मूल अधिकार | Fundamental Rights

भारत के संविधान में मूल अधिकार

विषय-सूची

मूल अधिकार का अर्थ एवं महत्त्व :-

            मूल अधिकारों की व्यवस्था भारत के संविधान की एक प्रमुख विशेषता है। मूल अधिकार उन अधिकारों को कहा जाता है जो व्यक्ति के लिये मौलिक तथा अनिवार्य होने के कारण संविधान द्वारा प्रदान किये जाते हैं और जिन अधिकारों में राज्य द्वारा भी हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता। 

मूल अधिकारों का महत्त्व 

  1. मौलिक अधिकारों को मूल विधि या संविधान में स्थान प्रदान किया जाता है। 
  2. इन्हें संविधान संशोधन की विशिष्ट विधि द्वारा ही परिवर्तित किया जा सकता है। 
  3. इनका राज्य द्वारा अतिक्रमण नहीं किया जा सकता। दूसरे शब्दों में ये राज्य की व्यक्ति के विरुद्ध स्वेच्छाचारिता पर रोक है। 
  4. मौलिक अधिकार प्रजातन्त्र के आधार स्तम्भ हैं, इनके अभाव में व्यक्ति का सर्वांगीण विकास सम्भव नहीं है। 
  5. मौलिक अधिकारों को न्यायिक सुरक्षा भी प्राप्त होती है। इनका किसी भी प्रकार से उल्लंघन होने से नागरिक न्यायालय का संरक्षण प्राप्त कर सकता है। 

भारत के संविधान में मौलिक अधिकार :-

            भारत के संविधान के भाग तीन में अनुच्छेद 12 से 35 तक नागरिकों के लिये मूल अधिकारों की व्यवस्था की गई है। मूलतः संविधान में सात मौलिक अधिकार थे परन्तु 44 वें संविधान संशोधन 1978 के द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार की सूची से हटा दिया गया है। अब यह केवल समानता का अधिकार कानूनी अधिकार है। वर्तमान में भारतीय नागरिकों को छ : मौलिक अधिकार प्राप्त है :-

  1.  समानता का अधिकार
  2. स्वतन्त्रता का अधिकार 
  3. शोषण के विरुद्ध अधिकार 
  4. धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार 
  5. सांस्कृतिक एवं शिक्षा सम्बन्धी अधिकार 
  6. सांविधानिक उपचारों का अधिकार

1. समानता का अधिकार ( अनुच्छेद 14 से 18 तक ):-

            भारतीय संविधान में प्रत्येक नागरिक को समता का अधिकार प्रदान किया गया है। इस अधिकार का उद्देश्य सामाजिक समता स्थापित करना है। इस अधिकार के अन्तर्गत संविधान में निम्न प्रावधान है : 

कानून के समक्ष समानता 

            अनुच्छेद 14 के अनुसार भारत के राज्य क्षेत्र में राज्य किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से तथा विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा ।

धर्म , मूलवंश , जाति या जन्म स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध 

            अनुच्छेद 15 के अनुसार राज्य नागरिकों के विरुद्ध केवल धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा । सब नागरिकों को दुकानों, सार्वजनिक स्थानों, भोजनालयों, होटलों, सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों, कुओं, तालाबों, स्नानघरों, सड़कों इत्यादि का प्रयोग करने का समान अधिकार होगा। लेकिन स्त्रियों , बच्चों , पिछड़े वर्ग के नागरिकों तथा अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिये विशेष प्रबन्ध किये जा सकते हैं। इससे अन्य लोगों के समानता के अधिकार का हनन नहीं होगा। 

लोक नियोजन के विषय में अवसर की समानता 

            अनुच्छेद 16 के अन्तर्गत सभी नागरिकों को सरकारी पद पर नियुक्ति के समान अवसर प्राप्त होंगे और इस सम्बन्ध में केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग  या जन्म स्थान के आधार पर सरकारी नौकरी या पद प्रदान करने में कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा। इसके कुछ अपवाद भी हैं। जैसे – राज्य के मूल निवासियों के लिए आरक्षण, पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण इत्यादि। 

अस्पृश्यता का अन्त 

            अनुच्छेद 17 के अन्तर्गत कहा गया है कि ” अस्पृश्यता का अन्त किया जाता है और इसका किसी भी रूप में आचरण निषिद्ध किया जाता है। अस्पृश्यता से उपजी किसी निर्योग्यता को लागू करना अपराध होगा, जो विधि के अनुसार दण्डनीय होगा। अस्पृश्यता को समाप्त करने के लिए सरकार ने ‘ अस्पृश्यता अपराध अधिनियम , 1955 ‘, नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1976 , अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति निरोधक कानून, 1989 पारित किया है । 

उपाधियों का अन्त 

            अनुच्छेद 18 के अनुसार सेना तथा विद्या सम्बन्धी उपाधियों के अतिरिक्त राज्य अन्य कोई उपाधियाँ प्रदान नहीं करेगा। इसके साथ ही भारत का कोई नागरिक राष्ट्रपति की आज्ञा के बिना विदेशी राज्य की कोई उपाधि स्वीकार नहीं करेगा। 

2. स्वतन्त्रता का अधिकार ( अनुच्छेद 19 से 22 तक ):-

             भारत के मूल संविधान में सात प्रकार की स्वतन्त्रताएं प्रदान की गई थीं लेकिन 44 वें संविधान संशोधन द्वारा सम्पत्ति सम्बन्धी स्वतन्त्रता के अधिकार को समाप्त कर दिया गया है। वर्तमान में संविधान द्वारा नागरिकों को निम्नलिखित स्वतन्त्रताएँ प्रदान की गई हैं:- 

( i ) विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता :

            अनुच्छेद 19 ( 1 ) ( क ) के अन्तर्गतभारत के सभी नागरिकों को विचार व्यक्त करने तथा भाषण देने का अधिकार है। प्रेस की स्वतन्त्रता भी इसमें सम्मिलित है। इस स्वतन्त्रता पर भारत की प्रभुता व अखण्डता के पक्ष में राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्य के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों के हित में, लोक व्यवस्था , शिष्टाचार या सदाचार के हित में न्यायालय अवमानना, मानहानि, अपराध के लिये उत्तेजित करना आदि के सम्बन्ध में युक्तियुक्त निर्बन्धन लगाये जा सकते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में प्रेस की स्वतंत्रता अन्तर्निहित है। 

( ii ) शान्तिपूर्ण और निरायुद्ध सम्मेलन की स्वतन्त्रता :

            अनुच्छेद 19 ( 1 ) ( ख ) के अन्तर्गत सभी नागरिकों को शान्तिपूर्ण और बिना किन्ही शस्त्रों के सभा या सम्मेलन करने का अधिकार दिया गया है। इस अधिकार पर भी राज्य द्वारा सार्वजनिक सुरक्षा के हित में इस स्वतन्त्रता को भी सीमित किया जा सकता है। 

( iii ) संगम व परिसंघ बनाने की स्वतन्त्रता :

            अनुच्छेद 19 ( 1 ) ( ग ) के अनुसार सभी नागरिकों को समुदाय या संघ के निर्माण की स्वतन्त्रता प्रदान की गई है। इस स्वतन्त्रता पर भी युक्तियुक्त निर्बन्धन लगाये जा सकते हैं। 

( iv ) भारत के राज्य क्षेत्र में अबाध भ्रमण की स्वतन्त्रता :

            अनुच्छेद 19 ( 1 ) ( घ ) के अनुसार भारत के सभी नागरिकों को अपनी इच्छानुसार भारत के किसी भी स्थान पर अबाध भ्रमण की स्वतन्त्रता प्राप्त है।

 

( v ) भारत के राज्य क्षेत्र के किसी भी भाग में निवास करने और बसने की स्वतंत्रता :

            अनुच्छेद 19 (1) ( ड .) के द्वारा नागरिकों को भारत के राज्य क्षेत्र के किसी भाग में निवास करने या बस जाने की स्वतंत्रता प्रदान की गई है।

( vi ) वृत्ति , उपजीविका या कारोबार की स्वतन्त्रता :

            अनुच्छेद 19 ( 1 ) ( छ ) के द्वारा सभी नागरिकों को वृत्ति , उपजीविका , व्यापार या कारोबार की स्वतन्त्रता प्रदान की गई है ।

             ये स्वतन्त्रताएँ भी राज्य के हित में निर्बन्धन से मुक्त नहीं हैं । मूल संविधान में उल्लिखित सम्पत्ति के अर्जन , धारण एवं व्ययन की स्वतंत्रता ( अनुच्छेद 19 ( 1 ) ( च ) ) को 44 वें संविधान संशोधन द्वारा समाप्त कर दिया गया है । 

व्यक्तिगत स्वतंत्रताएं :

            इस स्वतंत्रता के अन्तर्गत अनुच्छेद 20 , 21 , 22 द्वारा प्रत्याभूत मौलिक स्वतंत्रताओं की गणना की जाती है:- 

( i ) अपराधों के लिये दोष सिद्धि के सम्बन्ध में संरक्षण : अनुच्छेद 20 में अपराधों के लिये दोष सिद्धि के सम्बन्ध में सुरक्षा प्रदान की गई है कि किसी भी व्यक्ति को तभी दण्डित किया जा सकता है, जब  ( अ ) विद्यमान कानून का उल्लंघन करता हो, ( ब ) किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक दण्ड नहीं दिया जा सकता, ( स ) व्यक्ति को अपने विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए बाध्य नही किया जा सकता ।

 

( ii ) प्राण व दैहिक स्वतन्त्रता का संरक्षण : अनुच्छेद 21 के अनुसार किसी व्यक्ति को उसके प्राण ( जीवन ) या दैहिक स्वतन्त्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जायेगा , अन्य किसी प्रकार से नहीं । 44 वें संविधान संशोधन , 1978 द्वारा इस अधिकार को और अधिक सुरक्षित बना दिया गया है। अब आपातकाल में भी जीवन और दैहिक स्वतन्त्रता के अधिकार को समाप्त या सीमित नहीं किया जा सकता।

 

( iii ) कुछ दशाओं में गिरफ्तारी व निरोध से संरक्षण : अनुच्छेद 22 के अनुसार व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार से जीवन तथा स्वाधीनता से वंचित नहीं किया जा सकेगा । इसमें निम्न बिन्दुओं पर ध्यान दिया जाता है:- 

( अ ) किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने के 24 घण्टे के अन्दर उसे दण्डाधिकारी के सम्मुख प्रस्तुत किया जायेगा । दण्डाधिकारी की अनुमति के बाद ही उसे अभिरक्षा में निरुद्ध रखा जा सकेगा । 

( ब ) बन्दी बनाये गये व्यक्ति को वकील से परामर्श करने का अधिकार है । 

( स ) बन्दी बनाये जाने के कारणों को यथाशीघ्र बताया जाये । 

            यह अधिकार भारत में निवास करने वाले विदेशी, शत्रु या निवारक निरोध अधिनियम के अन्तर्गत गिरफतार व्यक्तियों पर लागू नहीं होगा । 

            निवारक निरोध से तात्पर्य बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया के नजरबन्दी से है । यह अपराध के लिये दण्डित करने की नहीं अपितु अपराध करने से रोकने की प्रक्रिया है । यह सामान्य व संकट काल दोनों ही स्थिति में लागू हो सकती है। सन 1950 में निवारक निरोध कानून ( Preventive Detention Act , 1950 ) का निर्माण तीन वर्ष के लिए किया गया था किन्तु समय समय पर इसकी अवधि बढ़ाई जाती रही है तथा पृथक – पृथक नाम भी रखे जाते रहे हैं जो निम्न हैं :-

  1. आन्तरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम ( Maintenance of Intermal Security Act , 1971 ) 
  2. राष्ट्रीय सुरक्षा कानून ( National Security Act , 1980 ) 
  3. आतंककारी और विध्वंसकारी गतिविधि निवारक कानून , 1985 ( Terrorists and Disruptive Activities Prevention Act , 1985 ) 
  4. TCT ( Prevention of Terrorism Act , 2002 ) 

            केन्द्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन ( यू.पी.ए. ) सरकार ने दिसम्बर , 2004 में पोटा को निरस्त कर दिया । 

             निवारक निरोध व्यवस्था को कटु आलोचनाओं का सामना करना पड़ा । इन्हें अलोकतांत्रिक प्रतिक्रियावादी . संविधान की महान असफलता तथा निरंकुशता का पत्र माना गया । निवारक निरोध ‘ दुरुपयोग की सम्भावना सदैव बनी रहती है तथापि इसकी उपयोगिता से इन्कार नहीं किया जा सका। इसका प्रयोग अत्यन्त सावधानी से असामान्य परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिये क्योकि नकारात्मक तथा समाज विरोधी गतिविधियों पर किसी न किसी प्रकार का अंकुश अत्यन्त आवश्यक है ।

3. शोषण के विरुद्ध अधिकार ( Right against Explotation ) :- 

( i ) बेगार या अन्य बलात् श्रम का निवेध ( Prohibition of ‘ Begar ‘ and Forced Labour ) :-  

            प्राचीन भारत में जमींदारी तथा सामंतवादी प्रथा के कारण असंख्य लोग इस प्रकार के शोषण के शिकार होते रहे है । इसलिये संविधान के अनुच्छेद 23 द्वारा बेगार तथा अन्य बलात् श्रम का निषेध किया गया है । राज्य के हित में व्यक्ति को आवश्यक सेवा देने के लिये बाध्य किया जा सकता है , ऐसा करते समय राज्य धर्म या जाति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा। 

( ii ) बाल श्रम का निषेध ( Prohibition of Child Labour ):-

            अनुच्छेद 24 के अनुसार 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को कारखानों , खानों अथवा अन्य खतरनाक स्थलों पर काम पर नहीं लगाया जा सकेगा । 

4. धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार ( Right to Freedom of Religion ):-

             संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 में व्यक्ति को धार्मिक स्वतंत्रता , अन्तःकरण की स्वतंत्रता , किसी धर्म को स्वीकार करने , उसका पालन करने व प्रचार करने की स्वतंत्रता प्रदान की गई है । व्यक्ति को धार्मिक संस्थाओं के निजी मामलों का प्रबन्ध करने , चल व अचल सम्पत्ति को रखने व उसके संचालन की स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान किया गया है । धार्मिक कार्यों के लिए दान तथा चन्दा लेने व देने पर कोई कर नहीं लगाया जा सकता । विभिन्न धर्म एवं सम्प्रदायों को अपनी शिक्षण संस्थाएं चलाने की स्वतंत्रता है लेकिन किसी व्यक्ति को धार्मिक शिक्षा के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता । संविधान सभी धर्मों के प्रति समान व्यवहार करता है । इस दृष्टि से वह एक धर्म निरपेक्ष राज्य की स्थापना करता है । धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार पर सदाचार , स्वास्थ्य एवं सार्वजनिक व्यवस्था के आधार पर युक्तियुक्त निर्बन्धन लगाये जा सकते हैं । 

5. संस्कृति व शिक्षा सम्बन्धी अधिकार ( Cultural and Educational Rights ):-

            संविधान द्वारा भारत के सभी नागरिकों को संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार प्रदान किया गया है:-

( i ) अल्पसंख्यक वर्गों के हितों का संरक्षण :

            अनुच्छेद 29 के अनुसार भारत के सभी नागरिकों व प्रत्येक वर्ग को अपनी विशेष भाषा , लिपि , संस्कृति बनाये रखने की स्वतन्त्रता है । राज्य द्वारा संचालित या वित्त पोषित संस्थाओं में प्रवेश के लिए जातिगत आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा । 

( ii ) अल्पसंख्यक वर्ग को शिक्षा संस्थाओं की स्थापना व प्रशासन का अधिकार :

            अनुच्छेद 30 के अनुसार अल्पसंख्यक वर्ग को अपनी इच्छानुसार शिक्षण संस्था की स्थापना तथा उसके प्रशासन का अधिकार है । ऐसी शिक्षण संस्थाओं को राजकीय अनुदान देते समय राज्य , धर्म या भाषा के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा । इस प्रकार संविधान मे अल्पसंख्यक वर्ग के हितों का संरक्षण किया गया है । उपर्युक्त प्रावधान भारतीय समाज में विविधता को अक्षुण्ण बनाये रखते हुए एकता की भावना को साकार करते हैं । 

6. सांविधानिक उपचारों का अधिकार : ( Right to Constitutional Remedies ):-

             संविधान में केवल मूल अधिकारों का ही उल्लेख नहीं है अपितु संविधान में इनके प्रवर्तन का भी प्रावधान है । संविधान के अनुच्छेद 32 के महत्त्व की व्याख्या करते हुये डा . अम्बेडकर ने कहा था कि यदि मुझसे कोई यह पूछे कि संविधान का सबसे महत्त्वपूर्ण अनुच्छेद कौनसा है जिसके बिना संविधान शून्य प्रायः हो जायेगा , तो इस अनुच्छेद को छोड़कर मैं किसी अनुच्छेद की ओर सकेत नहीं करता , यह तो संविधान का हृदय व आत्मा है । किसी भी नागरिक के मूल अधिकारों का किसी भी प्रकार यदि हनन होता है तो उसे न्यायालय की शरण लेने का अधिकार है । विधायिका द्वारा निर्मित कानून तथा कार्यपालिका द्वारा क्रियान्वित गतिविधियाँ जो मूल अधिकारों के विरुद्ध हैं, उन्हें न्यायालय द्वारा अवैध घोषित किया जा सकता है । न्यायाधीश पातंजलि शास्त्री ने कहा है कि उच्चतम न्यायालय मौलिक अधिकारों के संरक्षण के पवित्र कार्य का पालन करने वाले सजग प्रहरी के समान है । सविधान न्यायालय द्वारा पांच प्रकार के लेख जारी करने की व्यवस्था की गई है । 1. बन्दी प्रत्यक्षीकरण लेख ( Habeas Corpus ) 2. परमादेश ( Mandamus ) 3. प्रतिषेध ( Prohibition ) 4. उत्प्रेषण ( Certiorani ) 5. अधिकार – पृच्छा ( Quo Waranto ) 

सम्पत्ति का अधिकार – कानूनी अधिकार ( Right to Property : Legal Right ) :-

          संविधान के 44 वें संशोधन ( 1978 ) द्वारा सम्पत्ति का अधिकार मूल अधिकार नहीं रहा है । यह मौलिक अधिकार नहीं वरन कानूनी अधिकार है लेकिन साथ ही यह व्यवस्था की गई है कि किसी व्यक्ति को विधि के प्राधिकार के बिना उसकी सम्पत्ति से वंचित नहीं किया जायेगा । 

मौलिक अधिकारों का मूल्यांकन :- 

             जब मौलिक अधिकारों के स्वरूप व प्रकार पर संविधान सभा में वाद – विवाद चल रहा था उसी समय इनकी व्यावहारिकता , उपयोगिता तथा यथार्थता पर प्रश्न चिन्ह लगाया जा रहा था । मौलिक अधिकार की आलोचना निम्न आधारों पर की जाती है :- 

  1.  संविधान में वर्णित मूल अधिकारों में काम प्राप्त करने का अधिकार , निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार , विशेष परिस्थितियों में राज्य से सहायता प्राप्त करने के अधिकारों को सम्मिलित नहीं किया गया है। 
  2. आलोचकों का कथन है कि मूल अधिकारों पर इतने प्रतिबन्ध लगा दिये गये हैं कि इनके बारे में कहा जाता है कि संविधान द्वारा एक हाथ से मूल अधिकार प्रदान किये गये और दूसरे हाथ से ले लिये गये । 
  3. मूल अधिकार आपातकाल में स्थगित किये जा सकते हैं, यह तो न्यायोचित लगता है , पर शान्तिकाल में भी उनके स्थगन का प्रावधान मूल अधिकारों के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगा देता है । सोमनाथ लाहिडी ने कहा था कि भारतीय संविधान के मूल अधिकारों की व्यवस्था पुलिस के सिपाही के दृष्टिकोण से की गई है न कि एक स्वतन्त्र तथा संघर्षशील राष्ट्र की दृष्टि से ।
  4. मूल अधिकार भारतीय नागरिकों को व्यवस्थापिका की निरंकुशता से सुरक्षा प्रदान करने में समर्थ नहीं है । संसद तथा विधानसभा द्वारा बनाये गये कानून वैध हैं , चाहे वे नागरिक हितो के प्रतिकूल ही क्यों न हो । 
  5. निवारक निरोध , शान्तिकाल में भी मौलिक अधिकारों का स्थगन आदि व्यवस्थायें नागरिकों पर लगातार मानसिक दबाव बनाये रखने की व्यवस्था है । एच . वी . कामथ के अनुसार जिस शान्ति की परिकल्पना की गई है वह कब्र और रेगिस्तान की शान्ति हो सकती है । निवारक निरोध के सम्बन्ध में प्रो . पायली ने कहा है कि यह प्रजातन्त्र के सुन्दर मुखड़े पर एक कलक की तरह लगा हुआ है । 
  6. मौलिक अधिकारों पर प्रतिबन्धों की व्यवस्था संविधान में राष्ट्र व समाज विरोधी गतिविधियों को रोकने के लिए की गई । व्यावहारिक दृष्टि से इनका प्रयोग राजनीतिक विरोधियों के स्वर को दबाने के लिये भी किया गया है । 
  7. भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों के अन्तर्गत अल्पसंख्यकों , अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लिये विशेष संरक्षण की व्यवस्था की गई है लेकिन इसका प्रयोग वोट की राजनीति के लिए हुआ है । 
  8. शोषण के विरुद्ध अधिकार , लिखने , पढ़ने व सुनने में अत्यन्त सुखद लगता है पर इसके लिये जिस प्रकार के सामाजिक , आर्थिक व राजनीतिक वातावरण की आवश्यकता थी , वह तो तैयार ही नहीं हुआ । दरिद्रता , विषमता , बेरोजगारी अशिक्षा , व अज्ञान के वातावरण में बाल श्रम को जोखिम भरे काम से रोक पाना व्यावहारिक रूप में सम्भव नहीं है । 
  9. मौलिक अधिकारों में न्यायिक संरक्षण व सुरक्षा का उल्लेख किया गया है लेकिन वर्तमान में न्यायिक प्रक्रिया लम्बी , जटिल तथा खर्चीली है । 
  10. मौलिक अधिकारों के सम्बन्ध में आरोप यह भी लगाया जाता है कि इनकी भाषा कठिन है जिसे सामान्य जनता सरलता से नहीं समझ सकती । 

            उपर्युक्त आलोचनाओं के बावजूद मौलिक अधिकारों का महत्त्व कम नहीं हुआ है क्योंकि राष्ट्र की सुरक्षा , व्यक्ति की स्वतन्त्रता से अधिक मूल्यवान है । मौलिक अधिकारों के अतिक्रमण की परिस्थिति अल्पकालिक ही होती है ।


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