Fundamental Duties & DPSP | मूल कर्त्तव्य और राज्य के नीति निर्देशक तत्व 

 Fundamental Duties And Directive Principles of State Policy | मूल कर्त्तव्य और राज्य के नीति निर्देशक तत्व  

 मूल कर्त्तव्य ( Fundamental Duties ) 

                 अधिकार व कर्तव्य का अनन्य सम्बन्ध है। अधिकार एवं कर्तव्य एक दूसरे के पूरक हैं। एक व्यक्ति के कर्तव्य दूसरे के अधिकार बन जाते हैं। अतः कर्तव्यों की अनुपस्थिति में अधिकारों की कल्पना करना सम्भव नहीं है। भारतीय संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों का ही उल्लेख था, मूल कर्तव्यों ( Fundamental Duties ) का नहीं। बाद में अनुभव किया गया कि संविधान में नागरिकों के मूल कर्तव्यों ( Fundamental Duties ) का भी उल्लेख किया जाना चाहिये। अतः संविधान के चतुर्थ भाग के बाद चतुर्थ ‘क’ और अनुच्छेद 51 ‘क’ जोड़ा गया, जिसमें दस मूल कर्तव्यों ( Fundamental Duties ) की व्यवस्था की गई। वर्तमान में मूल कर्तव्यों ( Fundamental Duties ) की संख्या 11 है। 86वें संविधान संशोधन के द्वारा ग्यारहवां मूल कर्तव्य जोड़ा गया। भाग चतुर्थ ‘क’ में उल्लेख किया गया है कि भारत के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य होगा कि वह :-

  1. संविधान का पालन करे तथा उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज तथा राष्ट्रगान का आदर करे। 
  2. स्वतन्त्रता के लिये हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोये रखे व उनका पालन करे। 
  3. भारत की प्रभुता, एकता व अखण्डता को अक्षुण्ण रखे। 
  4. देश की रक्षा करे और आह्वान किये जाने पर राष्ट्र की सेवा करे। 
  5. भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म, भाषा, प्रदेश या वर्ग पर आधारित भेदभाव से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध हो। 
  6. हमारी समन्वित संस्कृति की गौरवशाली परम्परा का महत्त्व समझे और उसका परिरक्षण करे। 
  7. प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा करे, जिसके अन्तर्गत वन, झील, नदी व वन्यजीव है और उसका संवर्धन करे तथा प्राणी मात्र के प्रति दयाभाव रखे। 
  8. वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे।
  9. सार्वजनिक सम्पत्ति को सुरक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे। 
  10. व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्र में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करे जिससे राष्ट्र निरन्तर बढ़ते हुये प्रगति व उत्कर्ष की नई ऊँचाइयों को छू ले। 
  11. 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को उनके अभिभावक अथवा सरंक्षक या प्रतिपालक जैसी भी स्थिति हो, शिक्षा के अवसर प्रदान करें। यह मूल कर्तव्य 86 वें संविधान संशोधन 2002 द्वारा पारित किया गया। 

 

 मूल कर्तव्यों का महत्त्व ( Importance of Fundamental Duties):-

          मूल कर्तव्य ( Fundamental Duties ) भारत के नागरिकों के लिए आदर्श के रूप में जोड़े गए हैं। ये राष्ट्रहित व राष्ट्रप्रेम की भावना जाग्रत करने वाले हैं। संविधान में इनको सम्मिलित करने के पीछे कोई राजनीतिक या दलगत भावना नहीं थी। भविष्य में व्यक्ति इन कर्तव्यों को जानकर, धीरे – धीरे इनका पालन करने के अभ्यस्त हो जाएँगे। यदि आवश्यकता प्रतीत हुई तो इनका पालन करवाने के लिए कानून का निर्माण भी संभव है । 

 

राज्य के नीति निर्देशक तत्व ( Directive Principles of State Policy )

 

            राज्य के नीति निर्देशक तत्व संविधान की एक अनोखी विशेषता है। इस अवधारणा को संविधान निर्माताओं ने आयरलैण्ड के संविधान से लिया है। लोककल्याणकारी राज्य की कल्पना को साकार रूप देने, समता पर आधारित समाज का निर्माण करने, विकास हेतु सभी को समान अवसर प्रदान करने के उद्देश्य से संविधान में राज्य के नीति निर्देशक तत्वों का उल्लेख किया गया है। संविधान के भाग 4 में अनुच्छेद 36 से 51 तक राज्य के नीति निर्देशक तत्वों का परिभाषा सहित अन्य प्रावधानों की व्यवस्था की गई है। ये नीति निर्देशक तत्व नागरिकों की शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक समता तथा राज्य के लिये अनुसरणीय नीति के विश्लेषण से सम्बन्धित है। 

      संविधान के अनुच्छेद 38 से 51 तक राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों का वर्णन किया गया है। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से इन सिद्धान्तों अथवा तत्वों को निम्नलिखित वर्गों में बांटा जा सकता है। 

 

(क) आर्थिक सुरक्षा सम्बन्धी निर्देशक तत्त्व :

                     संविधान निर्माताओं का उद्देश्य भारत में एक लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना था। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु संविधान में अनेक निर्देशक तत्त्वों की व्यवस्था की गयी है। ये तत्त्व निम्नलिखित है:- 

  1. संविधान के अनुच्छेद 39 के अनुसार राज्य अपनी नीति इस प्रकार निर्धारित करेगा जिससे कि :-
    1.  पुरुष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो, 
    2. समुदाय के भौतिक साधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार बांटा हो जिससे सामूहिक हित का सर्वोत्तम रूप से साधन हो; 
    3. संपत्ति और उत्पादन के साधनों का इस प्रकार केन्द्रीकरण न हो कि सार्वजनिक हित को किसी प्रकार की बाधा पहुँचे; 
    4. स्त्री और पुरुष दोनों को समान कार्य के लिए समान वेतन मिले; 
    5. यह श्रमिक पुरुषों और स्त्रियों के स्वास्थ्य तथा शक्ति एवं बालकों की सुकुमार अवस्था का आर्थिक दुरुपयोग न हो; 
    6.  42 वें संविधान संशोधन द्वारा राज्य के द्वारा बच्चों के स्वस्थ रूप से विकास के लिए अवसर और सुविधाएँ प्रदान की जायेंगी, उन्हें स्वतन्त्रता और सम्मान की स्थिति प्राप्त होगी तथा बच्चों और युवकों की शोषण से तथा नैतिक और आर्थिक परित्याग से रक्षा की जायेगी।
  1. अनुच्छेद 41 में कहा गया है कि राज्य अपने विकास और आर्थिक सामर्थ्य की सीमाओं के अन्तर्गत इस बात का प्रयास करेगा कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यतानुसार रोजगार पा सके, शिक्षा प्राप्त कर सके एवं बेकारी, वृद्धावस्था, बीमारी तथा अंगहीन होने की दशा में सार्वजनिक सहायता प्राप्त कर सके। 
  2. अनुच्छेद 42 में कहा गया है कि राज्य काम के लिए यथोचित और मानवोचित दशाओं का प्रबन्ध करेगा तथा ऐसी व्यवस्था करेगा जिससे स्त्रियों को प्रसूतावस्था में कार्य न करना पड़े। 
  3. अनुच्छेद 43 में कहा गया है कि राज्य कानून द्वारा अथवा आर्थिक संगठनों द्वारा अथवा अन्य किसी प्रकार से ऐसी व्यवस्था करेगा जिससे कृषि, उद्योगों अथवा अन्य क्षेत्रों में लगे हुए श्रमिकों को अपने जीवन निर्वाह के लिये यथोचित वेतन मिल सके, उनका जीवन – स्तर ऊँचा उठ सके, वे अपने अवकाश के समय का उपयोग कर सकें तथा उन्हें सामाजिक और सांस्कृतिक उन्नति के लिए सुअवसर प्राप्त हो सकें। 
  4. इसी अनुच्छेद में यह भी कहा गया है कि राज्य ग्रामीण क्षेत्रों में व्यक्तिगत अथवा सहकारी आधार पर कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन देने का प्रयत्न करेगा। 

42 वें संविधान संशोधन द्वारा आर्थिक सुरक्षा सम्बन्धी निर्देशक तत्त्वों में दो तत्त्व और जोड़ दिये गये हैं |

( 1 ) कमजोर वर्गों के लिये निःशुल्क कानूनी सहायता

( 2 ) औद्योगिक संस्थाओं के प्रबन्ध में कर्मचारियों की भागीदारी बनाने की व्यवस्था। 

  1. नवीन अनुच्छेद 43 ‘क’ के अनुसार राज्य उचित व्यवस्थापन अथवा अन्य किसी प्रकार से औद्योगिक संस्थानों अथवा अन्य ऐसे ही संगठनों के प्रबन्ध में श्रमिकों को भागीदार बनाने के लिए कदम उठायेगा। 
  2. अनुच्छेद 48 के अनुसार राज्य कृषि एवं पशुपालन का आधुनिक तथा वैज्ञानिक ढंग से संचालन करेगा एवं गाय , बछड़ों तथा अन्य दूध देने वाले व भार ढोने वाले पशुओं की नस्ल सुधारने और उनके वध को रोकने का प्रयत्न करेगा।
  3. 44 वें संविधान संशोधन द्वारा एक और तत्त्व जोड़ा गया कि राज्य विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए व्यक्तियों के समुदायों के बीच विद्यमान आय, सामाजिक स्तर, सुविधाओं और अवसरों सम्बन्धी भेदभाव को भी कम से कम करने का प्रयत्न करेगा।

 

(ख) सामाजिक हित और शिक्षा सम्बन्धी निर्देशक तत्त्व :-

             लोगों के सामाजिक तथा शैक्षिक स्तर को ऊँचा उठाने की दृष्टि से भी संविधान में कुछ निर्देशक तत्त्वों का वर्णन किया गया है, जो इस प्रकार है:-

  1. अनुच्छेद 44 के अनुसार राज्य देश के सभी नागरिकों के लिए एक समान आचार संहिता बनाने का प्रयत्न करेगा। 
  2. अनुच्छेद 45 के अनुसार राज्य संविधान लागू होने के 10 वर्ष के अन्दर 14 वर्ष की आयु तक के बालकों के लिए निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था करेगा। 
  3. अनुच्छेद 46 के अनुसार राज्य जनता के पिछड़े हुए वर्गो – विशेषकर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की शिक्षा तथा आर्थिक हितों की उन्नति के लिए विशेष प्रयत्न करेगा और सामाजिक अन्याय तथा सभी प्रकार के शोषण से उनकी रक्षा करेगा। 
  4. अनुच्छेद 47 के अनुसार राज्य का यह प्रमुख कर्त्तव्य होगा कि वह लोगों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य के विकास के लिए प्रयत्न करे। राज्य औषधि में प्रयोग किये जाने के अतिरिक्त ऐसे मादक द्रव्यों व पदार्थों के सेवन पर प्रतिबन्ध लगायेगा जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं । 
  5. 42 वें संविधान संशोधन में एक नवीन अनुच्छेद 48 ‘क’ और जोड़ा गया है जिसमें कहा गया है कि राज्य पर्यावरण की रक्षा और उसमें सुधार करने तथा देश के वन्य जीव और वनों की सुरक्षा के लिए प्रयत्न करेगा। 

 

(ग) पंचायतीराज , प्राचीन स्मारकों तथा न्याय से सम्बन्धित निर्देशक तत्त्व :-

           देश के पंचायती राज के विकास, प्राचीन स्मारकों की रक्षा तथा न्याय की प्राप्ति के उद्देश्य से भी संविधान में कुछ निर्देशक तत्त्वों का वर्णन किया गया है, जो इस प्रकार है :-

  1. अनुच्छेद 40 के अनुसार राज्य, ग्राम पंचायतों के गठन के लिए प्रयत्न करेगा और उनको ऐसी शक्तियाँ तथा अधिकार प्रदान करेगा जिससे कि वे स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य कर सकें। 
  2. अनुच्छेद 49 में कहा गया है कि राज्य का यह दायित्व होगा कि वह प्रत्येक स्मारक अथवा स्थान, कलात्मक अथवा ऐतिहासिक रुचि की वस्तुओं की जिन्हें संसद ने राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित कर दिया हो, रक्षा करे और उन्हें नष्ट होने, कुरूप बनाने अथवा उनका निर्यात करने से रोकने का प्रयत्न करे। 
  3. अनुच्छेद 50 में कहा गया है कि राज्य न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक् करने का प्रयत्न करेगा। इसका उद्देश्य न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को सुरक्षित करना है।

 

(घ) अन्तर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा सम्बन्धी सिद्धान्त :-  

        अन्तर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की दृष्टि सविधान के अनुच्छेद 51 में जिन निर्देशक तत्वों को अपनाया गया है, वे इस प्रकार है :-

  1. राज्य अन्तर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की वृद्धि के लिए प्रयत्न करेगा। 
  2. राज्य संसार के विभिन्न राष्ट्रों के मध्य न्यायपूर्ण व सम्मानपूर्ण सम्बन्धों को बनाये रखने का प्रयत्न करेगा। 
  3. राज्य , राष्ट्रों के आपसी व्यवहार में अन्तर्राष्ट्रीय कानून और सन्धियों के प्रति आदर की भावना बढ़ाने का प्रयत्न करेगा।
  4. राज्य अन्तर्राष्टीय विवादों को मध्यस्थता द्वारा सुलझाने के लिए प्रोत्साहन देगा। 

       निर्देशक तत्त्वों के उपयुक्त वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि इन सिद्धान्तों के आधार पर भारत में वास्तविक लोकतन्त्र की स्थापना हो सकेगी। इन सिद्धान्तों के कार्यान्वयन से भारत, संविधान की प्रस्तावना के अनुरूप एक लोककल्याणकारी राज्य बन सकेगा। 

 

राज्य के नीति निर्देशक तत्वों का कार्यान्वयन :- यद्यपि राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व विधि द्वारा प्रवर्तनीय नहीं है,किन्तु लोक कल्याणकारी राज्य के उद्देश्यों की पूर्ति हेतु इनको क्रियान्वित किया जाना अपेक्षित है। 

 

राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों का महत्त्व :-

     संविधान निर्माता राजनीतिक लोकतन्त्र के साथ – साथ सामाजिक एवं आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना भी चाहते थे। नीति निर्देशक तत्त्व, कार्यपालिका व व्यवस्थापिका के लिये अनुदेश पत्र हैं, जिनके कारण राज्य सरकार चाहे किसी भी दल की बने, वह इन तत्वों को ध्यान में रखकर ही नीतियों व कार्यक्रम का निर्धारण कर नीति निर्देशक तत्त्वों के उद्देश्यों को क्रियान्वित करने का प्रयास करते है। 

 

मूल अधिकार व नीति निर्देशक तत्त्वों में अन्तर :-

             मूल अधिकार व नीति निर्देशक तत्त्व दोनों ही नागरिकों के कल्याण तथा विकास में सम्बन्धित है तथा नागरिकों का जीवन श्रेष्ठ बनाने के लिये प्रतिबद्ध है, फिर भी दोनों में अन्तर है :- 

  1. मौलिक अधिकार वाद योग्य हैं लेकिन निर्देशक तत्व वाद योग्य नहीं है। 
  2. मौलिक अधिकार नागरिकों के कानूनी अधिकार है लेकिन निर्देशक तत्त्व समाज के नैतिक बन्धन हैं। 
  3. मौलिक अधिकार व्यक्ति के व्यक्तिगत अधिकार है लेकिन निर्देशक तत्त्व राज्य की नीतियों के निर्धारण में पथ प्रदर्शक हैं। 
  4. मौलिक अधिकार राजनीतिक लोकतन्त्र के प्रतीक है लेकिन निर्देशक तत्त्व सामाजिक आर्थिक लोकतन्त्र के प्रतीक हैं। 

 

मूल अधिकारों व राज्य नीति के निर्देशक तत्त्वों में सम्बन्ध:- 

             संविधान के भाग तीन में मूल अधिकार और भाग चार में राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व वर्णित हैं। संविधान निर्माताओं ने इन दोनों भागों को एक दूसरे का पूरक माना है। ये सम्मिलित रूप से कल्याणकारी लोकतांत्रिक राज्य के निर्माण की योजना प्रस्तुत करते हैं। न्यायाधीश गजेन्द्र गड़कर का मत था कि दोनों भागों में यदि गतिरोध हो तो न्यायालय को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जिससे दोनों में सामंजस्य स्थापित हो जाए। सन् 1967 में गोलकनाथ वाले वाद में न्यायपालिका ने अधिकारों को सर्वोच्च एवं संसद द्वारा असशोधनीय घोषित कर दिया था। सन् 1973 में केशवानन्द भारती वाले वाद में न्यायालय द्वारा यह घोषित किया गया कि संसद द्वारा संविधान के किसी भी भाग में परिवर्तन या संशोधन तो किया जा सकता है, किन्तु संविधान के मूल ढांचे में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता। 42 वें संविधान संशोधन द्वारा नीति निर्देशक तत्त्वों को मूल अधिकारों पर वरीयता दी गई थी किन्तु बाद में मिनर्वा मिल्स वाले वाद में उच्चतम न्यायालय ने मूल अधिकारों पर नीति निर्देशक तत्त्वों की सर्वोच्चता को समाप्त कर यह स्पष्ट कर दिया कि संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति असीमित नहीं है। वह मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं कर सकती है। वर्तमान में न्यायपालिका द्वारा मूल अधिकारों की व्याख्या नीति निर्देशक तत्त्वों के सन्दर्भ में की जा रही है क्योंकि मूल अधिकार एवं नीति निर्देशक तत्त्व एक दूसरे के विरोधी नहीं वरन् पूरक हैं।


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