सम्बन्धों में जहाँ कुछ स्थायी भाव और प्रकृति के सम्बन्ध हैं तो कुछ सम्बन्ध समय और परिस्थितियों के साथ बदलते भी रहते हैं।
पारिवारिक सम्बन्ध जहाँ हमें कुछ जन्मजात स्वभावगत आदतें देते हैं तो दूसरी ओर जन्म से लेकर आज तक हम इन सभी रिश्तों से प्रभावित होकर कुछ न कुछ सीखते हैं
हमें सम्बन्धों की गहनता व गम्भीरता को समझते हुए अपनी पहचान की तटस्थता का ध्यान रखना भी जरूरी है।
कई बार देखने में आता है कि एक दूसरे की इच्छाओं, आवश्यकताओं व अपेक्षाओं के प्रति हमारी लापरवाही के कारण परिवार में तनाव व अशांति का वातावरण बनता है।
परिवार में अक्सर किशोर-किशोरी अपनी बात बेहिचक नहीं कह पाते तथा अनजाने डर व भ्रान्तियाँ पालते रहते हैं।
कई बार पीढ़ी अन्तराल व सोच के अन्तर के कारण माता-पिता हमारी इस नवीन जीवन शैली को नापसन्द करते हैं तथा परिवार में आपसी तालमेल नहीं रह पाता।
सामाजिक और वैचारिक परिवर्तन के कारण दो पीढ़ियों के मध्य अन्तर होना स्वाभाविक है।
माता-पिता तथा अन्य सम्बन्धियों के साथ हम जितना अधिक वातार्लाप करते हैं उतना ही उनके अनुभवों व विचारों से हम लाभ भी उठा सकते हैं।
माता के प्यार, पिता के दुलार और भाई -बहिन के पवित्र रिश्ते में सुख-शांति व सही मार्गदर्शन का वातावरण सृजित होता है।
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