भूगोल में मात्रात्मक क्रांति के विकास एवं प्रभाव

भूगोल में मात्रात्मक क्रांति के विकास एवं प्रभाव

✍️ भूगोल में मात्रात्मक क्रांति

     भूगोल में द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरान्त अनुभवात्मक अध्ययनों के स्थान पर मात्रात्मक (परिमाणात्मक) अध्ययनों पर बल दिया जाने लगा, जिसे भूगोल में मात्रात्मक क्रांति कहते हैं। इस प्रकार के अध्ययनों में उच्च स्तर की गणित तथा सांख्यिकीय विधियों का उपयोग करके मॉडल बनाये गये जो प्रादेशिक भौगोलिक अध्ययन व सामान्य भूगोल के अध्ययन में उपयोगी सिद्ध हुए। मात्रात्मक क्रांति के समर्थक भूगोलवेत्ता मानते हैं कि गणितीय सूत्रों के द्वारा हम इस विषय को और अधिक तर्कसंगत, विशुद्ध तथा क्रमबद्ध स्वरूप प्रदान करते हैं। इन गणितीय सूत्रों के द्वारा विभिन्न भौगोलिक सिद्धान्तों की जाँच करके उनमें यथासम्भव परिवर्तन किया जा सकता है जिससे भूगोल की वर्णात्मक भाषा पर गणितीय प्रभाव पड़ा।

✍️ सांख्यिकीय एवं गणितीय विधियों का प्रयोग

        भौगोलिक व्यवस्था को समझने के लिए सांख्यिकीय एवं गणितीय विधियों का प्रयोग मात्रात्मक क्रांति का मुख्य बिन्दु था। इस दिशा में प्रथम प्रयास बर्टन का रहा है। उन्होंने सन् 1963 में जर्नल ऑफ कनेडियन ज्यॉग्राफर के अंक 7 में एक शोध पत्र ‘The Quantitative Revolution and Theoretical Geography’ नाम से प्रकाशित किया। ऐसी सम्भावना सन् 1958 में एकरमेन ने भी बतायी थी कि आने वाले समय में भौगोलिक विश्लेषणों में व्याख्यात्मक मॉडलों प्रत्यागमन, सहसम्बन्ध, परिवर्त्यन आदि का प्रयोग बढ़ेगा। इस प्रकार भूगोल में मात्रात्मक क्रांति का प्रथम प्रयास तो सन् 1940 के दशक में किया जा चुका था जिसकी पृष्ठभूमि में वान यूनेन (1826), मार्क जेफरसन (1931), अल्फ्रेड वेबर (1909), वाल्टर क्रिस्टालर (1933) के विचार महत्त्वपूर्ण रहे हैं लेकिन सन् 1950 के दशक में शेफर तथा एकरमेन के प्रयासों को मान्यता मिली। हार्टशोर्न ने भी सन् 1959 में प्रकाशित ‘Perspective On Nature of Geography’ में भूगोल में गणितीय विधियों के प्रयोग को स्वीकार किया। भूगोल में मात्रात्मक क्रांति के सूत्रपात में वान न्वायमैन तथा मार्गेनस्टर्न की सन् 1944 में प्रकाशित पुस्तक ‘Theory of Games and Economic Behaviour’, नोबर्ट वाइनर की सन् 1949 में प्रकाशित पुस्तक ‘Cybernetics’, जी.के. लिफ की सन् 1949 में प्रकाशित पुस्तक ‘Human behaviour and the principle of least effort’ प्रमुख रही हैं।

✍️ मात्रात्मक भूगोल का आरम्भ 

     मात्रात्मक भूगोल का आरम्भ सन् 1960 के दशक में संयुक्त राज्य अमेरिका की विस्कोसिन, आयोवा, शिकागो, वाशिंगटन विश्वविद्यालयों से हुआ तथा शीघ्र ही ब्रिटेन, स्वीडन, लुण्ड विश्वविद्यालय, फ्रांस व अन्य यूरोपियन देशों के विश्वविद्यालयों में फैल गया। ब्रिटेन में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के पीटर हैगेट (Locational Analysis in Human Geography, 1965; Geography : A Modern Synthesis, 1975) तथा रिचार्ड चौलें (Models in Geography, 1967; Integrated Models in Geography, 1969; Socio-Economics Models in Geography, 1969) तथा डेविड हार्वे नामक भूगोलवेत्ता ने स्थानीय विश्लेषणों (Location Analysis) के लिए गणितीय विधियों का पूरा उपयोग किया। इसी प्रकार वाशिंगटन विश्वविद्यालय (USA) के विलियम गेरीसन, बी.जे.एल. बेरी (Computer Graphics and Environmental Planning, 1983), मार्बल, न्यास्ट्रन, मोरिल, नीफॉन तथा आयोवा विश्वविद्यालय से मेककार्टी तथा किंग (L.C. King) आदि प्रमुख गणितीय भूगोलवेत्ता हैं। इनके अतिरिक्त टी. हैगरस्टैण्ड तथा एलन प्रेड ने भी गणितीय विधियों का प्रयोग किया है।

        इस प्रकार द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरान्त सन् 1950 के दशक में भूगोल में गणितीय विधियों के प्रयोग को एक आवश्यकता बना दिया। भू-आकृति विज्ञान, जलवायु विज्ञान तथा जीव भूगोल आदि प्राकृतिक भूगोल की शाखाओं में मात्रात्मक विधियों के प्रयोग को स्वीकार कर लिया गया। मानव भूगोल में सम्भववादी चिन्तन से प्रेरित होने के कारण इनके प्रयोग में थोड़ी कठिनाई आयी लेकिन बाद में इस पर सहमति बन गई थी। स्पेट ने सन् 1960 में प्रकाशित पुस्तक ‘Quantity and Quality in Geography’ में लिखा था कि प्रत्येक युवा भूगोलवेत्ता के लिए गणितीय विधियों का ज्ञान आवश्यक है। बर्टन ने भौगोलिक अध्ययन में सैद्धान्तिक अध्ययन की अनुशंसा करते हुए लिखा था कि वैज्ञानिक सिद्धान्त वह छलनी है जिसके माध्यम से विद्यार्थी असंख्य सूचनाओं को अलग वर्गों में रख सकता है। इसके बिना सूचनाएँ निरर्थक अम्बार की तरह हैं। सिद्धान्त हमें वह साधन प्रदान करता है जिसकी सहायता से हम असामान्य तथा अनहोनी घटनाओं की पहचान कर सकते हैं। संक्षेप में सिद्धान्तों के अभाव में कोई अपवाद नहीं होता, प्रत्येक वस्तु अनूठी इकाई होती है। यही कारण है कि भूगोल के वैज्ञानिक अध्ययन में सिद्धान्तों का प्रतिपादन महत्त्वपूर्ण है। 

        भौगोलिक अध्ययनों में मात्रात्मक क्रांति के बाद उपयोग में ली गई गणितीय विधियाँ अनेक रूपों में उपयोगी सिद्ध हुई। मात्रात्मक तकनीक आनुभविक अवलोकन पर दृढ़ता से आधारित तथा तुरन्त सत्यापनीय है। सांख्यिकीय विधियाँ अनेक प्रेक्षण, आंकड़ों व तथ्यों के कारणों के सीमित संख्या में घटाने में सहायक होती हैं। इस तकनीक द्वारा आंकड़ों के अनुमान, अन्तर्वेशन व अनुरूपण में सहायता मिलती है। ये विश्लेषण पूर्वानुमान में भी सहायक हैं। इनसे भौगोलिक व्यवस्था का वर्णन एवं विश्लेषण करने व सरल बनाने में सहायता मिलती है। उद्योगों के अवस्थिति सिद्धान्त कृषि भूमि उपयोग एवं भू-आकृतियों के विकास की अवस्थाओं को समझने में मात्रात्मक तकनीकी सहायक हैं। गणितीय विधियों के प्रयोग से संक्षिप्त भाषा एवं स्पष्टता के साथ विश्लेषण प्रस्तुत कर सकते हैं। भौगोलिक अध्ययनों में प्रयुक्त मॉडल स्पष्ट एवं पक्षपातरहित होते हैं तथा सम्बन्धित तथ्यों की प्रवृत्ति का भी स्पष्ट पता लग जाता है। जैसे अपरदन चक्र का मॉडल, जनांकिकीय संक्रमण मॉडल, विश्व के ताप कटिबन्धीय व्यवस्था एवं पवनों का विवरण आदि बिना अतिरिक्त विवरण से देखने मात्र से स्पष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार भूगोल में मात्रात्मक तकनीकी के समावेश से अनेक विश्लेषण एवं भविष्यवाणी आसान बनाई है। एकरमेन का मानना था कि भौगोलिक अध्ययन में वास्तव में सिद्धान्त आधारित शोध कार्य होना चाहिए।

      भौगोलिक शोध कार्य में साधारणीकरण को बढ़ावा देना चाहिए। शोधकार्य द्वारा ही भौगोलिक के विस्तृत क्षेत्र को परस्पर संयोजित कर समझा जा सकता है तथा शोध कार्यों में वास्तविक एवं सूक्ष्मदृष्टि का गुणा गणितीय विधियों के समावेश से ही सम्भव है। इस सन्दर्भ में एकरमेन ने कहा था कि “यथार्थपरक अध्ययन मात्राकरण पर निर्भर है।” एकरमेन के इस लेख द्वारा भूगोल के तत्कालीन दर्शन में परिवर्तन आया तथा मात्राकरण को बढ़ावा मिला।

      प्रो. आरड़ी. दीक्षित के अनुसार, तत्कालीन विचारधारा के अनुसार भौगोलिक चिन्तन में वांछित परिवर्तनों के लिए आवश्यक था कि भूगोल में मात्रात्मक वैज्ञानिक विश्लेषण पद्धति अर्थात् गणितीय और सांख्यिकीय विधियों पर निर्भरता बढ़ाई जाए। इसी कारण सन् 1950 के दशक में भौगोलिक चिन्तन में आये इस व्यापक व क्रांतिकारी परिवर्तन को ‘मात्रात्मक क्रांति’ कहा गया। भूगोल में मात्रात्मक क्रांति का बीजारोपण तो वास्तव में सन् 1940 के दशक में ही हो गया था लेकिन सन् 1950 के दशक में शेफर, एकरमेन व हैंगेट के प्रयासों को अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। सन् 1959 में रिचार्ड हार्टशोर्न ने भी अपने पुस्तक ‘परपेक्टीव्ज ऑन नेचर ऑफ ज्यॉग्राफी’ में सांख्यिकीय विधियों की उपयोगिता को स्वीकार किया है।

      पीटर हैगेट, रिचार्ड चोलें तथा डेविड हार्वे से पूर्व भी कुछ भूगोलवेत्ता मात्रात्मक विधि का प्रयोग करके मॉडल तथा सिद्धान्त प्रस्तुत कर चुके हैं, इनमें वान थ्यूनेन का भूमि उपयोग अवस्थिति सिद्धान्त, वेबर का औद्योगीकरण स्थानीयकरण सिद्धान्त तथा वाल्टर क्रिस्टालर का नगरों की केन्द्रीय स्थिति सम्बन्धी केन्द्रीय स्थल सिद्धान्त प्रमुख हैं जो प्रत्यक्ष रूप से गणितीय सूत्रों पर आधारित थे। इनके उपरान्त सन् 1954 में अमेरिकी भूगोलवेत्ता वीवर ने फसल-संयोजन प्रदेश बनाने में मात्रात्मक विधियों का उपयोग किया।

       सन 1960 में स्पेट ने भी ‘Quantity and Quality in Geography’ नामक लेख में स्पष्ट किया था कि सांख्यिकीय विधियाँ भौगोलिक अध्ययन में महत्त्वपूर्ण हैं तथा प्रत्येक युवा भूगोलवेत्ता को इनकी जानकारी होनी चाहिए।

      मानव भूगोल के साथ-साथ शीघ्र ही भौतिक भूगोल में भी मात्रात्मक विधियों का प्रयोग आरम्भ हो गया। यद्यपि मानव भूगोल का अध्ययन सम्भववादी विचार से प्रेरित रहने के कारण इसमें मात्राकरण में कठिनाई आयी। भौगोलिक अध्ययन में सिद्धान्तों पर आधारित अध्ययन की अनुशंसा करते हुए बर्टन ने लिखा था कि “वैज्ञानिक सिद्धान्त एक ऐसी छलनी के समान है जिसमें से विद्यार्थी अनेक सूचनाओं को विभिन्न वर्गों में रख सकता है। इसके बिना ये सूचनायें एक बेकार ढेर की तरह हैं। सिद्धान्त हमें ऐसा साधन प्रदान करता है जिसकी सहायता से हम असामान्य और अन घटनाओं की पहचान कर सकते हैं। संक्षेप में, सिद्धान्तों के बिना कोई अपवाद नहीं होता, प्रत्येक वस्तु अनूठी इकाई होती है। इसीलिए वैज्ञानिक अध्ययन में सिद्धान्तों का प्रतिपादन इतना महत्त्वपूर्ण है। “

✍️ मात्रात्मक विधियों को अपनाने के कारण 

(1) भूगोलवेत्ताओं का मानना है कि मात्रात्मक विधियों के उपयोग से भूगोल विषय को अधिक तर्कसंगत, विशुद्ध तथा क्रमबद्ध रूप दिया जा सकता है।

(2) वर्णात्मक भूगोल का स्थान भूगोल के विश्लेषणात्मक विधि ने ले लिया। 

(3) भौगोलिक जाँच में संक्षिप्तता के साथ सारगर्भित स्वरूप भी सम्मिलित हो गया।

(4) गणितीय विधियों के समावेश से भूगोल के उद्देश्य एवं भावना में व्यापक परिवर्तन दृष्टिगत होने लगा।

(5) भूगोल में गणितीय विधियों के आधार पर अध्ययन करने पर वैज्ञानिक विश्लेषण में सहायता मिलने लगी।

(6) मात्रात्मक विधियों के समावेश से विस्तृत रूप में तथा परिवर्तन करके सार्थक कारकों में सम्मिलित किया गया। 

(7) इनके आधार पर विचारों का संरचनात्मक एवं सैद्धान्तिक स्वरूप में विकास हुआ जिसकी जाँच सम्भव हुई।

✍️ भूगोल में मात्रात्मक विधियों के समावेश से लाभ 

(1) गणितीय विधियों के आधार पर भौगोलिक सूचनाएँ एकत्रित करने, संश्लेषण तथा विश्लेषण करने में सहायता मिलती है।

(2) मात्रात्मक विधियों से मॉडल तथा सिद्धान्तों का निर्माण आसानी से किया जा सकता है। 

(3) भूगोल के प्रादेशिक अध्यन के दौरान प्रदेशों के सीमांकन में सहायता मिलती है। 

(4) इन विधियों के उपयोग द्वारा वास्तविक परिणाम प्राप्त करने के लिए बार-बार की पुनरावृत्ति से बचा जा सकता है।

(5) भौगोलिक वितरण प्रतिरूप का वैज्ञानिक अध्ययन सम्भव हो गया है।

(6) मात्रात्मक विधियों की सहायता से संसाधनों के सर्वेक्षण की पक्रिया सरल हो गई जिस कारण नियोजन कार्यों में भूगोल की उपयोगिता बढ़ी है।

       भूगोल के विधितंत्र में मुख्य रूप से सन् 1940 से 1950 के दशक में मात्रात्मक विधियों के प्रयोग से सम्बन्धित व्यापक परिवर्तन देखा गया जिसकी पृष्ठभूमि भूगोल के बदलते स्वरूप एवं अंतरानुशासनिक विषय के रूप में विकास रहा जिसके तहत पारस्परिक रूप से भौगोलिक विश्लेषण करते आ रहे भूगोलवेत्ता अब गणितीय विधियों को महत्त्व देने लगे। इसी प्रकार अनेक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के कुछ प्रमुख भूगोलवेत्ता सांख्यिकी एवं गणित में विशेषज्ञता रखने वाले थे जिन्होंने अपने अध्ययन में मात्रात्मक विधियों को आधार बताया। प्रारम्भ में मात्रात्मक विधियों का प्रयोग मानव भूगोल में किया गया। इनमें प्रतिचयन, मध्यका, माध्यम एवं बहुलक, मानक विचलन तथा चतुर्थक विचलन आदि का प्रयोग प्रमुख था। इसके बाद एकरमेन ने सहसम्बन्ध पर बल दिया। सन् 1970 के दशक में अधिवासों के वितरण, जलवायु विश्लेषण आदि में गणितीय विधियों का प्रयोग किया गया। सन् 1970 के उत्तरार्द्ध में वायु फोटो चित्रों एवं सुदूर संवेदन से प्राप्त आकड़ों व कम्प्यूटर का प्रयोग प्रारम्भ हुआ।

✍️ भूगोल में मात्रात्मक विधियों का प्रयोग

       विगत शताब्दी में भूगोल में मात्रात्मक विधियों का उपयोग काफी बढ़ा यह उपयोग मुख्यतः निम्नलिखित दो रूपों में हुआ –

(1) आंकड़ों का संग्रह

(2) आंकड़ों का प्रसंस्करण

उपर्युक्त प्रक्रियाओं का अध्ययन निम्नलिखित रूपों में किया जाता है—

(1) वर्णात्मक

(2) अनुमानित

(3) क्षेत्रीय सांख्यिकी

(4) बहुपदीय सांख्यिकी

इनका विस्तृत विवेचन निम्नलिखित है

(1) वर्णात्मक 

      इस विधि का प्रयोग सन् 1940 से 1960 के दौरान किया गया जिसमें निम्नलिखित प्रक्रियाओं को महत्त्वपूर्ण माना गया—

1. आरेख एवं आरेखीय निरूपण

2. केन्द्रीय पद्धति का अध्ययन

3. माध्य विचलन

4. जनसंख्या प्रक्षेपण।

(2) अनुमानित 

      इस तकनीकी का प्रयोग विस्तृत क्षेत्रों में जनसंख्या के प्रतिदर्श लेकर निष्कर्ष निकालने के लिए किया जाता है। इसमें सांख्यिकीय विधियों का चयन आंकड़ों के आधार पर किया जाता है। इस दृष्टि से स्वतंत्र चरों की जाँच सहसम्बन्ध तकनीकी द्वारा की जाती है।

(3) क्षेत्रीय या स्थानिक सांख्यिकी 

       इसमें विभिन्न विश्लेषणों एवं मॉडलों के आधार पर स्थानिक वितरण स्पष्ट किया जाता है। ये तकनीक निम्नलिखित हैं –

(i) प्रारूप या प्रतिरूप विश्लेषण– प्रारूप तीन प्रकार के होते हैं— प्रथम, नियमित प्रारूप; द्वितीय, आकस्मिक या यादृच्छिक प्रारूप तथा तृतीय पुंजित प्रारूप। भूगोल में निकटतम पड़ौसी विश्लेषण, चतुर्थक प्रतिचयन आदि के द्वारा अध्ययन करते हैं। सन् 1954 में निकटतम पड़ौसी विश्लेषण विधि का प्रयोग इवांस एवं क्लार्क ने अधिवास वितरण प्रारूप के लिए किया था। उत्क्रम माप विश्लेषण का प्रयोग मेडवेडकोच ने किया था। 

(ii) प्रवाह विश्लेषण – ऐसे विश्लेषणों के अन्तर्गत किसी वस्तु के घनत्व, चौड़ाई तथा मूल्य को दर्शाया जाता है। इसमें गुरुत्व मॉडल, तंत्र या जाल विश्लेषण तथ रेखीय कार्यक्रम का प्रयोग करते हैं। 

(iii) पूर्वानुमानित एवं नियतन मॉडल – ऐसे मॉडलों का प्रयोग जनसंख्या वितरण की प्रवृत्ति को देखने के लिये किया जाता है।

(4) बहुपदीय सांख्यिकी

    वर्तमान में कोई भौगोलिक घटना एक कारक पर निर्भर न होकर विविध कारकों या चरों पर निर्भर करती है। ऐसे विश्लेषणों में बहुपदीय सांख्यिकी का प्रयोग करते हैं। आलोचना – बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आचरण भूगोल एवं मानववादी दृष्टिकोण के विकास के कारण मात्रात्मक क्रांति की आलोचना होने लगी। भूगोल में मात्रात्मक विधियों के प्रयोग की विभिन्न विद्वानों ने आलोचना की जिनका विवरण निम्नलिखित है :- 

(1) भूगोल के सभी प्रकरणों की व्याख्या गणितीय विधियों द्वारा सम्भव नहीं थी। मानव भूगोल की मानव पर्यावरण सम्बन्धों की संकल्पना की व्याख्या गणितीय भाषा से नहीं हो सकती है।

(2) मात्रात्मक क्रांति का मूल दर्शन प्रत्यक्षवाद पर आधारित है जो स्थानिक विज्ञान की क्रिया पद्धति के अनुसार चलता है। इस कारण विषय को रेखागणित तक सीमित कर दिया है।

(3) मात्रात्मक तकनीक अवस्थिति विश्लेषण पर आधारित होने के कारण पूँजीवाद को बढ़ावा देती है जहाँ प्राकृतिक संसाधनों का अनियमित शोषण किया जाता है। फलस्वरूप धनी एवं निर्धन के मध्य दरार बढ़ती जाती है। साथ ही तकनीक से विकसित मशीनों के प्रचलन से बेरोजगारी बढ़ती है।

(4) आनुभाविक आंकड़ों पर आधारित मॉडलों एवं सिद्धान्तों द्वारा अनेक मानकीय प्रश्नों की व्याख्या सम्भव नहीं है। इनमें मनोभाव, व्यवहार, इच्छाएँ, आशाएँ, डर आदि प्रमुख हैं। 

(5) मात्रात्मक क्रांति का प्रमुख कमजोर पक्ष यह रहा कि इसके बाद गणित आधारित तकनीकों से विकसित मॉडलों के प्रयोग से मानव की निष्क्रियता में वृद्धि हुई है। 

(6) गणितीय तकनीक पर आधारित अनुमान एवं भविष्यवाणी सदैव सत्य नहीं होती है।

(7) भूगोलशास्त्री बिना किसी अनुभव के तथा आवश्यकता के मात्रात्मक विधि का उपयोग करने लगे।

(8) जहाँ वर्णात्मक विधि का उपयोग अधिक उपयोगी था वहाँ भी इस विधि को अपनाया गया।

(9) इसने अन्य प्राकृतिक विज्ञानों की तरह सीमाओं में जकड़ दिया।

(10) स्टाम्प तथा मिंशुल के अनुसार, इन विधियों का अंधाधुंध उपयोग किया गया, जो अस्वीकार्य है। 

     भूगोल में मात्रात्मक क्रांति की विभिन्न कमजोरियों के बाद भी इनको आधार मानकर विश्लेषण किये जाने लगे तथा आज भौगोलिक अध्ययनों एवं विश्लेषणों में गणितीय विधियों का प्रयोग एक आवश्यकता बन गया है। सन् 1960 के दशक में यह वाशिंगटन, विस्कान्सिन व आयोवा आदि अमेरिकी केन्द्रों तथा ब्रिटेन व स्वीडन सहित यूरोप में भी गणितीय विधियों का प्रयोग बढ़ा। जहाँ अनेक देशों से विद्वान शोध के लिए आने लगे। इसी अवधि में पीटर हैगेट, रिचार्ड चोलें व डेविड हार्वे आदि ब्रिटिश भूगोलवेत्ताओं ने एक साथ मॉडल विकसित किये। इन्होंने ही कम्प्यूटर की आवश्यकता महसूस की थी। यद्यपि 1970 के दशक में हार्वे ने यह कह दिया था कि अब मात्रात्मक क्रांति ने अपनी यात्रा पूरी कर ली है तथा अब वह धीरे-धीरे ह्रासमान हो रही है।

    भूगोल में मात्रात्मक क्रांति की यद्यपि अनेक भूगोलवेत्ताओं ने आलोचना की है लेकिन वास्तव में भूगोल में वैज्ञानिक विश्लेषण मात्रात्मक विधियों के आधार पर ही सम्भव हुए हैं। सन् 1960 के बाद अधिकांश शोधकर्त्ताओं ने इन विधियों को अपनाया तथा इनका उपयोग सिद्धान्त एवं मॉडल बनाने में किया। प्रारम्भ में गणितीय विधियों का प्रयोग मानव भूगोल में किया। सिद्धान्तों एवं मॉडलों द्वारा मानव पर्यावरण सम्बन्धों की स्पष्ट व्याख्या की गई लेकिन इसकी प्रतिक्रिया में मानव भूगोल में आचरण एवं मानवीय पद्धतियों को प्रारम्भ किया गया। इस प्रकार भूगोल में अन्य समाज विज्ञानों के साथ ही अनुमानों एवं भविष्यवाणियों का मिला-जुला प्रयोग आवश्यक माना गया।

       भौतिक भूगोल में भी गणितीय विधियों के आधार पर अनेक निष्कर्ष निकाले जाते हैं। विभिन्न भौतिक प्रक्रियाओं को मॉडल निर्माण कर दर्शाया जाता है। वर्तमान में विवर्तनिक घटनाओं एवं जलवायु व मौसम विश्लेषणों में गणितीय विधियों का सहारा लिया जाता है।


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