श्रीकृष्ण – सर्वोत्तम मित्र
श्रीकृष्ण अर्जुन की बुआ के पुत्र थे। परंतु इससे बढ़कर वे अर्जुन के मित्र अधिक थे। वे एक विश्वसनीय मित्र थे। यदि श्रीकृष्ण पाण्डवों तथा विशेष रूप से अर्जुन के साथ न होते तो वे सब दुर्योधन और उसके सहयोगियों द्वारा निर्दयतापूर्वक मारे गये होते। श्रीकृष्ण ने अपनी कुशल नीति के आधार पर अर्जुन को अपने अजेय पितामह भीष्म का वध करने के लिए तैयार कर लिया। उनकी ही नीति कुशलता से धृष्टद्युम्न ने द्रोणाचार्य का वध कर दिया। अर्जुन को कर्ण से बचाकर उसके द्वारा ही कर्ण का वध करवाया। यह जानकर कि अर्जुन के पुत्र का वध आठ महारथियों के द्वारा हुआ तथा उस दुष्कृत्य का प्रमुख माध्यम जयद्रथ था, अर्जुन ने सूर्यास्त से पूर्व जयद्रथ का वध करने की प्रतिज्ञा कर ली। कौरवों ने जयद्रथ को बचाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाया। उसे अज्ञात क्षेत्र में छिपा लिया। परिस्थिति ऐसी विकट बनी कि “ सूर्यास्त से पूर्व अर्जुन की प्रतिज्ञा पूर्ण नहीं होगी, परिणाम स्वरूप वह आत्मदाह कर लेगा। ” श्रीकृष्ण ने अपने चक्र से सूर्य को छिपाकर सूर्यास्त की अनुभूति करा दी। युद्ध रोक दिया गया। जयद्रथ अर्जुन पर व्यंग्य कसते हुए अर्जुन के सामने आ गया। श्रीकृष्ण ने चक्र हटा दिया। यह मध्यान्तर का समय था। श्रीकृष्ण ने जयद्रथ की ओर संकेत करके अर्जुन को जयद्रथ का वध करने का आदेश दिया। इस प्रकार उन्होंने अर्जुन की प्रतिज्ञा पूर्ण करवाकर उसके प्राण बचाए। उन्होंने जरासंध के विरुद्ध युद्ध में भीम के प्राण बचाए तथा जरासंध का वध करने का उपाय बताकर उसका वध करवाया।
भीम तथा जरासंध के मल्लयुद्ध में भीम ने जरासंध को बीच में गिराकर टाँगों से खींचकर उसके शरीर को बीच से चीर कर दो भागों में बाँट फेंक दिया। परंतु दोनों टुकड़े जुड़कर बार – बार जीवित हो जाते थे। श्रीकृष्ण ने संकेत किया कि वह दोनों टुकड़ों को विरुद्ध दिशा में बहुत दूरी पर फेंके। भीम ने वैसा ही किया। इस प्रकार श्रीकृष्ण ने भीम के द्वारा जरासंध का वध करवाया। युद्ध के अंतिम क्षणों में माँ के शुभाशीष से दुर्योधन अपने शरीर को लौह – तुल्य मजबूत बनाने की इच्छा से पूर्णतया नग्न होकर माँ से मिलने जा रहा था। मार्ग में श्री कृष्ण ने उसको परामर्श दिया कि अपने गुप्तांग छिपाकर ही माँ के सामने जाए। बाद में इसी परामर्श के परिणाम स्वरूप भीम को लाभ हुआ। गदायुद्ध में उसने दुर्योधन के गुप्तांगों पर ही गदा का आघात् करके उसे यमलोक पहुँचा दिया।
श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को अपने सभी गुरुजनों से शुभाशीष प्राप्त करने का परामर्श दिया। पाण्डवों के बचाव के अनेक अवसरों पर वे दौड़े चले आए। इसी प्रकार द्रोपदी की श्रीकृष्ण के साथ मित्रता वर्णनातीत थी। जब – जब द्रोपदी पर विपत्ति आई, श्रीकृष्ण उसकी रक्षा एवं आत्म सम्मान बचाने के लिए उपस्थित हुए। जब भरी सभा में उसकी साड़ी खीचीं जा रही थी, उसने केवल कृष्ण को ही रक्षा के लिए स्मरण किया। श्री कृष्ण की कृपा एवं लीला से द्रोपदी की साड़ी बढ़ती चली गई और दुःशासन खींच – खींचकर अंत में थककर गिर गया तथा बेहोश हो गया। दुर्योधन के कुपरामर्श से प्रेरित होकर क्रोधावतार दुर्वासा ऋषि अपने अनेक शिष्यों सहित वन में पाण्डवों के यहाँ भोजन की इच्छा से पहुँचे। उस समय द्रोपदी असहाय थी। वहाँ भी श्रीकृष्ण ने ही उसकी सहायता की।
सुदामा श्रीकृष्ण के सहपाठी थे। एक दिन गुरुपत्नि ने उन दोनों को जंगल से सूखी लकड़ियाँ ढूँढ़ कर लाने का आदेश दिया। उन्होंने सुदामा को भुने चावलों की एक पोटली दोनों के खाने के लिए दी। लकड़ियाँ बीनते हुए तूफान आ गया। उन्होंने पेड़ की शरण ली। श्रीकृष्ण से छिपाकर सुदामा ने सारा खाना स्वयं ही खा लिया। बाद में संदीपनी ऋषि स्वयं वहाँ आकर दोनों को ले गये। शिक्षा पूर्ण होने के पश्चात् दोनों मित्र अलग हो गए। दोनों का विवाह भी हो गया। श्रीकृष्ण द्वारकाधीश हो गए। सुदामा एक गरीब ब्राह्मण के रूप में भिक्षा पर आधारित अपनी गृहस्थी चलाने लगे। उनके अनेक बच्चे थे वे सब गरीबी से कमजोर हो रहे थे। सुदामा की पत्नी ने उन्हें अपने पुराने मित्र श्रीकृष्ण से मिलकर कुछ सहायता प्राप्त करने के लिए सलाह दी। परंतु स्वाभिमानी सुदामा ने उसकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी। बार – बार कहने पर उसने कहा “ एक राजा के पास एक गरीब ब्राह्मण क्या लेकर जायेगा ? ” पत्नी ने सूखे धान की पोटली उन्हें थमाकर पुन : प्रार्थना की। सुदामा चावलों की पोटली लेकर मित्र से मिलने चल पड़े। श्रीकृष्ण ने अपने पुराने मित्र को दूर से ही पहचान लिया। सुदामा को उन्होंने बड़ी कठिनाई में पैदल चलते हुए देखा। अपनी दो पत्नियों के साथ वे सुदामा की ओर दौड़े चले। पूरे सम्मान के साथ उन्होंने सुदामा का स्वागत किया। श्रीकृष्ण ने सुदामा के चरण धोए। तब उन्होंने सुदामा को गले लगाया तथा अपने ही सिंहासन पर अपने साथ बिठाया। श्रीकृष्ण ने भाँप लिया कि संकोच वश सुदामा कुछ छिपा रहे थे। उन्होंने पोटली छीन कर चावल खा लिए। उन्होंने गुप्त रूप से अपने मित्र की अत्याधिक सहायता की। जब सुदामा घर लौटा, तो वह अपनी आँखों पर विश्वास नहीं कर सका। श्रीकृष्ण ने उन्हें अत्यंत धनवान बना दिया था।
श्रीकृष्ण की मित्रता से संबंधित अनेकानेक कथाएँ भी प्रचलित हैं। एक निर्धन विधवा का एक ही पुत्र था। उसे घर से दूर एक विद्यालय (आश्रम) में प्रवेश दिलाया गया। क्योंकि अपना तथा बच्चे का पेट भरने के लिए उसे मजदूरी करनी पड़ती थी, वह अपने बालक को विद्यालय में पहुँचाने के लिए साथ नहीं जा पाती थी। बच्चे को मार्ग में प्रथम दिन अजीब से पशुओं से पाला पड़ा। डर कर वह घर की ओर भागा और माँ को अपने डर के बारे में बताया। माँ ने उसे सान्तवना दी तथा कहा कि भविष्य में संकट के समय वह श्रीकृष्ण को सहायतार्थ पुकारे। बालक ने माँ के वचनों का विश्वास कर लिया। अगले दिन वन में उसने पुकारना आरंभ किया “कृष्ण, कृष्ण तुम कहाँ हो ? ” उसने आश्चर्य पूर्वक देखा कि एक उसी की आयु का श्याम वर्ण बालक उसके सामने आ उपस्थित हुआ। उस बालक ने पीली रेशमी धोती पहनी हुई थी। उसके बाल सुंदर ढंग से सँवारे गए थे। बालों में मोरपंख लगाया हुआ था। उसके दायें हाथ में एक बासुँरी थी। वह मुस्कुराता हुआ बालक के पास आ गया। दोनों मित्र बनकर खेलने लगे। प्रतिदिन सायं विद्यालय से छुट्टी मिलने के पश्चात् नया मित्र बालक को उसी स्थान पर प्रतीक्षा करता हुआ मिलता। वह उसे नई – नई कहानियाँ सुनाता था तथा उसकी माता की कुशलता के बारे में पूछता था। बालक ने अपनी माता को यह सब बताया। माँ हैरान हो गई। उसने तो केवल बालक का भय दूर करने के लिए यों ही कृष्ण को पुकारने के लिए कहा था। एक दिन वह स्वयं बेटे के साथ ही चल पड़ी। वन में निश्चित स्थान पर पहुँचकर बड़े उत्साह से पुराने नए मित्र की ओर संकेत करके अपनी माता से कृष्ण को देखने के लिए कहा। परंतु माता को आस – पास कोई दिखाई नहीं दिया। बालक ने कहा ‘कृष्ण, यह मेरी माता हैं।’ यह सुनकर माता को बहुत चिंता हुई। वह सोचने लगी कि कहीं वह पागल तो नहीं हो गया ? सारी परिस्थिति को समझकर कृष्ण ने बालक से कहा “माता से कहो कि वह मेरा हाथ पकड़ कर मुझे देखें ” बालक ने कृष्ण का हाथ माता के हाथ में पकड़ाया, तब माँ उसे आश्चर्य पूर्वक देखती ही रही।
केरल में प्रसिद्ध गुरुवायूर नगर मंदिरों का नगर है। गुरुवार मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण विराजमान हैं। इस मंदिर में पूजा बड़ी व्यवस्थापूर्ण ढंग से होती है। प्रतिदिन हजारों की संख्या में भक्तगण दर्शनार्थ आते हैं। दर्शनार्थी प्रातः से सायं तक आते रहते हैं। एक दिन पुजारी अचानक अस्वस्थ हो गया। वह अत्यंत मानसिक तनाव तथा कष्ट की स्थिति में था। विवशता में उसने अपने पुत्र को, जिसे पूजा की विधि का अधिक अनुभव नहीं था, पूजा के लिए भेजा। बालक ने मंदिर खोला। दीपक जलाए। पिछले दिन की मूर्ति धोकर तथा अन्य प्रकार की सफाई करके मूर्तियों के गले में नई मालाएँ डालीं। चंदन का तिलक तैयार किया। तब तक मंदिर के कर्मचारी भी आ गए। उन्होंने मूर्तियों के लिए भोग तैयार किया। बाल पुजारी भोग को अंदर ले गया तथा मूर्ति के सामने रखकर मंत्र बोलने लगा “ओम नैवेद्यम समर्पयामि” अर्थात् मैं इसभोग का समर्पण कर रहा हूँ। कृपया ! स्वीकार करें। ” मूर्ति अपने स्थान से नहीं हिली। उसने भोग नहीं स्वीकार किया। बाल पुजारी हाथ जोड़कर रोते – चिल्लाते हुए पुकारने लगा “ भगवान ने भोग स्वीकार नहीं किया। मेरे पिताजी मुझे मारेंगे/ पीटेंगे । हे कृष्ण कृपा करके भोग लगा लीजिए। ” बालक की बाल सुलभ हृदय की पवित्रता देखकर एवं उसकी करुण पुकार सुनकर श्रीकृष्ण ने मानव रूप में आकर भोग स्वीकार कर लिया। बालक के आनन्द का पारावार न रहा। वह प्रसन्नता पूर्वक घर लौटा। प्रतिदिन की प्रथा के अनुसार पुजारी भोग लगाने के पश्चात् प्रसाद ( भोग सामग्री ) घर में ले आता था | बेटे को खाली हाथ घर लौटते देखकर उसने कारण पूछा। बालक ने बड़े उत्साहपूर्वक बताया कि भगवान श्रीकृष्ण स्वयं आकर भोग को खा गए। पिता ने पुनः गंभीरता पूर्वक पूछा। बालक ने वही उत्तर दोहरा दिया पुजारी को इस बात से लगा कि बालक ने सारा प्रसाद स्वयं खा लिया और झूठी कहानी सुना दी। उसने छड़ी के साथ उसको निर्ममतापूर्वक पीटा | पिटाई से बालक का पूरा शरीर सूज ( फूल ) गया था। कई अंगो पर छड़ी के दाग तथा रक्त के छींटे व धब्बे दिखाई देने लगे। बालक को वर्णनातीत रूप से मानसिक एवं शारीरिक रूप से बहुत कष्ट ( दर्द ) सहन करना पड़ा। अगले दिन पुजारी ने मंदिर में जाकर द्वार खोला। मूर्ति की स्थिति देखकर वह हैरान हो गया। मूर्ति से रक्त बह रहा था। पुजारी को ठीक संदेश प्राप्त हो गया। पूजारी तुरंत घर की ओर दौड़ा। घर आकर उसने अपने पुत्र से क्षमा याचना की।