित आदिनाथ की मूर्ति है, जिसकी आँखें हीरे की हैं। प्रवेशद्वार पर छः स्तम्भ तथा दस गज प्रतिमाएँ हैं। इसमें 128 × 75 के आकार का एक विशाल प्रांगण है। यह मंदिर अपनी बारीक नक्काशी तथा अद्भुत मूर्तिकारी के लिये प्रसिद्ध हैं। पाषाण शिल्पकला का इतना बढ़िया उदाहरण अन्यत्र नहीं मिलता। मंदिर का बाहरी भाग अत्यन्त सादा है, किन्तु भीतर का अलंकृत है। श्वेत संगमरमर के गुम्बद का भीतरी भाग, दीवारें, छतें तथा स्तम्भ सभी पर नक्काशी मिलती है। मूर्तिकारी में विविध प्रकार के फूल पत्ते, पशु पक्षी, मानव आकृतियाँ आदि इतनी बारीकी से उकेरी गयी हैं मानो शिल्पियों की छेनी ने कठोर संगमरमर का मोम बना दिया हो। विमलशाही मंदिर के समीप ही दूसरा मंदिर स्थित है। इसे तेजपाल ने बनवाया था। निर्माता के नाम पर ही इसे तेजपाल मंदिर कहा जाता है। यह भी भव्य तथा सुन्दर है। मंदिर में ठोस संगमरमर की लटकन है जो स्फटिकमणि से बनी प्रतीत होती है। उसके चारों ओर गोलाई में खोदकर कमल पुष्प बनाया गया है। लम्बवत् पाषाण पर खुदी हुई अनेक आकृतियाँ मनोहर हैं। गर्भगृह में नेमिनाथ की प्रतिमा स्थापित हैं तथा कक्ष के द्वार मण्डपों पर उनके जीवन से ली गयी अनेक गाथाएँ उत्कीर्ण हैं। कलाविद् फर्ग्युशन के शब्दों में केन्द्रीय गुम्बद अधखिले कमल के समान दिखाई देता है जिसकी पंखुड़ियाँ इतनी पतली, पारदर्शक तथा कुशलता से उकेरी गयी हैं कि उनकी प्रशंसा करते हुए नेत्र ठहर जाते हैं।

        विमलशाही तथा तेजपाल मंदिरों के अतिरिक्त आबू पर्वत पर कुछ अन्य जैन मंदिर भी मिलते हैं। पर्वत शिखर पर मंदिर निर्माण की होड़ सी लगी हुई थी क्योंकि उत्तुंग पर्वत स्थान को देवता के आवास के लिये लगते पवित्र माना जाता था। मंदिर ऊँचे परकोटे से घिरे होते थे जिनके चारों ओर कोठरियाँ बनी होती थीं। कोठरियों में जैन तीर्थकरों के देवताओं की बैठी प्रतिमायें दिखाई देती हैं। इनके शिखर की छोटी मीनार अलंकृत हैं। मंदिर की भीतरी छतों पर खोदकर चित्रकारियाँ की गयी है। वास्तु की दृष्टि से ये मंदिर बहुत सुन्दर तो नहीं है किन्तु सभी मंदिर अपनी सूक्ष्म एवं सुन्दर नक्काशी के लिये प्रसिद्ध हैं। इनमें सफेद संगमरमर के पत्थर लगे हुए हैं। कलात्मक होने के साथ-साथ इनके अलंकरण का बाहुल्य दर्शकों को उबा देने वाला प्रतीक होता है।

बुन्देलखण्ड के चन्देलकालीन मंदिर

         बुन्देलखण्ड का प्रमुख स्थल मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में स्थित खजुराहो नामक स्थान हैं। यहाँ चन्देल राजाओं के समय में नवीं शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दी तक अनेक सुन्दर तथा भव्य मंदिरों का निर्माण करवाया गया। ये पूर्व मध्ययुगीन वास्तु एवं तक्षण कला के उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। खजुराहों में 25 मंदिर आज भी विद्यमान हैं। इनका निर्माण ग्रेनाइट तथा लाल बलुआ पत्थरों से किया गया है। ये शैव, वैष्णव तथा जैन धर्मों से सम्बन्धित हैं। मंदिरों का निर्माण ऊँची चौकी पर हुआ है जिसके ऊपरी भाग को अनेक अलंकरणों से सजाया गया है। चौकी या चबूतरे पर गर्भगृह, अन्तराल, मण्डप तथा अर्धमण्डप हैं। सभी पर शिखर एक निश्चित रेखा में बने हैं जो क्रमशः छोटे हो गये हैं। इन्हें आरोहावरोह कहा गया है। शिखरों पर छोटे छोटे शिखर संलग्न हैं जिन्हें उरुशृंग कहा जाता है। ये छोटे आकार के मंदिर के ही प्रतिरूप हैं। उरुशृंगों से मंदिर की आकृति और भी सुन्दर हो गयी है। सर्वोच्च शिखर के ऊपर आमलक, स्तूपिका तथ कलश स्थापित हैं। दीवारों में बनी खिड़कियों में छोटी छोटी मूर्तियाँ रखी गयी हैं। गर्भगृह के ऊपर उत्तुंग शिखर हैं। मंदिर आकार में बहुत बड़े नहीं हैं तथा उनके चारों ओर दीवार भी नहीं बनाई गयी है। प्रत्येक मंदिर में मण्डप, अर्धमण्डप तथा अन्तराल मिलते हैं। कुछ मंदिरों में विशाल मण्डप बने हैं, उन्हें महामण्डप कहा जाता है। मंदिरों के प्रवेश द्वार को मकर तोरण कहा गया है क्योंकि उनके ऊपर मकर मुख की आकृति बनी हुई है। कुछ मंदिरों में गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा मार्ग भी बनाये गये हैं। गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर भी काफी अलंकरण मिलते हैं। मंदिरों के सभी अंग एक दूसरे के साथ अविच्छिन्न रूप से संबद्ध हैं जिसके फलस्वरूप खजुराहो के मंदिर एक ऐसे पर्वत के समान लगते हैं जिस पर छोटी बड़ी कई श्रेणियाँ होती हैं।

Khajuraho

          विकास क्रम की दृष्टि से खजुराहो मंदिरों को कई समूहों में बाँटा जा सकता है। वामन तथा आदिनाथ मंदिर प्रारम्भिक अवस्था के सूचक हैं। दोनों की बनावट एक जैसी है। गर्भगृह की दीवारें सुन्दर ढंग से गढ़ी गयी हैं तथा खोदी गयी हैं। आदिनाथ मंदिर का शिखर, वामन मंदिर से ऊँचा है। दूसरे समूह के मंदिर जगदम्बा, चतुर्भुज, पार्श्वनाथ, विश्वनाथ तथा अन्तिम सीढ़ी पर कन्दारिया महादेव मंदिर है। इनकी बनावट और रचना शैली मूलतः समान है। अन्तिम चार के गर्भगृह की परिधि में प्रदक्षिणापथ से जुड़ा हुआ मण्डप है। इसमें तीन ओर वातायन बने हैं। विश्वनाथ तथा चतुर्भुज मंदिर एक जैसे हैं। इनके प्रत्येक कोने पर पूरक छोटे मंदिर निर्मित है जिसके कारण इसे पंचायतन कहा जाता है। जगदम्बा मंदिर में प्रदक्षिणापथ नहीं है। जैन मंदिरों की योजना भी बहुत कुछ इसी प्रकार की है। खजुराहो के मंदिरों में कन्दारिया महादेव मंदिर सर्वश्रेष्ठ है। यह 109 × 60 × 116 के आकार से बना है। मंदिर एक ऊँचे चबूतरे पर बना है जिस पर चढ़ने के लिये सीढ़ियां बनाई गयी हैं। प्रवेशद्वार काफी अलंकृत है। इसमें चौकोर अर्धमण्डप तथा वर्गाकार मण्डप है। मण्डप के बाजू का भाग गर्भगृह के चारों ओर विस्तृत है तथा बारजे के वातायन से जुड़ा हुआ है। गर्भगृह के ऊपर एक ऊँचा शिखर तथा कई छोटे छोटे शिखर बनाये गये हैं। इनकी दीवारों पर बहुसंख्यक मूर्तियाँ उत्कीर्ण मिलती हैं। एक सामान्य गणना के अनुसार यहाँ खुदे हुए रूपचित्रों की संख्या नौ सौ के लगभग है। इनमें मकर, विद्याधर, संगीतज्ञ, बाघ तथा कामासक्त मिथुन मूर्तियाँ स्पष्टतः दिखाई पड़ती हैं। बाह्य भाग में प्रेमी युगल, देवी देवता, देवदूत आदि अंकित हैं। सभी सजीव एवं आकर्षक हैं। मंदिर के गर्भगृह में संगमरमर का शिवलिंग स्थापित किया गया है। इस प्रकार कन्दारिया महादेव का मंदिर खजुराहो के मंदिरों का सिरमौर है।

           जैन मंदिरों में पार्श्वनाथ मंदिर प्रसिद्ध है जो 62 × 31 के आकार में निर्मित हैं। इसकी बाहरी दीवारों पर जैन मूर्तियों की तीन पंक्तियाँ खोदी गयी हैं। वैष्णव मंदिरों में चतुर्भुज मंदिर उल्लेखनीय है जो 85 × 44 के आकार का है। इसका वास्तु विन्यास कन्दारिया महादेव जैसा ही है। यहाँ के कुछ अन्य मंदिर इस प्रकार हैं- चौंसठ योगिनी, ब्रह्मा, लालगुआँ महादेव, लक्ष्मण, विश्वनाथ मंदिर आदि। ये सभी वास्तु कला के अत्युत्कृष्ट उदाहरण हैं।

           वास्तु कला के समान खजुराहो के मंदिर अपनी तक्षण कला के लिए भी अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। इनकी भीतरी तथा बाहरी दीवारों पर बहुसंख्यक मूर्तियों से सजाया गया है। गुम्बददार छतों के ऊपर भी अनेक चित्र उत्खचित हैं। यद्यपि यहाँ की मूर्तियाँ उड़ीसा की मूर्तियों की भाँति सुदृढ़ नहीं है, तथापि उनसे कहीं अधिक सजीव तथा आकर्षक प्रतीत होती हैं।

        खजुराहो मंदिर में देवी देवताओं की मूर्तियों के साथ-साथ कई दिग्पालों, गणों, अप्सराओं, पशु-पक्षियों आदि की बहुसंख्यक मूर्तियाँ भी प्राप्त होती हैं। अप्सराओं या सुन्दर स्त्रियों की मूर्तियों ने यहाँ की कला को अमर बना दिया है। ये मंदिर के जंघाओं, रथिकाओं, स्तम्भों, दीवारों आदि पर उत्कीर्ण हैं। उन्हें अनेक मुद्राओं और हाव भावों में प्रदर्शित किया गया है। कहीं वे देवताओं के पार्श्व में तथा कहीं हाथों में दर्पण, कलश, पद्म आदि लिये हुए दिखायी गयी हैं। कहीं अप्सराओं के रूप में वे विभिन्न मुद्राओं में नृत्य कर रही हैं। पैर से काँटा निकालती हुई नायिका, अलस नायिका, माता और पुत्र सहित बहुसंख्यक मिथुन आकृतियाँ खोद कर बनायी गयी हैं जो अत्यन्त कलापूर्ण एवं आकर्षक हैं। कुछ मूर्तियाँ अत्यन्त अश्लील हो गयी हैं जिन पर संभवतः तांत्रिक विचारधारा का प्रभाव लगता है।

         इस प्रकार समग्र रूप से खजुराहो के मंदिर अपनी वास्तु तथा तक्षण दोनों के लिये अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। के० डी० वाजपेयी के शब्दों में प्रकृति और मानव जीवन की ऐहिक सौंदर्यराशि को यहाँ के मंदिरों में शाश्वत रूप प्रदान कर दिया गया है। शिल्प श्रृंगार का इतना प्रचुर तथा व्यापक आयाम भारत के अन्य किसी कला केन्द्र में शायद ही देखने को मिले।




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