भारत में आधुनिक भूगोल का विकास
19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक भारत में भूगोल का क्षेत्र केवल स्कूलों तक ही सीमित था जिसे इतिहास व नागरिक शास्त्र के साथ मिलकर पढ़ाया जाता था। इस काल में केवल देहरादून स्थित ‘सर्वे ऑफ इण्डिया’ (1767 में स्थापित) ही एकमात्र संस्था थी जहाँ भौगोलिक जानकारी के लिए भू-पत्रक तथा मान चित्रावली बनायी जाती थी। प्रथम विश्व युद्ध के उपरान्त भूगोल का अध्ययन सामाजिक अध्ययन के रूप में हाई स्कूल स्तर पर कराया जाने लगा। महाविद्यालय स्तर पर भूगोल का अध्ययन सन् 1920 में लाहौर में आरम्भ हुआ। यह स्वतन्त्र विषय बना। स्नातकोत्तर स्तर पर भूगोल शिक्षा का श्रीगणेश सन् 1931 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में आरम्भ हुआ। यहाँ प्रथम विभागाध्यक्ष प्रो. इनादुर्रहमान खाँ थे। सन् 1936 में यहाँ स्नातकोत्तर अध्ययन के साथ शिक्षक प्रशिक्षण कार्यों में भी भूगोल विषय आरम्भ हुआ। सन् 1932 में मद्रास (चेन्नई) में प्रो. एन. सुब्रह्मण्यम के निर्देशन में पहले शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय में तथा बाद में स्नातक स्तर पर भूगोल का अध्ययन आरम्भ हुआ। इस प्रकार सन् 1950 से पूर्व तक भारत में आगरा, कलकत्ता (कोलकाता), बम्बई (मुम्बई), मद्रास (चेन्नई), बड़ौदा, मैसूर, हैदराबाद, राँची, वाराणसी, इलाहाबाद, नागपुर, उदयपुर, जोधपुर, गोहाटी आदि स्थानों पर महाविद्यालयों में स्नातक स्तर पर भूगोल का अध्ययन आरम्भ हुआ।
सन् 1950 से पूर्व का काल इस दिशा में प्रारम्भिक काल कहलाता है। इसके उपरान्त सन् 1950-60 का दशक रचनाकाल के नाम से जाना जाता है। इसी दौरान सर्वप्रथम आस्ट्रेलियाई भूगोलवेत्ता ओ.एच. के. स्पेट ने सन् 1950 में भारत एवं पाकिस्तान के भौगोलिक कार्यों का सर्वेक्षण कर एक पुस्तक ‘India-Pakistan’ लिखी। इसके बाद सन् 1964 से 1973 तक प्रो. एच.डी. चटर्जी ने भारत में भूगोल की प्रगति से सम्बन्धित लेख लिखे थे। सन् 1956 में भारतीय भूगोल में निम्नांकित प्रमुख कार्य सम्पन्न हुए –
1. भारतीय राष्ट्रीय एटलस संस्थान की स्थापना।
2. अलीगढ़ में अन्तर्राष्ट्रीय भूगोल संगोष्ठी सम्पन्न।
3. भारतीय भूगोलवेत्ता परिषद् का राष्ट्रीय स्तर पर संगठन।
4. भारतीय सांख्यिकीय प्रादेशिक सर्वेक्षण के भूगोल विभाग की स्थापना।
सन् 1960-70 के दशक में भारतीय भूगोल पर प्रसिद्ध ब्रिटिश भूगोलवेत्ता डडले स्टेम्प का प्रभाव रहा जिनके निर्देशन में प्रो. मो. शफी द्वारा भूमि उपयोग का कार्य किया गया था। इसी दौरान सागर विश्वविद्यालय में प्रो. मुजफ्फर अली ने ‘सामान्य एवं व्यावहारिक भूगोल विभाग’ की स्थापना की। इस दौरान प्रो. अली का ‘पौराणिक भूगोल’, डी.पी. सक्सेना का ‘वैदिक भारत का भूगोल’ ऐतिहासिक भूगोल के विकास में महत्त्वपूर्ण कार्य थे। सन् 1970-80 के दशक में भारतीय भूगोल में विविधता आने लगी थी। भारतीय भूगोल में अभी भी पाश्चात्य देशों का अंधानुकरण किया गया। इस दशक में मानव भूगोल पर अधिक बल दिया गया।
विषय-सूची
✍️ आधुनिक भूगोल की विभिन्न शाखाएँ एवं उनका विकास
स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व भूगोल में विविधता का अभाव पाया जाता था लेकिन सन् 1960-70 के दशक में भारतीय भूगोल में विविधता आयी तथा धीरे-धीरे भूगोल की स्वतन्त्र शाखाओं का विकास हुआ, जिसमें विभिन्न विश्वविद्यालयों भौगोलिक परिषदों, वैज्ञानिक संगठनों तथा स्वतन्त्र भूगोलवेत्ताओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। वर्तमान में निम्नलिखित शाखाओं का स्वतन्त्र रूप में अध्ययन किया जा रहा है –
(1). भौतिक भूगोल
भूगोल विषय का प्रारम्भिक विकास भौतिक भूगोल के रूप में ही हुआ था। इसमें भू-आकृति विज्ञान, जलवायु विज्ञान, समुद्र विज्ञान, मृदा विज्ञान तथा जैव विज्ञान का अध्ययन किया जाता है।
>> भू-आकृति विज्ञान – यद्यपि भारत में प्रारम्भिक काल में प्रादेशिक भूगोल का अध्ययन किया गया लेकिन कुछ प्रमुख भूगोलवेत्ताओं द्वारा भू-आकृति विज्ञान पर शोध कार्य किया गया। इनमें प्रो. छिब्बर का ‘कुमायूँ हिमालय के भोम्याकारों’ के विकास, प्रो. एस.पी. चटर्जी का ‘भारत के प्रमुख भौतिक प्रदेश’, डॉ. आर.डी. दीक्षित का दून घाटी का विकास, एन.के. बोस का ऊपरी व्यास घाटी के भू-भौतिक प्रदेश तथा राँची पठार की स्थलाकृति तथा अहमद का दक्षिणी प्रायद्वीप के भू-आकृति प्रदेश की भू-भौतिक विशेषताएँ आदि प्रमुख शोधग्रन्थों ने भू-आकृति विज्ञान के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। डॉ. सविन्द्र सिंह की पुस्तक ‘भू-आकृति विज्ञान’ (1988) का भौतिक एवं भू-आकृति विज्ञान के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान माना गया है।
>> जलवायु विज्ञान विकास में जेड एहमद, आर.सी. बनर्जी, डी.एस. उपाध्याय, जयपाल तथा डी.के. मिश्रा का योगदान भी सराहनीय है। जलवायु विज्ञान में महत्त्वपूर्ण अध्ययन जे.के. पटनायक एवं आर. राव तथा आर. रामनाथन का रहा है।
>> मृदा विज्ञान को स्वतन्त्र शाखा के रूप में स्थापित करने में राय चौधरी, भट्टाचार्य, पाठक, आचार्या, राय, पुरी, भाद्वाज, रेड्डी, राय व शफी, दक्षिणामूर्ति, एस.के.डे. तथा प्रो. लक्ष्मी शुक्ला (जयपुर)) आदि विद्वानों का योगदान महत्त्वपूर्ण रहा है।
>> जल संसाधन भूगोल को विकसित करने का कार्य दक्षिणामूर्ति, प्रो. लक्ष्मी शुक्ला, डॉ. रामकुमार गुर्जर एवं डॉ. बी. सी. जाट ने सन् 1980 से 2008 तक किया, लेकिन इसे व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करने का प्रथम प्रयास डॉ. रामकुमार गुर्जर एवं डॉ. बी.सी. जाट ने किया जब राष्ट्रीय स्तर पर जल संसाधन भूगोल नाम से पृथक् शाखा प्रकाशित हुई।
(2). आर्थिक भूगोल
आर्थिक भूगोल की विभिन्न शाखाओं – कृषि भूगोल, संसाधन भूगोल, औद्योगिक भूगोल तथा भूमि उपयोग सम्बन्धी अध्ययन पर 300 से अधिक महत्त्वपूर्ण शोध-पत्र प्रकाशित हो चुके हैं जिनके बाद ये शाखाएँ स्वतन्त्र रूप में स्थापित हुईं। इनके विकासक्रम का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है –
(i) कृषि भूगोल – कृषि भूगोल का सर्वप्रथम कार्य दक्षिणी भारत से आरम्भ हुआ। इसमें के.सी. रामकृष्णन (कोयम्बटूर), एस.एन.सी. अय्यर (त्रिचि), गोपालन ( तंजौर) आदि मुख्य हैं। एल.वाई. मुखर्जी व भट्ट ने महाराष्ट्र कृषि पर अध्ययन किया है। उत्तरी भारत में प्रो. मुखर्जी ने उत्तरप्रदेश एवं प्रो. पी. दयाल ने बिहार राज्य को कृषि विभागों में विभाजित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। इनके अतिरिक्त ए.बी. मुखर्जी, एस.डी. मिश्रा, एम.एन. वसन्त देवी, सेन गुप्ता आदि के अध्ययन भी कृषि भूगोल के विकास में महत्त्वपूर्ण रहे हैं। कृषि में खाद्यान्न तथा नकदी फसलों पर भी उनके लिए आवश्यक भौतिक दशाओं के सन्दर्भ में अनेक महत्त्वपूर्ण अध्ययन किये गये हैं, जिनसे कृषि भूगोल को आधुनिक स्वरूप मिला। इनमें सेन गुप्ता, बी. बनर्जी, एस.पी. चटर्जी, मोहम्मद शफी, ए.एच. सिद्दकी, आई.ए. कुरेशी तथा प्रो. लक्ष्मी शुक्ला के कार्य प्रमुख हैं, जिन्होंने कृषि उत्पादों एवं उनकी समस्याओं पर विस्तार से प्रकाश डाला। प्रो. रन्धावा द्वारा सन् 1959-68 के मध्य कृषि पर चार खण्डों का ग्रन्थ लिखा गया, इनमें ‘भारत के किसान’ विशेष उल्लेखनीय हैं। इनमें प्रो. रन्धावा ने श्री प्रेमनाथ के सहयोग से भारत को कृषि प्रदेशों में विभक्त किया। सन् 1961 में वेंकटेश्वरन ने दक्षिण भारत के सभी राज्यों को एक भौगोलिक इकाई मानकर जलवायु, मृदा एवं अन्य भौतिक दशओं का विश्लेषणात्मक सम्बन्ध स्पष्ट किया। सन् 1970 में रन्धावा एवं सिंह तथा चौधरी एवं शर्मा ने विकसित कृषि तकनीकी, कृषि उत्पादकता एवं फसलों पर उपलब्ध ऋण व्यवस्था पर अध्ययन किया।
(ii) भूमि उपयोग अध्ययन – भारत में भूमि उपयोग से सम्बन्धित शोध एवं अध्ययन आरम्भ से ही प्रभावी रहा है, क्योंकि यह व्यावहारिक भूगोल का सर्वप्रभावी तथ्य है। इस सन्दर्भ में सर्वप्रथम प्रो. एस.पी. चटर्जी ने सन् 1941 में ध्यान आकर्षित किया। इन्होंने भूमि की विभिन्न समस्याओं, कटाव, भू-अवनयन, वनोन्मूलन आदि का अध्ययन किया। इसके बाद डॉ. एस.डी. गुप्ता, डॉ. प्रकाश राव, डॉ. एम. शफी, डॉ. ओ.पी. भारद्वाज, डॉ. एस.डी. गुप्ता, डॉ. एस.एच. भारद्वाज तथा डॉ. वी.आर. सिंह ने उल्लेखनीय योगदान दिया। प्रो. मोहम्मद शफी ने लन्दन विश्वविद्यालय से पूर्वी उत्तरप्रदेश के भूमि उपयोग पर पी.एच.डी. उपाधि अर्जित की। प्रो. बी.एन. सिन्हा ने उड़ीसा की परिवहन एवं संचार समस्याओं का अध्ययन किया। परिवहन भूगोल के विकास में गोरखपुर विश्वविद्यालय के प्रो. जगदीश सिंह का महत्त्वपूर्ण योगदान है।
(iii) संसाधन भूगोल – संसाधन भूगोल का विकास कृषि, वन, पशु, खनिज, मृदा आदि संसाधनों पर किये गये शोध कार्यों के उपरान्त हुआ है। इसके विकास में प्रो. पी. दयाल, ए.एस. अय्यर, एस. एल. कायस्थ, एस.पी. चटर्जी, ई. अहमद, कृष्णामूर्ति, ओ.पी. भारद्वाज, ए.एन. रैना तथा आई.ए. कुरैशी के कार्य विशेष उल्लेखनीय हैं।
(iv) औद्योगिक भूगोल—औद्योगिक अवस्थित एवं विकास की भारत में सर्वप्रथम व्याख्या श्री लोकनाथन ने प्रस्तुत की। इन्होंने भारतीय उद्योगों की समस्याओं के अध्ययन पर बल दिया। इनके उपरान्त प्रो. प्रकाश राव ने औद्योगिक स्थानीयकरणों पर, डॉ. घोष ने औद्योगिक विकास व समस्याओं के निराकरण पर, डॉ. करन ने जमशेदपुर के औद्योगिक भू-दृश्य पर विशेष अध्ययन किया। सन् 1964 में प्रो. पी. दयाल ने भारत के लोहा-इस्पात एवं सीमेंट उद्योग का विस्तृत विवेचन किया।
(v) परिवहन भूगोल – परिवहन भूगोल के बारे में सर्वप्रथम सन् 1929 में सूरी राजन ने अध्ययन किया। इनका विषय, बकिघम नहर की यातायात व्यवस्थाएवं दक्षिण भारत की यातायात व्यवस्था पर था। सन् 1933 से 1947 के दौरान सुब्रह्मण्यम ने कोयम्बटूर, मालाबार, मदुराई, रामनद, त्रिरूचिनापल्ली, अनन्तपुर, सलेम एवं तंजौर जिलों की परिवहन तथा संचार व्यवस्था का अध्ययन किया था। इनके अतिरिक्त प्रो. एस.ए. मजीद (बिहार का सड़क परिवहन), एम. गुहा (कलकत्ता की यातायात व्यवस्था), एल. कुलकर्णी (बम्बई राज्य की परिवहन समस्याएँ), प्रो. आर.एल. सिंह, जे. सिंह आदि के योगदान।
(3). ऐतिहासिक भूगोल
ऐतिहासिक भूगोल के विकास में भूगोल के अतिरिक्त दूसरे विषय के विद्वानों के लेख भी महत्त्वपूर्ण रहे हैं, जिनमें एल.एन.डे (1127) की पुस्तक ‘प्राचीन एवं मध्यकालीन भारत का भौगोलिक शब्दकोश’ तथा मजूमदार का ‘भारत का प्राचीन भूगोल’ महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं। इस सन्दर्भ में के.एम. पनिक्कर का ‘भारतीय इतिहास में भौगोलिक तत्त्व’ एवं ‘प्राचीन भारत का ऐतिहासिक भूगोल’ भी महत्त्वपूर्ण हैं। नफीस अहमद ने ‘भूगोल में मुसलमानों के योगदान’ तथा आर.एल. सिंह ने मध्य गंगा के अधिवासों का विकास आदि अध्ययन प्रस्तुत किये जो ऐतिहासिक भूगोल के विकास में महत्त्वपूर्ण हैं। इनके अतिरिक्त ए.सी. दास (1921), बी.सी. लॉ (1940-60), पी.एल. भार्गव (1956), राय चौधरी (1960), सरकार (1960), डॉ. एस.एम. अली (1968) आदि विद्वानों ने प्राचीन ग्रन्थों का विस्तृत अध्ययन कर भौगोलिक ज्ञान के रूप में व्यवस्थित किया।
अलीगढ़ विश्वविद्यालय के अलवी ने मध्यकालीन भूगोल पर ग्रन्थ प्रकाशित किया। वाराणसी विश्वविद्यालय के.बी. दुबे ने अपने शोध ग्रन्थ ‘Geographical concept in Ancient India’ में प्राचीन भारत के भौगोलिक ज्ञान विस्तृत विवेचना की है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रो. मुनिस रजा ने ऐतिहासिक परिवेश में भारत में भूगोल के विकास को अग्रलिखित तीन उपभागों में विभक्त किया है—
(I). भारत में प्राचीकाल में भूगोल सम्बन्धी ज्ञान का स्रोत,
(II). प्राकृतिक एवं सामाजिक परिवेश के तथ्य, तथा
(III). भूतल पर पायी जाने वाले स्थानिक भिन्नता एवं प्रादेशिक बाह्य स्वरूप की व्याख्या।
इसके अन्तर्गत इन्होंने ‘Random Purposive Sampling’ के आधार पर 12 ग्रामों का चयन करके भूमि उपयोग का गहन अध्ययन किया है। साथ ही अपने फसलों के साहचर्य पर भी कार्य किया है। डॉ. आर.एल. सिंह व डॉ. मुकर्जी के कार्यों द्वारा भी भूमि उपयोग को गति मिली।
बीसवीं अन्तर्राष्ट्रीय भूगोल कांग्रेस (1964) में प्रो. शफी ने अपने शोध पत्र में भूमि उपयोग पद्धतियों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करके ग्रामीण क्षेत्रों की भूमि उपयोग सम्बन्धी समस्याओं पर प्रकाश डाला।
(4). राजनैतिक भूगोल
सर्वप्रथम भारत के राजनीतिक भूगोल पर प्रसिद्ध आस्ट्रेलियन भूगोलवेत्ता ओ.एच.के. स्पेट ने अपना लेख सन् 1948 में प्रकाशित किया, जिसमें भारत के विभाजन की स्पष्ट रूपरेखा प्रस्तुत की। प्रो. एस.पी. चटर्जी ने सन् 1963 में स्पष्ट किया था कि भारत में अभी राजनीतिक भूगोल का विकास नहीं हो पाया है। प्रो. भट्टाचार्य, बोस, जानकी तथा करन आदि विद्वानों ने भारत-चीन सीमा विवाद एवं भारत-चीन युद्ध पर लेख प्रस्तुत किये। इनके अतिरिक्त आई.सी. रोथ, आर.एल. सिंह, आर.डी. दीक्षित, ए.एस. यादव के योगदान भी उल्लेखनीय हैं। डॉ. सुवालाल ने भारत का राजनीतिक भूगोल लिखा है। प्रो. आर.डी. दीक्षित का शोध प्रबन्ध ‘Geography of Federalism’ सन् 1975 में प्रकाशित हो चुका है। विगत दो दशकों में इसके नवीन प्रकरण ‘अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का भूगोल’ पर अध्ययन किये जा रहे हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रो. आर.सी. शर्मा का कार्य इस सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण हैं। सन् 1750 में हार्टशोनं ने विश्व सन्दर्भ में क्रमबद्ध विकास एवं क्रियात्मक दृष्टिकोण के लिए राजनीतिक भूगोल के भौगोलीकरण की ओर विशेष महत्त्व को स्वीकार किया गया।
(5). जनसंख्या भूगोल
भौगोलिक अध्ययन में ‘जनसंख्या भूगोल’ को स्वतन्त्र शाखा के रूप में स्थापित करने का श्रेय प्रो. ट्रीवार्था को है। इन्हें ‘जनसंख्या भूगोल’ का जनक कहा जाता है। भारत में सर्वप्रथम जनसंख्या भूगोल पर कार्य पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़ के प्रो. गुरुदेव सिंह गोसाल ने किया, जिन्होंने प्रो. ट्रीवार्था के निर्देशन में विस्कोसिन विश्वविद्यालय से ‘भारत की जनसंख्या का भौगोलिक विश्लेषण’ विषय पर अपना डाक्टरेट शोध ग्रन्थ प्रस्तुत किया। इसमें जनसंख्या के विभिन्न पक्षों की विस्तृत विवेचना की गई है। इनके अतिरिक्त गोपालकृष्ण चान्दना तथा मेहता (पंजाब विश्वविद्यालय), एस.पी. चटर्जी (1962), एस. मेहता (1967), एच. लाल (1966), जी. कृष्णन् (1968), आर.पी. ओझा (1984), आर. रामचन्द्रन (1978) एवं मुनिस रजा (1990) के कार्य उल्लेखनीय हैं। जनसंख्या भूगोल को ICSSR के 1972 के A Survey of Research in Geography के अंक में मानव भूगोल का अंग माना गया है।
(6). नगरीय भूगोल
भारत में नगरीय भूगोल के विकास का श्रेय प्रो. आर.एल. सिंह को है। इनके प्रकाशन ‘Banaras – A study in Urban Geography’, ‘Gorkhpur – A study in Urban Morphology’ सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण हैं। उनके निर्देशन में बनारस विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि अर्जित करने वालों में उजागर सिंह (इलाहाबाद), निगम (लखनऊ), हरिहरसिंह (कानपुर), प्रमुख वेत्ता हैं, जिन्होंने नगरीय भूगोल के विकास में अपना योगदान दिया।
प्रो. काशीनाथ सिंह ने उत्तर प्रदेश के नगरों का कार्यात्मक विभाजन किया। ओमप्रकाश सिंह ने उत्तरप्रदेश में केन्द्र स्थलों का, वी. चटर्जी ने हावड़ा के नगरीय भूगोल पर, एस. मुखर्जी (1958) ने नागपुर शहर के विकास पर, उस्मानिया विश्वविद्यालय के प्रो. मंजूर आलम ने हैदराबाद महानगर तथा उसके प्रदेश पर अध्ययन किया है। इनके अतिरिक्त प्रो. रफी-उल्लाह ने नगरों के कार्यात्मक वर्गीकरण पर तथा पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़ के प्रो. गुरुदेव सिंह गोसाल ने नगरीय भूगोल पर महत्त्वपूर्ण कार्य किये।
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