साँप की दुल्हन | Snake bride

साँप की दुल्हन कहानी

                    साँप की दुल्हनएक समय की बात है कि कौशल राज्य के एक  नगर में एक ब्राह्मण अपनी पत्नी के साथ रहता था। वे एक बड़े से मकान में रहते थे और उनके पास ढेर सारा धन था। फिर भी वे दुखी थे क्योंकि उनकी कोई संतान नहीं थी। ब्राह्मणी जब भी पड़ोस के बच्चों को खेलता – कूदता देखती तो उदास हो जाती थी। एक दिन ब्राह्मण ने अपनी स्त्री से कहा— “गत रात्रि मैंने एक सपना देखा। सपने में मुझे एक अदृश्एय शक्कति ने दर्शन दिए और  मुझसे कहा कि हमें शीघ्र ही एक ऐसी संतान की प्राप्ति होगी। जो रूप , गुण और शील में सबसे बढ़कर होगा। इस तरह हमारी मनोकामना पूर्ण होगी।” इसके बाद समय पाकर उस ब्राह्मणी ने एक सर्प को जन्म दिया। उनके पड़ोसियों एवं संबंधियों ने उसे त्याग देने को कहा। लेकिन उसने उसे बड़ी देखभाल के साथ उसको पाला।

                    साँप की दुल्हन 1एक दिन वह अपने पड़ोसी के लड़के की शादी में गयी। उसके बाद से वह अपने बेटे के विवाह के लिए भी चिंतित रहने लगी। उसने अपने पति से कहा— “हमारा लड़का बड़ा हो गया है। अब उसके विवाह का समय आ गया है। तुम्हें उसके लिए एक अच्छी सी लड़की ढूँढ़नी चाहिए।” अपनी पत्नी की बात सुनकर ब्राह्मण अपने लड़के के लिए उपयुक्त दुलहन की खोज में निकला। इसी क्रम में वह चित्रकुट नगर स्थित अपने एक मित्र के घर पहुंचा। जब उसके दोस्त ने सुना कि वह अपने लड़के के लिए उपयुक्त लड़की ढूँढ़ रहा है तो उसका दोस्त बोला  मेरी एक बेटी है। वह बहुत सुन्दर है और विवाह के योग्य भी हो गई है। अगर तुम समझो कि वह तुम्हारे बेटे के लिए उपयुक्त कन्या है तो दोनों का विवाह कर दो।

            साँप की दुल्हन 2  ब्राह्मण उस लड़की को अपने साथ ले आया। उस आकर्षक कन्या को देखकर पड़ोसी चकित थे। इतनी सुन्दर बेटी को सांप से ब्याहने की अनुमति कोई कैसे दे सकता है। “ उन्होंने एक – दूसरे से पूछा, इस रिश्ते से लड़की के कई रिश्तेदार भी नाखुश थे। लेकिन लड़की अपने पिता को दोष देना नहीं चाहती थी। इसलिए उसने उस सांप से तुरंत शादी कर ली। वह उसकी अच्छी तरह देखभाल करती और पत्नी होने के अपने सभी कर्त्तव्यों का निर्वाह करती।

              साँप की दुल्हन 3 एक रात उस लड़की ने एक सुन्दर युवक को अपने कमरे में देखा और आश्चर्य से भर उठी। “ तुम कौन हो- “ उसने पूछा।  “ डरो मत ” – उस युवक ने कहा। “  मैं वहीं सांप हूँ जिससे तुमने शादी की है। यदि तुम्हें विश्वास नहीं हो रहा हो तो यह देखो। ” यह कहकर वह फिर से सांप बन गया। कुछ देर बाद वह फिर आदमी बन गया और सांप का चोला छोड़ दिया। लड़की बहुत प्रसन्न हुई।

              अगली सुबह उस लड़की ने अपने ससुर को सारी घटना सुनाई उस बुद्धिमान ब्राह्मण ने तुरंत ही सांप का वह मृत शरीर जला दिया ताकि उसका पुत्र उसमें कभी न लौट सके। अपने सुंदर पुत्र को देखकर ब्राह्मण दंपति बहुत प्रसन्न थे। जब उन्होंने उस सुन्दर जोड़े को पड़ोसियों के आगे किया तो उनकी खुशी का भी कोई ठिकाना नहीं रहा ।


अपने पुरुषार्थ पर भरोसा करें

        एक मेंढक भगवान् का भक्त था । उसने प्रभु प्राप्ति के लिए साधना शुरू की । जप और ध्यान में उसकी एकाग्रता देख भगवान् बहुत प्रसन्न हुए ।

  • भगवान ने भक्त को दर्शन देकर कहा – ‘ वत्स मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूं । मैं तुम्हें वरदान देना चाहता हूं । बोलो , तुम्हारी क्या माँग है ? ‘
  • मेंढक बोला – ‘ मेरे मन में कोई आकांक्षा नहीं है । प्रभु की भक्ति से मुझे सुख मिलता है , वह असाधारण है । कठिनाई एक ही है कि जब मैं ध्यान के लिए बैठता हूं तो एक चूहा इधर आता है । उसकी आवाज सुनकर ही मैं कांप जाता हूं । उससे मेरे ध्यान में अनावश्यक विघ्न होता है । ‘
  • भगवान् ने कहा – ‘ ठीक है दादुरराज , मैं तुम्हें बिल्ली बना देता हूं । फिर , तुम निर्भर होकर रह सकोगे ।

मेंढक बिल्ली बन गया और साधना का क्रम वैसे ही चल रहा था ।

  • एक दिन भगवान् प्रकट हुए और भक्त से पूछा – ‘ अब तुम्हारी क्या समस्या है वत्स ? ‘
  • मेंढक बोला – ‘ देव ! एक कुत्ता आता है । बहुत भौंकता है , तब डर लगता है ।

        अब भगवान् ने उस मेंढक को शिकारी कुत्ता बना दिया । समस्या खत्म नहीं हुई । कुछ ही दिन हुए कि उस परिसर में चीता आने लगा । चीते का भय दूर करने के लिए उसे शेर बना दिया । फिर , भी उसकी परेशानी कम नहीं हुई । अब उसके सामने शिकारी आदमी की समस्या थी । वह किसी भी समय उसको अपनी बंदूक का निशाना बना सकता था । मेंढक रोज – रोज के बदलाव से दुखी हो गया । उसने सोचा कि इस प्रकार दूसरों के सहारे कब तक जीता रहूंगा । जीवन भी तो निरापद नहीं है । मुझे अपने पुरुषार्थ पर भरोसा करना चाहिए और अपनी स्थिति में संतुष्ट रहना चाहिए ।

         यह सोचकर उसने भगवान् से अनुरोध किया – ‘ अब मैं और कुछ नहीं चाहता प्रभु ! आप मुझे पुन : मेंढक बना दीजिए । मेंढक बनकर वह भगवान् की भक्ति में लीन हुआ । उसकी समस्या का समाधान हो गया ।


स्नेह व प्रेम के साथ आजादी भी जरूरी

         एक लकड़हारा था । वह रोजाना जंगल से लकड़ी काटकर और उसे बेचकर अपनी उदरपूर्ति करता था । एक दिन उसे जंगल में एक घायल तोते की आवाज सुनाई दी । तोता कंटीली झाड़ी में फंसा हुआ था । लकड़हारे ने तोते के शरीर में चुभे कांटें चुन – चुनकर बाहर निकाले । वह उसे अपने घर ले आया । उसने तोते का उपचार किया और उसे पिंजरे में बंद करके रखा । उचित सार – संभाल से तोता धीरे – धीरे स्वस्थ होने लगा ।

         लकड़हारे के प्यार और स्नेह से भी वह बहुत खुश था । फिर भी , उसके मन में व्याकुलता की स्थिति बनी रहती थी । सुबह – शाम जब पक्षी उधर से गुजरते तो तोता भी उड़ान भरने के लिए पिंजरे के भीतर फड़फड़ाने लगता था । एक दिन लकड़हारा तोते को खाना देकर पिंजरे का दरवाजा खुला छोड़कर चला गया । उधर , तोते ने सोचा आज मौका है उड़ भागने का । उसने सोचा कि पंख रहते पिंजरे में बंद रहना बुद्धिमानी नहीं है । बस , तोता फुर्र हो गया आकाश में । उधर , लकड़हारा जब घर आया तो देखा कि पिंजरे का दरवाजा खुला है और तोता गायब , तो उसके होश उड़ गए । उसे ऐसा लग रहा था । मानों उसका बेटा उसे दगा देकर भाग गया हो ।

            उसने दो दिन तक खाना नहीं खाया । कुछ दिनों पश्चात लकड़हारा उस स्थान पर पहुंचा जहां से वह घायल तोते को उठाकर घर लाया था । वह वहीं पर एक पेड़ के नीचे बैठकर तोते के वियोग में रोने लगा । संयोग से वही तोता उसी समय वहीं से गुजर रहा था । वह नीचे उतरा और लकड़हारे के कंधे पर जा बैठा । लकड़कारा तोते को अपनी पीठ पर पाकर खुशी से उछल पड़ा । वह तोते को लेकर अपने घर पहुंचा । अब लकड़हारे ने एक संकल्प कर लिया था । वह तोते को पिंजरे में बंद नहीं करता बल्कि खुला ही छोड़ देता था । दोनों की जिंदगी मौज – मस्ती में कटने लगी ।

              सच ही कहा है कि हमारे जीवन में स्नेह और प्रेम के साथ आजादी भी जरूरी है ।


आसक्ति का मन से परित्याग करें

              बात उन दिनों की है जब मठों , आश्रमों में शिक्षा होती थी । नई – नई दीक्षा प्राप्त एक शिष्य ने अपने गुरुदेव से कहा – ‘ गुरुदेव ! उपासना में मन नहीं लगता । कितना भी प्रयास करूं भगवान् की ओर चित्त दृढ़ नहीं हो पाता है । ‘

              गुरुदेव ने गम्भीर दृष्टि डालकर शिष्य की ओर देखा , जैसे कोई बात समझ में आ गई हो । बोले – ‘ सच ही कहते हो वत्स ! यहाँ ध्यान लगेगा भी नहीं । चलो कहीं और चलकर साधना करते हैं , शायद वहाँ ध्यान लगे । हम आज सायंकाल ही यहाँ से प्रस्थान करेंगे । ‘ ‘ सायंकाल ? ‘ शिष्य कुछ चिंतित स्वर में प्रश्न कर बैठा , जिसका गुरु ने कोई उत्तर नहीं दिया ।

             सूर्यास्त होने के साथ ही गुरु और शिष्य एक ओर चल पड़े । गुरु के हाथ में मात्र एक कमण्डल था और शिष्य के हाथ में थी एक झोली , जिसे वह बहुत यत्नपूर्वक संभाले हुए चल रहा था । चलते – चलते मार्ग में एक कुआं आया । शिष्य ने वहीं पर शौच की इच्छा व्यक्त की । दोनों वहीं विश्राम करने की मंशा से रुक गए । बहुत सावधानी से शिष्य ने झोला गुरु के पास रखा और शौच के लिए चल दिया । जाते – जाते उसने कई बार झोले की ओर दृष्टि डाली । ‘ गड़ाम ! ‘ एक तीव्र प्रतिध्वनि भर सुनाई दी और झोले में रखी कोई वस्तु कुएं में जा समाई । शिष्य दौड़ता – दौड़ता आया और चिंतित स्वर में बोला – ‘ भगवन् ! झोले में सोने की ईंट थी , उसका क्या हुआ ? ‘ ‘ कुएं में चली गई ।

              अब हम भी वहीं लौट चलते हैं , जहाँ से चले थे । अब ध्यान न लगने की चिंता नहीं रहेगी ‘ – गुरुदेव ने शिष्य से कहा । एक लम्बी श्वास छोड़ते हुए शिष्य ने कहा- ‘ सच है गुरुदेव आसक्ति का मन से परित्याग किए बिना कोई भी ईश्वर में मन नहीं लगा सकता । ईश्वर को प्राप्त करने के लिए सांसारिक माया मोह का त्याग करना आवश्यक है ।


बाधाओं को चीरकर अस्तित्व को बचाया

             दूसरे विश्वयुद्ध में मित्र – राष्ट्र संगठित रूप से जर्मनी से टक्कर ले रहे थे । इसी बीच 24 मार्च 1944 ई . को ब्रिटेन के सार्जेंट ‘ निकोलस ‘ ने बर्लिन पर बमबारी करने के लिए हवाई जहाज से उड़ान भरी । बमबारी के बाद वह लौट रहे थे कि शत्रु सेना की विमानभेदी तोपों ने निकोलस के जहाज पर आग उगलना शुरू कर दिया । देखते ही देखते उसके विमान में आग लग गई ।

               निकोलस ने वायरलैस से कसान से सहयोग के लिए अभ्यर्थना की । कप्तान का स्वर सुनाई पड़ा – ‘ हम फिलहाल सहयोग करने में असमर्थ है । स्वयं बचाव का प्रयत्न कीजिए । ‘ उसने पैराशूट नहीं पहन रखा था । पैराशूट निकालने के लिए वह केबिन की ओर मुड़ा , किंतु जैसे ही द्वार खोला , लपलपाती हुई ज्वाला उसकी ओर बढ़ी । पैराशूट जलकर राख हो गया । आग विमान में फैलती जा रही थी । देरी करता तो बहुत अनिष्ठ हो सकता था । परमात्मा का स्मरण करता हुआ वह विमान से कूद पड़ा । चेतना लौटी , तो उसने अपने को बर्फ से ढका पाया । उसके पैर की हड्डियां टूट गई थी , इसलिए वह उठ नहीं पाया ।

              उसने यह जरूर जान लिया था कि वह निरापद नहीं है । अनुमान ही था कि यह क्षेत्र शत्रु का होना चाहिए । रात के दो बज रहे थे । जीवन की सुरक्षा के लिए उसने कमर में बंधी सीटी बजा दी । कई बार सीटी बजाए जाने पर शत्रु सैनिकों ने आकर उसे बंदी बना लिया । निकोलस ने शत्रु सेना के मौजूद अधिकारियों को सारी घटना बताई , किंतु किसी को यह भरोसा नहीं हो रहा था । जले हुए विमान के अवशेष मिलने पर अधिकारियों को यकीन करना पड़ा । युद्धबंदियों को लड़ाई समाप्त होते ही छोड़ा गया ।

             निकोलस सकुशल इंग्लैण्ड पहुंचा । कहने को तो यह सामान्य घटना है मगर यह मानवीय साहस का परिचय देती है और इस बात की भी सबूत है कि जीवन के प्रति अदम्य प्रेम करने वाले वीरवर बाधाओं और प्रतिकूलताओं को चीरते हुए अपना अस्तित्व बरकरार रखने में सर्वथा समर्थ और कामयाब होते हैं ।


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