विषय-सूची
सहानुभूति या समानुभूति
प्रेरक प्रसंग | Motivational Incident
रामकृष्ण परमहंस बहुविद् और बहुश्रुत संन्यासी थे। उन्होंने बाल्यकाल से ही गहन अध्ययन किया था। देशी – विदेशी चिंतकों – दार्शनिकों का गहन मंथन भी उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में झलकता था। एक दिन उनसे मिलने आए कुछ लोगों से प्रसिद्ध दार्शनिक शास्त्र की चर्चा चल गई।
परमहंस ने सात्र का एक वाक्य उद्धृत किया ‘ दि अदर इज हैल ‘ यानी द्वैत ही नरक है। यह तो खासा अद्वैतवाद था। थोड़ी देर बाद उन्हें नौका में बैठाकर यही भक्तगण उस पार ले जाने लगे।
अचानक नाव में बैठे – बैठे परमहंस चिल्लाने लगे – ‘मुझे मत मारो। मत मारो। क्यों मारते हो।’
सारे भक्त भौंचक्के होकर उनके पैर दबाने लगे और पूछने लगे ‘स्वामीजी ! आपको कौन मार सकता है? ‘
परमहंस ने पीठ उघाड़ दी। वहाँ कोड़ों के निशान स्पष्ट थ। खून छलक आया था। भक्तगण घबरा गए। तभी नाव किनारे के पास पहुंच गई। वहाँ कुछ मल्लाह एक मछुआरे को मार रहे थे। उसकी पीठ पर कोड़ों की मार के जो निशान बने, ठीक वैसे ही परमहंस की पीठ पर थे। भीड़ इकट्ठी हो गई। तय करना कठिन था कि चोट किसको ज्यादा है। मछुआरे को या परमहंस को ? निशान वही हैं लेकिन चोट तो परमहंस को ज्यादा लगी है।
मल्लाहों द्वारा मारे जाने पर मछुआरा तो विरोध कर रहा था, लेकिन परमहंस विरोध भी नहीं कर रहे थे। वे सिर्फ इतना कह रहे थे – ‘मुझे मत मारो। क्यों मारते हो ?’ जब उनके भक्तों ने उनकी पीठ पर कोड़े की चोटें देखकर गहन दुःख व्यक्त किया।
तब वे बोले कि देखो ! वह जो दार्शनिक शास्त्र की सूक्ति है कि “दि अदर इज हैल।” द्वैत ही नरक है। वह यही है ! उसे मत मारो। यह द्वैत है। ऐसा कहकर सहानुभूति व्यक्त करते हैं। लेकिन दूसरे को पिटता देखकर ‘मुझे मत मारो’ कथन अद्वैत है। यहां सहानुभूति यानी सिम्पैथी के बदले समानुभूति यानी एम्पैथी है।
प्रेरक प्रसंग | Motivational Incident
नींद और जागृत अवस्था की दशा
किसी गांव में एक मां – बेटी थीं। बेटी जवान हो रही थी, लेकिन उनका विवाह नहीं हो पा रहा था। विधवा वृद्धा मां इसी चिंता में दुबली होती जा रही थी। जवान बेटी घर से बाहर जाती तो मां उसकी चौकसी करती। बेटी को मां की चौकीदारी नापसंद थी।
संयोग की बात कि दोनों को नींद में चलने और बड़बड़ाने की आदत थी। उस रात दोनों नींद में उठ गई। सड़क पर चलने लगीं। मां नींद में है। जोर – जोर से बोल रही है। लड़की को गालियां दे रही है – “इस दुष्ट के कारण मेरा जीना हराम हो गया है। यह जवान हो रही है और मैं बुढ़ापे से दबी जा रही हूं।”
बाजू की सड़क पर उसकी लड़की भी नींद में चली जा रही थी। वह बड़बड़ा रही थी – “यह दुष्ट बुढ़िया मेरा पीछा छोड़ती ही नहीं। जब तक यह जीवित है, मेरा जीवन नर्क है।”
वे दोनों नींद में चल रही थीं। तभी मुर्गे ने बांग दी। चिड़िया चहचहाने लगीं। ठण्डी बयार बहने लगीं। बूढ़ी मां ने अपनी बेटी को देखा।
वह प्यार भरे स्वर में बोली- ‘आज इतनी जल्दी उठ गई। कहीं सर्दी न लग जाए। ऐसे दबे पांव उठी कि मुझे जरा पता ही नहीं चला। ‘ बेटी ने मां को देखा। झुककर उसके पैर छू लिए। मां ने बेटी को गले से लगा लिया।
बेटी उलाहने के स्वर में बोली – ‘मां कितनी बार कहा कि इतने सुबह न उठा करो। मैं पानी भर दूंगी। घर साफ कर दूंगी। तुम बूढी हो, बीमार पड़ गई तो क्या होगा? मां, तुम ही तो मेरा एकमात्र सहारा हो। इतनी मेहनत करना ठीक नहीं है। मैं किसलिए हूं? ‘
मां – बेटी नींद में क्या कह रही हैं। नींद से जागने पर क्या कह रहीं हैं। नींद तो झूठ है, सपना भी झूठ है। नींद में चलना रोग है। बात एकदम उल्टी है। जो नींद में कह रही थीं वही सच था। जो जागने पर कह रही है, वह एकदम झूठ है। मन में गहरी दबी बातें भी नींद में बाहर आ जाती है। हम सजन व्यक्ति सुप्तावस्था में वही करते हैं जो दुर्जन लोग जागृत अवस्था में किया करते हैं।
प्रेरक प्रसंग | Motivational Incident
दृष्टि से ही दृष्टा बनते हैं।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस के जीवन में एक अद्भुत अनुभव उस समय हुआ जब वे किशोर थे। उनके परिचित उन्हें गदाधर से गदई कहा करते थे। वे खेत से लौट रहे थे। तालाब के किनारे से निकलते वक्त उनके पैरों कि आहट सुनकर कुछ बगुले जो तालाब पर बैठे थे, एकदम से उड़े। अद्भुत दृश्य बन गया था आकाश में। कोई दस – पंद्रह बगुलों की धवल – श्वेत कतार और उनके पीछे सावन मास का काला बादल। उस काले बादल कि पृष्ठभूमि से वे श्वेत पक्षी तीर की भांति ऐसे निकले जैसे बिजली कौंध हो गई हो।
रामकृष्ण वहीं ठिठक गए। जैसे उन्हें कुछ हो गया। वे वहीं पोखर के तट पर मूर्छित होकर गिर गए। आसपास के किसान उन्हें उठाकर घर ले आए। किसी के समझ में नही आया कि उन्हें यकाएक ये क्या हो गया ? रामकृष्ण को भी समझ में नहीं आया। होश आ गया। सब भूल गए।
किसी ने कहा कि भूखा था दिन भर का। खेत में मेहनत की। लौटते समय चक्कर आ गया होगा। छोटा बच्चा है। शायद थक गया होगा। जो समझदार बुजुर्ग थे, उन्होंने रामकृष्ण से पूछा- ‘ बेटा! तुम्हें क्या हुआ था ?
रामकृष्ण ने कहा- ‘बगुलों की एक श्वेत पंक्ति और पृष्ठभूमि में काला बादल देखकर मेरे भीतर कुछ हो गया। बिजली – सी कौंध गई। पता नहीं क्या हुआ, लेकिन अपूर्व आनंद आ गया। उसी आनंद में मैं गश खाकर गिर गया।’
रामकृष्ण को उस आयु में परमात्म – तत्व को ज्ञान तो था नहीं, जो वे कहते कि उस दृश्य में उन्हें परमात्मा का अनुभव हुआ। अभिप्राय तो कई वर्ष पीछे खुला जब उनकी चेतना के स्तरों की परतें खुलती गईं। रामकृष्ण को याद आ गया कि उस दिन सफेद बगुले और काले बादल नहीं थे; वह तो तू ही उड़ा था और मैं नासमझ। मेरी मूर्छा तो समाधि थी। दृश्य रहता है मगर दृष्टि हो तो दृष्टा बन जाते हैं।
प्रेरक प्रसंग | Motivational Incident
वृद्धावस्था उपेक्षा के योग्य नहीं
एक गाँव में धर्मपाल नामक किसान अपनी पत्नी मैना और पुत्र सुदास के साथ निवास करता था। वह बड़े परिश्रम से खेती करके अपने परिवार का भरण पोषण करता था। पुत्र से वह कोई काम नहीं लेता था। अपनी पत्नी के टोकने पर वह कहता – ‘अभी तो उसके खेलने – खाने के दिन है , उससे भला क्या काम लेना।’
कुछ दिन पश्चात गाँव में हैजे की बीमारी फैली । मैना महामारी की वेदी पर चढ़ गई। आखिर धर्मपाल ने सुदास का विवाह कर दिया। धर्मपाल परिश्रम की आग में जलकर और अधिक दुर्बल हो गया। इन्हीं दिनों में बहु रमणा ने पुत्र को जन्म दिया। रमणा के पुत्र का नाम ज्ञानी रखा। ज्ञानी बड़ा होने लगा। वह अपने दादा धर्मपाल से बहुत प्यार करता था।
धर्मपाल की जर्जर अवस्था देखकर रमणा ने अपने पति सुदास से कहा- ‘देखो, अब यह वृद्ध अच्छा नहीं होने वाला है। अच्छा हो, जल्द से जल्द इससे पिंड छुड़ा लिया जाए। ‘ सुदास रमणा की बात से सहमत हो गया और उसने बूढ़े पिता को ठिकाने लगाने की ठानी।
दूसरे दिन सुदास पौ फटने के पहले उठा और उसने चारपाई सहित अपने पिता को बैलगाड़ी पर लाद लिया। संयोग से ज्ञानी भी जाग गया और वह भी साथ चलने की जिद करने लगा। सुदास ने प्यार से उसे समझाना चाहा परंतु वह नहीं माना। बैलगाड़ी एक वन में जा पहुंची। सुदास ने एक वृक्ष के नीचे बैलगाड़ी खड़ी करके ज्ञानी को पिता की देख रेख को छोड़ दिया और फावड़ा लेकर एक ओर चला गया। घंटों बीत जाने पर भी सुदास नहीं आया तो ज्ञानी वन में पहुंचा, देखा पिता फावड़े से गहरा गड्ढा खोदने में लगे हैं। उसने पूछा – ‘पिताजी आप गड्ढा क्यों खोद रहे हो ?’
सुदास ने उत्तर दिया- ‘तुम्हारे दादा बहुत बीमार हैं, यह गड्ढा उन्हीं के लिए खोद रहा हूं। ज्ञानी ने बड़े भोलेपन से कहा – ‘ पिताजी, यह फावड़ा आप मुझे दे दें। आप भी एक दिन बूढ़े होंगे, बीमार होंगे। मैं पहले से ही आपके लिए एक गड्ढा तैयार रखना चाहता हूं।’ यह सुन सुदास का अन्तर्मन तुरंत जाग उठा ।
प्रेरक प्रसंग | Motivational Incident
क्षमा ग्रहण कर बैर को बिसराएं
पौराणिक कथा के अनुसार त्रिजा त्रिशंकु ने यज्ञ किया। इसमें विश्वामित्र और वशिष्ठ के पुत्र शक्ति में किसी बात को लेकर संघर्ष हो गया और विश्वामित्र के श्राप से शक्ति और उसके सब भाइयों का राक्षसों ने आहार कर लिया। यह सब महर्षि वशिष्ठ ने आंखों से देखा मगर वह तो क्षमा की साक्षात् मूर्ति थे।
दूसरी ओर , उनके परिवार में कोहराम मच गया। उनकी पत्नी अरुंधती एवं शक्ति की पत्नी शोक – सागर में डूब गई। वशिष्ठ ने यथावसर उन्हें धीरज बंधाया। पुत्र – वधू ने कहा – ‘हमारा वंश नष्ट नहीं होगा। मेरे गर्भ में एक बालक है।’
पौत्र के पैदा होने पर वशिष्ठ ने उसका नाम पराशर रखा। बड़े होने पर उसने अपनी मां से पूछा – ‘मां ! मेरे पिताजी कौन है ?’ मां ने बेटे को सारा हाल सुनाया कि विश्वामित्र के श्राप से राक्षसों ने उसके पिता और पिता के भाइयों को नष्ट कर दिया। पराशर को भयंकर क्रोध आ गया। उन्होंने देवाधिदेव भगवान् शंकर की अर्चना की और अपने संकल्प को पूरा करने की शक्ति अर्जित कर ली। वह पूरे विश्व के संहार की योजना बनाने में जुट गए।
वशिष्ठ ने उनको समझाया – ‘वत्स ! तुम्हारा क्रोध स्वाभाविक है किंतु, विश्व के संहार की योजना उचित नहीं है।’ पराशर ने विश्व संहार की योजना को छोड़ राक्षस – सत्र आरंभ किया। इस सत्र के फलस्वरूप राक्षस अग्नि में गिरकर भस्म होने लगे। मुनि वशिष्ठ ने यह देखा तो कहा – ‘वत्स ! इतना क्रोध मत करो। याद रखो, अपने किए के अनुसार सबका भला बुरा होता है। सज्जनों का काम क्षमा करना होता है।’
पितामह का उपदेश सुनकर पराशर ने अपना सत्र समाप्त कर दिया। उसी समय दैत्यों के कुल – पुरुष महर्षि पुलस्त्य ने प्रकट होकर कहा – ‘पुत्र ! क्षमा ग्रहण करके तुमने बैर को भुला दिया है। यह तुम्हारे कुल की मर्यादा के अनुरूप है। मैं आशीर्वाद देता हूं कि तुम विभिन्न शास्त्रों के ज्ञाता बनोगे और विष्णुपुराण की रचना करोगे।’
महर्षि का आशीर्वाद फलीभूत हुआ और पराशर ने मैत्रेय को संबोधित करते हुए समस्त पाप विनाशक विष्णुपुराण की पंचलक्षणात्मक रचना की –
सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशमन्वन्तराणि च ।
वंशानुचरितं चैव भवतो गदितं मया ।।
पुराणं वैष्णवं चैतत्सर्वकिल्बिष नाशनम् ।
विशिष्टं सर्वशास्त्रेभ्यः पुरुषार्थोपपादकम् ॥
प्रेरक प्रसंग | Motivational Incident
हिंसा के मुख में अहिंसा
एक बार संत तुकडोजी महात्मा गांधीजी के आश्रम में एक महीने के लिए रहने आए। गांधीजी ने उन्हें अपने पास ही ठहराया। वह उनके प्रार्थना – कीर्तन में सम्मिलित होते और उनसे विचार – विमर्श करते थे।
एक दिन बापू ने उन्हें अपनी बात समझाने के लिए एक कहानी सुनाई- एक गरीब आदमी था और एक पैसे वाला। दोनों के ही घर आसपास थे। एक दिन गरीब के घर में चोर आ गए। गरीब की आँख खुल गई। उसने देखा कि चोर इधर – उधर परेशान होकर चीजें खोज रहे हैं।
वह उठा और बोला – ‘आप क्यों परेशान होते हैं। मेरे पास जो कुछ है, वह मैं अपने आप लाकर दिए देता हूं।’ इतना कहकर उसके पास जो दस – पाँच रुपए थे, वे उनके हवाले कर दिए। चोरों ने उस आदमी की ओर अचरज से देखा और रुपये लेकर चलते बने। मगर , उतने से चोरों का मन नहीं भरा। लोभ दूर नहीं हुआ। वे तत्काल धनी आदमी के यहां पहुंचे। वह पहले से ही जाग रहा था। उसने उनकी बातें सुन ली थी। सोचा , जब गरीब ऐसा कर सकता है तो वह क्यों नहीं कर सकता है।
उसने चोरों से कहा – ‘आप लोग बैठो। मेरे पास जो कुछ है, वह मैं तुम्हें दिए देता हूं।’ फिर , उसने अपनी जमा- -पूंजी लाकर उनके सुपुर्द कर दी। चोरों को काटो तो खून नहीं। उनके अंदर राम जाग उठा। अमीर – गरीब का सारा माल छोड़कर वे चले गए और अपना धंधा त्यागकर साधु बन गए।
यह कहानी सुनाकर महात्मा गांधी ने कहा – ‘मैं हिंसा के मुख में अहिंसा को इसी तरह झोंक देना चाहता हूं। आखिर कभी तो हिंसा की भूख शांत होगी। अगर दुनिया को शांति से जीना है तो मेरी जानकारी में इसका दूसरा और कोई रास्ता नहीं है।
प्रेरक प्रसंग | Motivational Incident
महिला को मिला नया मार्ग
विनोबा भावे ने भूदान आंदोलन चलाया तो पूरे देश को अपनी विचारधारा से जोड़ दिया। भूदान के दिनों की ही बात है। एक महिला विनोबा से मिलने आई। आकर उनसे बोली – ‘ मैं बड़ी दुखी हूं ।’
विनोबा जी ने पूछा – ‘ क्यों क्या बात है? ‘
महिला ने रुंधे गले से कहा – ‘ मेरा पति शराबी है। रोज शराब पीता है। मुझे बुरा – भला कहता है। कभी – कभी मारपीट भी कर देता है। मेरा जीवन एकदम नरक गया है।’
विनोबाजी ने उससे पूछा – ‘ जब वह शराब पीता है, तुम क्या करती हो ?’
वह कहने लगी – ‘मुझे बड़ा गुस्सा आता है और मैं पहले उसे खूब उल्टी सीधी सुनाती थी, लेकिन जब उसका असर नहीं हुआ तो अब मैंने उपवास करना शुरू कर दिया।’
‘उपवास में खाना – पीना सब छोड़ देती हो ?’ विनोबा ने उससे पूछा।
‘नहीं ।’ वह बोली – ‘ फल खा लेती हूं । फल से उपवास नहीं टूटता है।’
विनोबा ने सहज स्वर में कहा- ‘ -‘अरे , तब तो तुम्हारा आदमी और भी गुस्सा होता होगा तुम्हारे फल खाने से घर का खर्चा बढ़ गया होगा न ! ‘ महिला एकदम चुप हो गई। उसकी आखों से आंसू टपकने लगे।
विनोबा ने कहा ‘ देखो, गुस्से से या खाना छोड़ देने से किसी को बुरे रास्ते से नहीं हटाया जा सकता। प्रेम और धीरज से ऐसा काम किया जा सकता है। लेकिन, प्रेम भी वही असरकारक होता है, जो भीतर से उठकर आता है। दिल साफ होना चाहिए। दिल में दुर्भावना हो और दिखावे के लिए प्रेम के शब्द कहो तो उनका प्रभाव विपरीत ही होता है। ‘
उस महिला ने कहा – ‘मैं क्या करूं ? उनको शराब के नशे में देखकर मेरा मन बेकाबू हो जाता है। ‘ ‘ यही तो खराबी की जड़ है। ‘ विनोबा बोले – ‘ तुम अपने आदमी को बुराई से तभी रोक सकोगी जब स्वयं अपनी बुराई को जीत लोगी। उसी की पहले कोशिश करो। ‘
विनोबा की बात सुनकर महिला वहां से चली गई। परंतु , उसके चेहरे से लग रहा था कि उसे एक नया रास्ता मिल गया है ।
प्रेरक प्रसंग | Motivational Incident
अर्थ की प्रवृत्ति से निवृत्ति श्रेष्ठ
स्वामी विवेकानंद 1893 ई . में जब विश्व धर्म सम्मेलन के सिलसिले में अमेरिका के शिकागो नगर में थे, तो लोग उनसे ‘ भारत के भिखारी ‘ संदर्भ को लेकर बहुत प्रश्न करते थे। कुछ अमेरिकी जिज्ञासावश और कुछ उपहासवश स्वामीजी का ध्यान बारंबार भारत की भिखारी समस्या की ओर आकर्षित करते थे।
स्वामीजी ने एक दिन अमेरिकियों के एक विशाल सम्मेलन में इस समस्या को उठाया। उन्होंने कहा कि भारत में जिसने जितना छोड़ा, उसे उतना महान् मानते हैं और जिसने जितना जोड़ा, उसे उतना ही निचला दर्जा दिया जाता है।
आप लोग भिखारी शब्द को लेकर बहुत उत्सुक हैं, लेकिन हमारे देश में एक और शब्द भी है जो भिखारी से भी आगे है और वह है भिक्षु। भिखारी का अर्थ है – उस आदमी के पास कभी धन था ही नहीं। उसने धन को कभी जाना ही नहीं। भिक्षु का अर्थ है कि उसके पास धन था, उसने धन को खूब जाना और खूब भोगने के बाद उसे व्यर्थ जानकर छोड़ दिया। अर्थ को व्यर्थ माना तो प्रवृत्ति से निवृत्ति हो गई। ‘
विवेकानंद ने सहस्त्रों अमेरिकियों की करतल ध्वनि के बीच कहा कि दुनिया की किसी भी भाषा में ऐसे दो शब्द यानी भिक्षु और भिखारी नहीं है। भीख मांगने वालों के लिए एक ही शब्द काफी होता है भिखारी। दुनिया को दूसरा अनुभव ही नहीं था। वह विरला अनुभव केवल भारत को ही है।
भारत देश में ही महावीर और बुद्ध जैसे महात्यागी हुए जो राजसी ठाट – बाट में पलकर भी भिखारी बन गए। उनके पास बहुत था और वे उसे छोड़कर भिक्षु बन गए। हमारी संस्कृति में संन्यास लेने के पहले एक आवश्यक चरण है – भिक्षाटन, जिससे एक ओर अहं का नाश होता है और दूसरी ओर वस्तु – आधारित जीवनयापन का सोच समाप्त हो जाता है ।
प्रेरक प्रसंग | Motivational Incident
शरीर की सार्थकता परहित कार्य में
राजा हिरण्यगर्भ आखेट का बड़ा प्रेमी था। वह जब – तब आखेट करने निकलता था। जब भी वह आखेट के लिए जाता तो चारों ही ओर हाहाकार मच जाता। वन प्रदेश के जीव बहुत दुखी थे।
मृगों में एक बड़ा अद्भुत मृग था। वह वन के जीवों के दुःख से बड़ा ही दुखी रहता था। वह मृग सोचता था कि ईश्वर ने खाने के लिए अनेक चीजें पैदा की है, फिर भी मनुष्य जीवों का शिकार क्यों करता है ? उसने इस बात को लेकर राजा के पास जाने का निश्चय किया।
प्रभात का समय था। राजा आखेट के लिए तैयार हो रहा था। सहसा एक सुंदर मृग राजा के सामने जाकर खड़ा हो गया। राजा उस मृग को देखकर चकित रह गया। इतने में कोमल वाणी में बोल उठा – ‘राजन आप प्रतिदिन वन में जाकर जीवों को शिकार करते हैं। मेरे शरीर के भीतर कस्तूरी का भंडार हैं। आपसे प्रार्थना है कि आप इस भंडार को ले लें और वन के प्रणियों का शिकार करना छोड़ दें।’
मृग की बात सुनकर राजा विस्मय से बोला – ‘क्या तुम उन्हें बचाने के लिए अपने प्राण देना चाहते हो ? तुम जानते हो कस्तूरी पाने के लिए मुझे तुम्हारा वध करना होगा।’
इस पर मृग बोला – ‘राजन आप मुझे मारकर कस्तूरी का भंडार ले लीजिए परंतु निरपराध जीवों का वध करना छोड़ दीजिए।’
राजा ने पुनः कहा – ‘तुम्हारा शरीर बहुत सुंदर है।’
मृग ने जवाब दिया – ‘राजन् यह शरीर तो नश्वर है। मैं दूसरों के प्राण बचाने के लिए मर जाऊं, इससे अच्छी बात क्या हो सकती है।’
मृग की ज्ञान भरी वाणी ने राजा के मन में वैराग्य का प्रकाश पैदा कर दिया। वह सोचने लगा कि यह जानवर होकर भी दूसरों के लिए अपने प्राण दे रहा है और मैं मनुष्य होकर रोज – रोज जीवों को मारता हूं। धिक्कार है मुझ पर! उस दिन से राजा जीवों की हिंसा छोड़कर प्राणी मात्र पर दया करने लगा। नश्वर शरीर की सार्थकता इसी में है कि उससे दूसरों की भलाई हो ।
प्रेरक प्रसंग | Motivational Incident
जिंदगी है एक खेल
संतों ने व्यक्ति के गुणावगुणों को बहुत हद तक अनुभव और विश्लेषित किया है। यह माना गया है कि उदास आदमी परमात्मा को धन्यवाद नहीं दे सकता, सिर्फ शिकायत कर सकता है। हमारे उदास महात्माओं से परमात्मा भी भागता रहता होगा। अगर कहीं इनको मिल जाता होगा तो ये पकड़कर फौरन अपनी शिकायतों की पूरी कहानी उससे कहते होंगे। परमात्मा अगर इन्हें हंसता मालूम होता होगा तो इन्हें बड़ी पीड़ा होती होगी कि कैसा यह परमात्मा है जो हंस रहा है। परमात्मा उदास नहीं है, आदमी उदास है। और आदमी उदास है गंभीरता के कारण। जिंदगी को उसने एक काम बना लिया।
हम हर चीज को काम में बदलने में इतने कुशल हैं कि हम खेल को भी काम में बदल लेते है। जिंदगी में कहीं भी कोई खेल नहीं है। अगर बेटा अपनी मां के पैर दबा रहा है तो वह भी कहता है कि यह मेरा उत्तरदायित्व है। मां के पैर दबाना भी एक काम है। पूरी जिंदगी काम है।
आदमी ने सारी जिंदगी को गंभीरता से लिया है। गम्भीरता ने खेल को काम बना दिया। और अगर हम इससे उलटा ले सकें तो फिर काम भी खेल हो जाता है। जिंदगी को खेल हो जाना चाहिए। धार्मिक आदमी के लिए जिंदगी एक खेल है और अधार्मिक आदमी के लिए खेल भी एक काम है। उन्होंने सोचा कि जिंदगी को हम जितना गंभीर आदमी कर देंगे, उतना ही आदमी अच्छा हो जाएगा। उन्होंने बड़ी बुनियादी भूल की है।
गंभीर आदमी अच्छा आदमी नहीं हो सकता। अच्छा आदमी गम्भीर नहीं हो सकता। गंभीरता रोग है, बहुत बड़ी बीमारी है। जिंदगी को अगर हम गौर से देखेंगे तो खेल से ज्यादा क्या है ! हाँ , यह हो सकता है कि बच्चों का खेल सुबह से शाम तक चला, हमारा खेल जन्म से मरने तक चलेगा। जिंदगी एक खेल है और एक खेल जो सपने में खेला गया है। इसमें इतने गम्भीर होने की आवश्यकता नहीं।
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