मीराबाई का जन्म मारवाड़ (राजस्थान) के कुड़की नाम के गाँव में सन् 1503 ई. में एक राजपरिवार में हुआ था। उनके पिता रतनसिंह राठौड़ मेड़ता के शासक थे।

मीरा का विवाह सन् 1516 ई. में 13 वर्ष की आयु में सामाजिक रीति-रिवाज के अनुसार बसंत पंचमी के दिन सिसौदिया वंश के प्रसिद्ध राणा संग्राम सिंह (राणा साँगा) के पुत्र व चित्तौड़ के राजकुमार भोजराज के साथ हुआ।

मीरा बचपन से ही श्रीकृष्ण की पूजा करना अपना अधिकार मानती थी। उसके मायके के किसी भी व्यक्ति ने उसकी राह में कोई विघ्न नहीं डाला था। अपितु वे मीरा को इस कृष्ण भक्ति के लिए प्रोत्साहित ही करते थे। परंतु उसकी ससुराल में स्थिति इसके उलट थी।

मीरा ने बाल्यकाल से ही भगवान् श्रीकृष्ण को माधुर्य भाव से स्वीकार किया था। अपने विवाह के समय भी उसने यह दर्शाया कि वह श्रीकृष्ण से ही विवाह कर रही है।

पति की मृत्यु के बाद मीरा पर उसके परिवारजनों ने सती होने के लिये बहुत दबाव डाला, लेकिन वे इसके लिए सहमत नहीं हुईं। उसको विभिन्न प्रकार से प्रताड़ित किया गया।

एक बार विक्रमाजीत ने अपनी बहन ऊदाबाई की सलाह पर मीरा के पास विष से भरा प्याला भिजवाया। मीरा उसे प्रभु का प्रसाद समझ कर पी गई। विष निष्प्रभावी हो कर अमृत में बदल गया।

फिर राणा ने मीरा के पास एक भयंकर विषधर साँप सुन्दर फूलों की पिटारी में भेजा। मीरा पूजा में व्यस्त थी। उसने अपना हाथ टोकरी में डाला और कुछ फूल निकाले। कितना आश्चर्य था कि वह साँप शालिग्राम के रूप में बदल गया।

मीरा मात्र कृष्ण भक्त ही नहीं, एक सक्षम कवयित्री भी थीं। उनकी शब्द संवेदना, रचना व काव्य भारतीय साहित्य की अनमोल निधि है। उनका श्रीकृष्ण के प्रति अगाध श्रद्धा, प्रेम व समर्पण उनकी रचनाओं से सहज ही बरसता है।

मीराबाई ने 11 रचनाओं का सृजन किया, परन्तु ‘गीत गोबिन्द की टीका’, ‘नरसी जी का मायरा’, ‘नरसी मेहता की हुण्डी ‘ ‘रुकमणि मंगल’ आदि कृतियाँ प्रमुख हैं। गीत काव्य की दृष्टि से ‘ पदावली’ उनकी सर्वोत्तम रचना है।

कलियुग की इस राधा ने जीवन के संघर्ष को ईश्वरीय प्रेम मानकर सहर्ष स्वीकार किया और भारतीय नारी के अलौकिक आदर्श को प्रस्थापित किया।