भक्ति आन्दोलन और सांस्कृतिक समन्वय

        प्राचीन भारतीय हिन्दू दर्शन के अनुसार मोक्ष प्राप्त करना ही अथवा जीवन-मरण के बन्धन से छुटकारा प्राप्त करना ही जीवन का अन्तिम लक्ष्य है। मोक्ष प्राप्ति के तीन मार्ग बतलाये गये हैं- ज्ञान, कर्म और भक्ति। सल्तनत काल (1206-1526 ई.) में कई हिन्दू सन्तों और सुधारकों ने हिन्दू धर्म के लिए एक आन्दोलन प्रारम्भ किया था। चूँकि यह आन्दोलन भक्ति पर जोर देता था, इसलिए इसे भक्ति आन्दोलन के नाम से पुकारा जाने लगा।

         भक्ति आन्दोलन का प्रारम्भ महान धर्म सुधारक शंकराचार्य के समय में माना जाता है। शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म के विरुद्ध सफलतापूर्वक संघर्ष करके हिन्दू धर्म को एक मजबूत दार्शनिक पृष्ठभूमि प्रदान की थी। उनके द्वारा ‘अद्वैतवाद‘ नामक मत की स्थापना की गयी थी तथा मोक्ष-प्राप्ति के लिए ज्ञान मार्ग पर जोर दिया गया था। चूँकि शंकराचार्य का मत बहुत ही दार्शनिक और बौद्धिक था, अतः वह जनसाधारण की समझ में न आ सका तथा उसे प्रभावित नहीं कर सका था। इसलिए हमारे मध्ययुगीन धर्म सुधारकों द्वारा जनसाधारण को हिन्दू धर्म की ओर आकर्षित करने के लिए और उसे लोक जीवन में सक्रिय बना देने के लिए ईश्वर की भक्ति पर जोर दिया गया।

विषय-सूची

भक्ति आन्दोलन की उत्पत्ति के कारण

भक्ति आन्दोलन की उत्पत्ति के मुख्य कारण निम्नलिखित थे- 

  • हिन्दू धर्म में जाति-प्रथा की जटिलता निरन्तर बढ़ती जा रही थी। ऊँच-नीच की भावना से हिन्दू समाज का निम्न वर्ग दुःखी था। भक्ति आन्दोलन के संतों द्वारा चूँकि ऊँच-नीच और जाति प्रथा का खण्डन किया गया, अतः समाज के निम्न वर्ग ने विशेष रूप से इसका समर्थन किया।
  • भक्ति आन्दोलन में एकेश्वरवाद और सामाजिक समानता के सिद्धांतों को लेकर उस पर इस्लाम के प्रभाव की कल्पना भी व्यर्थ ही लगती है। भारतवर्ष में बहुदेववाद होते हुए भी एक ब्रह्म और ईश्वर की कल्पना पुरातन काल से चली आ रही है। अतः एकेश्वरवाद के सिद्धान्त को इस्लाम की देन मानना उचित नहीं लगता।

वास्तव में भक्ति आन्दोलन का उदय सर्वप्रथम दक्षिण भारत में हुआ और इसमें आलवार सन्तों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। पाँचवीं से लेकर नवीं शताब्दी तक दक्षिण भारत में अनेक आलवार सन्त हुए जिन्होंने दक्षिण में भक्ति के सिद्धान्त का खूब प्रचार किया। तिरुमल रूई, विरुमंगेई, पेरियालवार, कुलशेखर, तिरुप्पान, भूतम, मम्मालवार आदि कुछ ऐसे ही आलवार सन्त थे। इनमें से अधिकांश आलवार सन्त निम्न जातियों के थे और उच्च्च शिक्षा न मिलने पर भी उनमें उच्च गुणों का समावेश था। वे सभी विष्णु के उपासक थे। उनके विचारों और भावों में भक्ति तथा विनम्रता का अपूर्व संगम देखने को मिलता है। ‘मेरा जन्म न द्विज कुल में हुआ, न मैं चारों वेदों का जानने वाला हूँ। मैं अपनी इन्द्रियों को भी नहीं जीत पाया हूँ। इस कारण हे भगवान्, मुझे तुम्हारे प्रकाशमय चरणों के अतिरिक्त अन्य किसी भी शक्ति का भरोसा नहीं है।’ आलवार सन्तों के ये भाव थे जिनसे भक्ति की भावना के अस्तित्त्व में कोई संशय नहीं रह जाता। इन आलवार सन्तों ने कुछ गीतों की भी रचना की जो प्रपत्ति (सब कुछ छोड़कर भगवान् की शरण में गिरने की भावना) से ओत-प्रोत हैं। इन आलवार सन्तों के प्रयत्नों से भक्ति की भावना का दक्षिण में खूब प्रचार हुआ और यह जनजीवन का अभिन्न अंग बन गयी। इन आलवार सन्तों द्वारा तमिल भाषा में लिखे गये भक्ति गीतों का एक ग्रंथ के रूप में सम्पादन दसवीं शताब्दी में नाथ मुनि ने किया। जो लालीईरा प्रबन्धम नाम से जाना जाता है और जो भक्ति आन्दोलन का आदि ग्रंथ माना जाता है। आलवार इसको वेदों के समान श्रेष्ठ मानते हैं। अपने सद्‌गुणों और भक्ति के माध्यम से उनकी समाज में प्रतिष्ठा इतनी बढ़ गयी कि भगवान विष्णु के साथ उनकी पूजा होने लगी।

          भारतवर्ष में भक्ति आन्दोलन का उदय सर्वप्रथम दक्षिण भारत में हुआ। आलवार सन्तों द्वारा पाँचवीं शताब्दी से लेकर नवीं शताब्दी तक भक्ति का प्रचार सम्पूर्ण दक्षिण में कर इसे घर-घर पहुँचा दिया गया। यहाँ से धीरे-धीरे यह आन्दोलन उत्तरी भारत में भी फैल गया। उत्तरी भारत में इसे लोकप्रिय बनाने में रामानन्द, नामदेव, वल्लभाचार्य, चैतन्य, कबीर एवं नानक आदि सन्तों का प्रमुख योगदान रहा।

भक्ति आन्दोलन के प्रमुख सन्त

         भक्ति आन्दोलन में हमें दो प्रकार की विचारधाराएँ मिलती हैं – सगुण विचारधारा और निर्गुण विचारधारा। सगुण विचारधारा के प्रमुख सन्त रामानुज, निम्बार्क, मध्वाचार्य, रामानन्द, चैतन्य, वल्लाभाचार्य आदि थे। इन सन्तों का यह मानना था कि ईश्वर का एक निश्चित रूप होता है तथा वे उसका विष्णु, राम, कृष्ण आदि नामों से सम्बोधन करते थे। निर्गुण विचारधारा के प्रमुख सन्त कबीर एवं नानक थे। इन सन्तों का यह मानना था कि ईश्वर निराकार होता है और ये लोग उसको किसी भी नाम से सम्बोधित न करके राम, रहीम, कृष्ण और विष्णु सबको उसका ही रूप मानते थे।

भक्ति आन्दोलन के प्रमुख सन्त और उनका भक्ति आन्दोलन के प्रसार में योगदान

रामानुज

        रामानुज भक्ति आन्दोलन के प्रथम महान् वैष्णव संत थे जो बारहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक काल में हुए थे। उनका जन्म आधुनिक आन्ध्र प्रदेश के तिरुपति नगर में हुआ था। उनके पिता का नाम केशव और माता का नाम कान्तिमती था। रामानुज प्रारम्भ में गृहस्थ जीवन व्यतीत कर रहे थे परन्तु सम्भवतः बाद में अपने गुरु यमुनाचार्य के प्रभाव के फलस्वरूप उन्होंने संन्यास ले लिया। तत्पश्चात् उन्होंने काश्मीर तक भारत भ्रमण किया। प्रारम्भ में वे शंकर के विचारों से प्रभावित थे किन्तु अपने अध्ययन और चिन्तन से वे बाद में शंकर के अद्वैत दर्शन और मायावाद से मतभेद रखने लगे और उन्होंने मुक्ति प्राप्ति के लिए भक्ति को ही मुख्य साधन बताया।

          रामानुज ने जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया उसको विशिष्टाद्वैत के नाम से जाना जाता है। उनका मानना था कि ब्रह्म ही परम सत्य है। वह सृजनकर्ता, पालनकर्त्ता और विनाशकर्ता है। आत्मा और जगत ब्रह्म के ही विभिन्न रूप हैं। आत्मा भक्ति के द्वारा ही परमात्मा को प्राप्त कर सकती है। रामानुज ने बताया कि शूद्र भी अपने गुरु की इच्छा के आगे पूर्ण समर्पण कर मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। उन्होंने वर्ष में एक निश्चित दिन शूद्रों को मन्दिरों में प्रवेश की छूट दी तथा उसी दिन वे अपने सम्प्रदाय से सम्बन्धित शूद्रों को शिक्षा भी दिया करते थे। रामानुज के विचार शीघ्र ही उत्तर और दक्षिण भारत में लोकप्रिय हो गये और इस प्रकार उन्होंने भक्ति आन्दोलन की नींव रखी।

निम्बार्क

        भक्ति आन्दोलन के दूसरे महान संत निम्बार्क थे। वे रामानुज के ही समकालीन थे परन्तु आयु में उनसे छोटे थे। वे तेलगु ब्राह्मण थे किन्तु बाद में जाकर वह वृन्दावन में बस गये थे और उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश भाग वृन्दावन में ही व्यतीत किया। उन्होंने भेदाभेद के सिद्धान्त (द्वैताद्वैतवाद) का प्रतिपादन करके भक्ति की विचारधारा को और आगे बढ़ाया। उनके मतानुसार परमात्मा-आत्मा और जगत समरूप होते हुए भी एक-दूसरे से भिन्न हैं। उनमें समानता इस आधार पर है कि आत्मा और जगत पूर्णतः परमात्मा (ईश्वर) पर ही निर्भर है ओर उनका ईश्वर के बिना अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। इसलिए उनका न केवल शंकराचार्य से ही बल्कि विशिष्टाद्वैतवादी रामानुज से भी बहुत मतभेद था। अध्यात्म के क्षेत्र में उन्होंने भी परमात्मा के प्रति पूर्ण आत्म-समर्पण पर ही जोर दिया। निम्बार्क कृष्ण और राधा के उपासक थे तथा उन्होंने कृष्ण और राधा की आराधना को महत्त्व दिया। कुछ विद्वानों का यह विचार है कि आचार्य निम्बार्क के पूर्व राधा के अस्तित्व का संकेत कहीं नहीं मिलता है।

मध्वाचार्य

        मध्वाचार्य तेरहवीं सदी में भक्ति आन्दोलन के एक अन्य महत्त्वपूर्ण संत हुए। उनका जन्म 1199 ई. में कन्नड जिले में स्थित वेज्जी में हुआ। उन्होंने न तो शंकर के अद्वैतवाद को स्वीकार किया और न रामानुज के विशिष्टाद्वैतवाद को। उन्होंने भागवत पुराण के आधार पर स्पष्ट द्वैतवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। माध्वाचार्य के अनुसार ईश्वर आत्मा और जगत से पूर्णतः भिन्न है। ईश्वर ही आत्मा और जगत को नियंत्रित करता है। परमात्मा और आत्मा के बीच सम्बन्ध स्वामी और सेवक की भाँति होता है। ईश्वर की सेवा और भक्ति करते-करते आत्मा भी बहुत से मामलों में ईश्वर की भाँति हो जाती है। मध्वाचार्य विष्णु के उपासक थे और विष्णु की ईश्वर के रूप में भक्ति करते थे। वह परमात्मा को एक सम्राट के समान मानते थे। उनका मानना था कि वह समस्त जगत का स्वामी है। उसी की अनुकम्पा और भक्ति से मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है।

         इस प्रकार तेरहवीं सदी के अन्त तक उत्तरी और दक्षिणी भारत के चिन्तशील हिन्दुओं की विचारधारा पर उपर्युक्त तीन विभिन्न सिद्धान्तों का बड़ा प्रभाव पड़ा था और इन तीनों ही दार्शनिक सिद्धान्तों में जन्म- मरण के बन्धन से मुक्ति का अथवा मोक्ष प्राप्ति का एक ही मार्ग-ईश्वर की भक्ति का मार्ग बताया गया था। ये तीनों ही दर्शन वैष्णव धर्म की शाखाएँ थे। किन्तु उपर्युक्त तीनों ही सन्तों ने अपने उपदेश संस्कृत भाषा में दिये अतः उनके विचारों का जनसाधारण पर विशेष प्रभाव नहीं हुआ।

रामानन्द

        अभी तक सभी वैष्णव संत दक्षिण भारत में ही हुए थे। रामानन्द पहले वैष्णव संत थे जिनका जन्म उत्तरी भारत में हुआ। रामानन्द का जन्म चौदहवीं शताब्दी के अंतिम चरण में प्रयाग में एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनकी शिक्षा प्रयाग और बनारस में हुई और उन्होंने भारत के कई भागों में भ्रमण किया था। बहुत ही छोटी आयु में वे रामानुज द्वारा स्थापित श्री सम्प्रदाय में दीक्षित हो गये थे और अपने गुणों के बल पर फिर धर्मगुरु बन गये। उन्होंने अपने ग्रंथ ‘भक्तमाल‘ में गुरु-शिष्य परम्परा के प्रसंग में रामानुजाचार्य के तीन प्रमुख उत्तराधिकारी शिष्यों- देवाचार्य, हरियानन्द और राघवानन्द के नामों का उल्लेख किया है। सम्भवतः इसी आधार पर कुछ इतिहासकारों ने रामानुज के उत्तराधिकारी के सिलसिले में रामानन्द का पाँचवाँ स्थान माना है। 

         रामानन्द की प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा प्रयाग में हुई परन्तु बाद में वह बनारस में बस गये थे। किन्तु यह बड़े आश्चर्य की बात है कि प्रयाग और बनारस जैसे रूढ़िवाद के गढ़ में भी रामानन्द के विचार किस विचित्र प्रेरणा के फलस्वरूप उदारवादी ही नहीं बल्कि क्रान्तिकारी हो गये। अपने आदिगुरु रामानुज के समान रामानन्द के अध्यात्म के क्षेत्र में सर्वप्रथम वेदान्त का ही ज्ञान प्राप्त किया परन्तु जब उसके शुष्क एवं नीरस सिद्धान्तों से उनकी तृप्ति न हुई तब उन्होंने रामानुज के ‘श्री सम्प्रदाय’ के तीसरे धर्मगुरु राघवानन्द से दीक्षा ली। स्वतंत्र विचारों के तो वह थे ही, उनकी व्यापक यात्राओं ने उनके दृष्टिकोण को पूर्णतः सार्वभौमी बना दिया और उन्होंने भक्ति मार्ग का अनुसरण करते हुए उसको एक नई दिशा में मोड़ दिया। वह रामानुज के विशिष्टाद्वैतवाद में विश्वास करते थे।

          सम्भवतः रामानन्द ने बहुत से ग्रंथों की रचना नहीं की, परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि उनका व्यक्तित्व क्रान्तिकारी था। उनके चरित्र एवं शिक्षा का जो युग परिवर्तक प्रभाव पड़ा वह बहुत से महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का भी न पड़ सका। ‘श्री सम्प्रदाय’ के अनुयायी होते हुए भी उन्होंने उसकी मान्यताओं में कुछ परिवर्तन कर दिया था। विष्णु के स्थान पर उन्होंने राम की भक्ति का प्रचार किया। उन्होंने पुरानी परम्परा त्यागकर शूद्रों को भी अपना शिष्य बनाया और धार्मिक कार्यों में उन्हें लगभग उच्च वर्गों की ही तरह बराबरी से भाग लेने दिया। मध्य युग में स्त्रियों को धार्मिक विचार-विमर्शों और कार्यों में भाग लेना वर्जित था। रामानन्द ने इस अवरोध को भी नहीं माना और उन्होंने स्त्रियों को भी भक्ति करने की अनुमति दी तथा उन्हें भी अपना शिष्य बनाया। जनश्रुति के अनुसार उनके बारह शिष्य थे- आनन्दानन्द, कबीर, पीपा, भावानन्द, सुखानन्द, सुरसरानन्द, नरहरि, रविदास, धन्ना, सैना, पद्मावती तथा सुरसीर। इनमें धन्ना जाट, सैना नाई और रैदास चमार जाति के थे तथा कबीर मुसलमान थे जबकि पद्मावती और सुरसीर दो स्त्रियाँ थीं। इस प्रकार रामानन्द ने वैष्णव धर्म के द्वारा बिना किसी जन्म, जाति, धर्म और लिंग-भेद के सभी के लिए खोल दिये। रामान्द के शिष्यों की उपर्युक्त तालिका से दो महत्त्वपूर्ण विचार सिद्ध होते हैं। प्रथम, यह कि रामानन्द केवल धर्म में ही सुधार नहीं करना चाहते थे बल्कि समाज को भी रूढ़ियों के गर्त से निकालना चाहते थे और दूसरा, यह कि वह साम्प्रदायिक संकीर्ण विभेद को मिटाने चाहते थे। उच्च कुल की ब्राह्मण संतान होते हुए तथा वेद और पुराणों के ज्ञाता होते हुए भी उन्होंने मानव मात्र की समानता पर बल दिया। मध्यकाल के वातावरण में यह आश्चर्यजनक बात थी। मानवता के इस संदेश ने न केवल भक्ति आन्दोलन को एक नया मोड़ प्रदान किया बल्कि आने वाली पीढ़ियों के ग्रंथकर्ताओं ने भी एक नवीन प्रेरणा से ओत प्रोत कर दिया। भक्ति आन्दोलन के प्रसार में उनका योगदान दो प्रकार का है- प्रथम यह कि उन्होंने क्रान्तिकारी शिष्य तैयार किए और दूसरा यह कि इन शिष्यों के समक्ष एक व्यापक और निष्पक्ष आदर्श रखा। स्वतंत्र विचारों के वे पोषक थे और ऐसे विचारों को ही उन्होंने प्रोत्साहन दिया।

           रामानन्द ने एक और चमत्कारी कदम उठाया। शास्त्रीय भक्ति का अभी तक समस्त साहित्य संस्कृत भाषा में उपलब्ध था जो साधारण जनता की समझ से परे था किन्तु रामानन्द ने जनता की भाषा पर अधिक बल दिया। वह प्रथम वैष्णव संत थे जिन्होंने हिन्दी के माध्यम से उपदेश दिये। उनके पहले के धर्मगुरुओं ने अपने उपदेशों में संस्कृत का प्रयोग किया था अतः उनके संदेश उन्हीं कुछ लोगों तक पहुँच सके थे जो संस्कृत समझते थे। किन्तु चूँकि रामानन्द के उपदेशों का माध्यम हिन्दी था, अतः उनके उपदेश जनसाधारण के भी भली-भाँति समझ में आ गये। अब हर कोई वैष्णव धर्म के उपदेश समझ सकता था। इससे शूद्रों में काफी जागृति आयी। चूँकि रामानन्द ने धार्मिक अनुष्ठान में अपने निम्न वर्ग के शिष्यों को उच्च वर्ग के शिष्यों के समान ही महत्त्व दिया इसलिए इससे शूद्रों की स्थिति में सुधार होने में बल मिला।

            रामानन्द ने मोक्ष प्राप्ति के लिए परमात्मा के प्रति प्रेम और भक्ति पर ही जो बल दिया। उन्होंने रीति-रिवाज, धार्मिक उत्सवों, उपवासों और धर्म-यात्राओं पर इतना जोर नहीं दिया। उनकी भक्ति आन्दोलन को सबसे बड़ी देन यह थी कि उन्होंने भक्ति आन्दोलन को लोकवादी रूप प्रदान किया। यद्यपि रामानन्द के प्रयासों से भक्ति आन्दोलन को काफी लोकप्रियता प्राप्त हुई थी और वह जाति-पाँति के भेदभाव से बहुत ऊपर उठ चुका था फिर भी रामानन्द ने पहले से चली आयी किसी सामाजिक परम्परा को नहीं तोड़ा ओर न ही पूर्ण सामाजिक समानता को स्थापित करने का प्रयत्न किया। वास्तविकता तो यह थी कि उन्होंने जाति-व्यवस्था का विरोध ही नहीं किया। लेकिन जैसा कि डॉ. आशीर्वाद लाल श्रीवास्तव लिखते हैं, ‘उनके उपदेशों से जाति-पाँति के बन्धन बहुत ढीले पड गये थे। शूद्र, ब्राह्मण से कन्धे से कन्धा मिलाकर चलते थे और वे परमात्मा की दृष्टि में समान समझे जाते थे। यह निश्चय ही रामानन्द की महान उपलब्धि थी।’

कबीर

        भक्ति आन्दोलन के सन्तों में कबीर ऐसे प्रथम संत हुए जिन्होंने हिन्दू तथा इस्लाम धर्म की एकता पर विशेष बल दिया। कबीर के प्रारम्भिक जीवन के बारे में कोई जानकारी नहीं है। कहा जाता है कि वे बनारस की एक विधवा ब्राह्मणी के पुत्र थे जिसने लोकलज्जा के भय से उन्हें नवजात अवस्था में एक तालाब के किनारे छोड़ दिया था जहाँ से नीरु नामक एक मुसलमान जुलाहा उठाकर ले गया और उसी ने अपने पुत्र की तरह उनका लालन-पालन किया था। उनके माता- पिता की तरह उनके जन्म की तिथि के बारे में विद्वानों में मतभेद है। लेकिन अधिकांश विद्वानों का मानना है कि उनका जन्म 1440 के आस- पास हुआ।

         कबीर बचपन से ही विचारशील प्रकृति के थे। बड़े होने पर वे प्रसिद्ध वैष्णव संत रामानन्द के शिष्य बन गये थे और रामानन्द के सबसे बड़े क्रान्तिकारी शिष्य माने जाते थे। कबीर अपने गुरु से भी कहीं आगे बढ़ गये थे। अपने प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा जिसको वह अनुमान कहते हैं उन्होंने मानव-जीवन के रहस्य की थाह ले ली और उस दैवी ज्योति के दर्शन कर लिए जो शान्ति की द्योतक है। उन्होंने निःसंकोच रूढ़ियों का परित्याग किया क्योंकि रूढ़ियों से ही अज्ञान और अन्धविश्वास की उत्पत्ति होती है। रूढ़िवाद ही संकुचित दृष्टिकोण का और साम्प्रदायिक झगड़ों का मूल कारण है। कबीर आडम्बर से दूर रहते थे। जो हिन्दू और मुसलमान परिपाटियों में दोष आ गये थे, कबीर द्वारा उनकी निर्भीक होकर आलोचना की गयी थी। वे न तो जाति-प्रथा को मानते थे और न हिन्दुओं के छः दर्शनों को मान्यता देते थे। न वे वेदों में वर्णित चार आश्रमों को ही मानते थे। उनकी धारण थी कि बिना भक्ति के धर्म में कोई सार नहीं है और बिना आत्मा की शुद्धि के परम तत्त्व का ज्ञान नहीं हो सकता। वह जितना भजन पर बल देते थे उतना उपवास और दान तथा वैराग्य पर नहीं देते थे।

         डॉ. रामकुमार वर्मा ने एक ग्रंथ की रचना की है जिसका नाम कबीर का रहस्यवाद है। इस ग्रंथ में उन्होंने यह प्रमाणित करने का प्रयास किया है कि कबीर यौगिक क्रियाओं से परिचित थे और उनको योग का यथेष्ट ज्ञान भी था।

           कबीर का उद्देश्य था कि प्रेम-प्रभावित मत का प्रचार जिसके द्वारा विभिन्न मत मतान्तरों को एक किया जा सके। उन्होंने इस्लाम तथा हिन्दू धर्म के उन पक्षों को, जो आध्यात्मिक विकास में योग नहीं देते थे, अमान्य कर दिया और दोनों धर्मों के समान एवं मौलिक तथ्यों को चुनकर अपने दार्शनिक विचारों का प्रतिपादन किया। उन्होंने अपनी रचनाओं में संस्कृत एवं फारसी भाषाओं के शब्दों का निःसंकोच प्रयोग किया और हिन्दी भाषा के माध्यम से अपने विचारों को प्रस्तुत किया। उन्होंने जान-बूझकर हिन्दु-मुस्लिम धर्मों के भेद का परित्याग करके उनकी एकता पर बल दिया।

             कबीर ने अपनी एक साखी में कहा है कि, ‘हिन्दू मंदिर में जाता है और मुसलमान मस्जिद में जाता है पर कबीर एक ऐसे स्थान पर जाता है जहाँ कि दोनों ही विद्यमान हैं। दोनों धर्म एक ही वृक्ष की दो शाखाओं के समान हैं जिनके बीच में एक अंकुर है जो दोनों से श्रेष्ठ है। कबीर ने दोनों की प्रथाओं को छोड़कर एक उत्तम मार्ग अपनाया है। अगर तुम कहो कि मैं हिन्दू हूँ तो यह सत्य नहीं, और यह भी सत्य नहीं कि मैं मुसलमान हूँ।’

            कबीर यद्यपि योगी थे किन्तु संन्यास में उनका विश्वास न था। वह गृहस्थ जीवन में रहकर ही परमतत्त्व की प्राप्ति के सिद्धांत के समर्थक थे। कबीर अनपढ़ थे, लेकिन उन्होंने बहुत से पदों की रचना की थी। इन पदों में उनके उपदेश निहित हैं जिनका संकलन करके प्रकाशन किया जा चुका है। खास ग्रन्थ नामक ग्रंथ का संकलन उनके अनेक शिष्यों ने मिलकर किया था। यह ग्रंथ बनारस के कबीर चौरा में रखा हुआ है।’ मागोदास नामक उनके एक शिष्य ने बीजक को ग्रंथ के रूप में संकलित किया था। मागोदास के अतिरिक्त कबीर के अन्य महत्त्वपूर्ण शिष्य गोपालदास, भगवानदास और धर्मदास थे।

        कबीर प्रथम श्रेणी के भक्त थे लेकिन सही अर्थों में दार्शनिक नहीं थे। कबीर की विचारधारा में हमें एक अलग ही बात दिखाई पड़ती है और वह है उनका विशुद्ध अद्वैतवाद तथा निर्गुण ईश्वर में परम विश्वास। वह ईश्वर को कोई नाम नहीं देना चाहते थे, लेकिन अगर नाम देना ही पड़े तो वे उसे राम कहते थे। उन्होंने मोक्ष प्राप्ति के लिए गुरु की आवश्यकता पर जोर दिया। कबीर निःसन्देह भक्ति आन्दोलन के एक महान संत थे। उन्होंने अपने विचारों से भक्ति को एक महत्वपूर्ण मोड़ दे दिया था। निर्गुण भक्ति विशेष रूप से अद्वैतवाद पर आधारित है और अद्वैत एक ऐसा गूढ़ तत्त्व है जो कि साधारण मनुष्य की बुद्धि एवं कल्पना के परे है। किन्तु कबीर ने निर्गुण भक्ति को अत्यन्त सरल और आकर्षणपूर्ण बना दिया। उन्होंने सगुण भक्ति की शब्दावली का निर्गुण भक्ति सम्बन्धी मूल तत्त्वों के प्रसंग में प्रयोग करके उन्होंने उसका संदेश अशिक्षित एवं शिक्षित-दोनों वर्गों तक समान रूप से पहुँचा दिया। उनका राम तो है परन्तु दशरथ पुत्र नहीं है। इसी प्रकार उन्होंने अन्य देवताओं की भी निर्गुण शैली में व्याख्या की है।

          कबीर के उपदेशों का जनसाधारण पर गहरा प्रभाव पड़ा। हिन्दुओं में निम्न जातियों के लोगों ने विशेष रूप से उनके उपदेशों का स्वागत किया और उनमें से बहुत ने उन्हें अपना गुरु मान लिया। कबीर के उपदेशों का जनसाधारण पर गहरा प्रभाव पड़ा। हिन्दुओं में निम्न जातियों के लोगों ने विशेष रूप से उनके उपदेशों का स्वागत किया और उनमें से बहुत ने उन्हें अपना गुरु मान लिया। कबीर की कुछ उक्तियाँ जनसाधारण में बड़ी लोकप्रिय हुई।

नानक

        कबीर के बाद नानक एक दूसरे प्रमुख निर्गुण संत थे। नानक का जन्म 1469 ई. में एक खत्री परिवार में तलवण्डी में हुआ था जो अब ननकाना के नाम से जाना जाता है तथा पाकिस्तान में शेखूपुरा जिले में है। कबीर की तरह नानक भी गृहस्थ जीवन को आध्यात्मिक उन्नति के बीच बाधक नहीं मानते थे। इसलिए उन्होंने गृहस्थ जीवन का परित्याग नहीं किया और उनके परिवार में उनकी पत्नी और दो पुत्र थे। उनके एक पुत्र का नाम श्रीचन्द और दूसरे का नाम लक्ष्मीचन्द था। गृहस्थ जीवन का पालन करते हुए भी वे अपना सारा समय साधना, उपदेशों और मानव सुधार के कार्यों में लगाते थे। उन्होंने बहुत से प्रेरणादायक पदों और गीतों की रचना की जिन्हें बाद में सिक्खों के पाँचवें गुरु अर्जुन ने एक ग्रंथ के रूप में संकलित कर दिया जो गुरु ग्रंथ साहिब के नाम से जाना जाता है।

         कबीर के विपरीत नानक एक सुशिक्षित व्यक्ति थे। उन्होंने अपनी मातृभाषा पंजाबी के अतिरिक्त फारसी और हिन्दी का भी अध्ययन किया था। गाथाओं के अनुसार नानक ने भारत के प्रमुख तीर्थ स्थानों की तो यात्रा की ही थी इसके अलावा अपने जीवन के अंतिम 40 वर्षों में उन्होंने कई देशों, जैसे लंका, ईरान और अरब का भी दौरा किया था। इस दौरान वे विभिन्न सम्प्रदायों के संतों के सम्पर्क में आये जिनसे उन्होंने अध्यात्म के विभिन्न पहलुओं को समझने का प्रयास किया।

        कबीर की तरह नानक भी वेदों और कुरान को नहीं मानते थे तथा कबीर की भाँति ही उन्होंने हिन्दू और मुसलमानों में प्रचलित अन्धविश्वासों और आडम्बरों की कटु आलोचना की तथा पंडित और मुल्ला दोनों को समान रूप से फटकारा। उनका उद्देश्य था- हिन्दू- मुस्लिम एकता की स्थापना करना। अतः उन्होंने हिन्दू और मुसलमान और यहाँ तक कि अछूतों को भी अपना शिष्य बनाया था।

         नानक एक निराकार ब्रह्म में आस्था रखते थे। उनका मानना था कि ईश्वर के प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण कर उसका नाम जपने से मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर सकता है। वे मुक्ति को ही मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य समझते थे। मुक्ति मिलने से यह तात्पर्य है कि आत्मा का अलग अस्तित्व समाप्त हो जाता है और परमात्मा में लीन हो जाती है। नानक के उपदेशों में नैतिकता, नम्रता, सत्य, दान और दया को प्रमुख स्थान प्राप्त था। नानक कर्म और पुनर्जन्म में भी विश्वास रखते थे। नानक के शिष्यों ने धीरे-धीरे एक अलग सम्प्रदाय का रूप ग्रहण कर लिया था और कालान्तर में वह सिक्ख धर्म के रूप में परिवर्तित हो गया था।

 वल्लभाचार्य

           वल्लभाचार्य वैष्णव सम्प्रदाय की कृष्ण-भक्ति शाखा के महान संत थे। उनके पिता का नाम लक्ष्मण भट्ट था जो तेलंगाना के निवासी थे। वल्लभाचार्य का जन्म 1479 ई. में बनारस में उस समय हुआ जब उनके माता-पिता तीर्थयात्रा के लिए बनारस आये थे। वल्लभाचार्य जब केवल 11 वर्ष के थे तभी उनके माता-पिता की मृत्यु हो गयी थी। वे बड़े ही बुद्धिमान और प्रतिभाशाली बालक थे। बताया जाता है कि वे बालक ही थे तभी उन्होंने चारों वेद, छह शास्त्र और 18 पुराणों पर अधिकार प्राप्त कर लिया था। माता-पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने अपना सारा समय अध्ययन और साधना में लगाया। उन्होंने कई बार सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया था। अपनी शिक्षा-दीक्षा पूर्ण हो जाने पर वे तेलंगाना लौट आये और कुछ समय के लिए विजयनगर के महान शासक कृष्णदेवराय के दरबार में रहे। उसके बाद उन्होंने उत्तरी भारत में वृन्दावन को अपना स्थायी निवास स्थान बना लिया। यहीं उन्होंने 1520 ई. से कृष्णभक्ति पर उपदेश देना प्रारम्भ किया। कबीर और नानक की तरह वे भी गृहस्थ जीवन को आध्यात्मिक उन्नति के लिए बाधक नहीं मानते थे। अतः उन्होंने महालक्ष्मी नामक बनारस की एक कन्या से विवाह किया था जिससे उनके अनेक पुत्र पैदा हुए थे। गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए भी उन्होंने अपने बौद्धिक और आध्यात्मिक कृत्य नहीं छोड़े। उनकी मृत्यु 1531 ई. में 52 वर्ष की आयु में काशी में हुई।

         वल्लभाचार्य भगवान श्रीकृष्ण के उपासक थे और वे कृष्ण की श्रीनाथजी के नाम से उपासना करते थे। वे श्रीकृष्ण को परमब्रह्म, पुरुषोत्तम और परमानन्द के रूप में मानते थे। उनके अनुसार परमब्रह्म को हार्दिक भक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है। परन्तु इस भक्ति में ईश्वर के प्रति ऐसा प्रेम और लगाव होना चाहिए कि भक्त स्वयं को विस्मृत कर दे। उन्होंने शुद्धाद्वैतवाद के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। उनका मानना था कि ब्रह्म सर्वशक्तिमान है। वह सांसारिक गुणो से रहित है। उसने स्वयं से ही इस जगत की उत्पत्ति की है जो अंत में उसमें ही लीन हो जाता है। ब्रह्मा का प्रत्यक्ष रूप ही जगत है, जो आत्मा और तत्व से बना है और जो सत्य है। वल्लभाचार्य ने आत्मा और जगत की ईश्वर के साथ एकता पर बल दिया है।

         वल्लभाचार्य के उपदेशों में एक भावनात्मक प्रेरणा थी जिसके फलस्वरूप उनके अनेक अनुयायी बन गये थे जिनमें 84 को उनके प्रिय शिष्य माना जाता है। वल्लभाचार्य ने ब्रज प्रदेश, राजस्थान और गुजरात में भक्ति आन्दोलन को काफी लोकप्रिय बनाया। वल्लभाचार्य के बाद उनके द्वितीय पुत्र विठ्ठलनाथ (1516-1576 ई.) ने भी वैष्णव धर्म की कृष्णभक्ति शाखा के धर्मगुरु के रूप में काफी प्रसिद्धि प्राप्त की। मुगल सम्राट अकबर उनकी विद्वता और सन्त स्वभाव से इनता प्रभावित हुआ था कि उसने उनकी गायों को सरकारी भूमि में भी बिना किसी कर या बाधा के चराने की अनुमति दे दी थी तथा उन्हें जतीपुरा का गाँव भी कर-मुक्त कर प्रदान कर दिया था।

चैतन्य

       चैतन्य की गिनती भक्ति आन्दोलन के महान संतों में की जाती है। वह वैष्णव सम्प्रदाय की कृष्ण भक्ति शाखा के एक अन्य प्रसिद्ध संत थे। उनका जन्म 1486 ई. में बंगाल प्रान्त के अन्तर्गत नदिया में हुआ था। उनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र था जो बड़ी ही धार्मिक प्रकृति के विद्वान पुरुष थे। उनकी माता सची भी स्वभाव से बड़ी धार्मिक और पवित्र आचरण की थी। चैतन्य के बचपन का नाम विश्वम्भर और विश्वम्भर के माता-पिता उन्हें बहुत प्रेम करते थे। वे उन्हें प्यार से गौरांग कहा करते थे क्योंकि चैतन्य बहुत ही सुन्दर और गौर वर्ण के थे। विश्वम्भर अत्यन्त ही प्रतिभाशाली छात्र थे। कहा जाता है कि उनहोंने केवल 15 वर्ष की अल्पायु में ही संस्कृत भाषा और साहित्य तथा व्याकरण और तर्कशास्त्र पर पूर्ण अधिकार प्राप्त कर लिया था। बाईस वर्ष की अवस्था में उन्होंने ईश्वरपुरी नामक एक सन्त पुरुष से दीक्षा ले ली। अपने इस गुरु से वे इतने प्रभावित हुए कि वे कृष्ण के परम भक्त बन गये और सदैव उनके नाम का कीर्तन करने लगे। कृष्ण भक्ति के आवेश में वह कभी-कभी मूच्छित और समाधिस्थ हो जाते थे। उनके इस व्यवहार से पहले लोगों ने यह समझा कि वे सम्भवतः विक्षिस हो गये हैं, लेकिन शीघ्र ही यह स्पष्ट हो गया कि विश्वम्भर के इस असाधारण व्यवहार का कारण उनकी कृष्ण भक्ति ही है। अन्त में 1510 ई. में वे संन्यासी हो गये और उन्होंने अपना नाम बदलकर चैतन्य रख लिया। चैतन्य ने पण्ढरपुर, सोमनाथ, द्वारका, मथुरा, वृन्दावन और देश के अन्य अनेक भागों की यात्रा की और अन्त में स्थायी रूप से पुरी में ही बस गये और वहीं 1533 ई. में उनकी मृत्यु हो गयी। चैतन्य ने ईश्वर पर जिसको वह कृष्ण या हरि के नाम से पुकारते थे, पूर्ण आस्था रखने का उपदेश दिया। चैतन्य का धार्मिक रीति-रिवाजों और आडम्बरों में कोई विश्वास नहीं था। चैतन्य के उपदेशों का सार संक्षेप में इस प्रकार है, ‘अगर कोई जीवन कृष्ण पर श्रद्धा रखता है और अपने गुरु की सेवा करता है तो वह मायाजाल से मुक्त होकर कृष्ण के चरणों को प्राप्त होता है।’ उनका मानना था कि श्रद्धा और भक्ति तथा कीर्तन और नृत्य द्वारा ऐसी भावावेशमयी स्थिति उत्पन्न की जा सकती है, जिसमें परमात्मा से साक्षात्कार हो सकता है। उन्होंने आंतरिक और आध्यात्मिक रूप से ऐसे साक्षात्कार पर बड़ा जोर दिया। लेकिन उनके अनुसार यह साक्षात्कार केवल गुरु की सहायता से हो सम्भव हो सकता था। वे पुरोहितों के नियंत्रण और बाह्य धार्मिक आडम्बरो के विरुद्ध थे।

        चैतन्य ने बिना जाति और धर्म का भेदभाव किये सभी को उपदेश दिये। अपने अनुयायियों पर चैतन्य का प्रभाव इतना गहरा था कि वे उन्हें कृष्ण का ही रूप मानने लगे थे। यद्यपि चैतन्य के अनुयायियों की संख्या बहुत बड़ी थी किन्तु ऐसा लगता है कि सम्भ्वतः उन्होंने उन्हें एक सम्प्रदाय के रूप में संगठित नहीं किया था। उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके अनुयायियों ने ही स्वयं को एक सम्प्रदाय के रूप में संगठित कर लिया था। उनके 6 मुख्य अनुयायियों को वृन्दावन के 6 गोस्वामिय के रूप में जाना जाता है और यह माना जाता है कि इन्हीं 6 गोस्वामियों ने चैतन्य सम्प्रदाय के धार्मिक सिद्धान्तों और रीति-रिवाजों को सुविस्तार और सुव्यवस्थित किया था। वृन्दावन के गोस्वामी चैतन्य को ही अपने प्रेरणा का प्रमुख स्रोत तथा कृष्ण भक्ति में अपना प्रमुख पथ-प्रदर्शन मानते थे। लेकिन नदिया या नवद्वीप में रहने वाले चैतन्य के शिष्य उन्हें ही कृष्ण समझने लगे थे तथा उनमें ही राधा और कृष्ण का संयुक्त रूप मानने लगे थे और उनकी गौरंग महाप्रभु के रूप में पूजा होने लगी थी।

         चैतन्य के उपदेशों और उनकी विचारधारा को न केवल बंगाल और उड़ीसा में बल्कि देश के अन्य भागों में भी बड़ी लोकप्रियता प्राप्त हुई। बंगाल और उड़ीसा में निस्सन्देह वैष्णव धर्म को लोकप्रिय बनाने में चैतन्य की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव (मध्यकालीन भारतीय संस्कृति) लिखते हैं, ‘उन्होंने जो उपदेश दिये, वे सीधे जनता के हृदय में उतर गये। पीड़ित मानवता को उनका परमात्मा के प्रति प्रेम का सन्देश मरहम-सा लगा, और इसने सिद्ध कर दिया कि मानव हृदय राजनीतिक और सामाजिक विषमताओं के बीच भी ऊँचा उठ सकता है। इसने जीवन को स्फूर्ति, साहित्य को रचनात्मक शक्ति और मानव सम्बन्धों की पवित्रता प्रदान की।’

नामदेव

      नामदेव मध्यकाल में महाराष्ट्र के भक्ति आन्दोलन के सबसे महान संत थे। वे जाति से दर्जी थे और पन्द्रहवीं सदी के प्रथम में हुए थे। उन्होंने हिन्दू समाज में प्रचलित जाति-पाँति और रीति-रिवाजों का खण्डन किया और बिना किसी जाति और धर्म के भेदभाव के सभी जाति और धर्म के लोगों को अपना शिष्य बनाया। उनके कुछ मुसलमान शिष्य भी थे जो बाद में धर्म-परिवर्तन कर हिन्दू बन गये थे। अपने समकालीन भक्ति संतों की भाँति नामदेव भी एक ईश्वर में आस्था रखते थे और मूर्ति पूजा तथा धार्मिक कर्मकाण्डों के विरुद्ध थे। उनका मानना था कि भगवत् प्रेम और भक्ति के द्वारा ही मोक्ष प्राप्त की जा सकती है।

मीराँ

        मीराँ जिसकी गिनती मध्यकालीन भारत के महान संतों में की जाती है का जन्म 1498 ई. के लगभग कुड़की (पाली) नामक गाँव में हुआ था। यह गाँव नागौर जिले के मेड़ता से लगभग 11 मील दूर पाली में स्थित है। इनके पिता का नाम रतनसिंह था जो मेड़ता के शासक राव दूदाजी के द्वितीय पुत्र थे। मीराँ बचपन से ही बड़ी धर्मालु थीं। उनके पिता रतन सिंह, दादा राव दूदाजी एवं उनकी दादी सभी कृष्ण के भक्त थे, अतः इसका मीराँ पर गहरा प्रभाव पड़ा था और उनकी आस्था भी कृष्णभक्ति में हो गयी थी। मीराँ का विवाह 1516 ई. में मेवाड के शासक महाराणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज के साथ हुआ। किन्तु मीराँ का वैवाहिक जीवन अधिक लम्बा नहीं चला और सम्भवतः 1523 ई. में ही उनके पति की मृत्यु हो गयी और इस प्रकार मीराँ पति-सुख से अल्पकाल में ही वंचित हो गयी। इसके पश्चात् मीराँ का सांसारिक जीवन से विरक्ति हो गयी और वह अपना अधिकांश समय कृष्ण भक्ति तथा साधु-सन्तों के साथ सत्संग में व्यतीत करने लगी। अपनी कृष्णभक्ति और भक्तों की आश्रयदाता के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी और साधु-सन्तों तथा अनेक स्त्री-पुरुष दूर-दूर से चित्तौड़ आने लगे। मीराँ के पति भोजराज के छोटे भाई और मेवाड़ के तत्कालीन महाराणा विक्रमादित्य को सिसोदिया वंश की बहू मीराँ का साधु-सन्तों तथा अन्य लोगों के साथ चाहे वे कितने ही भक्त क्यों न हो, इस प्रकार स्वछन्दता पूर्वक मिलना-जुलना पसन्द नहीं आया और उन्होंने इसका विरोध किया। लेकिन जब विरोध का मीराँ पर कोई असर नहीं हुआ तो बताया जाता है कि उन्होंने मीराँ को विष देकर उनसे मुक्ति प्राप्त करने का प्रयत्न किया। लेकिन सौभाग्य से मीराँ पर विष का कोई प्रभाव नहीं हुआ। इस घटना से विक्षुब्ध होकर तथा राणा से तनाव उत्पन्न हो जाने के कारण मीराँ मेवाड़ छोड़कर अपने चाचा वीरमदेव के पास मेड़ता चली गयी। वीरमदेव मेड़ता के सरदार थे। मेड़ता में भी मीराँ का अधिकांश समय तपस्या, कीर्तन और नृत्य में व्यतीत होने लगा। लेकिन जब जोधपुर के शासक राव मालदेव ने मेड़ता पर आक्रमण कर उसे जीत लिया तो मीराँ मेड़ता से पहले मथुरा और मथुरा से अंत में द्वारका चली गयी। उन्होंने अपना शेष जीवन द्वारका में ही कृष्ण की भक्ति में व्यतीत किया तथा वहीं 1547 ई. में इनकी मृत्यु हो गयी।

       मीराँ मध्यकालीन भारत की एक महान संत थीं। उनकी कृष्ण की भक्ति में गहरी आस्था थी। उनकी भक्ति में किसी प्रकार के आडम्बरपूर्ण पूजापाठ, रूढ़ियों और बाह्य उपकरणों के लिए कोई स्थान न था। कृष्ण की भक्ति का सरल एवं सरस मार्ग ही उन्होंने अपनाया। उनकी समस्त चेतना केवल एक ही बिन्दु पर केन्द्रित थी जो कृष्ण के भक्ति-भाव से ओत-प्रोत थी। उन्हें अपने जीवन के हर कार्य में कृष्ण के सामने होने की अनुभूति होती रहती थी। अपने आराध्य देव को वह गिरधर के नाम से पुकारती थी। गिरधर के अतिरिक्त मीराँ के लिए इस लौकिक और पारलौकिक संसार में कुछ भी नहीं था।

       मीराँ की दृष्टि में माता-पिता, भाई-बन्धु, समस्त सांसारिक वैभव, राजपाट आदि मिथ्या हैं। यदि कोई सत्य है तो केवल गिरधर गोपाल जो भवसागर के पार उतारने वाले खेवनहार हैं। मीराँ की मान्यता थी कि संसार का परित्याग कर देने से व ईश्वर के प्रति पूर्ण आत्म-समर्पण कर देने से ही ईश्वर की प्राप्ति सम्भव है।

        मीराँ के द्वारा कृष्ण की भक्ति में अनेक पदों की रचना की गयी थी। मीराँ की प्रसिद्धि मुख्य रूप से उनके भजनों के कारण ही है जो राजस्थानी और ब्रजभाषा में रचे गये हैं। मीराँ के सभी पद कृष्ण के प्रति असीम प्रेम और भक्ति भावना से ओत-प्रोत हैं। उनके सभी पद कृष्ण को सम्बोधित कर लिखे गये हैं। वे इतने मधुर हैं कि सुनने के साथ ही विरह, प्रेम और भक्ति की कोमल भावनाएँ उठ आती हैं। प्रसिद्ध हिन्दी कवयित्री महादेवी वर्मा ने मीराँ के पदों के बारे में लिखा है कि मीराँ के पद विश्व भक्ति साहित्य के अमूल्य रत्न हैं। महाकवि निराला ने तो मीराँ को गीत शैली के काव्य की देवी ही माना है।

दादू

      16 वीं शताब्दी में दादू भी भक्ति आन्दोलन के एक महान् संत हुए। इनका जन्म 1544 ई. में अहमदाबाद में हुआ था। उनकी जाति के विषय में विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत मिलते हैं। दादू पंथी उनकी कुछ भी जाति न बताकर यह मानते हैं कि उनका पालन-पोषण लोदीराम नामक नागर ब्राह्मण द्वारा किया गया था। उनके बारे में यह प्रसिद्ध है कि जब दादू दयाल एक शिशु के रूप में साबरमती नदी में बह रहे थे तब लोदीराम नामक ब्राह्मण ने इन्हें बचा लिया और उनका पालन- पोषण किया। दादू के गुरु का नाम ब्रह्मानन्द था। उन्हीं से उन्होंने दीक्षा ली। इसके बाद उन्होंने अनेक स्थानों का भ्रमण किया जिनमें सिरोही, सांभर, अजमेर, आमेर आदि प्रमुख थे। अंत में 1602 ई. में वे नरायणा में जाकर रहने लगे। नरायणा जयपुर से 41 मील पश्चिम में जयपुर-अजमेर रेलवे लाइन पर स्थित है। यहीं 1603 ई. में उनकी मृत्यु हो गयी।

         दादू के द्वारा स्थापित पंथ दादू पंथ के नाम से जाना जाता है। दादू के अनेक शिष्य हुए किन्तु 52 शिष्य मुख्य माने जाते हैं। दादू के ये 52 शिष्य बावन थाम्बे (स्तभ) कहलाते हैं। इन शिष्यों में भी सुन्दरदास जी और रज्जब जी विशेष उल्लेखनीय हैं। दादू पंथ की प्रधान गद्दी नरायणा मानी जाती है।

      दादू के विचार दादू दयाल री वाणी तथा दादू दयाल रा दूहा नामक ग्रंथों में सुरक्षित हैं जिनका उनके शिष्यों द्वारा संकलन किया गया है। इन ग्रंथों के अध्ययन से हमें दादू के विचार और सिद्धांतों की जानकारी प्राप्त हो जाती है। कबीर की तरह दादू भी ब्रह्म को परब्रह्म, स्वयंभू, परम ज्योतिरूप और निराकार मानते हैं। उनका मानना है कि ईश्वर अत्यंत दयालु है और वह सर्वत्र समाया हुआ है। उनके अनुसार जीव वस्तुतः ब्रह्म का ही एक रूप है किन्तु माया में संलग्न होने के कारण वह ब्रह्म से अत्यन्त दूर एवं पृथक् हो गया है। किन्तु जीव जब माया के आवरण से मुक्त हो जाता है तब वह ब्रह्म में लीन हो जाता है। दादू ने भी कबीर की भाँति गुरु की महिमा पर बड़ा बल दिया है। उनके अनुसार उस निराकार एवं सर्वव्यापी ब्रह्म को प्राप्त करने के लिए गुरु ही मार्गदर्शक होता है और वही अपनी ज्ञानरूपी नौका द्वारा शिष्य को भवसागर से पार उतारता है।

सूरदास

       सूरदास हिन्दी के एक महान् कवि और भक्त थे। वे सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तथा सत्रहवीं शताब्दी के प्रथम चतुर्थी में हुए थे। किन्तु सूरदास के जीवन की मुख्य मुख्य घटनाओं की बहुत ही कम जानकारी उपलब्ध है। यहाँ तक कि उनके जन्म और मृत्यु की तिथियों का भी पता नहीं है। कुछ विद्वानों का मानना है कि अकबर के दरबारी इतिहासकार अबुल फजल द्वारा अपने ग्रंथ ‘अकबरनामा’ में अकबर के समय में आगरा के जिस अन्ध भाट कवि का उल्लेख किया गया है वह सूरदास ही थे।

       सूरदास की तीन रचनाएँ बहुत ही लोकप्रिय हैं। ये हैं- सूरसारावली साहित्य, लहरी और सूरसागर। कहा जाता है कि सूरसागर में 1,25,000 पद थे। सूरदास ने यद्यपि अपनी रचनाओं के विषय भागवत पुराण से लिये थे लेकिन उन्होंने जो कुछ लिखा है वह केवल मात्र भागवत पुराण का ही अनुवाद नहीं है बल्कि वह पूर्णरूपेण एक मौलिक रचना है। सूरसागर न केवल प्रेम और भक्ति से ओत-प्रोत रचना है बल्कि वह कृष्ण के बाल-चित्रण के लिए भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। सूरदास ने इसमें निष्ठावान भक्त की भगवद् भक्ति के साथ ही बाल- मनोविज्ञान का श्रेष्ठतम ज्ञान प्रदर्शित किया है। सूर के ग्रंथों और पदों ने लोगों को बहुत प्रभावित किया है और ईश्वर की भक्ति के मार्ग पर उन्हें अग्रसर किया है।

तुलसीदास

         सूरदास की भाँति तुलसीदास भी हिन्दी के एक महान कवि और भक्त थे। उनका जन्म 1532 ई. में एक सरयूपारी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम आत्माराम दुबे और माता का नाम हुलसी माना जाता है कि उन्होंने अपनी पत्नी रत्नावली के व्यंग्य के कारण संन्यास ले लिया था। उन्होंने अपने सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ रामचरितमानस की रचना 1574 ई. प्रारम्भ की थी और उसे 1577 ई. में पूर्ण का लिया था। इसके अतिरिक्त उन्होंने कई और ग्रंथों की रचना की जिनमें मुख्य गीतावली, कवितावली, विनय-पत्रिका आदि हैं।

      रामचरितमानस तुलसीदास का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। सर जॉर्ज ग्रियर्सन और वी.ए. स्मिथ जैसे आधुनिक विद्वानों ने रामचरितमानस की एक ऐसी सुन्दर कलाकृति और रचना के रूप में भूरि-भूरि प्रशंसा की है, जिसने कि सारे उत्तरी भारत में लाखों हिन्दुओं के धार्मिक विचारों और चरित्र को गढ़ा है। वे रामायण को हिन्दू धर्म की बाइबिल मानते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होने के साथ-साथ रामचरितमानस सामाजिक और नैतिक दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। इसमें तुलसीदास द्वारा राम को मनुष्य का रूप देकर उनसे शिव की आराधना करवायी गयी है यद्यपि तुलसीदास ने बार-बार यह भी कहा है कि राम सदा शिव के हृदय में निवास करते हैं। इस प्रकार उन्होंने शैव और वैष्णव सम्प्रदायों को संयुक्त कर दिया है। इसके अलावा उन्होंने विभिन्न वर्गों के कर्त्तव्यों का भी विश्लेषण कर दिया है। उनकी दृष्टि में राम केवल अवतार ही न थे बल्कि वह युगपुरुष के आदर्श भी थे। ब्रह्मस्वरूप होते हुए भी तुलसी के राम मानव-जीवन के दुःख-सुख को भोग करते हैं, संतों की रक्षा करते हैं और दुष्टों का दमन करते हैं। तुलसीदास एक आदर्श पुरुष का जीवन चित्रित करना चाहते थे और राम के माध्यम से इस उद्देश्य की पूर्ति में उन्हें अद्वितीय सफलता प्राप्त भी हो गई। सगुण भक्ति के मूल तत्त्वों का उन्होंने स्वाभाविक रूप प्रदर्शित किया है। उनकी यह धारणा है कि कलयुग में मोक्ष का केवल एक ही साधन है और वह है ‘राम नाम का जप और राम की शरणागति’। तुलसीदास ने पूर्ण चतुरता से अपने रूढ़िवादी विचारों पर प्रगतिवाद का आवरण डाल दिया है। इस प्रकार रामचरितमानस और अपने स्वयं के जीवन के उदाहरण द्वारा तुलसीदास ने भक्ति आन्दोलन के उत्थान और विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्होंने यद्यपि किसी अलग सम्प्रदाय की स्थापना नहीं की थी किन्तु फिर भी उन्हें आज भी महान वैष्णव संत और आचार्य माना जाता है।

महाराष्ट्र में भक्ति आन्दोलन

        मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के विकास तथा लोकप्रियता में महाराष्ट्र के सन्तों का महत्वपूर्ण योगदान है। महाराष्ट्र में भक्ति पंथ पण्ढरपुर के मुख्य देवता बिठोवा या बिट्ठल के मंदिर के चारों ओर केन्द्रित था, बिट्ठल या बिठोवा को कृष्ण का अवतार माना जाता था। इसलिए यह आन्दोलन पाण्ढरपुर आन्दोलन के रूप में प्रसिद्ध है। महाराष्ट्र के भक्ति आन्दोलन मुख्यरूप से दो सम्प्रदायों में विभक्त था। रहस्यवादियों का प्रथम सम्प्रदाय बारकरी अर्थात् पण्ढरपुर के बिट्ठल भगवान के सौम्य भक्तों के रूप में तथा दूसरा सम्प्रदाय धरकरी सम्प्रदाय या भगवान राम के भक्त। इस सम्प्रदाय (धरैकरी) के अनुयायी स्वयं को रामदास अविहित करते हैं। बिठोवा पंथ के तीन महान गुरु ज्ञानेश्वर या ज्ञानदेव, नामदेव तथा तुकाराम है। रामदास को छोड़कर महाराष्ट्र के सभी संतों के जीवन की अन्य महत्वपूर्ण घटनाओं तथा जन्मतिथियों का केवल अनुमान लगाया जा सकता है। निवृत्तिनाथ तथा ज्ञानेश्वर महाराष्ट्र में रहस्यवादी सम्प्रदाय के संस्थापक थे। यह सम्प्रदाय आगे चलकर विकसित हुआ तथा नामदेव, एकनाथ और तुकाराम के हाथों इसने विभिन्न रूप धारण किये।

ज्ञानेश्वर या ज्ञानदेव

       महाराष्ट्र के प्रारम्भिक भक्त सन्त ज्ञानेश्वर का अभ्युदय 13वीं शताब्दी में हुआ था। इन्होंने मराठी भाषा में भगवत्गीता पर ज्ञानेश्वरी नामक टीका (समीक्षा) लिखी जिसकी गणना संसार की सर्वोत्तम रहस्यवादी रचनाओं में की जाती है। इन्होंने मराठी भाषा में अपने विचार और आदर्शों को व्यक्त किया। इनकी अन्य रचनाएँ हैं – अम्रतानुभव तथा चंगदेव प्रशस्ति।

नामदेव

       नामदेव का जन्म एक दर्जी के परिवार में हुआ था। अपने प्रारम्भिक जीवन में ये डाकू थे। पण्ढरपुर के बिठोबा के परम भक्त थे। बारकरी सम्प्रदाय के रूप में प्रसिद्ध विचारधारा की गौरवशाली परम्परा की स्थापना में इनकी मुख्य भूमिका रही। इनके कुछ गीतात्मक पद्य गुरु ग्रन्थ साहिब में संकलित है। इन्होंने कुछ भक्ति परक मराठी गीतों की रचना की, जो अभंगों के रूप में प्रसिद्ध है। नामदेव ने दूर- दूर तक यात्रा की और दिल्ली में सूफी सन्तों के वाद-विवाद में भी भाग लिया। नामदेव ने कहा था ‘एक पत्थर की पूजा होती है, तो दूसरे को पैरों तले रौंदा जाता है। यदि एक भगवान है, तो दूसरा भी भगवान है।’

एकनाथ

        इनका जन्म पैठण (औरंगाबाद) में हुआ था। इन्होंने जाति एवं धर्म में कोई भेदभाव नहीं किया। इनकी सहृदयता की कोई सीमा नहीं थी। इन्होंने प्रभु की पूजा के लिए काफी दूर से लाये गये गोदावरी के पवित्र जल को उस गधे के गले में उड़ेल दिया (पिला दिया) जो प्यास से मर रहा था। इन्होंने पहली बार ज्ञानेश्वरी का विश्वसनीय संस्करण प्रकाशित करवाया। ये बहुसर्जक लेखक थे और भगवत् गीता के चार श्लोकों पर लिखी गई इनकी टीका प्रसिद्ध है। प्रतिदिन कीर्तन (भक्ति गीत) गाना इनकी दिनचर्या थी।

तुकाराम

          जन्म से तुकाराम शूद्र थे और शिवाजी के समकालीन थे। इन्होंने शिवाजी द्वारा दिये गये विपुल उपहारों की भेंट को लेने से इन्कार कर दिया। इनकी शिक्षाएँ अभंगों के रूप में संगृहीत है, जिनकी संख्या हजारों में थी। तुकाराम ने हिन्दु-मुस्लिम एकता पर बल दिया तथा बारकरी पंथ की स्थापना की।

रामदास

        इनका जन्म 1608 ई. में हुआ था। इन्होंने बारह वर्षों तक पूरे भारत में भ्रमण किया तथा अन्ततः कृष्णा नदी के तट पर चफाल के पास बस गये जहाँ इन्होंने एक मंदिर की स्थापना की। ये शिवाजी के आध्यात्मिक गुरु थे। इन्होंने अपनी अति महत्त्वपूर्ण रचना दासबोध में आध्यात्मिक जीवन के समन्वयवादी सिद्धान्तों के साथ विविध विज्ञानों एवं कलाओं में अपने विस्तृत ज्ञान का संयुक्त रूप से प्रस्तुत किया है।

अन्य सन्त

शंकरदेव (1449-1568 ई.)

        ये मध्यकालीन असम के महानतम धार्मिक सुधारक थे। इनका सन्देश विष्णु या उनके अवतार कृष्ण के प्रति पूर्ण भक्ति पर केन्द्रित था। एकेश्वरवाद इनकी शिक्षाओं का सार है। इनके द्वरा स्थापित सम्प्रदाय एक शरण सम्प्रदाय के रूप में प्रसिद्ध है। इन्होंने सर्वोच्च देवता की महिला सहयोगियों जैसे लक्ष्मी, राधा, सीता आदि को मान्यता प्रदान नहीं की। शंकरदेव के सम्प्रदाय में भागवत पुराण या श्रीमद् भागवत को गुरुद्वारों में ग्रन्थ साहिब की भाँति इस सम्प्रदाय के मंदिरों की वेदी पर श्रद्धापूर्वक प्रतिष्ठित किया। शंकर मूर्तिपूजा एवं कर्मकाण्ड दोनों के विरोधी थे। ये अकेले कृष्ण मार्गी वैष्णव सन्त थे जो मूर्ति के रूप में कृष्ण की पूजा के विरोधी थे। इनके धर्म को सामान्यतः महापुरुषीय धर्म के रूप में जाना जाता है।

नरसी मेहता

        पन्द्रहवीं शताब्दी में नरसी या नरसिंह मेहता गुजरात के एक प्रसिद्ध सन्त थे। इन्होंने राधा और कृष्ण के प्रेम का चित्रण करते हुए गुजराती में गीतों की रचना की। ये गीत सुरत संग्राम में संकलित किये गये हैं। महात्मा गाँधी के प्रिय भजन वैष्णवजन तो तेनो कहिएके रचयिता नरसी मेहता थे।

भक्ति आन्दोलन के प्रमुख सिद्धान्त

         भक्ति आन्दोलन के सन्तों ने अपने जो उपर्युक्त विचार और सिद्धान्त जनता के सामने रखे थे वे यद्यपि एक जैसे नहीं थे किन्तु फिर भी उनके विचारों में मौलिक समानता विद्यमान थी। इन संतों की रचनाओं का अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है कि इनके निम्नलिखित सिद्धान्त एक जैसे थे-

(1) भक्ति आन्दोलन के सभी सन्त ईश्वर की एकता में दृढ़ विश्वास रखते थे। उनकी दृष्टि में ईश्वर, अल्लाह, राम, रहीम और विष्णु सब एक थे।

(2) भक्ति आन्दोलन के सभी सन्त ईश्वर की भक्ति को मुक्ति प्राप्त करने का सफल साधन समझते थे। उनकी भक्ति स्वार्थरहित और अनन्य श्रद्धा पर आधारित थी। रामानुज का मानना था कि सच्चे मन से ईश्वर की भक्ति करने वाला व्यक्ति जीवन-मरण के बन्धन से छूट जाता है।

(3) इन सन्तों का यह मानना था कि ईश्वर के सम्मुख पूर्ण रूप से आत्मसमर्पण किए बिना ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती।

(4) ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति के लिए सभी संत गुरु की सहायता को आवश्यक समझते थे।

(5) भक्ति आन्दोलन के सभी सन्त सामाजिक समानता के समर्थक और जाति प्रथा व छूआछूत के विरोधी थे। उन्होंने जाति प्रथा तथा वर्ग भेद का खण्डन किया और प्राणिमात्र की एकता पर बल दिया। वे जाति प्रथा को ईश्वरीय इच्छा के प्रतिकूल समझते थे और सब मनुष्यों को एक ही ईश्वर की सन्तान समझते थे जैसा कि रामानन्द का कहना था कि, ‘जात-पात पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि को होई।’

(6) ये संत मूर्ति पूजा के कट्टर विरोधी थे और मूर्ति पूजा को व्यर्थ समझते थे।

भक्ति आन्दोलन का प्रभाव

       भक्ति आन्दोलन एक जन-आन्दोलन था और तत्कालीन हिन्दू धर्म और समाज पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा जिसका उल्लेख हम निम्न प्रकार से कर सकते हैं-

(1) मुस्लिम विचारक, लेखक और धर्मशास्त्री तत्कालीन हिन्दू धर्म, उसके सामाजिक संगठन और रीति-रिवाजों के बड़े आलोचक थे। इसलिए हिन्दू समाज के मध्ययुगीन नेताओं और विशेषकर धार्मिक विचारकों एवं सुधारकों के लिए युग की स्थिति, वातावरण और माँगों की ओर ध्यान देना स्वाभाविक ही था। यही कारण था कि भक्ति आन्दोलन के सन्तों ने हिन्दू समाज में प्रचलित अन्धविश्वासों और कर्मकाण्डों पर से लोगों का विश्वास उठने लगा और हिन्दू धर्म का रूप स्वस्थ बनने लगा। साथ ही मूर्ति पूजा पर से भी लोगों का विश्वास उठने लगा।

(2) चूँकि भक्ति आन्दोलन के सभी सन्त जातिगत भेदभाव और ऊँच-नीच के विरोधी थे और उन्होंने जातीय एकता पर बल दिया तथा उन्होंने ऊँची और नीची सभी जातियों में से बिना भेदभाव के अपने शिष्य बनाये, इससे हिन्दुओं में उच्च जाति के लोगों ने अपने बहुत से दुराग्रह त्याग दिये और वे भक्ति सम्प्रदाय के सन्तों के इस सन्देश को मानने लगे कि ईश्वर की दृष्टि में सभी मनुष्य समान हैं और इन्हें जन्म के आधार पर ही मुक्ति पाने के अयोग्य नहीं माना जा सकता। इससे निम्न जाति के लोगों की सामाजिक एवं धार्मिक दशा में सुधार हुआ। भक्ति आन्दोलन द्वारा निम्न जाति के हिन्दुओं द्वारा जो इस्लाम धर्म ग्रहण किया जा रहा था उस पर रोक लगी।

( 3) भक्ति आन्दोलन से देश में एक नये वातावरण का निर्माण हुआ। मुसलमानों के धार्मिक अत्याचारों से पीड़ित हिन्दुओं के हृदयों को भक्ति की शीतल छाया ने बड़ी शान्ति पहुँचायी।

(4) भक्ति आन्दोलन और उसके सन्तों ने हिन्दू धर्म एवं संस्कृति को नष्ट होने से बचाया और यहाँ तक कि अभूतपूर्व राजनैतिक उथल-पुथल और अत्याचारों के वातावरण में भी हिन्दुत्व की ज्योति को जलाये रखा। भक्ति आन्दोलन ने हिन्दुओं में असीम उत्साह का संचार किया जिससे वे इस्लाम के धर्म-प्रचार तथा धर्म परिवर्तन से अपनी रक्षा कर सके।

(5) भक्ति आन्दोलन के कुछ सन्तों विशेष रूप से कबीर और नानक ने हिन्दू और इस्लाम दोनों धर्मों की एकता पर बल दिया तथा बिना किसी धार्मिक भेदभाव के हिन्दुओं के साथ-साथ मुसलमानों को भी अपना शिष्य बनाया। इससे मध्यकालीन भारत में हिन्दू और मुसलमानों में धार्मिक सद्भाव का विकास हुआ तथा देश में हिन्दू-मुस्लिम एकता का वातावरण निर्मित हुआ।

(6) भक्ति आन्दोलन का जनभाषाओं के साहित्य के विकास में बड़ा योगदान रहा और उन्हें अधिक सम्पन्न बनाया। अधिकांश संतों ने जन-भाषा में लोगों को उपदेश दिये तथा उन्हीं में साहित्य की रचना की अतः इससे हिन्दी, बंगला, मराठी और गुजराती आदि भाषाओं तथा उनके साहित्य में काफी विकास हुआ। इस प्रकार जन भाषाओं के उत्थान के इतिहास में तो भक्ति आन्दोलन एक स्वर्ण युग सिद्ध हुआ।

स्मरणीय तथ्य

  • 15वीं-16वीं शताब्दी के धार्मिक सुधार आन्दोलन से सबसे अधिक लाभान्वित भाषा संस्कृत थी।
  • सूफी साधक ब्रह्मज्ञानी तथा अध्यात्मज्ञानी थे। ये कर्मकाण्ड के विरोधी तथा सर्वेश्वरवादी थे।
  • प्रेम और उदारता सूफी व भक्ति आन्दोलन के मूलभाव थे। चिश्ती सिलसिला संगीत को ईश्वर प्रेम का महत्वपूर्ण साधन समझता था जबकि सनातन पंथी इस्लाम में इसकी पाबन्दी थी।
  • प्रारम्भिक चिश्तियों ने सरकार तथा राजकीय वैभव से अपने को दूर रखा किन्तु गेसूदराज के समय इस विचारधारा में परिवर्तन आया। परिणामस्वरूप दक्षिण के चिश्ती सूफियों ने शासक वर्ग के साथ सम्बन्ध स्थापित करते हुए राजकीय सहयोग द्वारा समाज सेवा की।
  • दाराशिकोह की फारसी रचना मजमुल-बहरीन में सूफी विचारों और हिन्दू ब्रह्माण्ड विज्ञान पर रोचक परिचर्चाएँ मिलती हैं। सर्मद दाराशिकोह का एक महान भक्त था जिसे अपने धार्मिक विचारों की उदारता के कारण औरंगजेब के शासनकाल में फाँसी दी गई थी।
  • सूफी रहस्यवाद वहदत-उल-वजूद से उत्पन्न हुआ है।
  • बौद्ध दर्शन और विशेष रूप से वेदान्त दर्शन ने सूफी मत को काफी प्रभावित किया।
  • प्रमुख सूफी अब्दुल वहीद बिलग्रामी ने हकायते-ए-हिन्दी नामक एक टीका लिखी।
  • सूफी संतों के पत्रों के सामूहिक संकलन को ‘मकतूबात’ कहा जाता है।
  • अरब दार्शनिक इब्न-अल-अरबी ने अद्वैतवादी अर्थात् जीव- एकत्व का सिद्धान्त जिसे तोहीद-ए-वजूदी कहा जाता है, को भारत में लोकप्रिय बनाया।
  • शेख हमीदुद्दीन नागौरी ने इल्तुतमिश द्वारा दिये गये गाँव को अस्वीकार कर दिया।
  • अल्बरूनी के अनुसार आत्मा के बारे में सूफी सिद्धान्त पंतजलि के योग सूत्र के सिद्धांतों की भाँति है।
  • संस्कृत में हठयोग पर लिखी गई एक पुस्तक ‘अमृतकुण्ड‘ का अरबी एवं फारसी में अनुवाद किया गया।
  • कश्मीर की शैव महिला योगी लल्ल या लाल देद (लल्ल योगेशरी) द्वारा व्यक्त विचारों के साथ सूफी धारणाओं का समन्वय शेख नुरुद्दीन ऋषि के ऋषि आन्दोलन में परिलक्षित होता है।
  • शेख निजामुद्दीन औलिया को महबूब-ए-इलाही, शेख नासिरुद्दीन महमूद को चिराग-ए-दिल्ली, सैय्यद मुहम्मद गेसूदराज को बन्दानवाज तथा शेख अहमत सरहिन्दी को मुजद्दिह आलिफसानी की उपाधि प्रदान की गई थी।
  • महान सूफी सन्त बुल्लेशाह ने कुरान तथा अन्य सभी धर्म ग्रन्थों की कटु आलोचना की।
  • भक्ति का सर्वप्रथम उल्लेख श्वेताश्वर उपनिषद में मिलता है। वैष्णव धर्म ने भागवत सम्प्रदाय के रूप में भक्ति आन्दोलन का सूत्रपात किया।
  • भक्ति आन्दोलन मौन क्रान्ति के नाम से जानी जाती है। हिन्दू आन्दोलन के नेता शंकराचार्य थे। इनका जन्म केरल प्रान्त के कालड़ी ग्राम में हुआ था।
  • शंकराचार्य द्वारा चार मठ स्थापित किये गये –

ज्योतिष्पीठ – बद्रीनाथ (उत्तराखण्ड)

गोवर्धनपीठ – पुरी (उड़ीसा)

शारदापीठ – द्वारिका (गुजरात)

श्रृंगेरीपीठ – श्रृंगेरी (कर्नाटक)

  • वैष्णव धर्म के चार सम्प्रदाय थे

(1) श्री सम्प्रादय

(2) ब्रह्म सम्प्रदाय

(3) रुद्र सम्प्रदाय

(4) सनक सम्प्रदाय।

  • उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन के त्रिमूर्ति- नानक, कबीर, रैदास थे।
  • व्यवहारवाद का दर्शन रामानन्द से सम्बन्धित है।
  • इस्लाम धर्म (सूफी मत) से सबसे अधिक प्रभावित नामदेव थे।
  • निपखवाद के संस्थापक गुरुनानक थे।
  • कर्नाटक में भक्ति आन्दोलन का मुख्य नेता दर्शन के द्वैतमत के संस्थापक माधवाचार्य थे।
  • कबीर के अनुयायी प्रमुख सन्त मलूक दास का जन्म 16वीं शताब्दी में इलाहाबाद में हुआ था। धार्मिक व्यक्ति होते हुए भी ये गृहस्थ का जीवन व्यतीत करते थे।
  • बंगाल के कवि चण्डीदास ने बंगाली भाषा को लोकप्रिय बनाया तथा बंगाल में सहजिया सम्प्रदाय की स्थापना की।
  • महाराष्ट्र की महिला महादम्बा एक रहस्यवादी तथा उच्च कोटि की कवयित्री थी।
  • असम के शंकरदेव ने एक शरण धर्म जगजीवन ने सतनामी, लालगिर या लालबेग ने अलखनामी तथा महाराष्ट्र के गोविन्द प्रभु ने ‘महानुभाव पंथ’ की स्थापना की।
  • शेख फकीरुद्दीन ने उत्तरी भारत में चिश्ती सम्प्रदाय को प्रचलित किया।
  • सूफी मत में पीर (गुरु) के उत्तराधिकारी को ‘वली कहा जाता था। सूफी संतों की उक्तियों के संकलन को सामूहिक रूप से ‘मलफूजात’ कहा जाता है।

हिन्दू (भारतीय) इस्लामी संस्कृति का समन्वय

          हिन्दू-इस्लामी संस्कृति शब्द मिश्रित या समन्वित संस्कृति के विकास का सूचक है जो मध्यकालीन भारत और इस्लामी जगत की सांस्कृतिक परम्पराओं के सम्पर्क अन्योन्याश्रित सम्बन्धों तथा सम्मिलन के फलस्वरूप विकसित हुई थी। यह सम्बन्ध अरब के उन व्यापारियों के माध्यम से स्थापित हुए थे जो भारत के विदेश व्यापार के प्रमुख स्रोत थे। हिन्दू धर्म तथा इस्लाम की सांस्कृतिक परम्पराओं के समेकन से मिश्रित या हिन्दू-इस्लामी संस्कृति का जन्म हुआ।

        मध्यकालीन हिन्दू तथा मुस्लिम सन्तों ने दो सम्प्रदायों के बीच भाई चारा बनाएं रखने के अपने प्रयासों द्वारा सांस्कृतिक विकास में अत्यधिक योगदान दिया। विद्वता एवं साहित्य के क्षेत्र में भी दोनों सम्प्रदाय एक-दूसरे से प्रभावित हुए। मुस्लिम विद्वानों ने हिन्दू दर्शन और विज्ञान जैसे-योगशास्त्र तथा वेदान्त, चिकित्सा शास्त्र तथा ज्योतिष का अध्ययन किया, तो हिन्दुओं ने उनसे भूगोल, अंकगणित तथा रसायन शास्त्र जैसे विषयों का अध्ययन किया। पारस्परिक भाषा विषयक आदान- प्रदान हिन्दी के विकास में परिलक्षित हुआ जिसके आधार पर अन्ततः उर्दू का जन्म हुआ।

           अमीर खुसरों ने दिल्ली को हजरत-ए दिल्ली (पवित्र दिल्ली) तथा दूसरा स्वर्ग और न्याय का एक महान केन्द्र कहते हुए अभिवादन किया। समकालीन इतिहासकारों के अनुसार हिन्दू राजकीय सेवाओं में सेवारत थे और महत्वपूर्ण पदों पर थे। सुल्तान मुहम्मद तुगलक ने श्रीराज नामक हिन्दू को अपना वजीर नियुक्त किया था।

भाषा और साहित्य

          दिल्ली सल्तनत का काल साहित्यिक दृष्टि से मध्यम था। इस समय फारसी और संस्कृत भाषा के अतिरिक्त हिन्दी, उर्दू और प्रायः सभी प्रान्तीय भाषाओं में ग्रंथ लिखे गये। प्रान्तीय भाषाओं के विकास में भक्ति मार्ग के सन्तों का अत्यधिक योगदान है।

संस्कृत साहित्य

           संस्कृत साहित्य को हिन्दू शासकों मुख्यतया विजयनगर, वारंगल और गुजरात के शासकों से संरक्षण प्राप्त हुआ। संस्कृत इस काल में उच्च वर्ग की भाषा रही। धार्मिक एवं धर्म निरपेक्ष रचनाओं का सृजन बड़ी मात्रा में हुआ। इस युग के संस्कृत ग्रन्थों में मौलिकता का अभाव था। अधिकांश पुस्तकें प्राचीन ग्रन्थों की पुनरावृत्ति टीकाएँ अथवा प्राचीन भाषाओं का आधार लेकर लिखी गयी।

       रामानुज ने ब्रह्मसूत्र पर टीकाएँ लिखी तथा पार्थसारथी ने काव्य मीमांसा पर ग्रन्थ लिखे। जैनों ने भी संस्कृत के विकास में योगदान दिया, हेमचन्द्र सूरि उनमें प्रमुख हैं। प्रसिद्ध फारसी कवि जामी द्वारा लिखित युसुफ और जुलेखा की प्रेम कहानी का फारसी से संस्कृत में अनुवाद किया गया

फारसी साहित्य

        तुर्की सुल्तान फारसी साहित्य में रुचि रखते थे। जबकि मुसलमानों का अधिकांश साहित्य अरबी में लिखा गया था जो पैगम्बर की भाषा थी। फारसी विकास के लिए लाहौर पहला केन्द्र था। दिल्ली सुल्तानों ने इस भाषा के विकास के लिए अनेक शिक्षण संस्थाएँ खोली तथा पुस्तकालय स्थापित किये। सबसे महत्वपूर्ण राजकीय पुस्तकालय जलालुद्दीन द्वारा स्थापित कराया गया जिसका अध्यक्ष अमीर खुसरो था। बलबन का पुत्र मुहम्मद तथा अलाउद्दीन ने अपने समय के प्रसिद्ध विद्वान अमीर खुसरो तथा मीर हसन देहलवी को संरक्षण प्रदान किया। मुहम्मद बिन तुगलक के समय में बदरुद्दीन मुहम्मद फारसी का श्रेष्ठ कवि था। अमीर खुसरो को फारसी कवियों में सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। फिरोज तुगलक ने स्वयं की आत्मकथा लिखी तथा इतिहासकार बरनी और अफीफ उसके संरक्षण में थे। लोदी शासक सिकन्दर लोदी, बहमनी शासक ताजुद्दीन फिरोजशाह तथा बहमनी वजीर महमूद गवाँ का नाम भी विद्वानों में माना जाता है। आयुर्वेद ग्रन्थ का फारसी अनुवादन फरहंगे सिकन्दरी तथा गान विद्या का एक श्रेष्ठ ग्रन्थ लज्जत-ए- सिकन्दरी सिकन्दर लोदी के शासन काल में हुआ। फिरोजशाह तुगलक के समय में चिकित्सा और संगीत शास्त्र पर संस्कृत की पुस्तकों का फारसी में अनुवाद हुआ। जिया नक्शवी पहला व्यक्ति था जिसने संस्कृत कथाओं की एक श्रृंखला का फारसी में अनुवाद किया था। जो पुस्तक तूतीनामा के नाम से प्रसिद्ध है। इसकी रचना मुहम्मद बिन तुगलक के समय में हुई।

हिन्दी, उर्दू तथा अन्य क्षेत्रीय भाषाएँ

           1424-25 ई. में शफुद्दीन यजदी द्वारा लिखित जफरनामा में हिन्दी शब्द का पहली बार उपयोग किया गया है। हिन्दी, उर्दू और अन्य प्रादेशिक भाषाओं के साहित्य के निर्माण का आधार इस युग में बना। मलिक मुहम्मद जायसी ने हिन्दी में प‌द्मावत लिखा तथा मसनवी नामक फारसी रूप को काफी बढ़ावा दिया। कवि चन्दवरदाई का पृथ्वीराज रासोहिन्दी का प्रथम महाकाव्य से सारगंधर का हम्मीर काव्य‘ जगनिक का ‘आल्हाखण्ड‘ आदि ग्रन्थ हिन्दी में लिखे गये महान ग्रन्थ थे। उर्दू मूलतः तुर्की भाषा का शब्द है, जिसके अर्थ है- शाही शिविर या खेमा।

        मध्यकाल में उर्दू को ‘हिन्दवी कहा जाता था। दक्षिण भारत में मिश्रित भाषा के रूप में जिस उर्दू का विकास हुआ उसे ‘दक्कनी‘ कहा जाता था। इसे कैम्प भाषा भी कहा जाता है। 18वीं शताब्दी के मध्य तक उर्दू को ‘हिन्दवी’, ‘हिन्दी’, ‘रेख्ता’ (मिश्रित भाषा) अथवा हिन्दुस्तानी या दक्कनी ही पुकारते थे। तेलगू का विकास विजयनगर में तथा मराठी का बहमनी और बीजापुर राज्यों में हुआ। बंगाल के नुसरतशाह ने महाभारत और रामायण का बंगाली में अनुवाद करवाया। उसी के संरक्षण में मालधरबसु ने भागवत का बंगला में अनुवाद किया। कृत्तिवास ने बंगला में रामायण तथा काशीरामदास ने बंगला में महाभारत का अनुवाद किया। कृत्तिवास के रामायण को बंगाल का बाइबिलकहा गया है।

संगीत कला

         इस्लाम धर्म द्वारा संगीत-कला वर्जित था, परन्तु भारतीय संगीत ने तुर्की शासकों पर प्रभाव डाला जिसके फलस्वरूप बलबन, उसका पुत्र बुगरा खाँ, अलाउद्दीन खिलजी, मुहम्मद बिन तुगलक जैसे सुल्तानों ने संगीत को संरक्षण प्रदान किया। जब तुर्क भारत आये तो अपने साथ ईरान एवं मध्य एशिया में पल्लवित समृद्ध अरबी संगीत परम्परा भी लाये। उनके पास कई नये वाद्य यंत्र थे जैसे रबाब और सारंगी और उनकी एक विशिष्ट संगीत पद्धति थी।

        मध्यकालीन संगीत परम्परा के आदि संस्थापक अमीर खुसरों थे। सर्वप्रथम उन्होंने भारतीय संगीत में कव्वाली गायन को प्रचलित किया। खुसरों को तिलक‘, ‘साजगिरी‘, सरपदा, औमन, घोर, सनम आदि रागों को प्रचलित करने के कारण उसे ‘नायक‘ की उपाधि प्रदान की गई थी। अमीर खुसरो का सितार तथा तबले के निर्माण भी श्रेय प्रदान किया जाता है। तुर्क मुसलमान अपने साथ सारंगी आदि जैसे संगीत वाद्य लाये परन्तु यहाँ आकर उन्होंने सितार तथा तबला जैसे वाद्यों को अपनाया। अलाउद्दीन खिलजी ने दक्षिण भारत के महान संगीतज्ञ गोपाल को अपने दरबार में बुलाया तथा अमीर खुसरो को संरक्षण प्रदान किया। फिरोज तुगलक के शासन काल में संगीत के एकीकरण की प्रक्रिया अनवरत चलती रही, इसी समय शास्त्रीय रचना ‘रागदर्पण’ का फारसी में अनुवाद हुआ।

        जौनपुर के सभी शकी सुल्तान संगीत प्रेमी थे। हुसैन शाह शकी ने राग ख्याल को भारतीय संगीत में सम्मिलित किया। उसके संरक्षण में संगीत शिरोमणि नामक ग्रन्थ की रचना हुई। हसन-ए-देहलवी को उसकी उच्च्च गजलों के कारण उसे भारत का सीदी कहा गया है। मालवा का शासक बाज बहादुर संगीत में रुचि रखता था। ग्वालियर के राजा मानसिंह ने संगीत को संरक्षण प्रदान किया तथा उन्हीं के संरक्षण में मान कौतूहल नामक संगीत ग्रन्थ की रचना हुई तथा ध्रुपद का सृजन हुआ। मान कौतूहल में मुस्लिमों द्वारा प्रचलित नयी संगीत पद्धतियों भी सम्मिलित की गई थी। चिन्तामणि नामक संगीतज्ञ को बिहारी बुलबुल की उपाधि दी गई। असम में उस समय शंकर नामक संगीतज्ञ का नाम बहुत विख्यात हुआ। जौनपुर के सूफी सन्त पीर बोधन भी उस काल का एक महान संगीतज्ञ था। गुनयाक्त-उत-मुनयास का संकलन भारतीय मुस्लिम विद्वान की भारतीय संगीत सम्बन्धी प्रथम रचना है। यह जौनपुर के शर्की शासकों के संरक्षण में लिखी गई। दक्षिण भारत के विभिन्न शासकों में से फिरोजशाह और महमूद शाह तथा बीजापुर के यूसुफ आदिलशाह ने संगीत कला को विशेष संरक्षण प्रदान किया। सूफी सन्तों ने भी सामूहिक गान की परम्परा को स्वीकार करके संगीत कला को लोकप्रिय बनाने में बहुत सहयोग दिया। इस काल में धर्म निरपेक्ष तथा आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार का संगीत एक श्रेष्ठ स्थिति को प्राप्त कर सका था। गजल और कव्वाली दोनों की गायन शैलियाँ सुल्तानों और सूफियों में समान रूप से प्रचलित थी। गजल का संग्रह ‘दीवानकहलाता था।

        मुहम्मद तुगलक भी बड़ा संगीत प्रेमी था। कहा जाता है कि उसके दरबार में बारह सौ गायक थे, जो गाते भी थे और गाने को शिक्षा भी देते थे। लोदी वंश के राज्यकाल में भारतीय संगीत ने पुनः करवट ली। इसी काल में जनता में संगीत के प्रति काफी उत्साह था। इसी काल में अनेक मुस्लिम कलाकार पैदा हुए। बंगाल के चैतन्य ने कीर्तन-शैली को जन्म दिया जो उत्तर भारत में भी लोकप्रिय हो गई।

चित्रकला

        मानवीय या अन्य किसी जीवित प्राणी के चित्र रूढ़िवादी मुसलमानों को स्वीकार्य नहीं थे। अतः प्रारम्भिक मुस्लिम सुल्तानों ने चित्रकला के प्रति रुचि नहीं दिखायी। उत्तरी भारत पर दिल्ली के सुल्तानों का पूरा नियंत्रण था, तब ताड़ पत्र और कागज पर सचित्र पाण्डुलिपियाँ काफी बड़ी संख्या में जैन सौदागरों के लिए प्रस्तुत की गयी।

        हरमन गोट्ज पहला विद्वान था जिसने सन् 1447 ई. में जर्नल आफ द इण्डियन सोसाइटी आफ ओरिएंटल आर्ट में प्रकाशित एक लेख में भारत के प्रारम्भिक मुस्लिम कला शैलियों का उल्लेख करते समय सल्तनत कालीन चित्रों के अस्तित्व को स्वीकार किया। सल्तनत कालीन चित्रकला के प्रचलन का सबसे प्रारम्भिक उल्लेख बैहाकी द्वारा लिखित गजनवियों के इतिहास में मिलता है।

        इल्तुतमिश के समय में चीनी चित्रकार दिल्ली आये थे। इसकी पुष्टि इसामी के फतूह-उस-सलातीन से होती है। समकालीन फारसी और हिन्दी ग्रन्थों में अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में भित्तिचित्रों, पाण्डुलिपि चित्रों और कपड़े पर बने चित्रों के प्रचलन के सम्बन्ध में प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष प्रमाण मिलते हैं। सल्तनत काल में चित्रकला का सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रसंग शम्स-ए-सिराज अफीफ की तारीख-ए- फिरोजशाही में मिलता है।

        फिरोज शाह तुगलक द्वारा अपनाए गये निषेधात्मक उपायों की चर्चा करते हुए अफीफ लिखता है कि ‘सुल्तानों में यह रिवाज है कि वे अपने आराम गृहों को आकृतिमूलक चित्रों की दीर्घाओं से सुसज्जित करते हैं।’ खुदा के प्रति अपने भय के कारण सुल्तान फिरोजशाह ने आदेश दिया कि इन दीर्घाओं में हिन्दू नरेशों की जीवित आकृतियों के चित्रों को नहीं लगाना चाहिए। सल्तनत युग की प्रारम्भिक चित्रांकित हिन्दू-मुस्लिम पाण्डुलिपि अमीर खुसरों देहलवी की ‘खम्सा’ नामक पाण्डुलिपि के बिखरे हुए पृष्ठ है। माण्डू की सर्वाधिक महत्वपूर्ण और रोचक पाण्डुलिपि नियामतनामाहै जो पाकशास्त्र पर एक ग्रन्थ है। इस पाण्डुलिपि की पुष्पिका में गयासुद्दीन खिलजी के बेटे नासिरुद्दीन खिलजी का उल्लेख है। प्रान्तीय सल्तनतों में माण्डू, जौनपुर और बंगाल के सुल्तानों ने चित्रकला को काफी संरक्षण दिया।

स्थापत्य कला

       कला एवं स्थापत्य के क्षेत्र में हिन्दू-इस्लामी संस्कृतियों के मध्य समन्वय भारतीय इस्लामी कला का मिश्रण अधिक स्पष्टतः परिलक्षित होता है। मुस्लिम आक्रमणकारियों ने भारत पर आक्रमण से पूर्व पश्चिम एवं मध्य एशिया, उत्तर अफ्रीका एवं दक्षिण-पश्चिम यूरोप की कला शैलियों की विशेषताओं को मिलाकर अपनी एक विशिष्ट स्थापत्य कला शैली का विकास कर लिया था। इसी प्रकार पूर्व मध्यकालीन भारत में विभिन्न क्षेत्रीय जैसे गुजरात, उड़ीसा, केन्द्रीय भारत, राजपूताना आदि में विशिष्ट स्थापत्य कला की शैलियों का विकास हुआ जिसका स्वरूप मुस्लिम स्थापत्य कला शैली से सर्वथा भिन्न था। तुर्क बहुधा हिन्दू अलंकरण के नमूने जैसे घंटियों के नमूने बेल के नमूने, स्वास्तिक तथा कमल आदि का प्रयोग करते थे। इस्लाम के आगमन से पूर्व की स्थानीय शैली को ‘शहतीरी शिल्प कला’ कहा जाता था। उसकी मुख्य विशेषता आड़ी व खड़ी रेखाएं थीं जो कि स्तम्भों पर प्रकोष्ठों की सहायता से कड़ियाँ रखकर बनाई जाती थी। स्थानीय शिल्प शैली की एक दूसरी विशेषता धार्मिक मौलिकता थी। सजावट में पद्म, चक्र एवं स्वास्तिक अंकन होता था। यह हिन्दू वास्तुकला मुख्यतः लोक शैली की कला है।

         इस्लामी स्थापत्य परम्परा की सबसे प्रमुख विशेषता है – मेहराब व गुम्बद का प्रयोग। इस्लाम में जीवित वस्तुओं का चित्रण निषिद्ध होने के कारण लिखावट एवं ज्यामितीय डिजायनों का अंकन प्रचलित था। तुर्कों के समय कला का प्रमुख नमूना अरबी लिपि थी। अलंकरण की संयुक्त विधि अरेबस्क कहलाती थी। भारतीय इस्लामी संस्कृति मध्य एशिया में विकसित परम्पराओं के तत्वों के साथ-साथ हिन्दू, बौद्ध और जैन परम्पराओं के तत्वों के सम्मिश्रण से बनी थी।

सल्तनकालीन शैली

       भारत में पहली तुर्क-मस्जिद कुव्वत-उल-इस्लाम थी जिसे कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1197 ई. में बनवाई थी, जो कि पहले जैन बाद में विष्णु मंदिर था। इसका निर्माण रायपिथौरा के किले के स्थल पर हुआ। कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद की सबसे बड़ी विशेषता उसका उत्कृष्ट मकसूरा और उसके साथ जुड़ा किवला-लिवान है इसमें हिन्दू-इस्लामी स्थापत्य कला की मजबूती और सौन्दर्य की समन्वित विशेषताएँ पहली बार उभर कर आती है। 1200 ई. में कुतुबुद्दीन ऐबक ने अजमेर में अढ़ाई दिन का झोपडा नामक मस्जिद का निर्माण करवाया। यह पहले एक संस्कृत विद्यालय था। सूफी संत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की स्मृति में कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1197 ई. में कुतुबमीनार की स्थापना की किन्तु इसे 1232 ई. में इल्तुतमिश ने पूरा करवाया। कुतुबुमीनार के निर्माण का उद्देश्य शायद तुर्की विजय से भी सम्बन्धित था। अतः इसे विजय स्तम्भ भी कहा जाता था।

         इल्तुतमिश ने कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद को बड़ा किया। इस काल की सबसे महत्वपूर्ण अलंकृत इमारतों में लाल बलुआ पत्थर से निर्मित इल्तुतमिश का मकबरा है। इल्तुतमिश ने बदायूँ में जामा- मस्जिद, नागौर में अतरकीन का दरवाजा, नासिरुद्दीन मुहम्मद का मकबरा, सुल्तानगढ़ी आदि इमारतों का निर्माण करवाया। मकबरा निर्माण शैली का जन्मदाता इल्तुतमिश को माना जाता है। सुल्तानगढ़ी मकबरा प्रथम सल्तनत कालीन मकबरा है। बलवन ने अपना मकबरा और लाल महल बनवाया। वास्तव में सही रूप में मेहराबों का प्रचलन बलवन के ही मकबरे में हुआ। यह इस्लामी कला का श्रेष्ठ नमूना है। शुद्ध इस्लामी पद्धति द्वारा निर्मित यह भारत का प्रथम मकबरा है।

खिलजी युग

        अलाउद्दीन खिलजी एक महान निर्माता था। उसने सीरी महल तथा हजारा स्तम्भों वाला महल का निर्माण करवाया। उसकी इमारतें पूर्णतया इस्लामी विचारधारा के अनुकूल बनाई गयी थी। अलाउद्दीन खिलजी ने कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद का विस्तार करवाया, निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर जमात खाना मस्जिद और कुतुबमीनार के निकट प्रवेश द्वार अलाई दरवाजा बनवाया। जमातखाना मस्जिद तत्कालीन मस्जिदों में सबसे बड़ी थी। ‘अलाई-दरवाजा’ के निर्माण में पहली बार सही व वैज्ञानिक विधि का प्रयोग किया था। मार्शल ने लिखा है कि अलाई दरवाजा इस्लामी स्थापत्य कला के खजाने का सबसे सुन्दर हीरा है। अलाई दवाजा पहली इमारत है, जहाँ केवल इस्लामी पद्धतियों का ही उपयोग हुआ है। इसके अतिरिक्त इसमें एक गुम्बद भी है। उसने सीरी के निकट एक तालाब हौज-ए-अलाई अथवा हौज-ए-खास भी बनवाया था।

तुगलक काल

          तुगलकों के स्थापत्य में समकालीन राजनीतिक अस्थिरता और आर्थिक समस्याओं की झलक मिलती है। अपने परवर्ती शासकों के अत्यधिक अलंकृत इमारतों की तुलना में इनके भवन विशाल तथा अत्यन्त सादे ढंग के हैं। तुगलक वंश के पहले भाग में बनी इमारतों में मुख्य हैं तुगलकाबाद की गढ़ी और उसके साथ कृत्रिम झील के बीच बना गयासुद्दीन का मकबरा। इस मकबरे में संगमरमर और बलुआ पत्थर का मिला-जुला प्रयोग हुआ है। इसका शिखर ध्यान देने योग्य है, जो हिन्दू वास्तुकला के प्रतीक कलश या आमल के अनुकरण पर निर्मित है। मुहम्मद बिन तुगलक दिल्ली के निकट जहाँ पनाह नगर तथा तुगलकाबाद के निकट आदिलाबाद का किला बनवाया। तुगलक शैली का दूसरा भाग सुल्तान फिरोजशाह के राज्य में आरम्भ हुआ। गयासुद्दीन तुगलक के राज्य के सादे परन्तु प्रभावशाली ठाट-बाट का स्थान व भारी-भरकम भीड़-भाड़ वाली निर्माण शैली ने ले लिया, जिसमें आड़े- तिरछे छज्जों, झरोखों, छतरियों तथा मण्डपों का बाहुल्य था। फिरोजशाह द्वारा निर्मित इमारतों में हौजखास के निकट मदरसे तथा फिरोजशाह कोटला का नगर और किला प्रसिद्ध है। फिरोज ने हौज खास नामक पहाड़ी पर अपना तथा अपने प्रधान मंत्री खान-ए-जहाँ तेलंगानी के मकबरे बनवाये। तेलंगानी के मकबरे की विशेषता यह है कि यह दिल्ली में निर्मित प्रथम अष्टाभुजाकार मकबरा है। फिरोज ने काली मस्जिद, खिर्की मस्जिद, काबा मस्जिद आदि मस्जिदे भी बनवायी। गयासुद्दीन का मकबरा एक नई स्थापत्य शैली की ओर संकेत करता है। इमारत को एक ऊँचे चबूतरे पर बनाया गया है। तुगलक स्थापत्य शैली की एक महत्वपूर्ण विशेषता ढलवाँ दीवारें है। फिरोज तुगलक द्वारा बनवायी गयी इमारतों में सलामी का प्रयोग नहीं मितला। तुगलक शासक अपनी इमारतों में महंगा लाल पत्थर के स्थान पर सस्ता आसानी से उपलब्ध मटमैला पतथर लगाते थे। इसलिए तुगलक कालीन इमारतों में बहुत कम अलंकरण मिलता है।

लोदी काल

       लोदियों ने एक और शैली का प्रयोग किया वह थी इमारतों को विशेषतः मकबरों को ऊँचे चबूतरे पर बनाना। कुछ मकबरे उद्यानों के मध्य में बनाये गये हैं। दिल्ली में लोदी उद्यान इसका सुन्दर उदाहरण है।

लोदी मकबरों को दो भागों में बाँटा जा सकता है-

1. सुल्तानों द्वारा बनवाये गये अष्टभुजी मकबरे और

2. उनके अमीरों द्वारा निर्मित चतुर्भुजी मकबरे।

सिकन्दर लोदी के समय एक नई शैली की शुरूआत हुई जिसमें एक गुम्बद के स्थान पर दो गुम्बदों का निर्माण होता था। लोदीकाल को मकबरों का कालभी कहा जाता है। लोदियों की इमारतों की कुछ विशेषताओं को बाद में मुगलों ने भी अपनाया। शाहजहाँ द्वारा निर्मित ताजमहल में इस शैली का चरम विकास परिलक्षित किया जा सकता है। लोदियों के स्थापत्य की विशेषता स्थानीय शिल्प तथा तुर्की शिल्प का मिश्रण था। दिल्ली की मोठ मस्जिद सिकन्दर लोदी के काल में उसके प्रधानमंत्री द्वारा बनवायी गई है।

प्रान्तीय शैलियाँ

         विभिन्न प्रांतों में भी कई उल्लेखनीय इमारतों का निर्माण इसी युग में हुआ था, जिसकी वास्तु रचना दिल्ली के शासकों की शिल्प रचना से भिन्न है।

जौनपुर

        जौनपुर की शर्की सुल्तानों की अधिकांश इमारतें हिन्दू इमारतों के अवशेषों पर निर्मित की गई है इसलिए उनकी कला में हिन्दू तथा इस्लामी शैलियों का अच्छा समन्वय है। जौनपुर की कुछ मस्जिदें जैसे अटाला मस्जिद पूर्व में अटाला देवी का मंदिर था, फोर्ट मस्जिद, झंझोरी मस्जिद, जामा मस्जिद तथा लाल दरवाजा आदि प्रमुख हैं। जौनपुर के मस्जिदों की रचना शैली मुहम्मद बिन तुगलक द्वारा बनवाई गई दिल्ली की बेगमपुरी मस्जिद जामा मस्जिद से अत्यधिक प्रभावित हैं। जौनपुर की मस्जिदों में मीनारों का अभाव है। इब्राहीम शाह शर्की ने अटाला मस्जिद को पूर्ण करवाया तथा झंझोरी मस्जिद का निर्माण करवाया। हुसैनशाह शर्की ने जामी मस्जिद तथा लाल मस्जिद का निर्माण करवाया।

मालवा

         मालवा राज्य की पुरानी राजधानी धार में बिल्कुल पुराने भवनों के अवशेषों से दो मस्जिदें बनवाई गई। इन मस्जिदों के गुम्बद व स्तम्भ हिन्दू ढंग के थे किन्तु बाद में माण्डू में हुशंगशाह द्वारा निर्मित जामी मस्जिद उसका मकबरा, हिण्डोला महल तथा सुल्तान महमूद द्वारा निर्मित जहाज महल इस्लामी शैली के सुन्दर नमूने हैं। इसके अतिरिक्त प्रसिद्ध इमारतें मांडू का किला महमूद खलजी द्वारा निर्मित सात मंजिलों वाला विजय स्तम्भ बाजबहादुर तथा रानी रूपमती के महल आदि हैं।

बंगाल

       बंगाल ने अलग ढंग की स्थापत्य शैली का विकास किया। इनमें ईंट, बाँस, गौड़ पत्थर तथा काठ प्रचुर मात्रा में प्रयोग किये गये हैं। गौड़ में निर्मित इमारते थीं-दाखिला दरवाजा, छोटा सोना मस्जिद, बड़ा सोना मस्जिद, दरसवारी का मकबरा, लोटन मस्जिद आदि। स्थापत्य कला का प्रमुख केन्द्र पाण्डुआ था जहाँ सिकन्दरशाह द्वारा निर्मित अदीना मस्जिद भारत में सबसे विशाल मुस्लिम इमारत है। नुसरत शाह ने गौड में बड़ा सोना मस्जिद को पूरा करवाया तथा कदम रसूल मस्जिद का निर्माण करवाया। खम्भों पर नुकीले मेहराबों का प्रयोग हिन्दू प्रतीकों और हिन्दू वक्र रेखाओं को इस्लामी स्वरूप प्रदान करना बंगाल की स्थापत्य कला की मुख्य विशेषताएँ हैं।

गुजरात

         गुजरात में हिन्दू तथा मुस्लिम कला का सबसे अच्छा समन्वय हुआ। मुसलमानों के आगमन से पहले ही वहाँ एक श्रेष्ठ स्वदेशी शैली थी। गुजरात शैली की मुख्य विशेषता है-पतली मीनारें, पत्थर पर उत्कृष्ट नक्काशी और अलंकृत कोष्ठक।

      अहमदशाह प्रथम ने 1411 ई. में अहमदाबाद नगर की स्थापना की तथा वहाँ जामी-मस्जिद का निर्माण करवाया। महमूद बेगड़ा ने – चम्पानेर, जूनागढ़ और खेड़ा में रानीपिसारी का रौजा, नगीना मस्जिद – आदि मस्जिदों का निर्माण करवाया।

दक्कन

        बहमनी सल्तनत ने अपनी एक अलग शैली विकसित की जिस पर फारस के वास्तुशिल्प का प्रत्यक्ष प्रभाव है। अलाउद्दीन बहमनशाह ने गुलबर्गा में जामी मस्जिद तथा महमूद गवाँ ने बीदर में एक मदरसे का निर्माण करवाया। बहमनी राज्य के विघटन के फलस्वरूप बीदर, गोलकुण्डा, बीजापुर, अहमदनगर तथा बरार राज्य में भी इमारते बनी।  कुली कुतुबशाह ने अनेक इमारतों का निर्माण करवाया इनमें से सर्वाधिक प्रसिद्ध चार मीनार है। यह 1591 ई. में बनीथी। बीजापुरी वास्तुशिल्प – में कुछ विशेष स्वरूपों का विकास हुआ। इनमें गुम्बद अर्द्धवृत्ताकार रूप – के हो गये थे, तथा छज्जे का चलन हो गया था। अलीशाहा की जामी – मस्जिद बीजापुर की प्रारम्भिक इमारतों में से है। इब्राहीम आदिल शाह – प्रथम के द्वारा निर्मित इब्राहीम रोजा दूसरी महत्वपूर्ण इमारत है। मुहम्मद आदिलशाह का मकबरा गोल गुम्बज विश्व प्रसिद्ध है।



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