प्रेरक प्रसंग वह प्रक्रिया है जो लक्ष्य-उन्मुख व्यवहारों को आरंभ, मार्गदर्शन और बनाए रखते है। रोजमर्रा के उपयोग में, “प्रेरक प्रसंग” शब्द का प्रयोग अक्सर यह वर्णन करने के लिए किया जाता है कि कोई व्यक्ति कुछ क्यों करता है। यह मानवीय क्रियाओं के पीछे प्रेरक शक्ति है।
विषय-सूची
प्रेरक प्रसंग
सत्य को सभी पहलुओं से देखें
वैशाली के राजकुमार वर्द्धमान अपने राजप्रासाद में थे । उनके कुछ मित्र उनसे मिलने आए । राजकुमार वर्द्धमान भवन के तल मंजिल में नहीं थे । इसी समय उनकी माता महारानी त्रिशलादेवी अपने कामकाज में व्यस्त थीं ।
लड़कों ने उनसे पूछा- ‘ वर्द्धमान कहाँ हैं ? ‘
मां ने उत्तर दिया – ‘ ऊपर है । ‘
भव्य राजप्रासाद सात मंजिला था । लड़के तेजी से सातवीं मंजिल पर जा पहुंचे । देखा कि वर्द्धमान वहाँ भी नहीं है । उनके पिता किसी काम में लगे थे ।
लड़कों ने उनसे भी पूछा- ‘ वर्द्धमान कहाँ है ?
उन्होंने कहा- ‘ वह तो नीचे है । ‘
इस तरह दौड़भाग करके खोजते रहने पर वर्द्धमान चौथी मंजिल में मिल गए । लड़के अपने साथी को पाकर बड़े खुश हुए ।
वे राजकुमार के इर्द – गिर्द बैठ गए और उन्होंने विस्मय से कहा- ‘ वर्द्धमान ! एक बात समझ में नहीं आई ! जब हमने मां से पूछा कि तुम कहाँ हो , तो उन्होंने जवाब दिया कि ‘ऊपर’ और ऊपर जाकर पिता से पूछा तो उन्होंने कहा , ‘ नीचे । ‘
तुम ही बताओ कि दोनों में कौन सही है ?
वर्द्धमान ने उनकी बात सुनी ।
फिर थोड़ी दूर बैठे एक कौवे की ओर संकेत करके उन्होंने साथियों से पूछा- ‘ इसका रंग कैसा है ?
‘ लड़कों ने एक स्वर में कहा- ‘ काला । ‘
वर्द्धमान बोले- ‘ यह लाल और सफेद भी है । ‘
‘ नहीं – नहीं , काला है काला । ‘ लड़कों ने कहा ।
वर्द्धमान ने कहा- ‘ तुम ठीक बोल रहे हो कि यह काला है , लेकिन इसका रक्त लाल है , इसलिए यह लाल है और चूंकि इसकी हड्डियां सफेद है , इसलिए यह सफेद भी है । शरीर से काला होने के कारण यह काला है ।
फिर उन्होंने कहा कि मां भवन के तल में बैठी थी , इसलिए पूछने पर उन्होंने बताया कि ऊपर है । पिता ऊपर बैठे थे । उन्होंने कह दिया , नीचे है । हर वस्तु के कई पहलू होते हैं । सत्य को पाने के लिए उसे सभी पहलूओं से देखना चाहिए । यही वर्द्धमान आगे चलकर तीर्थकर महावीर बने ।
भक्ति से पूर्व विकारों से मुक्ति जरूरी
किसी व्यक्ति पर ईश्वर का साक्षात्कार करने की धुन सवार हो गई । इसके लिए उसने उचित उपाय करने का सोचा । कुछ लोगों से पूछताछ और स्वाध्याय आदि पर भी जब वह संतुष्ट नहीं हुआ तो एक साधु के पास गया और उसने अपनी इच्छा जताई ।
साधु ने कहा – ‘ कल सवेरे यहाँ आ जाना । वो सामने जो पहाड़ दिखाई दे रहा है , हम उसकी चोटी पर चलेंगे और वहाँ मैं तुम्हारी यह इच्छा पूरी कर दूंगा । ‘
अगले दिन तड़के ही वह व्यक्ति साधु के पास पहुंच गया । साधु भी उसकी राह देख रहे थे ।
बोले – ‘ तुम आ गए ! चलो , जरा इस गठरी को सिर पर रख लो ।
उस आदमी ने बड़ी उमंग से गठरी सिर पर रख ली । दोनों चलने लगे । पहाड़ की चढ़ाई चढ़ते – चढ़ते उस आदमी के पैर थक गए । गठरी भारी लगने लगी । धीरे – धीरे तो उसका चलना दुभर ही हो गया ।
हांफते हुए उसने साधु से कहा – ‘ स्वामीजी , मै धक गया हूं । अब और मुझसे चला नहीं जाता । ‘
बड़े ही सहज भाव से स्वामीजी ने कहा – ‘ कोई बात नहीं है । इस गठरी में पाँच पत्थर हैं , उनमें से एक को निकालकर फेंक दो और फिर चलने का विचार करो । ‘
उस आदमी ने गठरी खोली और एक पत्थर निकालकर फेंका । फिर से गठरी को बांधा , सिर पर रखा और चलने लगा । कुछ ही गज की दूरी हुई होगी कि उसे फिर थकान होने लगी । उसने साधु को अपनी परेशानी बताई ।
साधु ने कहा – ‘ अच्छा , तो गांठ से एक पत्थर और फेंक। इसी तरह थोड़ा आगे बढ़ने पर वही परेशानी सामने आ गई । साधु ने तीसरा पत्थर फिंकवा दिया । फिर चौथा और पाँचवां । अंततः खाली कपड़े को कंधे पर डालकर वह आदमी पर्वत की चोटी पर पहुंच गया ।
वहाँ जाकर साधु से कहा – ‘ स्वामीजी ! लीजिए , हम चोटी पर आ गए । अब ईश्वर से साक्षात्कार कराइए ।
गंभीर होकर स्वामीजी बोले – ओ मूर्ख । पाँच पत्थर की गठरी उठाकर तू पहाड़ पर नहीं चढ़ सका , लेकिन अपने अंदर काम , क्रोध , लोभ , मोह और मद की चट्टानें रखकर परमपिता के दर्शन करना चाहता है । ‘
साधु की शिड़की सुनकर उस आदमी की आंखें खुल गई । विकारों के साथ ईथर की प्राप्ति सर्वधा दुर्लभ है । यदि भक्ति करनी हो तो सर्वप्रथम स्वयं को विकारों से सर्वथा मुक्त करना होगा ।
सेवा से शीघ्र ही श्रेष्ठ फलोपलब्धि
एक बार ऋषियों और मुनियों में विवाद छिड़ा कि किस प्रकार अल्पकाल में ही थोड़े से परिश्रम से महान् पुण्य अर्जित किया जा सकता है ? जब किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे तो वे मुनि वेद व्यास के पास गए।
व्यास ऋषि उस समय गंगा नदी पर स्नान के लिए गए हुए थे। ऋषि – मुनि भी व्यासजी के जल से बाहर निकलने की प्रतीक्षा करने लगे। व्यासजी ने योग की शक्ति से जल के भीतर ही मुनियों के आने का उद्देश्य जान लिया ।
कुछ देर पश्चात् उन्होंने नदी के बाहर अपना सिर निकाला और जोर से कहा ‘कलियुग ही सबसे श्रेष्ठ है।’ यह कहकर व्यासजी ने पुनः डुबकी लगा ली।
कुछ देर बाद उन्होंने अपना सिर बाहर निकाला और जोर से कहा – ‘शूद्र ही सर्वश्रेष्ठ है- शूद्रस्साधुः कलिस्साधुरित्येवं … ‘ और फिर डुबकी लगा ली।
तीसरी बार उन्होंने पानी से अपना सिर बाहर निकाला और कहा – ‘स्त्रियां ही धन्य है, वे ही साधु हैं, उनसे अधिक धन्य और कौन हैं- योषितः साधु धन्यास्तास्ताभ्यो धन्यतरो अस्ति कः। ‘ व्यासजी कुछ देर बाद जल से बाहर निकल आए। पूजा से निवृत्त हुए तो उनका ध्यान ऋषियों की ओर गया।
व्यासजी ने उनसे पूछा – ‘साधुजनों ! मैं आप लोगों के आगमन का कारण जान सकता हूं? ऋषि बोले – ‘आप यह बताने की कृपा करें कि आपने यह क्यों कहा कलियुग ही सबसे श्रेष्ठ है, शूद्र ही सर्वश्रेष्ठ है और स्त्रियां ही धन्य हैं? कलिस्साध्विति यत्प्रोक्तं शूद्रः साध्विति योषितः। यदाह भगवान् साधु धन्याश्चेति पुनः पुनः।।
इस पर व्यास जी ने कहा – ‘हजारों वर्ष पहले तप करने से ही पुण्य प्राप्त होता था, वह कलियुग में केवल भगवान् का नाम लेने से ही प्राप्त हो जाता है। शूद्र सफाई का काम करते हैं और मल-मूत्र तक साफ करते हैं। इसी प्रकार स्त्रियां कुटुंब की सेवा में दिन-रात लगी रहती हैं। वे अपने सेवा कार्यों से ही महान् पुण्यों का अर्जन करती हैं। इसीलिए मैंने कहा था कि कलियुग और शूद्र सर्वश्रेष्ठ धन्य हैं। ऋषियों ने कहा ‘महानुभाव हम जिस काम के लिए आए थे, वह अपने आप पूरा हो गया।
धर्म में दिखावा एकदम बाधक
लगभग डेढ़ हजार साल पहले बोधिधर्म नामक एक भिक्षु चीन गया। उन दिनों वहाँ एक राजा था। वू नाम था उसका। उसने बहुत मंदिर तथा बहुत सी मूर्तियां बनवाई थीं। उसने भी सुना कि भारत से कोई अद्भुत भिक्षु चीन आया है तो उसके स्वागत के लिए वह राज्य की सीमा पर आया।
जो भी भिक्षु उसके पहले आया था, उसने राजा वू से कहा था कि ‘तुम अत्यन्त धार्मिक हो, बहुत पुण्यशाली हो, स्वर्ग में तुम्हारा स्थान सुरक्षित है।
राजा वू भिक्षुओं को नि:शुल्क भोजन कराता था। भिक्षु उसकी प्रशंसा करते थे।
बोधिधर्म के स्वागत के बाद राजा ने एकांत में बोधिधर्म से पूछा – ‘मैनें इतने मंदिर बनवाए, इतना धर्म किया, मुझे इससे क्या मिलेगा ?
बोधिधर्म ने कहा – ‘कुछ भी नहीं …।
राजा चौका और पूछा – ‘ ऐसा क्यों ?
बोधिधर्म ने कहा- ‘क्योंकि तुमने कुछ पाने के ध्येय से यह सब किया।’ यह सुनकर राजा वू घबरा गया। उसने कहा कि सारे भिक्षु तो मुझसे कहते थे कि स्वर्ग में मेरा स्थान सुनिश्चित है। मुझे कहीं भटकना नहीं पड़ेगा।
बोधिधर्म ने कहा – ‘भिक्षु तुम्हारा अन्न खाते थे, इसलिए वे तुम्हारी प्रशंसा करते थे। धर्म के नाम पर तुमने जितना कुछ किया, उसका धर्म से कोई लेना देना नहीं। धर्म का संबंध इससे है कि आत्मा कितनी परिवर्तित है। तुम्हारी आत्मा वही की वही है, जो इस जगत में बड़ा राज्य चाहती थी। वही अब बुढ़ापे में स्वर्ग का राज्य भी जीतने की तैयारी कर रही है।
बोधिधर्म ने कहना निरंतर जारी रखा – ‘इस जगत में राज्य चाहिए था तो तुम सैनिक पालते थे और उनको मुफ्त खिलाते थे। उस जगत में राज्य चाहिए तो भिक्षु पालते हो और उनको मुफ्त खिलाते हो। जिनका लोभ बहुत गहरा है, वे निखिल पृथ्वी का भी राज्य पाकर परितृप्त नहीं होते। वे स्वर्ग में भी राज्य चाहते हैं। यह तथाकथित धार्मिकता प्रलोभन पर खड़ी हुई है। ‘ यह सुनकर राजा वू को आत्मबोध हो गया।
क्रोध न करना ही उचित
नई शताब्दी की शुरुआत में स्विट्जरलैण्ड के जिनेवा नामक नगर में एक वैज्ञानिक बैरोमीटर पर काम कर रहे थे। उसकी खोज का एक अंग यह था कि हर रोज भिन्न-भिन्न मौसम और तापमान की स्थिति में वातावरण में हवा के दबाव को रिकॉर्ड करना और अलग – अलग परिणामों को कागज पर लिख लेना।
इस खोज पर उन्होनें बीस साल से भी अधिक समय तक परिश्रम किया। 20 साल की कड़ी मेहनत से जमा किए गए अभिलेख और आंकड़े कागजों के एक बड़े ढेर के रूप में उनकी मेज पर पड़े थे।
लगभग उसी समय उनकी कई साल पुरानी नौकरानी एक सप्ताह की छुट्टी पर गई। पहले ही दिन, वैज्ञानिक रोजाना की शाम की सैर के लिए निकल गए। वापसी पर उन्होंने देखा कि उसकी मेज से कागजों का ढेर गायब था। उसकी जगह नए और साफ सफेद कोरे कागज पड़े थे।
उन्होंने नई नौकरानी से पूछा – ‘मेज पर रखे मेरे कागज कहां हैं? ‘
इस पर वह नौकरानी बोली – ‘मैं आपका कमरा साफ कर रही थी तो मैंने देखा कि वे इतने सारे पुराने गंदे और दागदार कागज आपकी मेज पर पड़े हैं। मैनें उन्हें आग में झोंक दिया।’
किसी भी सज्जन पुरुष को गुस्सा दिलाने के लिए यह बात काफी थी, किंतु वे क्रोधित नहीं हुए, क्योंकि उसने यह सबक सीखा था कि जो भी होता है, उसमें भगवान् की दया होती है।
उन्होंने नौकरानी को डांटा नहीं, बस इतना कहा – ‘हे भगवान् , तेरी इच्छा पूर्ण हो। ‘ क्रोध को नियंत्रण में करने के लिए सबसे आसान तरीका यह है कि ऐसा मानो कि भगवान् जो करता है, वही हमारे लिए सबसे अच्छा होता है। चाहे उस समह यह बात विपरीत ही क्यों न लग रही हो।
सद् वचनों का श्रेष्ठ प्रभाव
उस समय की बात है, जब भगवान् महावीर विद्यमान थे। राजगृह नगरी में रोहिणेय नाम का एक चोर रहता था। रोहिणेय का पिता मरते समय उससे कह गया था – ‘बेटा देखो ! जहाँ कोई साधु – संत उपदेश देते हों, वहां कभी भूलकर भी मत जाना। अन्यथा बुरा हो जाएगा। ‘
एक बार की बात है, राजगृह में भगवान महावीर पधारे हुए थे। वहां उनके प्रवचन चल रहे थे। संयोगवश रोहिणेय वहाँ से गुजरा। उसे डर था कि कहीं भगवान् का उपदेश उसके कानों में न पड़ जाए। उसने अपने दोनों ही हाथों से कान बंद कर लिए और आगे चलने लगा।
इस समय रोहिणेय के पांव में कांटा चुभ गया तो उसकी आह ही निकल गई। एक हाथ तो वह अपने कान पर ज्यों – का – त्यों रखे रहा और दूसरे से कांटा निकालने लगा। उस समय भगवान् महावीर के ये वाक्य रोहिणेय के कान में पड़े ‘देवलोक में कभी देवों की मालाएं नहीं मुरझार्ती, उनके पलक नहीं लगते और वे जमीन छोड़कर अधर में चलते हैं …. ‘
कुछ समय पश्चात राजगृह में चोरी करता हुआ रोहिणेय पकड़ा गया। राजा के कर्मचारियों को यह नहीं मालूम हो सका कि वह कौन है? उन्होंने उसे बहुत पीटा। अंत में जब कोई उपाय न रहा तो उसे मद्यपान द्वारा बेहोश करके एक सुंदर भवन में सुला दिया।
प्रात : काल होने पर चोर ने देखा कि वह एक अत्यन्त सुंदर भवन में लेटा हुआ है। उसका शरीर बहुमूल्य वस्त्र और रन – आभूषणों से अलंकृत है तथा युवतियों का नाच – गान हो रहा है। वह इस प्रकार का नजारा देखता ही चला गया।
तभी युवतियों ने चोर से कहा – ‘देव , आप बड़े भाग्यशाली हैं। कृपाकर अपने पूर्वजन्म का वर्णन कीजिए। ‘ रोहिणेय को तुरंत महावीर के वाक्य स्मरण हो आए कि देवलोक में देवताओं की मालाएं नहीं मुरझाती, उनके पलक नहीं लगते और वे जमीन छोड़कर अधर में चलते हैं …।
रोहिणेय ने सोचा कि तीर्थंकर के वाक्य कभी मिथ्या नहीं होते। मालूम होता है कि मुझे फंसाने के लिए सब जाल रचा गया है। बाद में उसी रोहिणेय ने महावीर के चरणों में बैठकर उनका धर्म स्वीकार किया।
संगत से आते हैं गुण – अवगुण
बात पुरानी बहुत है। एक वृक्ष पर दो समान तोते रहते थे। तेज आंधी में दोनों बिछड़ गए। एक तोता चोरों की बस्ती में और दूसरा ऋषियों के आश्रम में पहुंच गया। दोनों वहीं रहने लगे मगर दोनों को ही एक – दूसरे का पता – ठिकाना मालूम था। कई वर्ष गुजर गए।
एक दिन की बात है कि मगध के राजा आखेट के लिए निकले। वह चोरों की बस्ती के पास ही एक सरोवर के किनारे आराम करने लगे। इतने में किसी की कर्कश वाणी सुनकर उसकी नींद टूट गई। वह आवाज एक तोते की थी, जो बोल रहा था – ‘अरे कोई है ! इस आदमी के पास बहुत धन है। यह गले में मोतियों और हीरों की माला पहने हुए है। इसकी गर्दन दबाकर मोतियों की माला निकाल लो और लाश को झाड़ी में गाड़ दो। किसी को भी पता नहीं चलेगा। ‘
तोते को मनुष्य की तरह बोलते देखकर राजा एकाएक डर गया। वह आगे चल दिया। आगे ऋषियों का आश्रम था। वह आश्रम में पहुंचा। उस समय ऋषि – मुनि भिक्षाटन के लिए गए हुए थे। इतने में ही वहाँ किसी की कोमल वाणी उसके कानों में पड़ी। वह वाणी एक तोते की थी।
तोते ने राजा को देखकर कहा – ‘आइए राजन ! बैठिए। सभी ऋषि – मुनि अभी भिक्षाटन के लिए गए हुए हैं। प्यास लगी हो तो ठंडा पानी पीजिए और यदि भूख लगी हो तो फल का सेवन कीजिए। ‘
राजा चकित होकर वृक्ष पर बैठे उस तोते की ओर देखने लगा। तोते का रूप रंग बिलकुल चोरों की बस्ती में रहने वाले तोते के जैसा ही था। यह देखकर राजा तोते से बोला – ‘हे शुककुमार ! मैं आपसे एक बात पूछना चाहता हूं। यहां से कुछ दूर एक वृक्ष की डाली पर भी एक तोता बैठा हुआ था। वह बिलकुल तुम्हारे जैसा था, किंतु उसमें तुम्हारे समान गुण नहीं थे। तुम प्रेम और सेवा की बात कर रहे हो, किंतु वह जान से मारने और लूटने की बात कर रहा था। क्या तुम उसे जानते हो ? ‘
यह सुनकर उस तोते ने कहा – ‘हां राजन ! वह मेरा सगा भाई है। संगति के कारण हम दोनों भाइयों में अलग – अलग गुण आ गए हैं। कोई इनको गुण कहता है तो कोई अवगुण। सच ही कहा जाता है कि संगति का प्रभाव व्यक्ति पर अनिवार्य रूप से पड़ता है।
अपमान करके कोई महान नहीं बनता
मध्यकालीन शासकों में छत्रपति शिवाजी बहुत ही धार्मिक और चरित्रवान राजा थे। धार्मिक होने की उनकी परिभाषा का आधार था सभी धर्मों का समानभाव से आदर करना। चरित्रवान होने का सूत्र, मातृशक्ति को मां – बहन समझना।
मुगल सम्राट औरंगजेब आलमगीर ने उनके विरुद्ध एक सशक्त अभियान छेड़ा और भारी सेना लेकर महाराष्ट्र में उनके अनेक किलों पर कब्जा करके वहां मुगल किलेदार नियुक्त कर दिए। ऐसा ही एक किला था कल्याण, जहाँ खुद औरंगजेब का मामा शायस्ता खान ठहरा हुआ था।
शिवाजी के गुरिल्ला सैनिकों ने कल्याण को फतह कर लिया। मुगल भागने लगे, तभी शाही परिवार की एक सुंदर नवयौवना कुरानशरीफ का पाठ करते – करते मराठों के चंगुल में फंस गई। मराठा सरदार ने इसे अपनी सफलता समझा।
सरदार ने सोचा कि इस सुंदर महिला को शिवाजी को भेंट करके छत्रपति का अनुग्रह प्राप्त किया जा सकता है। अत: वह उस सुंदरी को लेकर शिवाजी के डेरे में पहुंचा। उस महिला ने पवित्र कुरान को नहीं छोड़ा था। सुंदरी की पालकी नीचे रखवाकर मराठा सरदार छत्रपति के दरबार में पहुंचा।
उस समय शिवाजी राजकाज में व्यस्त थे। जब उनकी व्यस्तता कुछ कम हुई तो सरदार ने उन्हें कल्याण – विजय का समाचार दिया। शिवाजी अति प्रसन्न हुए। उन्हें प्रसन्न जानकर सरदार ने निवेदन किया कि ‘मैं आपके लिए एक विजयोपहार लाया हूं।’ और वह पालकी सहित उस युवती को उनके सामने ले आया।
छत्रपति शिवाजी ने उस अनिंद्य सुंदरी को देखकर अपनी नजरें नीची कर ली। उन्होंने कहा कि काश ! मेरी माता भी इतनी सुंदर होती तो मैं भी सुंदर होता। फिर सरदार से उन्होंने कहा – ‘इस सुंदरी को ससम्मान मुगल शिविर में पहुंचा दिया जाए। धार्मिक स्थलों, धर्मग्रंथों और बहू – बेटियों का अपमान करके कोई कभी महान् नहीं बन सकता है।
परदुःख को अपना समझें
नूरी रक्काम फारस देश के बहुत पहुंचे हुए सूफी संत थे। उनके साथ बहुत से अनुयायी सूफी भी थे। ये लोग वहाँ की भेड़ों के कच्चे ऊन का बना वस्त्र ओढ़े दर दर घुमते थे। ऐसे ऊन को फारसी में सूफी कहते हैं। इसलिए उनको धारण करने वाले लोग सूफी कहलाए।
ये सूफी लोग अनलहक की रट लगाकर अलख जगाते थे। अनलहक हमारे ‘अहं ब्रह्मास्मि’ यानी ‘मैं ब्रह्म हूं’ का समानार्थी है।
तत्कालीन शासक ने सूफी संत नूरी रक्काम को देशद्रोही ठहरा दिया और काफिर कहकर सजा – ए – मौत दी गई।
अदालत का हुक्म था – पहले दूसरों को कत्ल किया जाए और बाद में नूरी रक्काम को। जल्लाद अपने हाथ में नंगी तलवार लेकर आया। जैसे ही उसने दूसरों पर वार करने को तलवार उठाई, नूरी रक्काम ने उनकी जगह अपने आप को पेश कर दिया और वह भी अत्यन्त प्रसन्नता एवं विनम्रता से।
चूंकि सजा – ए – मौत सार्वजनिक रूप से दी जाती थी। अतः वहाँ इकट्ठे सैकड़ों लोग सकते में आ गए। खुद जल्लाद भी भौंचक्का रह गया। उसने कहा – ‘ए नौजवान एक तो तुम्हारी बारी अभी नहीं आई है, दूसरे तलवार कोई ऐसी चीज नहीं है, जिससे मिलने के लिए लोग इतने व्याकुल हों।’
फकीर नूरी बोला – ‘मेरे उस्ताद ने मुझे यही सिखाया है कि तुम्हारा दीन सिर्फ मोहब्बत है। मोहब्बत का मतलब है दूसरे के दुःख को अपना दुःख समझ कर उसे सहने के लिए खुद को पेश करना।’
नूरी ने आगे कहा – ‘उस्ताद कहते थे कि जब तुम किसी की मैयत जाते देखो तो यह कल्पना करो, मानो तुम खुद ताबूत में हो या अर्थी पर बधे हो; जिंदगी खेल है। मोहब्बत श्रेष्ठ है। मौत आए तो मित्र के आगे हो जाओ। जीवन मिलता हो तो पीछे हो जाओ, इसे हम प्रार्थना कहते हैं। वस्तुतः प्रार्थना हृदय का सहज अंकुरण है। जब दूसरे की मृत्यु का वरण करके उसे जीवन देने की चेतना जगे तब प्रभु – प्रार्थना समझ लेनी चाहिए।
भक्ति सर्वत्र , सर्वकाल संभव
रामचरित मानसकार गोस्वामी तुलसीदास और अब्दुर्रहीम खानखाना दोनों मुगल सम्राट अकबर [1542-1605 ई .] के समकालीन थे। तुलसी महान रामभक्त कवि थे, तो रहीम योद्धा, राजनयिक और कवि की त्रयी थे। उनकी काव्य रचनाओं में भारतीय संस्कृति रची – बसी थी। कहा जाता है कि वे अपनी जिज्ञासा दोहों के रूप में लिखकर गोस्वामी जी के पास भेजा करते थे और गोस्वामी जी भी उसका उत्तर दोहों के रूप में ही लिखकर उनको भिजवा देते थे। जो हरकारा खानखाना का संदेश लेकर आता, उसी के हाथ तुलसी अपना संदेश भेज देते।
रहीम के मन में जिज्ञासा हुई कि कोई व्यक्ति गृहस्थी के जंजाल में फंसा रहकर भी भगवद्भक्ति कैसे कर सकता है ? उन्होंने सुन रखा था कि गोस्वामी तुलसीदास विवाहित थे और बाद में घर- -गृहस्थी त्यागकर रामभक्ति को समर्पित हो गए। यह सब कैसे हुआ ?
उनका सीधा प्रश्न था कि सांसारिक चलन में चलकर भी उस करतार से मिलने का प्रयास करना, क्या दो घोड़ों की सवारी नहीं है जिसे निभाना स्वयं सवार के लिए असंभव है?
रहीम ने गोस्वामी तुलसीदास को जो कि उस समय चित्रकूट में निवास कर रहे थे, अपने दूत की मार्फत यह दोहा लिख भेजा
“चलन चहत संसार की मिलन चहत करतार।
दो घोड़े की अस्सवारी कैसे निभे सवार? “
संदेश वाहक घुड़सवार रहीम का यह संदेश लेकर फतेहपुरी सीकरी आगरा से चला और चित्रकूट पहुंचकर गोस्वामीजी के चरणों से दंडवत हो गया।
गोस्वामीजी ने पहले तो रहीम की पाती अपने माथे से लगाई और फिर छाती से स्पर्श करके तुरंत उसका उत्तर लिखने बैठ गए। उन्होंने दोहे का उत्तर दोहे में ही लिखा और उसी संदेशवाहक सवार को दे दिया
” चलन चलत संसार की हरि पर राखो टेक।
तुलसी यूं निभ जाएंगे, दो घोड़े रथ एक ॥ “
गोस्वामीजी का संदेश यह था कि गृहस्थ रहकर भी हरिभक्ति सहज की जा सकती है। अपनी समकालीन मीरा भी तो गृहस्थ ही हैं।
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