कार्तिकेय कौन थे ?| कार्तिकेय का शिवजी से सम्बन्ध

कार्तिकेय

👨‍🦰 कार्तिकेय के जन्म की कथा

       शिवजी और पार्वती के पुत्र कार्तिकेय के जन्म सम्बन्धी एक धारणा है कि उनका जन्म एक विलक्षण प्रयोग द्वारा हुआ था। इसके अनुसार छह जीवों को एक शरीर में प्रवेश कराके उन्हें जीवन दिया गया था। वह छह कृतिकाओं (देवियों) के माध्यम से जन्मा था, इसलिए उसे कार्तिकेय कहते हैं। कार्तिकेय अद्भुत क्षमतावान व बलशाली था। कार्तिकेय को अनेक नामों से संबोधित किया जाता है, जैसे- षणमुख, सुब्रह्मण्य, महासेन, सेनापति, शिखिवाहन, स्कन्द कुमार आदि।

     छः मुख होने के कारण उसे षणमुख कहा गया। सर्वज्ञ होने से उसे सुब्रह्मण्य भी कहते हैं। राक्षसों का वध करने हेतु उसने विशाल सेना तैयार की थी, इसलिए ‘महासेन’ कहा गया। राक्षसों का विनाश करने के लिए उसने देवताओं की सेना का नेतृत्व किया था, इसलिए उसे ‘सेनापति’ के नाम से भी पुकारा जाता है। केवल 8 वर्ष की आयु में वह एक अजेय योद्धा बना। बाल्यावस्था में ही उनसे देवताओं की सेना का नेतृत्व किया और तारकासुर जैसे महाबलि राक्षस का संहार किया जिसने तीनों लोकों में हाहाकार मचा रखा था।

     इसके अतिरिक्त शिवजी के सामर्थ्य से उत्पन्न होने के कारण उसे ‘स्कन्द’ भी कहते हैं। उनका वाहन ‘मोर’ है, इसलिए वे ‘शिखिवाहन’ कहलाते हैं। वे चिरकाल युवा रहने से “कुमार” नाम से भी जाने जाते हैं। वह अत्यंत सुंदर थे इसलिए उन्हें ‘प्रेम देवता‘ कहते हैं। शरणागत की शत्रु से रक्षा करने वाले हैं इसलिए वह ” गुह” कहलाते हैं। इस प्रकार उनके अनेक नाम हैं।

🤔 ब्रह्माजी, आप नहीं जानते ‘ॐ’ का अर्थ

     एक बार कैलाश पर्वत पर देव दरबार लगा था। उसमें शिवजी,  ब्रह्माजी, इन्द्र सहित अनेक देवता उपस्थित थे। उस स्थान पर दिव्य संगीत के साथ वाद्य एवं गायन हो रहा था। अचानक कार्तिकेय शिवजी के सामने खड़े हो गये। शिवजी ने ब्रह्माजी की ओर देखा। ब्रह्माजी ने कहा, “हे प्रभु! आपने अपने पुत्र को मेरे पास शिक्षा ग्रहण के लिए भेजा था। मैंने प्रात:काल में ही उसे “ओंकार” शब्द पढ़ाना प्रारंभ कर दिया। उसी समय उसने मेरा हाथ पकड़कर पूछा – “ॐ का अर्थ क्या होता है ?”

मैंने कहा, “पहले पढ़ना-लिखना सीखो। अभी इस तरह के प्रश्न पूछना ठीक नहीं है।”

“हे प्रभु! इसके बाद उसने मुझे दुतकारा और मुझ पर क्रोधित होने लगा। जिसने अल्पायु में ही तारकासुर का वध किया हो, वह भला मेरी बात कैसे सुनेगा? मैं भयभीत हो गया था। मैंने कह दिया कि ‘ठीक है, मैं ‘ॐ’ का अर्थ बताऊँगा। मैंने विस्तार से उसे ओउम् का अर्थ बारह सहस्त्र काव्य – पंक्तियों में बताया। परंतु उसका सन्तुष्टि – समाधान नहीं हुआ। वह कहने लगा, “ब्रह्माजी, आप अर्थ नहीं जानते। अब यह आपके सामने खड़ा है। कृपया आप ही इसे ‘ॐ’ का अर्थ बतायें। ओंकार, जो प्रणव है उसका अर्थ आप ही बताइये। मैंने इसे जो कुछ बताया है उससे अधिक मैं कुछ भी नहीं जानता।”

🙄 शिवजी भी क्या जाने ?

     ब्रह्माजी की बात सुनकर शिवजी ने अपना सिर हिलाकर संकेत दिया कि उनका पुत्र कार्तिकेय बड़ा होनहार और विलक्षण है। उन्होंने अपने पुत्र की बुद्धिमत्ता को मान लिया था। तब शिवजी ने उसे ओंकार शब्द का अर्थ बारह लाख काव्य पंक्तियों में बताया। पूरा अर्थ सुनने के बाद कार्तिकेय ने कहा- ‘पिताजी, मैंने ब्रह्माजी को कहा था कि आप ‘ॐ’ के बारे में कुछ भी नहीं जानते। ऐसा कहकर मैंने भूल की थी। ‘

     शिवजी अपने पुत्र के मर्मभेदी वचन समझ गये। उन्हें यह अच्छा नहीं लगा कि उनका पुत्र उन्हें भी अज्ञानी समझता है। फिर पुत्र के प्रति स्नेह और गर्वित भाव उनके मन में उभर आया। शिवजी ने कार्तिकेय से ही प्रश्न कर दिया कि इस प्रणव के कितने अर्थ निकलते हैं।

‘बारह करोड़’, कुमार ने कहा। कार्तिकेय की अथाह ज्ञानसंपदा देखकर शिवजी को आश्चर्य हुआ। उनके मन में यह विचार आया कि उनके पुत्र की विलक्षणता का उपयोग जगत् के कल्याण हेतु हो। उन्होंने आशीर्वचन देते हुये कहा – ‘कुमार, जाओ, संसार को ओंकार का अर्थ सिखाकर मानव जाति का उत्थान करो। ‘

      एक धारणा यह भी है कि कार्तिकेय का जन्म तमिलनाडु के श्रीकाशी क्षेत्र में हुआ था। उन्होंने अध्यात्म प्राप्त कर ईश्वर की भक्ति की और संसार को सत्य का उपदेश दिया।

     शिवजी ने दाक्षायणी से विवाह किया था। दाक्षायणी के पिता दक्ष शिवजी से घृणा करते थे। इसलिए जब दक्ष ने यज्ञ किया तो उसमें अपनी पुत्री और उसके पति को भी आमंत्रित नहीं किया था। जब दाक्षायणी स्वयं यज्ञ के लिए आई तो उससे सम्मान पूर्वक व्यवहार नहीं किया गया। तब अपमानित दाक्षायणी ने स्वयं को अग्नि में भस्म कर दिया। इसके बाद उन्होंने पर्वतराज की पुत्री के रूप में जन्म लिया। तब उसका नाम पार्वती पड़ा। पार्वती ने शिवजी से विवाह करने का निश्चय किया था। परन्तु उस समय शिव गहन तपस्या कर रहे थे और तब पूरा विश्व तारक नाम के राक्षस के अत्याचारों से त्राहि-त्राहि कर रहा था।

 🤨 तारक कौन था

      ब्रह्मदेव के पुत्र मारीच का पुत्र था कश्यप। कश्यप की दो पत्नियाँ थीं। एक अदिति, जिसने इन्द्र और अन्य देवों को जन्म दिया था। वे स्वर्ग में रहते थे। दूसरी पत्नी थी दिति जिसने दैत्य और राक्षसों को जन्म दिया था। वे बड़े क्रूर थे और देवों से ‘घृणा करते थे।

     दिति का वज्रांग नाम का एक पुत्र था। उसकी पत्नी का नाम वज्रांगी था। उसी ने तारकासुर को जन्म दिया था। दिति के दूसरे राक्षस पुत्र ने सुरसा से विवाह किया था। वह माया थी। उसके बच्चों के नाम शूरपद्म, सिंहमुख और अजामुखी थे। जब तारक का जन्म हुआ था तो बड़े-बड़े पर्वत हिलने लगे और वन्य पशु जोर-जोर से चिल्लाने लगे। ये सभी संकेत बहुत अशुभ और सांकेतिक थे कि वह संसार के दुःखों का कारण होगा। तारक शोणितपुर में राक्षसों का मुखिया बना। उसी भाँति शूरपद्म वीरमहेंद्र का राजा बना।

      तारकासुर ने देवों पर विजय पाने का निश्चय किया था। यह एक कठिन काम था। इसलिये उसने ब्रह्माजी को प्रसन्न करके उनसे एक वर माँगने का निश्चय किया जिससे उसे मृत्यु ही नहीं आये। उसने ‘मधुबन’ जंगल में तपस्या की। कुछ दिन तक उसने केवल जल व बाद में केवल वायु का ही सेवन किया। उसने विभिन्न प्रकार से घोर तपस्या की। ब्रह्माजी उसके सामने प्रकट होने में जितना विलम्ब कर रहे थे, उसका तप उतना ही उग्र हो रहा था। यहाँ तक कि उसके शरीर से अग्नि की विशाल लपटें निकलने लगीं। अन्ततः ब्रह्मदेव उसके सामने प्रकट हो कर बोले –

‘तारकासुर, उठो! मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हुआ। तुम्हें क्या चाहिये ? वरदान माँग लो। ‘

तारकासुर – ‘हे प्रभु! मुझे आशीर्वाद दो कि मुझे कभी मृत्यु नहीं आये। ‘

ब्रह्मा ने कहा, ‘तारकासुर, असंभव को नहीं माँगना चाहिये। जो जन्म लेता है, उसे मरना ही पड़ता है। इस नियम को तोड़ा नहीं जा सकता। और कुछ माँगो। ‘

     तारकासुर सोचने लगा कि ‘मुझे ऐसी माँग रखनी चाहिये जो असंभव हो। यदि मैं मृत्यु किसी विशिष्ट प्रकार से ही माँग लूँ तो यह वरदान ब्रह्माजी अवश्य देंगे और फिर मैं अमर हो जाऊँगा। ‘

उस समय शिव कठोर तपस्या में लीन थे। उनकी तपस्या भंग करने का साहस किसी में भी नहीं था। तारकासुर ने सोचा – यदि शिव का विवाह होना ही असंभव हो जाये तो शिवजी के पुत्र के हाथों मेरी मृत्यु की बात ही असंगत हो जायेगी। उसने यह भी सोचा कि यदि शिव विवाह करते हैं और उनको पुत्र भी हुआ तो भी मेरा जीवन सुरक्षित ही रहना चाहिये। वह यह जानता था कि शिव का छोटा-सा बच्चा उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकेगा। तारकासुर ने ब्रह्माजी से कहा, ‘प्रभु, अगर मुझे मरना ही है तो मेरी मृत्यु शिवजी के पुत्र के हाथों ही हो और वह भी उस समय जब वह मात्र सात दिन का ही बालक हो। ‘

     ब्रह्माजी ‘तथाऽस्तु’ (ऐसा ही हो) कहकर सामने से अदृश्य हो गये। तारकासुर अत्यंत प्रसन्न था कि उसे अमर होने का वरदान मिल गया है। अब तारक ने अपने दुष्टाचार से तीनों लोकों को भयभीत कर दिया। इन्द्र ने भी भय के कारण अपना ऐरावत हाथी उसे दे दिया। कुबेर ने अपनी सारी संपत्ति उसे सौंप दी। उसने स्वर्ग में देवताओं को हटाकर उनकी जगह राक्षसों को नियुक्त किया। सर्वत्र खून, चोरी व लूटमार का साम्राज्य हो गया। सब दिग्पाल उसके सेवक बन गये और स्वर्ग की अप्सराएँ उसकी सेवा में लग गईं। देवतागण तारक के अत्याचारों से त्रस्त होकर ब्रह्माजी से प्रार्थना करने लगे। ब्रह्माजी को यह ज्ञात था कि केवल शिवजी का पुत्र ही उसकी दुष्टता का अन्त कर सकता है, अन्य कोई नहीं। फिर भी वे तारक के सामने प्रकट हुये।

     तारकासुर ने ब्रह्मदेव को प्रणाम करके कहा – ‘प्रभु, आप बड़े कृपालु हैं जो मेरे सामने प्रकट हुए। आपकी क्या आज्ञा है? ”तारक, सभी देवतागण तुम्हारे कारण संकट में हैं। तुम उन्हें परेशान मत करो। उन्हें देवलोक में शांति से रहने दो’ ऐसा कह कर ब्रह्माजी ने तारक को समझाया।

     तारक ‘आपकी आज्ञा का पालन होगा।’ यह कह कर उसने देवलोक छोड़ दिया और शोणितपुर में चला गया। परंतु उसकी दुष्टता में कोई कमी नहीं आयी। उसे बड़ा घमंड हो गया था कि उसका सामना करने वाला कोई नहीं है। वह देवताओं को हर प्रकार से तंग करता रहा।

     ब्रह्मदेव ने फिर देवताओं को बताया कि तारकासुर से मुक्ति प्राप्त करने का केवल एक ही मार्ग है। केवल परमेश्वर (शिव) का पुत्र ही उसे समाप्त कर सकता है। इसलिए शिवजी और पार्वती का विवाह आवश्यक है। आप इस देवकार्य के लिए कुछ करें। 

👵 कार्तिकेय का जन्म

    देवतागण ने इस कार्य को करने हेतु ऐसी योजना बनाई जिससे शिवजी पार्वती की महान तपस्या और त्याग से प्रसन्न हो जायें। अन्ततः शिवजी ने पार्वती से विवाह किया।

     कुछ समय बाद मार्गशीर्ष माह की षष्टी के दिन पार्वती जी ने पुत्र को जन्म दिया। तब से इस दिन को ‘स्कन्द षष्टी’ नाम से मानते हैं। जन्म के समय से ही कार्तिकेय के हाथों में शक्ति के दिव्यास्त्र, शूल महाशस्त्र थे। और कार्तिकेय शिवजी का पुत्र था इसलिए उसे शक्ति और बल प्राप्त करने में अधिक समय नहीं लगा। अल्प समय में ही उसके शरीर का अविश्वसनीय रूप से विकास हो गया। उसमें विलक्षण तेज आ गया था। उसकी बुद्धि प्रखर थी। पराक्रम, शौर्य एवं सद्गुण उसमें प्रचुर मात्रा में समाए हुए थे। सर्व प्रकार का ज्ञान उसे बहुत जल्दी हुआ। वह एक अत्यंत मनमोहक व विलक्षण व्यक्तित्व का स्वामी बन गया।

      कैलाश में शिवजी के निवास पर नित्य उत्सव मनाया जाता था। ब्रह्मदेव ने स्वयं उस बालक को संस्कारयुक्त किया। पार्वती ने उसे आशीर्वाद दिया कि वह दुष्टों का संहार करके धर्म और सत्य की रक्षा करे। शिवजी ने उसे स्वयं रत्नाभूषित सिंहासन पर बिठाया और पवित्र नदियों के जल से स्नान कराकर देवताओं ने उसे विभिन्न प्रकार के शक्तियुक्त अस्त्र-शस्त्र उपहार में दिये। उसे अनेक शक्तियाँ प्रदान कर आशीष दिया गया।

       सूर्यदेव ने उसे एक ऐसा रथ दिया जो विचार की गति से भी तीव्र था। दक्षिण स्वामी यमराज ने उसे दंड प्रदान किया। अग्निदेव ने महाशक्ति दी। अरुण ने कार्तिकेय को कुक्कट पक्षी (मुर्गा) दिया जिससे समय का पता चलता था। शिव ने कार्तिकेय को देवताओं की सेना का सेनापति घोषित किया।

       विभिन्न शक्तियों से सुसज्जित कार्तिकेय को शिवजी ने तारकासुर का वध करने के लिए भेजा। इसी समय महान शिल्पकार ‘त्वष्ट’ ने राजताद्रि पर्वत के समीप कार्तिकेय के लिए एक नगरी का निर्माण किया। इस नगरी में एक सिंहासन और सभामंडप भी बनाये गये। महाविष्णु ने उस सिंहासन पर कार्तिकेय को बैठाया। बड़े उत्सव का आयोजन किया गया और कार्तिकेय को चराचर सृष्टि का स्वामी घोषित किया गया। अब वह विश्व का संरक्षक बना। 

🤴 तारकासुर को चेतावनी

       नैतिक परंपरा के अनुसार युद्ध आरंभ करने से पूर्व शत्रु को युद्ध में शान्ति बनाये रखने के लिए सन्देश भेजा जाता है। इन्द्र ने भी एक दूत भेजा। उसने तारक से कहा- ‘तुमने शिव के साथ दुर्व्यवहार किया है। तीनों लोकों के स्वामी इन्द्र अब तुम्हें दण्ड देने के लिए तैयार हैं। अभी भी समय है, चेत जाओ और उनके साथ संधि कर लो अन्यथा युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।’

यह सुनकर तारक आगबबूला हो गया, ‘मूर्ख ! मेरे सामने से हट जा।’ इस प्रकार उसने दूत को अपमानित कर भगा दिया।

क्या शिव का पुत्र आया है?

      तारकासुर को कुछ आश्चर्य हुआ कि एक साधारण दूत ने आकर उसे चेतावनी दी। वह मन में सोचने लगा कि मैंने इन्द्र की शक्ति को कई बार चुनौती देकर उसे पराजित किया है। परन्तु अब उसमें इतना विश्वास व साहस कहाँ से आया? मुझे भी कुछ अपशकुन होने लगे हैं। मेरी बायीं आँख फड़क रही है। आकाश में धूल के बादल छा रहे हैं। जंगली जन्तुओं का रुदन क्रंदन सुनाई दे रहा है। चारों ओर अशांति व असहजता का वातावरण है। इस का अवश्य कोई अर्थ होगा।

     गहन सोच में डूबा तारक व्याकुल था कि तभी उसने देवसेना की युद्ध घोषणाएँ सुनी। उसने देखा कि चतुरंगी सेना उसकी ओर तीव्र गति से चली आ रही है। उनमें हाथी पर सवार योद्धा, घुड़सवार और पैदल सैनिक थे। विविध प्रकार के रणवाद्यों के मध्य में सेनापति कार्तिकेय दिव्य रथ पर विराजमान थे। शस्त्रों से सुसज्जित रथ पर केसरिया ध्वज मानो तारक के लिए प्रलय का संदेश था। तारक समझ गया कि शिव पुत्र स्वयं उसके विनाश हेतु आ रहा है।

      ब्रह्मा से उसने जो वर माँगा था उसका तारक को स्मरण हो आया। उसका भयभीत होना स्वाभाविक था। उसका साहस पस्त होने लगा। अपनी दुर्बलता छिपाने के लिए उसने अपने सेनापतियों को उत्साहित करते हुए युद्ध की तैयारी करने की आज्ञा दी।

🤺 तारक को कौन रोकेगा

      देवता और राक्षस अपनी सेनाओं के साथ निश्चित स्थान पर डट गये। युद्ध प्रारंभ हो गया। सभी प्रकार के शस्त्रों का प्रयोग किया जाने लगा। द्वंद्वयुद्ध, मल्लयुद्ध तथा योद्धाओं का आमने-सामने का युद्ध प्रारंभ हो गया। देखते ही देखते पूरा युद्ध – क्षेत्र महायुद्ध में परिवर्तित हो गया। चारों ओर मारकाट मच गई। धरती रक्तरंजित होने लगी। देवताओं के राजा इन्द्र ने तारक के साथ युद्ध किया और हार गये। वीरभद्र ने भी बहुत समय तक तारक के साथ युद्ध करके उसे रोके रखा। फिर शत्रु को हटाने का निश्चय कर महाविष्णु ने स्वयं तारक के साथ युद्ध किया। वह भी तारक के ‘शक्ति’ अस्त्र से मूर्च्छित हो गये। वे शीघ्र ही पुन: खड़े हो गये और उन्होंने अपने चक्र से तारक को धराशायी कर दिया। परन्तु तारक पुनः उठकर युद्ध करने लगा।

👤 तारक का वध

    सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा स्वयं यह भयंकर युद्ध देख रहे थे। देवगणों की स्थिति देखकर उन्होंने कार्तिकेय से कहा, ‘कार्तिकेय ! यह तारकासुर किसी अन्य से नहीं, केवल तुम से ही मारा जायेगा। आगे बढ़ो और तुरन्त उसका संहार करो।’

    अब कार्तिकेय शत्रु पर आक्रमण करने हेतु स्वयं आगे बढ़ा। दिखने में बाल तुल्य, परंतु वह एक बड़ा निडर योद्धा प्रतीत हो रहा था और शत्रु को भयचकित कर रहा था। वह एकाएक तारकासुर के समक्ष आ गया। तारक देवताओं से चिल्लाकर कह रहा था, ‘ऐ भीरु प्राणियों, इस छोटे से बालक को मुझसे युद्ध करने लाए हो। क्या तुम्हें लज्जा नहीं आती? क्या, विष्णु और शिव इतने डरपोक हैं जो इस नन्हें से बालक को मेरे साथ युद्ध करने के लिए भेजा है। मैं इस बालक को अवश्य मार डालूँगा। परंतु इसका पाप मुझे नहीं तुम्हें लगेगा।’

       तारक फिर कार्तिकेय से कहने लगा- ‘बच्चे, अभी तू बहुत छोटा है। अगर युद्ध का मजा चखना चाहता है तो अपने मित्रों के साथ द्वंद्व युद्ध करके देख। लौट जाओ और अपने पिता को मुझसे युद्ध करने के लिये भेजो। ‘

      कार्तिकेय – ‘मूर्ख तारक ! यह सत्य है कि मैं छोटा हूँ, परंतु मेरा पराक्रम छोटा नहीं है। क्या प्रातःकाल के सूर्य के समक्ष अंधेरा टिक सकता है? एक छोटी-सी चिंगारी समस्त वन को भस्म कर सकती है। पवित्र ध्वनि ‘ॐ’ मात्र एक अक्षर है परन्तु उसके दिव्य अर्थ निकलते हैं। ‘ फिर दोनों युद्ध करने लगे। दोनों ने भीषण शस्त्रों का प्रयोग किया। एक बार तो तारक के प्रचंड प्रहार से कार्तिकेय गिर पड़ा। परन्तु वह तुरन्त खड़ा हो गया और विकराल सिंह के समान उसने तारकासुर पर आक्रमण करके उसे गिरा दिया। तारक पुनः उठा और युद्ध करने लगा। युद्ध इतना भीषण था कि सूर्य निस्तेज हो गया और पृथ्वी काँपने लगी। चारों ओर भय के बादल मंडरा रहे थे। कार्तिकेय ने अपने माता-पिता (शिव-पार्वती) को मन ही मन वंदन किया व समस्त देवगणों को नमन कर अपनी पूरी शक्ति से तारकासुर पर त्रिशूल से वज्र – प्रहार किया। तारक का वक्षस्थल क्षत-विक्षत होकर गिर पड़ा। तारक वहीं धराशायी हो गया।

🤺 राक्षसी सेना का संहार

      तारक की मृत्यु के पश्चात् देवताओं का उत्साह बढ़ गया था। उन्होंने असंख्य राक्षसों को मार गिराया। राक्षस सेना में खलबली मच गई, वे भागने लगे एवं कुछ प्राण रक्षा के लिए देवताओं से प्रार्थना करने लगे। तारकासुर के वध का समाचार सुनते ही शिवजी पार्वती के साथ उस स्थान पर आये। उन्होंने अपने पुत्र को प्रेमपूर्वक आशीर्वाद दिया। पूरे देवलोक में कार्तिकेय की सराहना होने लगी। कार्तिकेय को जब यह पता चला कि तारकासुर के दो अनुयायी क्रौंच और बाणासुर अभी भी लोगों को परेशान कर रहे हैं तो उसने उन दोनों को भी मार दिया। इस प्रकार कार्तिकेय ने तारकासुर सहित सभी राक्षसों का विध्वंस किया।

🗣️ एक और दुष्ट

    तारकवध के बाद यद्यपि जनता ने उसके अत्याचारों से मुक्ति पाई, परन्तु यह सुखद स्थिति अल्पकाल तक ही रही। एक दूसरा राक्षस शूरपद्म जो तारक के समान ही बलवान था, वीरमहेन्द्र नगर में रहता था। उसने देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा की पुत्री से विवाह किया था। उनके पुत्र हुये – भानुकोप, अग्निमुख, हिरण्यक और वज्रबाहू। ये लोग अपने दुराचार, अन्याय और अनैतिक आचरणों से लोगों को कष्ट देते थे।

    शूरपद्म और उसके परिवार के लोगों द्वारा अत्याचार शुरू हो गये। नारद जी ने यह सोचा कि कार्तिकेय ने जिस प्रकार तारकासुर का वध किया, वह शूरपद्म का भी उसी प्रकार विध्वंस कर सकता है। इसके लिये नारद जी ने एक चाल चली। नारद जी नित्यानुसार भगवान का स्तुतिगान करते हुए वीरमहेन्द्र नगर पहुँचे। उन्होंने शूरपद्म से कहा कि इन्द्र की पत्नी शचि बहुत सुन्दर है। तुम उसका अपहरण कर अपने साथ रख लो। इससे तुम अपने भाई की मृत्यु का बदला ले सकते हो जिसकी मृत्यु कार्तिकेय के हाथों हुई थी।

      नारद जी को यह विदित था कि दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों को उचित परामर्श देने का कोई लाभ नहीं है। ऐसे नीच लोगों को दुष्कृत्यों के लिए प्रेरित करना चाहिये जिससे वे अपने कर्मों का फल भोग सकें। अपनी राक्षसी वृत्ति के कारण शूरपद्म को नारद की बात ठीक लगी। वह इन्द्र की पत्नी शचि देवी के अपहरण की योजना बनाने लगा।

🦹 इन्द्र के स्वर्ग पर आक्रमण

    शूरपद्म ने अपनी राक्षस सेना के साथ स्वर्ग पर आक्रमण करने का निश्चय किया। उसके पुत्र भानुकोप ने कहा ‘पिता जी ! मुझे इस कार्य के लिए अपनी सेना के साथ जाने की आज्ञा दो। मैं मार्ग में आने वाले सभी देवों को मारकर शचि को ले आऊँगा। ‘

     पिता की आज्ञा पाकर भानुकोप ने राक्षस सेना के साथ देवलोक पर आक्रमण कर दिया। देवलोक के अधिपति इन्द्र डर गये क्योंकि उन्होंने तारकासुर के पराक्रम को देखा था। इन्द्र ने यह भी सुना था कि शूरपद्म तारक से भी अधिक वीर है। इन्द्र ने अपने मंत्री तथा गुरु बृहस्पति से परामर्श किया कि क्या किया जाये? किसी को बिना बताये इन्द्र शचि के साथ चिदंबरम के पास श्रीकाशी के जंगल में चले गये।

      जब राजा इन्द्र कहीं नहीं दिखाई दिये तो देवतागण बहुत चिन्तित हो गये। बृहस्पति ने उन्हें सांत्वना दी और इन्द्र के पुत्र जयंत को उनका मुखिया बनाया। उन्होंने शूरपद्म से युद्ध करने के लिए पूरी तैयारी कर युद्ध करने के आदेश दे दिये।

🤴 देवताओं की पराजय

       राक्षसों की सेना ने देवों की राजधानी पर आक्रमण कर दिया। उन्होंने घरों में घुसकर देव – स्त्रियों को अपमानित किया, उनके आभूषण छीनने लगे तथा बच्चों की हत्या करने लगे। सुन्दर पुष्पवाटिकाओं को उन्होंने तहस-नहस कर उनमें आग लगा दी। चुनौती देते हुए वे चिल्लाकर कह रहे थे ‘कहाँ है तुम्हारा इंद्र ? “

       देवसेना ने भी राक्षसों का वीरता से सामना किया परन्तु वे हार गये। भानुकोप ने जयंत को हराकर उसे कारावास में डाल दिया। उसने स्वर्ग की बहुमूल्य संपदा लूट ली। परन्तु वह देवलोक में इंद्र और शचि को नहीं पकड़ सका। उसने देवताओं को बन्दी बनाया और अपनी राजधानी वीरमहेन्द्र लौट आया।

👷 देवों को आश्वासन

     बृहस्पति और अन्य देवता श्रीकाशी आये और उन्होंने राक्षसों द्वारा किये गये दुष्कृत्यों की जानकारी दी। इससे इन्द्र और शचि को अत्यन्त दुःख हुआ। इन्द्र शचि को वनदेवता शास्तारा की सुरक्षा में छोड़कर बृहस्पति एवं अन्य देवगणों के साथ ब्रह्माजी के पास आये और बाद में सब मिलकर शिवजी के पास गये। शिवजी ने उन्हें आश्वासन देते हुये कहा, ‘आप सब कुछ समय रजताद्रि पर्वत के पास काकाचल में रहें। शूरपद्म कार्तिकेय द्वारा अवश्य मारा जायेगा। तब आपका कष्ट मिट जायेगा। ‘ 

👰 अजामुखी की चाल

      शूरपद्म की बहन अजामुखी भाई की आज्ञा पाकर शचि को ढूंढने निकली। उसने चतुराई से उसे खोज निकाला। देवता का रूप धारण कर वह शचि के पास गई और बोली, ‘मेरे साथ चलो, हम शूरपद्म के महल में जाएँगे। तुम वहाँ सुख से रहोगी।’ परंतु शचि नहीं मानी। अजामुखी ने उसे फिर धमकाया। तब शचि देवी के अंगरक्षकों ने अजामुखी के हाथ काट डाले। फिर वह अपने भाई के पास चली गई। इन्द्र ने शचि को वहाँ से हटाकर काकाचल की सुरक्षा में छोड़ दिया।

      शूरपद्म अपनी बहन की दशा देखकर बहुत क्रोधित हुआ, ‘मैं इन देवों को सबक सिखाऊंगा। मैं इस अपमान का अवश्य बदला लूँगा।’ उसने देवताओं को मारा, पीटा व उन्हें बन्दी बना लिया। आगबबूला होकर वह भी काशी के वन में इन्द्र और शचि को ढूँढ़ने निकल गया। जब वे कहीं भी दिखाई नहीं दिये तो क्रोधवश उसने समूचे वन को ही आग लगा कर नष्ट कर डाला।

👉 शिव की आज्ञा

      शिवजी ने देवों के आग्रह पर कार्तिकेय को संसार में धर्म की रक्षा के लिए राक्षसों का वध करने को कहा। कार्तिकेय ने देवसेना एकत्रित की और वीरमहेन्द्र नगर को नष्ट करने की योजना बनाई। कार्तिकेय की सेना में वीरबाहू नाम का एक योद्धा था। उसे शूरपद्म को समझाने बुझाने हेतु भेजा गया। कड़े विरोध के पश्चात् वह शूरपद्म की राजसभा में पहुँचा। उसने कहा – ‘हे राक्षसाधिपति ! जिसने तारकासुर को मार डाला उसके सामने तुम्हारा पराक्रम व्यर्थ है। अगर तुम उससे टकराओगे तो तुम्हारा अंत निश्चित ही है। इसलिये दुष्टता का मार्ग त्याग कर सदाचारी बनने का वचन दो और कार्तिकेय की आज्ञा मान लो।’ यह सुनकर शूरपद्म उत्तेजित हो गया। उसने वीरबाहू को मारने का प्रसास किया परन्तु उसने अपने पराक्रम से सब सैनिकों को मार डाला। अब कार्तिकेय ने स्वयं शूरपद्म का अन्त करने का निश्चय किया। दूसरे दिन प्रातः कार्तिकेय प्रचंड सेना को साथ लेकर शूरपद्म पर आक्रमण करने निकल पड़ा।

        शूरपद्म अपनी सभा में बैठा था। एक दूत ने आकर सूचना दी कि कार्तिकेय की सेना ने वीर महेन्द्र नगर को घेर लिया है। शूरपद्म ने तुरन्त भानुकोप को आदेश दिया- ‘जाओ और कार्तिकेय से युद्ध करो।’ भानुकोप सबसे आगे था। कार्तिकेय ने वीरबाहू को उससे युद्ध करने के लिए कहा। वह बड़ा भयानक युद्ध था। मंत्रयुक्त बाणों सहित घातक शस्त्रों का प्रयोग किया गया। अंत में वीरबाहू ने भानुकोप व उसके अन्य साथियों को मार डाला। इस प्रकार हजारों की संख्या में राक्षस मारे गये।

🤺 शूरपद्म का अंत

     अंत में शूरपद्म बौखलाया हुआ कार्तिकेय से युद्ध करने के लिये मैदान में उतरा। दोनों में घमासान युद्ध हुआ। कार्तिकेय ने शूरपद्म को बुरी तरह पराजित कर दिया। परन्तु शूरपद्म अपनी अलौकिक एवं विलक्षण शक्तियों का प्रयोग करके पुनः युद्ध के लिए तैयार हो गया।

      कार्तिकेय तनिक भी विचलित नहीं हुए। कार्तिकेय भली भाँति जानते थे कि इस राक्षस का सत्य में विश्वास नहीं है, वह श्रद्धाहीन दुराचारी है जिसे नीति अच्छी नहीं लगती। अत: वह दया और प्रेम का पात्र नहीं है। संसार को सुखी बनाने के लिए उसका अंत करना ही उचित होगा। कार्तिकेय ने अपनी अद्वितीय शक्ति से अपने विराट रूप का दर्शन कराया।

     कार्तिकेय ने अपने विशेष अस्त्र का प्रयोग किया। अग्निवर्षा करते ये वह अस्त्र शूरपद्म का मस्तक धड़ से अलग कर वापस कार्तिकेय के पास लौट आया। अन्य सभी राक्षस अपने प्राण बचा कर भाग गये। शूरपद्म ने जिन देवगणों को कारावास में डाल दिया था, उन सभी को मुक्त किया गया। लूटी हुई संपत्ति लोगों को वापस दी गई। जो घर, बाग और नगर राक्षसों ने जलाये थे, देवों के शिल्पकार विश्वकर्मा की सहायता से उन्हें पुनः निर्मित किया गया। प्रत्येक व्यक्ति सुख शांति से रहने लगा।

शिवजी ने प्रसन्न होकर कुमार कार्तिकेय के पराक्रम की स्तुति की।

🐐 मेरी बकरी खो गई

       एक बार नारद नाम का एक व्यक्ति कार्तिकेय के पास आया और कहने लगा, ‘हे प्रभु! मैं अजामेघ यज्ञ कर रहा था परंतु ‘अजा’ (बकरी) जिसे यज्ञ में बलि देने लाया था वह गायब हो गई है। खोजने के बाद भी वह नहीं मिली। शायद किसी देव या राक्षस ने उसे चुराया है। मेरी यज्ञ विधि इससे अधूरी रह जायेगी। आप सब यज्ञों के रक्षक हैं, विश्व दाता हैं और शिव के महान पुत्र हैं। आप शरणागत के रक्षक हैं और सत्यवादी लोगों की इच्छाओं को पूर्ण करने वाले हैं। कृपा करके मेरी बकरी को ढूंढ लाइये जिससे मेरा यज्ञ पूर्ण हो जाये।’

       कार्तिकेय ने वीरबाहू को नारद की बकरी ढूंढने के लिए भेज दिया। बहुत खोजबीन की गई। परन्तु कहीं भी उस बकरी का पता नहीं चला। फिर वीरबाहू विष्णु के वैकुण्ठ में गये और उसने अजा (बकरी) को वहाँ देखा। वहाँ यह पता चला कि विष्णु भगवान का आदेश पाकर दूत उसकी जान बचाने के लिए उसे वैकुण्ठ ले आए थे। वीरबाहू उसे कार्तिकेय के पास ले आये। परंतु कार्तिकेय ने उसे नारद को नहीं दिया।

        उसके बाद नारद ने पुनः प्रार्थना की ‘हे प्रभु! कृपा करके मुझे मेरी बकरी लौटा दीजिये। मैं यज्ञ में बली चढ़ाकर यज्ञ पूरा करूँगा।’ 

‘देखो, किसी भी प्राणी की हत्या करना उचित नहीं है।’ कार्तिकेय ने कहा। ‘हमारे वेद सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं और वे यह नहीं बताते। कोई भी यज्ञ हिंसा के बिना होना चाहिये। अजा शब्द जो बकरी के लिए आया है उसका अर्थ यही है कि जो जन्मा नहीं है। अजा याने चावल। इसलिए अजामेध (यज्ञ) में उबले हुए चावल अग्निदेवता को समर्पित किये जाते हैं। इसलिए तुम अपना यज्ञ बकरी की बलि के बिना ही पूरा करो। तभी तुम्हें यज्ञ का पूरा फल प्राप्त होगा। ‘

     नारद ने इस यज्ञ के अर्थ को ज्ञान मान लिया। उन्होंने बकरी को बलि नहीं चढ़ाया व यज्ञ पूरा किया। इस प्रकार उन्होंने भविष्य में आने वाली पीढ़ियों के सामने आदर्श प्रस्तुत किया।

✍️ विश्व के कल्याण के लिए

     बालक कार्तिकेय ने अपने असामान्य साहस, अलौकिक बुद्धि व अदभुत पराक्रम से विश्व का कल्याण किया। बालक होते हुए भी वे कुशल व कर्मठ नेतृत्व करने की क्षमता रखते थे। उन्होंने सत्य व धर्म की रक्षा की। उनकी प्रतिभा व प्रबुद्धता असाधारण थी। यज्ञ में बलि अथवा हिंसा की रूढ़ि को उन्होंने समाप्त किया।

     सुब्रह्मण्य देव के मन्दिर हमारे देश में कई स्थानों पर दिखाई देते हैं। हिन्दू पंचांग में ‘सुब्रह्मण्य षष्ठी’ या माघ माह का छठवाँ दिन हिन्दुओं के लिए पवित्र दिन माना जाता है। भक्त बड़ी संख्या में षष्ठी के दिन पूजा करते हैं। महान द्रष्टा शुकराचार्य ने संस्कृत भाषा में सुब्रह्मण्य के स्तुति स्तोत्र की रचना की है। उसे ‘सुब्रह्मण्य भुजंग स्तोत्र’ कहते हैं।

     तारक और शूरपद्म जैसे दुष्ट और दमनकारी राक्षसों को समाप्त करके कार्तिकेय ने यह सिद्ध कर दिया कि दुष्ट, अधर्मी लोग चाहे कितने ही वीर बलशाली हों, परन्तु अन्त में उनका सर्वनाश ही होता है तथा सदगुणी शक्तियों की विजय होती है। तारक को घमण्ड हो गया था कि ब्रह्मा जी से छलपूर्वक वर प्राप्त करने के बाद उसे मृत्यु नहीं आयेगी। परन्तु समय के चक्र और सत्य की शक्ति को वह नहीं भेद पाया। दुर्जन कुछ समय तक ही अपनी दुष्टता से सज्जन लोगों का दमन करने में सफल हो सकते हैं। तब ऐसा लगता है कि उनकी जीत हो गई है किन्तु अन्ततः उनका अन्त और विनाश निश्चित है।


Read More :-

  1. फ्रेडरिक रेटजेल एक महान मानव भूगोलवेत्ता
  2. हेरोडोटस का भूगोल में योगदान
  3. इरेटोस्थनीज की भूगोल को देन
  4. स्ट्रैबो का भूगोल में योगदान
  5. टॉलेमी का भूगोल में योगदान
  6. हम्बोल्ट का भूगोल के विकास में योगदान
  7. वेबर का औद्योगिक अवस्थान मॉडल 
  8. भूमण्डलीय स्थितीय तंत्र (GPS)
  9. दक्खिनी चित्र शैली 
  10. भारतीय संघीय व्यवस्था के आधारभूत तत्व
  11. मूल कर्त्तव्य और राज्य के नीति निर्देशक तत्व
  12. मूल अधिकार
  13. भारत की संघीय व्यवस्था
  14. भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएं
  15. उद्देशिका | प्रस्तावना


★ हमारे टेलिग्राम ग्रुप से जुड़ने के लिए यहां click करें।

★ हमारे Whatsapp ग्रुप से जुड़ने के लिए यहां click करें।

★ GK Quiz के लिए यहां Click करें।


★ हमारा राजस्थान के महत्वपूर्ण अन्य लेख :-

  1. हमारा राजस्थान – एक परिचय
  2. हमारा राजस्थान के प्राचीन ऐतिहासिक क्षेत्र 
  3. हमारा राजस्थान का इतिहास जानने के सोत 
  4. हमारा राजस्थान ~ प्राचीन सभ्यता स्थल 
  5. हमारा राजस्थान ~ आजादी से पूर्व सरकार का स्वरूप
  6. हमारा राजस्थान का भौतिक स्वरूप
  7. हमारा राजस्थान के जल संसाधन और संरक्षण
  8. हमारा राजस्थान आजीविका के प्रमुख क्षेत्र
  9. हमारा राजस्थान में आधारभूत सेवाएँ
  10. हमारा राजस्थान की लोक संस्कृति एवं कला
  11. 18 वीं सदी का हमारा राजस्थान


>> Categories


GK Quiz के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें।

  1. भारत का भूगोल प्रश्नोत्तरी
  2. भारतीय इतिहास प्रश्नोत्तरी
  3. राजस्थान इतिहास प्रश्नोत्तरी 
  4. हिन्दी प्रश्नोत्तरी
Share this Content ~

Leave a Comment